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डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के जन्म दिवस (6 जुलाई) पर विशेष
यह जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की शहादत का ही परिणाम है कि आज हम बिना परमिट जम्मू-कश्मीर आ-जा रहे हैं। 6 जुलाई, 1901 को जन्मे डॉ. मुखर्जी केवल 33 वर्ष की आयु में कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त हुए और विश्व के सबसे युवा कुलपति होने का सम्मान प्राप्त किया। वे 1938 तक इस पद पर रहे।
बाद में उन्हें कांग्रेस प्रत्याशी और कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रतिनिधि के रूप में बंगाल विधान परिषद का सदस्य चुना गया, किंतु कांग्रेस द्वारा विधायिका के बहिष्कार का निर्णय लेने के पश्चात् उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। बाद में उन्होंने स्वतंत्र प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा और निर्वाचित हुए।
जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें अंतरिम सरकार में उद्योग एवं आपूर्ति मंत्री के रूप में शामिल किया। लेकिन नेहरू और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली के बीच हुए समझौते के पश्चात् 6 अप्रैल, 1950 को उन्होंने केंद्रीय मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्रीगुरुजी से परामर्श लेकर 21 अक्तूबर, 1951 को जनसंघ की स्थापना की। 1951-52 के आम चुनाव में जनसंघ के तीन सांसद चुने गए, जिनमें से एक डॉ. मुखर्जी भी थे। डॉ. मुखर्जी भारत की अखंडता और कश्मीर के विलय के दृढ़ समर्थक थे। अनुच्छेद 370 के राष्ट्रघातक प्रावधानों को हटाने के लिए भारतीय जनसंघ ने हिन्दू महासभा और रामराज्य परिषद के साथ सत्याग्रह आरंभ किया। डॉ. मुखर्जी इस प्रण पर सदैव अडिग रहे कि जम्मू एवं कश्मीर भारत का एक अविभाज्य अंग है। उन्होंने नारा दिया था, ''एक देश में दो विधान, दो निशान और दो प्रधान, नहीं चलेगा-नहीं चलेगा।'' उस समय अनुच्छेद 370 में यह प्रावधान किया गया था कि कोई भी भारत सरकार से बिना परमिट लिए जम्मू-कश्मीर की सीमा में प्रवेश नहीं कर सकता। डॉ. मुखर्जी इस प्रावधान के सख्त खिलाफ थे। उनका कहना था कि नेहरू ने ही यह बार-बार ऐलान किया है कि जम्मू एवं कश्मीर राज्य का भारत में 100 प्रतिशत विलय हो चुका है, फिर भी यह देखकर हैरानी होती है कि इस राज्य में कोई भारत सरकार से परमिट लिए बिना दाखिल नहीं हो सकता। उन्होंने इस प्रावधान के विरोध में भारत सरकार से बिना परमिट लिए जम्मू एवं कश्मीर जाने की योजना बनाई। इस अभियान के तहत उनका दूसरा मकसद था वहां के वर्तमान हालात से स्वयं परिचित होना, क्योंकि जम्मू एवं कश्मीर के तत्कालीन 'प्रधानमंत्री' शेख अब्दुल्ला की सरकार ने वहां के सुन्नी कश्मीरी मुसलमानों के बाद दूसरे सबसे बड़े स्थानीय भाषायी समाज डोगरा समुदाय के लोगों पर असहनीय जुल्म ढाना शुरू कर दिया था।
नेशनल कॉन्फ्रेंस का डोगरा-विरोधी उत्पीड़न 1952 के शुरुआती दौर में अपने चरम पर पहुंच गया था। जम्मू के नेता पंडित प्रेमनाथ डोगरा ने बलराज मधोक के साथ मिलकर 'जम्मू एवं कश्मीर प्रजा परिषद् पार्टी' की स्थापना की थी। इस पार्टी ने डोगरा अधिकारों के अलावा जम्मू एवं कश्मीर राज्य के भारत संघ में पूर्ण विलय की लड़ाई, बिना रुके, बिना थके लड़ी।
डॉ. मुखर्जी 8 मई, 1953 की सुबह 6:30 बजे दिल्ली रेलवे स्टेशन से पैसेंजर ट्रेन में अपने समर्थकों के साथ सवार होकर जम्मू के लिए निकले। उनके साथ बलराज मधोक, अटल बिहारी वाजपेयी, टेकचंद, गुरुदत्त और कुछ पत्रकार भी थे। रास्ते में डॉ. मुखर्जी की एक झलक पाने एवं उनका अभिवादन करने के लिए लोगों का सैलाब उमड़ पड़ता था। जालंधर के बाद उन्होंने बलराज मधोक को वापस भेज दिया और अमृतसर के लिए ट्रेन पकड़ी। 11 मई, 1953 को डॉ. मुखर्जी ने कुख्यात परमिट व्यवस्था का उल्लंघन करके जम्मू एवं कश्मीर की सीमा में प्रवेश किया। प्रवेश करते ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
गिरफ्तारी के दौरान ही रहस्यमय परिस्थितियों में 23 जून, 1953 को उनकी मौत हो गई। नेहरू ने 30 जून, 1953 को डॉ. मुखर्जी की माता जी को एक शोक सन्देश भेजा। उनकी माता जी ने 4 जुलाई को नेहरू को एक पत्र लिखकर अपने बेटे की मौत की जांच की मांग की। नेहरू ने जांच की मांग को खारिज कर दिया। उन्होंने लिखा, ''मैंने कई लोगों से पता किया है, उनकी मौत में किसी प्रकार का कोई रहस्य नहीं था।'' लेकिन सत्य यह है कि आज भी देश डॉ. मुखर्जी की मौत के कारणों पर पड़ा परदा हटते देखना चाहता है।
– प्रस्तुति: ललित कौशिक
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