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‘‘चीन के शातिर रणनीतिकारों ने भूटान में पैर पसारने की गरज से सीमा विवाद का मुद्दा उछाला है और उसकी आड़ में भारत को लपेटने की कोशिश की है। सिलिगुड़ी से सटी सीमा पर भारतीय फौजी दस्तों की पहले से रही तैनाती के बहाने दी गई चीन की घुड़की उसे महंगी पड़ सकती है। क्योंकि 1962 के बाद से चीजें बहुत बदल चुकी हैं।’’
मारूफ रजा
भारत के साथ चीन आज जो बर्ताव कर रहा है, वह नया नहीं है। वह हर समय भारत पर दबाव बनाने की कोशिश करता है। इसके पीछे चीन की एक सोची-समझी चाल है। वह जब भी किसी देश पर इस तरह का दबाव डालता है और उस देश से प्रतिरोध नहीं होता तो वह धीरे-धीरे उसकी जमीन पर अपना दावा जताने लगता है। ऐसा केवल भारत के साथ नहीं है। उसने जापान पर यह नुस्खा अपनाया और अब भूटान के साथ भी वही कर रहा है। चीन अपने हिसाब से चलता है। दुनिया के कानून उसके लिए कोई मायने नहीं रखते। चीन खुद को शक्तिशाली समझने लगा है। इसलिए वह दुनिया की स्थापित प्रणाली और कानून के मुताबिक चलना ही नहीं चाहता।
दक्षिण चीन सागर का ही उदाहरण लें। अंतरराष्ट्रीय ट्रिब्यूनल ने साफ कहा कि चीन वहां गलत कर रहा है। वह किसी भी देश के हिस्से में आने वाले समुद्री इलाके को हथिया नहीं सकता, वह ऐसा न करे। लेकिन चीन पर इसका कोई असर नहीं हुआ। वह इसे मानने को तैयार ही नहीं है। उसका मानना है कि ऐतिहासिक तौर पर जिस हिस्से पर वह अपना दावा जता रहा है, दुनिया भी उसे माने। जापान के सेनकाकू द्वीप को लेकर भी उसने विवाद खड़ा किया। इसके अलावा, काफी वर्षों तक रूस के साथ भी उसका सीमा विवाद रहा। चूंकि उस समय रूस ज्यादा ताकतवर था, इसलिए वह चीन पर दबाव डालने में सफल रहा और चीन को पीछे हटना पड़ा। भारतीय हिस्से पर भी चीन जहां-तहां अपना दावा जताने की कोशिश कर रहा है। दरअसल, चीन और पाकिस्तान एक होकर सोची-समझी रणनीति के तहत कश्मीर और तिब्बत की तरफ से दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं। यहां भी चीन यही सोचता है कि जिस भारतीय भू-भाग पर वह दावा जता रहा है, सब उसे ही सही मानें, उसे कोई रोके नहीं।
दूसरी बात, भूटान के साथ भारत के नजदीकी संबंध रहे हैं। इसलिए उसने इस बार नया पैंतरा आजमाया है। एक ओर वह डोकलांग समझौते को धता बता कर भूटान की सीमा में सड़क निर्माण कर रहा है तो साथ ही भारत पर भी दबाव डाल रहा है। उसे लगता है कि अगर भारत दबाव में आ गया तो दक्षिण चीन सागर से सटे वियतनाम, फिलीपींस के अलावा अन्य देश जो भारत का पक्ष ले रहे हैं, अपने आप दरकिनार हो जाएंगे। चीन सोचता है कि अगर वह इन देशों पर भी दबाव डालेगा तो भारत मदद करने में हिचकेगा। यही सब सोचकर चीन ऐसी हरकतें कर रहा है।
तीसरी बात, सिक्किम ऐसा इलाका है जहां उसने अपनी सड़कें आदि बना लीं तो भारत के साथ युद्ध की सूरत में वह सिलिगुड़ी गलियारे से दबाव बना सकेगा, जहां भारत की सीधी पहुंच है। चीन की राजनीति और रणनीति बिल्कुल स्पष्ट है। वह बखूबी जानता है कि उसे कब और क्या करना है। जब उसे लगता है कि कोई देश उसके साथ मुकाबला करने से हिचक रहा है या डर रहा है तो वहां वह आक्रामक रुख अपनाता है।
