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-रवि पाराशर
संयुक्त राष्ट्र महासचिव अंतोतियो गुतरस ने अपनी पहली प्रेस कांफ्रेंस में कश्मीर पर अपनी बात रखते हुए इशारों-इशारों में कहा है कि यह भारत और पाकिस्तान का आपसी मुद्दा है। पुर्तगाल के प्रधानमंत्री रह चुके गुतरस ने इसी साल 1 जनवरी को संयुक्त राष्ट्र महासचिव का कार्यभार संभाला है। कश्मीर मसले पर चुप्पी को लेकर पाकिस्तान की ओर से छींटाकशी पर उन्होंने ठहाका लगाते हुए कहा कि उन पर कुछ नहीं करने के आरोप तब लग रहे हैं, जब वे भारत-पाकिस्तान को वार्ता की मेज पर लाने के लिए दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों से लगातार मुलाकात कर रहे हैं। छह माह के कार्यकाल में वह पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से तीन बार और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से दो बार मुलाकात कर चुके हैं। बहरहाल, यह पहला मौका नहीं है, जब संयुक्त राष्ट्र के किसी महासचिव ने कश्मीर मसले पर ऐसा संकेत दिया है। इससे पहले तो संयुक्त राष्ट्र के महासचिवों ने यह तक मानने से साफ इनकार किया कि कश्मीर मसला संयुक्त राष्ट्र महासभा में लंबित भी है।
अमेरिका भी तय कर चुका है कि वह आतंकवाद के खात्मे के लिए पाकिस्तान के साथ सख्ती से पेश आएगा। ऐसी स्थिति में पाकिस्तान व तमाम अलगाववादी ताकतों को अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने कश्मीर में मानवाधिकारों के हनन की झूठी कहानियों के प्रचार से बाज आना चाहिए। मीडिया के पारदर्शी दौर में ऐसा नहीं है कि विश्व के दूसरे देश नहीं जानते कि कश्मीर में मानवाधिकारों का उल्लंघन कौन कर रहा है? सभी जानते हैं कि अलगाववादी और आतंकवादी संगठन इसे अंजाम दे रहे हैं। जम्मू-कश्मीर पुलिस या सेना और अर्धसैनिक बल नहीं। बावजूद इसके पाकिस्तान और अलगाववादी ताकतें कश्मीर में मानवाधिकारों को लेकर बार-बार संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (यूएनएचआरसी) को गुमराह करने का प्रयास करती रहती हैं।
16 जून को यूएनएचआरसी के 35वें सत्र में अलगाववादी नेताओं और दूसरे नकारात्मक बुद्धिजीवियों ने मानवाधिकारों के उल्लंघन के लिए भारतीय फौज को जिम्मेदार ठहराया। देश विरोधी कश्मीरी प्रतिनिधिमंडल के नुमाइंदों ने यूएनएचआरसी में भर-भर कर झूठ उगला। यूथ फोरम ऑफ कश्मीर (वाईकेएफ) के कार्यकारी निदेशक अहमद कुरैशी ने कहा कि भारत ने कश्मीरियों के विरुद्ध आधिकारिक तौर पर जंग छेड़ रखी है। कश्मीर में आत्मनिर्णय सहित नागरिक और सियासी अधिकारों के लिए दुनिया का सबसे बड़ा आंदोलन नौजवान लड़के-लड़कियां चला रहे हैं, लेकिन भारत उन्हें यातनाएं देकर, उनकी हत्या कर आंदोलन को कुचलना चाहता है। कुरैशी ने एक और झूठ बोला। कहा कि कश्मीर के शांतिपूर्ण आंदोलन में शामिल महिलाओं पर दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बर्बर ताकत का इस्तेमाल कर रहा है। सत्र में ऑल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस के नेता हसन बाना का दावा था कि भारतीय हमलों के सबसे ज्यादा शिकार स्कूलों और विश्वविद्यालयों के छात्र-छात्राएं हो रहे हैं। एमनेस्टी इंटरनेशनल के हवाले से बाना ने कहा कि भारत कश्मीर की युवा पीढ़ी को अघोषित नीति के तहत निशाना बना रहा है। कश्मीरी प्रतिनिधिमंडल के नेता अल्ताफ हुसैन वानी ने तो सबसे बड़ा झूठ बोला। वानी के मुताबिक, दूसरे विश्व युद्ध में नागरिकों की मौत की दर केवल पांच फीसदी थी, लेकिन कश्मीर में यह दर 80 फीसदी तक पहुंच गई है।
