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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 4 जुलाई से इस्रायल के दौरे पर हैं। वे भारत के पहले प्रधानमंत्री होंगे जो इस यहूदी देश की यात्रा कर रहे हैं। कूटनीतिक रूप से अहम इस यात्रा से मिलेगी दोनों देशों को मजबूती
प्रशांत बाजपेई
भारत के प्रधानमंत्री, मेरे मित्र नरेंद्र मोदी इस्रायल आ रहे हैं। यह एक ऐतिहासिक यात्रा है। देश के 70 साल के इतिहास में किसी भारतीय प्रधानमंत्री का आगमन नहीं हुआ है।’’ जब अमेरिका में मोदी और ट्रम्प की मुलाकात मीडिया में सुर्खियां बना रही थी, उस समय इस्रायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू का यह वक्तव्य आया। नेतन्याहू के बयान की प्रतिबद्धता को दर्शाते हुए इस्रायल सरकार ने भारत-इस्रायल संबंधों को मजबूत करने हेतु 280 मिलियन निस (न्यू इस्रायली शेकेल; इस्रायली मुद्रा) का कोष स्थापित किया।
जहां तक भारत की बात है, इस्रायल की ओर खुलने वाली खिड़की पर दशकों से पड़े परदे हटा दिए गए हैं और अब उस ओर भव्य गलियारा बनकर तैयार है। मोदी के येरुशलम पहुंचने के पहले राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल, कृषि मंत्री और नौसेना अध्यक्ष इस्रायल हो आए हैं। 2014 में नयी सरकार के गठन के साथ भारत की विदेशनीति ने आक्रामकता और धार के साथ जिस दिशा में चलना शुरू किया है, उस रास्ते में इस्रायल भी आता है। इस्रायल को लेकर मोदी सरकार की तैयारियां पहले से जारी रही हैं। अक्तूबर, 2015 में राष्टÑपति प्रणब मुखर्जी की इस्रायल यात्रा भारत के किसी राष्टÑाध्यक्ष की इस यहूदी राष्टÑ में पहली यात्रा थी। नवम्बर, 2016 में इस्रायल के राष्टÑपति रूवेन रिवलिन भारत आए थे। यानी सिलसिला चल पड़ा है। खास बात है यह कि इस दौरे में मोदी इस्रायल के अलावा और कहीं नहीं रुकने वाले, फिलिस्तीन भी नहीं, जैसा कि भारत से इस्रायल जाने वाले राजनयिकों की परम्परा रही है। भारत समेत दुनियाभर की मुस्लिम राजनीति में नफरत की हद तक यहूदी इस्रायल का विरोध मान्यता प्राप्त औपचारिकता के रूप में स्थापित है। यह अलग बात है कि इस्रायल की आबादी में 17 प्रतिशत मुस्लिम हैं जो दूसरे नागरिकों की तरह विश्वस्तरीय सुविधाओं के बीच एक लोकतांत्रिक समाज में जीवनयापन कर रहे हैं।
नया दौर
पाकिस्तान, आतंकवादियों और ‘भारत की बर्बादी’ के नारे लगाने वालों से सहानुभूति रखने वाले देश के अनेक राजनेता इस्रायल को किसी महामारी की तरह देखते-दिखाते आए हैं। कारण एक ही रहा है—गट्ठा वोटबैंक का लालच। 2014 में जब गाजा में हमास और इस्रायली सुरक्षाबलों की भिड़ंत खबरें बना रही थी, तब भारत के कुछ नेता संसद को सिर पर उठाए हुए थे। वामपंथी नेता डी.