लेकिन मौजूदा भारत सरकार ने कुछ कड़े कदम उठाए हैं। पहली बार देखने में आ रहा है कि भारत सरकार ने चीन के खिलाफ इतनी ठोस घोषणाएं की हैं। भारत के इस रुख से चीन को झटका लगा है। लिहाजा वह इस बात पर विचार कर रहा होगा कि अब कौन-सी रणनीति अपनाई जाए। चीन ने इसी के तहत 30 जून को दूसरा दांव चला था यानी एक नया नक्शा जारी किया, जिसमें मौजूदा गतिरोध वाली जमीन को उसने अपना बताया। साथ ही, भारत-चीन-भूटान त्रिकोणीय मिलन बिन्दु पर भी दावा जताया है, जबकि सिक्किम क्षेत्र में स्थित डोकलम पठार भारत और भूटान अपना हिस्सा मानते हैं।
पुराने समझौतों से मुंह फेरा
दरअसल, भारत और चीन की सरकारों के बीच 1914 में शिमला समझौता हुआ था। इसमें एक नक्शे पर चीनी प्रतिनिधियों ने हस्ताक्षर किए थे। वह सबसे पुराना नक्शा है। लेकिन चीन ने उसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया। इसके बाद भारत लगातार कई वर्षों से चीन को नक्शे दे रहा है, परन्तु वह उन्हें मानने को तैयार नहीं है। इसके लिए कम से कम 15 संयुक्त बैठकें भी हो चुकी हैं। इसी तरह भूटान के साथ भी 1988 और 1998 में चीन ने दो समझौते किए थे। लेकिन इसके उलट वह अब नया नक्शा लेकर आया है। चीन की बात पर भरोसा कैसे किया जा सकता है? अगर वह कहेगा कि पूरा एशियाई क्षेत्र उसका है तो क्या हम मंजूर कर लेंगे? चीन की प्रोपेगेंडा मशीनरी सुनियोजित तरीके से काम करती है। उसके फौजी कमांडर को जितना निर्देश मिलता है, वह उतना ही काम करता है। इसलिए अभी तक चीनी फौज के किसी भी कमांडर ने अपनी तरफ से सीमा पर ज्यादा हरकत नहीं की है। इन कमांडरों को निर्देश दिए जाते हैं कि जहां-जहां भारत झिझक दिखाए, वहां-वहां घुसते चले जाओ।
चीन अगर ‘1962 के युद्ध से बुरे परिणाम’ की धमकी देता है तो उसे मालूम होना चाहिए कि भारत भी हर लिहाज से आगे निकल चुका है। चाहे वह वित्तीय स्थिति हो या सामरिक। चीन को यह याद रखना चाहिए कि इसी तिब्बत क्षेत्र में नाथूला दर्रे में भारत के साथ जब उसकी झड़प हुई थी तो उसे कैसे मुंहतोड़ जवाब मिला था। उस समय चीन को पीछे हटना पड़ा था। 20 साल बाद 1987 में सुंदरम चू से चीनी सैनिकों ने घुसपैठ की कोशिश की थी, तब भी उसे पीछे हटना पड़ा था। लेकिन चीन इन घटनाओं का न तो जिक्र करता है और न ही भारत की ओर से उसे यह याद दिलाया जाता है। कुल मिलाकर हर दसेक साल में चीन इसी इलाके के आसपास घुसपैठ की कोशिश करता है। वह कहता है कि भारत ने सिक्किम का इलाका भी हड़प लिया है। सवाल यह है कि अगर उसे इतनी ही तकलीफ थी तो 2003 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी बीजिंग गए थे तो उसने क्यों कहा कि सिक्किम भारत का हिस्सा है? अब उसके रुख में बदलाव क्यों? इसके अलावा, चीन को यह भी याद रखना चाहिए कि 1979 में वियतनाम के साथ युद्ध में उसे कैसे मुंह की खानी पड़ी थी।
भारत-अमेरिका संबंधों से सकते में
भारत को यह ध्यान रखना चाहिए कि चीन की नीति बदलती रहती है। भारत को उसे स्पष्ट रूप से बता देना चाहिए कि जिस तरह तुमने नक्शा जारी किया है, हम भी अपना नक्शा जारी करते हैं। अगर आपसी सहमति से इसका निबटारा करना है तो ठीक है। अगर युद्ध चाहते हो तो हम तैयार हैं। चीन के रुख में अचानक बदलाव के पीछे भारत-अमेरिका के बीच बढ़ती नजदीकी भी एक वजह है। चीन जानता है कि जॉर्ज बुश के समय से ही अमेरिका भारत को अपना रणनीतिक साझीदार बनाने के प्रयास में जुटा है। इसे लेकर चीन ने कई बार भारत को धमकी दी है। साथ ही, यह जताने