भारतीय समयानुसार, पाकिस्तान परस्त हुर्रियत नेता जिस समय भारतीय फौज पर झूठे आरोप लगा रहे थे, ठीक उसी वक्त लश्कर के आतंकी कश्मीर में मानवाधिकारों का खून बहाने की घिनौनी साजिश रच रहे थे। कुछ घंटे बाद उन्होंने इस साजिश को अमली जामा भी पहना दिया। आतंकियों ने दक्षिणी कश्मीर के अनंतनाग में घात लगाकर हमला किया, जिसमें अच्छाबल थाना प्रभारी सब इंस्पेक्टर सहित राज्य पुलिस के छह जवान शहीद हो गए। आतंकियों ने उनके शवों को भी क्षत-विक्षत कर दिया। इस घटना से कुछ देर पहले ही कुलगाम जिले के अरवानी इलाके में सुरक्षा बलों और पुलिस ने संयुक्त कार्रवाई में लश्कर के स्थानीय कमांडर जुनैद मट्टू और उसके एक साथी को ढेर कर दिया था। पुलिसकर्मियों की हत्या को बदले की कार्रवाई माना जा रहा है। उधर, सुरक्षा बल मट्टू की घेराबंदी कर रहा था, इधर आतंकियों को भगाने में मदद करने के लिए बड़ी संख्या में पत्थरबाज मुठभेड़ स्थल पर जमा हो गए थे। उन्हें रोकने के लिए सुरक्षा बलों को बल प्रयोग करना पड़ा, जिसमें 14 वर्षीय अहसन डार और 34 वर्षीय मुहम्मद अशरफ खार की मौत हो गई। दो नागरिकों की मौत दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन सवाल है कि सुरक्षा बलों के समझाने के बावजूद स्थानीय युवक आतंकियों की मदद क्यों करते हैं? इसके लिए सेना या जम्मू-कश्मीर पुलिस नहीं, बल्कि कश्मीर और पाकिस्तान में सक्रिय अलगाववादी ताकतें जिम्मेदार हैं। ऐसी हर मौत की जिम्मेदारी कश्मीर में सक्रिय नकारात्मक ताकतों के ही सिर जाती है। सवाल यह भी है कि क्या केवल किसी नागरिक का ही मानवाधिकार होता है? सुरक्षा बलों के जवान क्या इनसान नहीं होते? देश की सुरक्षा के लिए उठाए जाने वाले कदमों के बीच ऐसे किसी अधिकार की वकालत नहीं की जा सकती। पत्थरबाजों का काम ही सुरक्षा बलों का ध्यान बंटाना है ताकि वे आसानी से आतंकियों की गोलियों का निशाना बन जाएं।
अच्छाबल में पुलिस जीप पर घात लगाकर हमला किया गया, जिससे जवानों को जवाबी कार्रवाई का समय ही नहीं मिला। साफ है कि आतंकियों के पास पुलिस की गतिविधियों की पूरी सूचना रही होगी। इस हमले में मारे गए छह पुलिसकर्मियों में थाना प्रभारी फिरोज डार भी थे। पुलवामा में अवंतिपुरा के डोगरीपुरा निवासी फिरोज डार 32 साल के थे। उनके परिवार में पत्नी और दो बच्चियां हैं, जिनकी उम्र दो और छह साल है। क्या इनके और दूसरे जवानों के परिवारों के लिए कोई मानवाधिकार नहीं है? हुर्रियत के नेता क्या फिरोज डार की मासूम बच्चियों से निगाहें मिला सकते हैं, जिन्हें इस बात की समझ ही नहीं है कि उनके पिता कायराना षड्यंत्र के शिकार हुए हैं। अलगाववादियों को कश्मीर की इतनी ही फिक्र है तो उन्होंने छह सिपाहियों की मौत और उनके शवों को विकृत करने वाले आतंकियों की निंदा क्यों नहीं की? हैरानी की बात है कि राज्य की मुख्यधारा की पार्टी नेशनल कांफ्रेंस के कार्यकारी अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी इन बर्बर हत्याओं की निंदा नहीं की। क्या अलगाववादियों और नेशनल कांफ्रेंस के नेताओं के लिए पुलिसकर्मियों की मौत कोई मायने नहीं रखती?
