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24 जून से स्टार प्लस चैनल पर ‘आरंभ’ नाम से एक धारावाहिक शुरू होने जा रहा है। इसमें आर्य आक्रमण सिद्धांत, जिसे विद्वानों ने खारिज कर दिया है, को एक बार फिर महिमामंडित करने की कोशिश की गई है। इसे भारतीय अखंडता पर प्रहार ही माना जाना चाहिए
विशाल ठाकुर
आजकल फिल्मों या धारावाहिक में मनोरंजन के नाम पर इतिहास से छेड़छाड़ आम बात हो गई है। निर्देशक संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘बाजीराव मस्तानी’ और निर्माणाधीन फिल्म ‘पद्मावती’ का उल्लेख यहां प्रमुखता से किया जा सकता है। हालांकि टेलीविजन पर इस तरह की बड़ी चूक या तथ्यों को तोड़ने-मोड़ने के मामले, फिल्मों के मुकाबले थोड़े कम ही देखे जाते हैं, लेकिन स्टार प्लस पर 24 जून से शुरू होने जा रहे धारावाहिक ‘आरंभ’ की शुरुआती झलक चौंकाती है।
इस धारावाहिक की कहानी और विषय-वस्तु ‘आर्यों और द्रविड़ों’ के संघर्ष की गाथा बयान करती है। शुरुआती झलक में दिखाया गया है कि किस तरह से द्रविड़ों की संपन्नता पर आर्यों ने हमला किया। इसे एक गंभीर मामला बताते हुए डा़ॅ विवेक आर्य ने भारत सरकार और सूचना और प्रसारण मंत्रालय को याचिका के जरिए चेताया है।
डॉ. आर्य की याचिका के अनुसार यह धारावाहिक ‘आर्य-द्रविड़ संघर्ष’ को लेकर है। यह कहानी बताती है कि किस प्रकार आर्य आए और उन्होंने द्रविड़ों को पराजित कर विजय प्राप्त की, जिसे ‘आर्य आक्रमण सिद्धांत’ (एआईटी) के नाम से जाना जाता है। इस सिद्धांत को पश्चिमी देशों से काफी हवा मिलती रही है, जबकि एआईटी एक खारिज किया हुआ सिद्धांत है। इस सिद्धांत को मैक्समूलर और काल्डवेल ने हमारे देश की एकता और अखंडता पर कुल्हाड़ी चलाते हुए प्रचलित किया था। आजादी से पहले भी कुछ राजनीतिक दलों द्वारा इस सिद्धांत को खूब प्रचारित किया गया, ताकि उन्हें उनके राजनीतिक लाभ मिल सके। एआईटी का प्रचार उत्तर और दक्षिण भारत में विवाद पैदा कर सकता है।
इस संबंध में डॉ. आर्य कई अन्य तथ्य भी सामने रखते हैं। उस पर भी प्रकाश डालना जरूरी है, लेकिन इससे पहले क्या यह नहीं सोचना चाहिए कि क्यों मनोरंजन के ठेकेदार इस तरह की गड़बड़ियां करते हैं। आखिर मनोरंजन के नाम पर ऐसे चित्रण पर कब लगाम लगेगी? हाल ही में टेलीविजन पर सेंसरशिप की बात भी उठी थी, जिसे लेकर सेंसर बोर्ड ने कुछ सकारात्मक कदम उठाने की पहल को भी दर्शाया था। लेकिन क्या केवल एक सेंसर बोर्ड पर ही इस तरह की जिम्मेदारी डालना ठीक होगा?