की भी कोशिश की है कि अगर अमेरिका के साथ भारत के सामरिक संबंध प्रगाढ़ हुए तो वह भारत के लिए समस्या खड़ी कर सकता है। वास्तव में दोनों देशों के बीच बढ़ती नजदीकी से चीन असुरक्षित महसूस कर रहा है। वह अपनी सबसे बड़ी कमजोरी को बखूबी समझता है। खाड़ी से जिस समुद्री रास्ते से चीन के तट पर तेल आता है, वह हिंद महासागर से होकर गुजरता है। इस रास्ते पर भारतीय नौसेना का नियंत्रण है। भारत-अमेरिका के बीच अगर सुरक्षा संबंध प्रगाढ़ हुए और जापान भी इसमें शामिल हो गया तो चीन का इस समुद्री मार्ग से व्यापार ठप हो जाएगा। इसलिए वह डरा हुआ है। जब तक ‘वन बेल्ट, वन रोड’ (ओबीओआर) और चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा पूरी तरह तैयार नहीं हो जाता, तब तक उसका यह डर खत्म नहीं होगा। पाकिस्तान के रास्ते ग्वादर तक चीन जो सड़क बना रहा है, उसे तैयार होने में करीब 4-5 साल लग जाएंगे। अगर इस दौरान भारत-अमेरिका करीब आ गए और मालाबार अभ्यास शुरू हो गया, जिसमें जापान को भी शामिल होना है, तो चीन और असहज स्थिति में आ जाएगा। कुछ साल पहले भी चीन ने भारत को धमकी दी थी कि वह इन देशों के साथ सैन्य अभ्यास न करे। उस समय भारत संयुक्त सैन्य अभ्यास से पीछे हट गया था। दरअसल, भारत उसकी धमकियां सुनता आया है, क्योंकि साउथ ब्लॉक में कुछ ऐसे अफसर थे जिनके दिमाग में यह बात बैठी हुई थी कि हम चीन का मुकाबला नहीं कर सकते। लेकिन बीते कुछ साल में नीतियों में कुछ बदलाव हुए हैं। इसके तहत भारत ने अपने सीमान्त इलाकों में विकास के काफी कार्य किए हैं, चाहे वह अरुणाचल प्रदेश हो या सिक्किम का इलाका, उससे चीन घबराया हुआ है। वह सोचता है कि भारत तेजी से लद्दाख तक विकास कार्य पहुंचाकर ऐसी स्थिति में आ जाएगा, जहां वह तत्काल बड़ी तादाद में फौज को पहुंचा सकता है। इसलिए वह भारतीय सीमाओं तक शीघ्रता से सड़कें बना लेना चाहता है ताकि अगर युद्ध की नौबत आए तो वह भारी संख्या में अपनी सेना को भारतीय सीमा तक पहुंचा सके। फिलहाल सीमा से चीन का फासला अधिक है और भारत का कम। भारतीय सीमा तक पहुंचने के लिए उसे बहुत समय चाहिए। अभी ल्हासा या अन्य रास्ते से चीनी सैनिकों को सीमा तक आने में भारत से दो-तीन गुना अधिक समय लगता है।
1958-59 के दौरान चीन ने इसी तरह अक्साईचिन वाले इलाके में सड़क बनाई थी। तत्कालीन नेहरू सरकार को इसकी जानकारी थी, लेकिन उसने किसी को इस बारे में बताया नहीं। इसी के बाद जब 1962 में भारत-चीन युद्ध हुआ तो चीन ने आसानी से उस हिस्से पर कब्जा कर लिया। अभी भी उसकी वही सोच है। वह चाहता है कि सीमा पर तनाव बढ़े और वह आसानी से सीमान्त इलाकों में अपने सैनिकों को ले आए ताकि भारत उसका मुकाबला न कर सके। लेकिन स्थिति अभी उसकी सोच के उलट है। भारतीय सेना चीन से लगती सीमाओं पर मुस्तैद है और सीमा की सुरक्षा और चीन से मुकाबला करने में सक्षम है।
रणनीति बदलने की जरूरत