आतंकी मट्टू के साथ मुठभेड़ के दौरान दो नागरिकों की मौत के विरोध में सैयद अली शाह गिलानी, मीरवायज उमर फारुक और यासीन मलिक ने घाटी में बंद की अपील तो की, लेकिन पुलिसकर्मियों की हत्या के विरोध में एक शब्द नहीं कहा। वहीं, राज्य के पुलिस प्रमुख एस.पी. वैद्य का बयान बेहद संवेदनशील था। उन्होंने कहा कि चाहे पुलिस के जवानों की जान जाए या नागरिक मारे जाएं या आतंकी, कुल मिलाकर कश्मीरी ही मारे जा रहे हैं। उन्होंने पुलिस के जवानों की हत्या को इनसानियत की हत्या करार दिया है। अलगाववादी नेता जवानों की बर्बरतापूर्वक की गई हत्या और उनके शवों को विकृत करने की जघन्य मानसिकता की निंदा करें या न करें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।
कश्मीरियों का सकारात्मक रुख
इतना तय है कि आतंकियों व अलगाववादियों के षड्यंत्रों से तंग आ चुके घाटी के लोगों के मन में इस तरह की घिनौनी हरकतों से आक्रोश बढ़ेगा और वे विरोध में खड़े होने लगेंगे। इससे पहले भी आतंकी हमले में शहीद राज्य के बहादुर जवानों के जनाजों में हजारों की संख्या में लोग उमड़े हैं। आंतकियों को भी समझ में आने लगा है कि ऐसे हत्याकांडों को अंजाम देकर वे लोगों की सहानुभूति खोते जा रहे हैं। नियंत्रण रेखा और सीमावर्ती इलाकों में सैनिकों के शवों से बर्बरता की खबरें आती रही हैं, पर कश्मीर के अंदर शायद इस तरह की यह पहली वारदात है। ऐसा मानने में कोई संशय नहीं होना चाहिए कि यह वारदात आतंक के सफाए के ताबूत की पहली कील साबित हो सकती है।
बीते साल 31 दिसंबर को हंदवाड़ा के चौगल में शहीद पुलिसकर्मी अब्दुल करीम के जनाजे में करीब चार हजार लोग शामिल हुए थे। उस समय लोगों ने खुलकर कहा कि यह जिहाद नहीं, आतंकवाद है। इसी तरह, 9 मई को शोपियां में शहीद लेफ्टिनेंट उमर फैयाज के जनाजे में भी हजारों कश्मीरी शामिल हुए थे। इसे सकारात्मक संदेश के तौर पर देखा जाना चाहिए। क्या गिलानी, मीरवाइज और मलिक फैयाज को कश्मीर का बेटा नहीं मानते? कश्मीर घाटी में अलगाववाद का अलाव सुलगाने वाले हुर्रियत नेता क्या कश्मीरी युवाओं से भेदभाव नहीं कर रहे हैं? वे पत्थरबाजों को तो शह देते हैं, लेकिन देश पर जान न्यौछावर करने वाले कश्मीरी बेटों की शहादत पर एक शब्द तक बोलना मुनासिब नहीं समझते। इससे लोगों में यही संदेश जा रहा है कि अलगाववादी नेता और उनकी पार्टी आतंकियों की हिमायती है। इसी तरह, कुछ समय पहले कुलगाम में साथी आतंकी के जनाजे में आतंकियों ने अंधाधुंध गोलियां चलाईं, जिससे लोगों में भगदड़, चीख-पुकार मची। इससे भी साफ होता है कि लोगों को डरा-धमका कर जनाजों में शामिल होने के लिए मजबूर किया गया। अगर आतंकी समझते हैं कि ऐसी हरकतों से सुरक्षा बलों की मदद कर रहे कश्मीरियों को डराया-धमकाया जा सकता है या जवानों का हौसला तोड़ा जा सकता है, तो वे अंतत: गलत साबित होंगे।
अलगाववादियों का असली चेहरा