दरअसल, बात चाहे आर्य-द्रविड़ संघर्ष की हो या फिर सिंधु-सरस्वती सभ्यता की, इतिहास ने हमेशा तथ्यपरक चीजों को अपनाने पर बल दिया है। एआईटी पर डॉ. आर्य कहते हैं, ‘‘आर्यावर्त का मतलब है आर्यों की भूमि। अर्थात् अच्छे लोगों की भूमि। स्वामी दयानंद ने अपनी कृति ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में आर्यावर्त को परिभाषित किया है, जिसमें आर्यावर्त का विस्तार हिमालय से लेकर विंध्य तक, पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर दक्षिण में अरब सागर तक बताया है।’’ यहां विंध्य क्षेत्र से तात्पर्य भारतीय उपद्वीपों में दक्षिण तक है, न कि दक्कन के पठार। आर्य शब्द, आर्यन्स या इसी नाम से मिलती-जुलती जाति को इंगित नहीं करता है, बल्कि आर्य का अर्थ एक ऐसे इनसान से है, जिसमें साहस, ईमानदारी, विवेक, जोश, ज्ञान के प्रति उत्सुकता, बड़ों के प्रति आदर-सम्मान और पवित्रता है। आर्य एक ऐसा व्यक्ति है, जो सत्य, प्रेम, कमजोरों की रक्षा, इनसानों और देशों में भेदभाव किए बिना संपूर्ण के कल्याण के प्रति समर्पित है। वह हर उस चीज पर काबू पाता है, जो समाज में न्याय, आजादी और बुद्धिजीवियों के विकास को रोकती है। स्वयं पर विजय पाना आर्य के स्वभाव का पहला नियम है। वह अपने दिमाग, अपनी आदतों पर विजय प्राप्त करता है और घमंड, दिखावे के रीति-रिवाज, सुखवाद में रहने से इनकार करती है। इसके बजाए वह यह जानता है कि शुद्ध कैसे रहा जाए और दृढ़ आत्मविश्वास और समझदारी कायम रखते हुए अपने आपको माहौल के अनुरूप कैसे ढाला जाए। वह कर्ता होने के साथ-साथ एक योद्धा भी है।
असर या भेड़चाल
सब जानते हैं कि आज टेलीविजन पर किसी अच्छे धारावाहिक या कार्यक्रम की कामयाबी का मतलब है फिल्म से ज्यादा मुनाफा। और हाल-फिलहाल में टीवी की दुनिया में जो बदलाव आए हैं वे फिल्मों की वजह से आए हैं। ये बदलाव धारावाहिकों की कहानी, विषय-वस्तु और माहौल को लेकर हैं। ये बदलाव खासतौर से साल 2015 में आई फिल्म ‘बाहुबली’ की वजह से भी देखे और महसूस किए गए।
गौरतलब है कि दो साल पहले ‘बाहुबली’ की सफलता ने सबको चौंकाने वाला काम किया था। इसके बाद संभवत: इसी से प्रेरित होकर स्टार प्लस ने ‘सिया के राम’ जैसा एक धारावाहिक बनाया। कहानी से इतर इस धारावाहिक में सेट, छायांकन-फिल्मांकन आदि में ‘बाहुबली’ का असर साफ देखा जा सकता था। इस धारावाहिक की काफी प्रशंसा हुई और चैनल ने इसी तर्ज पर तुरंत एक और नया धारावाहिक शुरू कर दिया। इस बीच जब बाहुबली-दो का विस्तार बढ़ा और इसकी चर्चा पूरी दुनिया में हुई तो ‘आरंभ’ को यह कह कर शुरू किया गया कि इसके रचयिता ‘बाहुबली’ के लेखक हैं। बात सही है। ‘बाहुबली’ के लेखक विजेन्द्र प्रसाद का नाम आगे रखकर ‘आरंभ’ को बेचना एक ओछी हरकत है।
कौन हैं गोल्डी बहल?