राजा और कांग्रेस के गुलामनबी आजाद मांग कर रहे थे कि राज्यसभा में इस्रायल के विरुद्ध निंदा प्रस्ताव लाया जाए। माकपा नेता सीताराम येचुरी इस्रायल से शस्त्रखरीद के समझौतों को रद्द करने की टेक लगाए हुए थे। तृणमूल कांग्रेस के अहमद हसन चाहते थे कि मोदी सरकार इस्रायल के खिलाफ संयुक्त राष्टÑ में आवाज उठाए। एक लोकतांत्रिक देश के खिलाफ आग उगलते इन नेताओं को इस्लामिक स्टेट, तालिबान, यहां तक कि पाकिस्तान की आईएसआई के भी खिलाफ बोलते हुए शायद ही सुना गया हो। जुलाई, 1992 में कांग्रेस द्वारा उपेक्षित और विस्मृत पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हाराव ने इस्रायल के साथ भारत के राजनयिक संबंधों की शुरुआत की। लेकिन इस रिश्ते को सात परदों में छिपाकर रखा गया। अटल सरकार के समय 1996 में इस्रायल के राष्टÑपति वीज्मैन भारत आने वाले इस्रायल के पहले राष्टÑाध्यक्ष बने और 2003 में अटल जी के ही कार्यकाल में प्रधानमंत्री शैरोन भारत आए। उसके बाद संप्रग सरकार का दौर पुराने ढर्रे को लौटा लाया। भारत की राजनीति के इस पुराने पाखंड को समाप्त कर मोदी ने एक अच्छी पहल की है।
समय की कसौटी पर खरा एक मित्र
गौर करने लायक बात है कि गुटनिरपेक्षता के बीते दशकों से अपनी अरब झुकाव वाली विदेश नीति के चलते भारत संयुक्त राष्टÑ समेत अन्य वैश्विक मंचों पर इस्रायल के खिलाफ खड़ा दिखता रहा, वहीं इस्रायल आड़े वक्त में भारत का साथ देने से नहीं चूका। शोधवेत्ता गैरी बैस के अनुसार 1971 के भारत-पाक युद्ध में जब अमेरिकी राष्टÑपति निक्सन और उनके सेक्रेटरी आॅफ स्टेट भारत के खिलाफ दुनिया को लामबंद करने में लगे थे, तब इस्रायली प्रधानमंत्री गोल्डा मायर ने भारत को खुफिया तौर पर शस्त्रास्त्र उपलब्ध करवाए थे। पोकरण द्वितीय के समय भी उसने हमारा चुपचाप समर्थन किया। करगिल युद्ध के समय क्लिंटन प्रशासन की बेरुखी के उलट इस्रायल ने अपने ड्रोन विमानों द्वारा पर्वतों पर जमे पाकिस्तानी घुसपैठियों की मोर्चाबंदी के चित्र खींचकर भारत को उपलब्ध करवाए। जून, 2002 में जब भारत और पाकिस्तान की सेनाएं सीमा पर आमने-सामने खड़ी थीं, तब इस्रायल से हमें विशेष विमानों द्वारा आवश्यक सैनिक साजो-सामान की खेप पहुंच रही थी। अब यह खुलकर धन्यवाद कहने का वक्त है।
अरब राजनीति का मिथक
भारत में इस्रायल विरोधी और अरब झुकाव वाली विदेश नीति के समर्थन में कश्मीर प्रश्न और संभावित अरब विरोध का हौवा खड़ा किया जाता रहा है, जबकि तथ्य इसके विपरीत हैं। अरब जगत की खुशामद के गुटनिरपेक्षता के दशकों के दौरान अरब इस्लामी देश और उनका संगठन ओआईसी कश्मीर मामले पर पाकिस्तान का समर्थन करते रहे, जबकि मोदी नीति के दौर में वे पाकिस्तान को ठेंगा दिखा रहे है। वही दौर था जब जुल्फिकार अली भुट्टो भारत के साथ हजार साल तक जंग करने की कसमें खाते हुए अरब जगत से ‘इस्लामी बम’ (परमाणु बम) बनाने के नाम पर खैरात ऐंठते रहे। विडम्बना यह है कि जहां भारत में कथित बुद्धिजीवियों और पत्रकारों का एक वर्ग आज भी अरब राजनीति का हवाला देकर पुराने ढर्रे को बनाये रखने की दुहाई दे रहा है, वहीं दूसरी ओर इस्रायल इस्लामिक स्टेट के खतरे से निबटने के लिए सऊदी अरब और दूसरे अरब देशों से हाथ मिला रहा है। नए खुलासों के अनुसार 2014 की शुरुआत तक ही, इस्रायल और सऊ दी अरब के बीच साझा शत्रु ईरान को लेकर कम से कम पांच गुप्त वार्ताएं हो चुकी थीं। दुनिया के देश अपने हितों को ध्यान में रखते हुए संबंधों को साधते हैं।