मीडिया रपट के मुताबिक, अलगाववादी नेता पाकिस्तान और वहां के आतंकी संगठनों की मदद ले रहे हैं। गिलानी गुट वाले हुर्रियत कांफ्रेंस के नेता नईम खान ने एक खबरिया चैनल को बताया कि घाटी में अशांति फैलाने के लिए सीमा पार से अरबों रुपये आते हैं। तीन महीने तक अशांति फैलाने के एवज में हुर्रियत 400-500 करोड़ रुपये तक लेती है। गिलानी के संबंध मुंबई हमले के सरगना और जमात-उद-दावा के प्रमुख हाफिज सईद से भी हैं, जो उसे करोड़ों रुपये भेजता है। बकौल नईम, पाकिस्तान चार माह के लिए रकम भेजता है और कभी-कभी इसकी मियाद छमाही भी होती है। मुस्लिम देशों द्वारा भेजी जाने वाली मोटी राशि को दिल्ली स्थित एजेंट हवाला के जरिये कश्मीर तक पहुंचाते हैं। इसके बाद यह गिलानी, मीरवाइज व यासीन के पास पहुंचती है। नईम ने यह भी कहा कि आतंकी बुरहान वानी के मारे जाने के बाद घाटी में अशांति फैलाने के लिए हुर्रियत की मदद से ही 31 स्कूलों और 110 सरकारी इमारतों को आग के हवाले किया गया।
इसी तरह, पिछले साल 8 जुलाई को आतंकी बुरहान वानी के मारे जाने के बाद अशांति फैलाने के लिए हवाला के जरिए सौ करोडों़ से अधिक राशि घाटी में भेजी गई। एक हिन्दी समाचारपत्र के मुताबिक, नोटबंदी के समय हवाला के जरिए कश्मीर भेजे गए 2000 करोड़ रुपये चलन में थे, जो बेकार हो गए। यही वजह थी कि दो महीने तक पत्थरबाजी पर नकेल लग गई थी। घाटी में सक्रिय करीब 110 स्थानीय आतंकी अपने खिलाफ घेराबंदी से बौखलाए हुए हैं। दूसरे, नोटबंदी के बाद उनके पास पर्याप्त धन और हथियार भी नहीं रहे। ऑल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस का गठन 9 मार्च, 1993 को हुआ था। यानी 46 साल तक कश्मीर में भारत विरोधी मुहिम चलाने वाले हुर्रियत के विभिन्न घटकों के मन में एकजुट होने का विचार घाटी में आतंकवाद शुरू होने के तीन साल बाद आया। क्या यह महज संयोग हो सकता है? पाकिस्तानी हुकूमत, आईएसआई व वहां चल रहे आतंकी शिविरों के शातिर दिमाग आकाओं ने एकजुट होकर पहले कश्मीर में आतंकियों की घुसपैठ कराई। जब उन्होंने यहां स्लीपर सेल विकसित कर लिए, कुछ कश्मीरी नौजवानों को बरगला कर उन्हें हथियार थमा दिए। इसके बाद अलगाववादी विचारों को संगठित करने का षड्यंत्र रचा गया।
आतंकियों को मिल रही चुनौती
जम्मू-कश्मीर के हालात की सच्चाई बयां करने वाली कुछ प्रमुख खबरों पर अमूमन हमारा ध्यान नहीं जाता। 15 जुलाई तड़के करीब 4:30 बजे सांबा सेक्टर में स्थानीय लोगों ने चार संदिग्ध आतंकियों को देखा और तत्काल पुलिस को सूचना दी। सूचना पर तुरंत इलाके में तलाशी अभियान शुरू हुआ। हाल ही में जम्मू-कश्मीर व अन्य सीमावर्ती राज्यों से आईएसआई के स्लीपर सेल से जुड़े 13 जासूस गिरफ्तार किए गए। यानी ऐसे स्थानीय लोग, जो लालच मेंे आईएसआई की प्रत्यक्ष या परोक्ष मदद करते हैं। उसे सैन्य गतिविधियों, सैन्य इलाकों के नक्शे, अहम ठिकानों की सूचनाएं देते हैं और आतंकियों को पनाह व सुविधाएं मुहैया कराते हैं। लेकिन दूसरा पहलू यह है कि राज्य के लोग अब सुरक्षा बलों को आतंकियों की सूचना देने से हिचक नहीं रहे हैं। यानी आतंकियों की धमकियों का उन पर असर नहीं हो रहा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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