‘आरंभ’ के निर्देशक हैं गोल्डी बहल, जो अभिनेता अभिषेक बच्चन के बचपन के दोस्त हैं। गोल्डी ने अभिनेत्री सोनाली बेन्द्रे से शादी की है। बतौर निर्देशक और निर्माता वे हमेशा असफल रहे हैं। 1998 से फिल्मों में सक्रिय गोल्डी ने ‘अंगारे’, ‘लंदन पेरिस न्यूयॉर्क’, ‘आई मी और मैं’ जैसी फिल्मों का निर्माण किया और ‘द्रोण’ तथा ‘बस इतना सा ख्वाब है’ जैसी फिल्मों का निर्देशन किया, लेकिन उन्हें कभी सफलता नहीं मिली, जबकि उनके पिता रमेश बहल 70-80 के दशक के एक सफल निर्देशक रहे।
जो बिके, वह बेचो
दरअसल, इस तरह के धारावाहिकों के निर्माण में किसी चीज से गुरेज नहीं किया जाता। बाजारवाद के तहत हर चीज बेची जाती है और जो चीज बिकने लायक नहीं होती, उसे बेचने लायक बना दिया जाता है। ऐतिहासिक तथ्यों के साथ भी यही हो रहा है। हालांकि इससे पहले ‘जोधा अकबर’ में तथ्यों से छेड़छाड़ के मामले सामने आ चुके थे, लेकिन नए दौर के ऐतिहासिक धारावाहिकों के निर्माताओं का ध्यान साज-सज्जा पर ज्यादा दिखता है, बजाय उसकी कहानी के। यही वजह रही कि बाजीराव पेशवा, चंद्रनंदिनी, महाराजा रणजीत सिंह धारावाहिक एक उफान के बाद थम-ढल गए। लेकिन जहां तक बात ‘आरंभ’ जैसे धारावाहिक की है, तो यह देखना जरूरी है कि आखिर किस आधार पर इसके निर्माता एक खारिज सिद्धांत को फिर से जीवित कर रहे हैं?
कोई बाहर से नहीं आया
एआईटी की ही तरह सरस्वती नदी और सभ्यता को लेकर फैला भ्रम छंटता जा रहा है और इतिहास की विकृत धारणाएं ध्वस्त हो रही हैं। पांच साल पहले राखीगढ़ी में खुदाई के दौरान मिले अवशेषों के बाद पुरातत्वविदों का मानना है कि राखीगढ़ी प्राचीन सरस्वती नदी के तीन प्रवाह मार्गों में से एक पर स्थित है। इसलिए यहां खुदाई से जो भी अवशेष मिल रहे हैं, वे सभी सरस्वती सभ्यता और सरस्वती नदी के अस्तित्व की पुष्टि करते हैं। विज्ञान ने सरस्वती को काल्पनिक बताने वालों की बात को खारिज कर दिया है। इसरो और नासा इस नदी के प्रवाह मार्ग की खोज कर चुके हैं। देश के अनेक वरिष्ठ पुरातत्वविदों ने भी शोध के जरिए बताया है कि सरस्वती नदी थी और अभी भी उसकी जलधारा जमीन के अंदर
बह रही है। यह जलधारा राजस्थान के जैसलमेर और हरियाणा के अनेक स्थानों पर निकली भी है।
हालांकि वामपंथी इतिहासकार शुरू से ही सरस्वती नदी के अस्तित्व को नकारते रहे हैं, लेकिन एक के बाद एक, साक्ष्यों की झड़ी लगने पर वे या तो पुरानी अतार्किक बातों पर अड़े दिखे या चुप्पी साधे दिखे।
इसी संदर्भ में इंदिरा गांधी राष्टÑीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू) में इतिहास विभाग के अध्यक्ष प्रो. कपिल कुमार कहते हैं, ‘‘जो मार्क्सवादी इतिहासकार बिना साक्ष्यों के आधार पर प्राचीन भारत के इतिहास को झुठलाने में लगे हैं, राखीगढ़ी से सामने आए तथ्य उनके लिए करारा जवाब हैं। ऐसे इतिहासकारों ने भारत में औपनिवेशिक शासन बनाए रखने के लिए प्राचीन भारतीय इतिहास से खिलवाड़ किया। इतिहास साक्ष्यों के आधार पर लिखा जाता है, न कि राजनीतिक लफ्फाजी पर। अब वह दिन दूर नहीं जब सरस्वती नदी का अस्तित्व भी सामने आएगा।’’