इस्रायल के सबसे बड़े हितैषी की पहचान रखने वाले अमेरिका व कई यूरोपीय देश इस्रायल के अरब विरोधियों के साथ अच्छे संबंध रखते आए हैं। आज भारत इस्रायल और उसके प्रथम शत्रु कहे जाने वाले ईरान, दोनों के साथ बहुत अच्छी तरह निभा रहा है। भारत ने पिछले वर्षों में पश्चिम एशिया के दो चिर प्रतिद्वंद्वियों सऊदी अरब व ईरान के साथ द्विपक्षीय संबंध मजबूत किये हैं। उधर पाकिस्तान मोदी के साथ अपने (यूएई और सऊद घराने जैसे) दानदाता अरब ‘मुस्लिम बिरादरों’ की दोस्ती देखकर गश खा रहा है। यानी कि यथार्थ जगत वैश्विक मुस्लिम भाईचारे के कल्पनालोक से बहुत भिन्न है। वैसे अरब जगत को लेकर भारत के परंपरागत सिद्धांतकारों की समझ की गहराई की परख तो आज से लगभग सौ साल पहले खिलाफत आंदोलन के समय ही हो चुकी है, जब अंग्रेजों की मदद से उलट दी गई तुर्की की खिलाफत को पुनर्स्थापित करने के लिए ‘भारत में आन्दोलन’ चलाया गया था और अरब जगत तथा तुर्की की जनता दोनों ने इस खिलाफत आंदोलन और उसके नेताओं को सिरे से ठुकरा दिया था।
सधे हुए कदम
प्रधानमंत्री मोदी ने शुरुआत से सधे हुए कदम बढ़ाए। पहले तीन साल में उन्होंने अरब जगत से संबंध मजबूत किये और अपने नेतृत्व के प्रति भरोसा पैदा किया। आखिर अरब जगत में भारत की व्यापार, सुरक्षा और ऊर्जा आवश्यकताओं से लेकर बहुत कुछ दांव पर है। वे संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब और कतर गए। परराष्टÑ नीति के नेहरूवादी नमूने के अभ्यस्त राजनयिकों को बदलावों को समझने का मौका दिया। उधर अरब जगत में पैठ बढ़ाकर पाकिस्तान पर दबाव बढ़ाया। परिणाम यह हुआ कि कश्मीर पर पाकिस्तान के हालिया स्यापे पर पश्चिम एशिया से कोई पुचकार नहीं आई, और सर्जिकल स्ट्राइक पर भी बाकी दुनिया की तरह उस ओर से कोई सहानुभूति नहीं मिली। चीन की दृष्टि से भी पश्चिम एशिया की ओर बढ़ाया गया हर कदम महत्वपूर्ण है। हाल ही के वर्षों में चीन ने इस क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाया है। ऊर्जा-व्यापार और सुरक्षा से जुड़े इस इलाके में चीन को अकेले खेलने देना गंभीर भूल होगी। भारत अपने पास-पड़ोस और अफ्रीका में चीन से पिछड़ने के दुष्परिणाम देख ही रहा है।
संभावनाओं का आसमान
इस्रायल में भारत मूल के यहूदी बड़ी संख्या में रहते हैं। इस्रायली जब पूर्व की ओर नजर उठाते हैं तो केवल भारत के समाज में उन्हें अपना ऐतिहासिक हितैषी दिखाई पड़ता है। ये दोनों देश मित्रता की कीमत जानते हैं। इतिहास, भूगोल और वर्तमान की चुनौतियां दोनों देशों को साथ ला रही हैं। इस्रायल के एक प्रमुख अखबार ‘द मार्कर’ ने 28 जून को अपने हिब्रू संस्करण में लिखा ‘‘जागो ! दुनिया के सबसे अहम प्रधानमंत्री आ रहे हैं।’’ अखबार ने लिखा कि इस्रायल को ट्रम्प से भी ज्यादा मोदी से उम्मीदें हैं। विश्व योगदिवस भी यहां धूमधाम से मनाया गया था। तो देखते हैं कि दो प्राचीन संस्कृतियों का यह आधुनिक योग क्या रंग लाता है। शुरुआत ‘शैलोम’ से। जिसका अर्थ होता है लय, शांति, पूर्णता और समृद्धि। ल्ल
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