सीमा विवाद में युद्ध की संभावना बनी रहती है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। चीन सोचता है कि युद्ध की नौबत आने पर वह भारत पर दबाव बनाने और उसकी अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचाने में सफल हो जाएगा। चीन भारत को अभी भी 1962 वाला देश ही समझ रहा है। सच तो यह है कि उस समय फौज को लड़ने ही नहीं दिया गया था। उस समय सैन्य अभियान की कमान राजनीतिक नेतृत्व ने अपने हाथ में ले ली थी। कई फौजी कमांडरों ने अपनी जिम्मेदारी पूरी तरह नहीं निभाई थी। सेना की कमान तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और रक्षा मंत्री वी.के. कृष्णमेनन के हाथों में थी। व्यवस्था ही ऐसी थी कि सेना लड़ने से पहले ही हार बैठी थी। अब वैसे हालात नहीं हैं। बहरहाल, भारत को चाहिए कि दक्षिण चीन सागर को लेकर जिन देशों के साथ उसकी अनबन है, उनके साथ तेजी से अपने संबंध बेहतर करे। साथ ही, उन देशों को साथ मिलाकर चीन के खिलाफ एक संयुक्त मोर्चा बनाए ताकि उस पर दबाव बनाया जा सके।
युद्ध में दो तरह के हालात होते हैं-रक्षात्मक या आक्रामक। यदि भारत आक्रामक रुख अपनाता है तो आगे बढ़ने के लिए पीछे से सहायता पहुंचना जरूरी है। इसके लिए अच्छे रास्तों की जरूरत पड़ती है, जिससे अग्रिम मोर्चे पर लड़ रही फौज को रसद-सामग्री के साथ हथियार, गोला-बारूद और अन्य जरूरी चीजें पहुंचाई जा सकें। लेकिन रक्षात्मक होने की सूरत में ऊंची चोटियों पर कब्जा बनाए रखने के लिए पांच से दस गुना कम सैनिकों की जरूरत पड़ती है। इस हिसाब से भारतीय सैनिक पर्याप्त संख्या में पहाड़ी इलाकों में मौजूद हैं। इसलिए चीन भारतीय सीमा में घुस नहीं सकता। लेकिन चीनी सीमा में घुसने के लिए हमें अपनी काबिलियत और बढ़ानी पड़ेगी।
लाल फीताशाही दूर हो
दरअसल चंद सरकारी अधिकारी देश की अंदरूनी कमजोरी हैं। ये सरकार को सही वस्तुस्थिति के बारे में नहीं बताते। सरकार में बैठे शीर्ष अधिकारियों का मानना है कि चीन के साथ व्यापार से हमारी अर्थव्यवस्था को नुकसान नहीं होगा। लेकिन वास्तविकता यह है कि चीन के साथ व्यापार से भारत को कम फायदा है, जबकि उसे दो-तिहाई फायदा हो रहा है। अगर चीन के साथ व्यापार ही करना है तो उसे साफ-साफ कहना होगा कि उसका जो भी सामान भारत आएगा, उस पर उसे ज्यादा कर देना होगा। ऐसा करते ही भारत के प्रति चीन का नजरिया बदल जाएगा। दूसरी जरूरी बात यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश नीति का लक्ष्य सामरिक नहीं, बल्कि आर्थिक है। हम अभी भी चीन के साथ संबंध सुधारने की बात करते हैं। इसके बजाय सख्त नीति अपनाने की जरूरत है। भारत को व्यापक चीन विरोधी नीति अपनानी चाहिए। चीन हर साल परमाणु हथियारों में इजाफा करता जा रहा है और पाकिस्तान में भारी-भरकम रकम का निवेश कर रहा है। चीनी-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे पर ही वह 44 से 60 अरब डॉलर खर्च कर रहा है। खूंखार आतंकी मसूद अजहर को भी समर्थन दे रहा है। इसके अलावा, एनएसजी में वह भारत के लिए सबसे बड़ी बाधा बना हुआ है। ऐसी स्थिति में उसके आगे झुकने का कोई सवाल नहीं उठता। भारत को भी उसके खिलाफ सख्त कदम उठाने चाहिए। भारत को कहना चाहिए कि मिसाइल प्रौद्योगिकी नियंत्रण व्यवस्था (एमटीसीआर) में चीन को तब तक सदस्यता नहीं मिलनी चाहिए जब तक वह भारत के सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य बनने के रास्ते में बाधक है। बता दें कि एमटीसीआर एक बहुपक्षीय निर्यात नियंत्रण व्यवस्था है और भारत इसका सदस्य है। इसके अलावा, चीन के साथ मौजूदा व्यापार में भी कटौती के साथ यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि यदि वह भारत के साथ छेड़छाड़ करेगा तो समुद्र से तेल मार्ग को बंद कर दिया जाएगा।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारी विदेश सेवा इतनी छोटी है कि इसके भरोसे लंबी पारी की उम्मीद नहीं की जा सकती। भारत की विदेश सेवा संख्या में सिंगापुर से भी छोटी है। यानी भारत के पास अधिकारी ही नहीं हैं तो कूटनीति कैसे संभव होगी, क्योंकि कूटनीति से ही व्यापार बढ़ता है, वैश्विक रिश्ते बनते हैं और यही एक माध्यम है जिसके जरिये दुनिया के किसी देश की बात पहुंचाई जा सकती है। पिछली और मौजूदा सरकार भी विदेश सेवा अधिकारियों को संख्या बढ़ाने का निर्देश दे चुकी है।
लेखक जाने-माने रक्षा विशेषज्ञ हैं
(नागार्जुन से बातचीत पर आधारित)
सिक्किम सीमा से सेना हटाने तक भारत के साथ सीमा विवाद पर कोई बातचीत नहीं होगी। भारतीय सेना चाहे तो सम्मान के साथ अपनी सीमा में लौट सकती है, वरना भारत युद्ध के लिए उकसाता है तो उसे 1962 से अधिक नुकसान झेलना पड़ेगा।
—लु कांग, चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता
सिक्किम सीमा पर तनातनी बीजिंग ने पैदा की है। भूटान ने कहा है कि चीन इलाके में स्थिति बदलने का प्रयास कर रहा है। यदि वे हमें 55 साल पहले की याद दिलाने का प्रयास कर
रहे हैं तो 1962 और 2017 के भारत में बहुत अंतर है।
—अरुण जेटली, रक्षा मंत्री, भारत
चीन के मुकाबले हम कहां?
चीन एक बड़ी आर्थिक शक्ति है और उसके आसपास पहुंचने में हमें अभी काफी साल लग जाएंगे। चूंकि हम एक लोकतांत्रिक देश हैं इसलिए कोई भी सुधारवादी कदम उठाने तक लंबी प्रक्रिया, चर्चाओं से गुजरना पड़ता है, जिसमें काफी समय लग जाता है। लेकिन चीन में ऐसा नहीं है। वहां सरकारी नीतियों का कोई विरोध नहीं कर सकता। इसलिए योजनाओं के क्रियान्वन में कोई बाधा नहीं आती। दूसरी बात यह कि अपने यहां एक खिड़की प्रणाली लागू करने के बाद चीन को बहुत फायदा हुआ। प्रक्रिया आसान होते ही चीन में बड़े पैमाने पर निवेश हुआ, लेकिन भारत में अभी तक ऐसी व्यवस्था नहीं है। चीन में जो काम एक-दो दिन में होता है, उसी काम में हमारे यहां वर्षों लग जाते हैं। अगर हमें चीन को टक्कर देनी है तो निवेश आकर्षित करने के लिए भारत को अपने नियम-कानूनों और प्रक्रियाओं को आसान बनाना होगा। तीन साल पहले जब मोदी अमेरिका गए थे तो उन्होंने भारतीय रेलवे नेटवर्क को विकसित करने के लिए इसमें निवेश की घोषणा की थी। इसके लिए अमेरिकी कंपनियों को रेलवे में निवेश का न्योता दिया गया था, लेकिन तीन साल बाद भी इस बारे में कोई ठोस कार्य योजना नहीं बन सकी है।
साथ ही, भारत को एक ठोस विदेश नीति बनाने की जरूरत है। अगले 5-10 वर्षों में वैश्विक स्तर पर हम कहां पहुंचना चाहते हैं, इसके लिए हर पांच साल पर विदेश सेवा अधिकारियों के कार्यों और उपलब्धियों की समीक्षा होनी चाहिए। विदेश नीति के अलावा देश की अंदरूनी व्यवस्था और पुलिस सुधार के साथ सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को तरजीह देते हुए निजी क्षेत्र की कंपनियों के साथ तालमेल बैठाना होगा। इस सबके बावजूद चीन समझ ले कि आज का भारत एक संप्रभु, स्वाभिमानी और सशक्त राष्टÑ है, जिसकी एकता, भौगोलिक अखंडता से छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं की जाएगी और अगर कोई हेकड़ी दिखाता है तो उसे यह सौदा महंगा पड़ेगा।
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