इसी क्रम में सरस्वती नदी की खोज में जीवन खपा देने वाले इतिहासकार डॉ. एस. कल्याण रमन का कथन है, ‘‘राखीगढ़ी में मिले नरकंकालों की डी़ एऩ ए. जांच से यह सिद्ध हो जाएगा कि भारत में रहने वाले सभी लोग भारत के ही हैं। कोई बाहर से नहीं आया है।
आर्य बाहर से आए हैं, यह बात भी निर्मूल हो जाएगी।’’
इन सबके बावजूद धारावाहिक ‘आरंभ’ में ऐतिहासिक तथ्यों के साथ छेड़छाड़ की गई है। यह उत्तर भारत और दक्षिण भारत के लोगों के बीच तनाव पैदा कर सकता है।
डॉ. आंबेडकर कहते हैं, वेदों में आर्य नामक किसी वंश का कोई जिक्र नहीं आता। ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता, जहां आर्य वंश ने भारत पर आक्रमण करके उसे जीत लिया।
मार्क्सवादी इतिहासकारों ने भारत में औपनिवेशिक शासन बनाए रखने के लिए प्राचीन भारतीय इतिहास से खिलवाड़ किया। इतिहास साक्ष्यों के आधार पर लिखा जाता है, न कि राजनीतिक लफ्फाजी पर।
—प्रो. कपिल कुमार
राखीगढ़ी में मिले नरकंकालों की डी़ एऩ ए. जांच से यह सिद्ध हो जाएगा कि भारत में रहने वाले सभी लोग भारत के ही हैं। कोई बाहर से नहीं आया है। आर्य बाहर से आए हैं, यह बात भी निर्मूल हो जाएगी।
—डॉ. एस. कल्याण रमन, इतिहासकार
वेदों में ऐसा कोई वंश नहीं
स्वामी दयानंद सरस्वती पहले ऐसे महापुरुष थे, जिन्होंने एआईटी को खारिज किया। यहां तक कि डॉ. भीमराव आंबेडकर ने भी इस सिद्धांत का बहिष्कार करते हुए कहा कि ब्राह्मण और अन्य निचली जाति के लोग एक ही कुल के हैं। 1946 में भारत के संविधान पर आई अपनी किताब (हू वर दा शूद्रास), में डॉ. आंबेडकर अनुसूचित वर्ग की पैरवी करते हुए पूरा एक अध्याय लिखा था। वेदों के हवाले से उन्होंने बताया कि आर्य और दास में शक्ल, सूरत और रंग को लेकर कोई अंतर नहीं है। इसलिए अनुसूचित वर्ग को आर्यों से अलग नहीं माना जा सकता। हालांकि उनके इस सिद्धांत को बड़े पैमाने पर खारिज कर दिया गया। उन्होंने कहा कि आर्य हमलावर सिद्धांत, एक ऐसी खोज है, जो यह समझाता है कि इंडो-जर्मन लोग भी आर्य वंश के आधुनिक प्रतिनिधि हैं। हालांकि इस सिद्धांत में किसी भी प्रकार की सचाई मानने से वे इनकार करते हैं, क्योंकि यह सिद्धांत वैज्ञानिक खोजों को भी अपने हिसाब से तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करता है और अपने हिसाब से तथ्यों को एक नए रूप में लोगों के
सामने साबित करता है, जो हर लिहाज से गलत है।
डॉ. आंबेडकर कहते हैं, वेदों में आर्य नामक किसी वंश का कोई जिक्र नहीं आता। ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता, जहां आर्य वंश ने भारत पर आक्रमण करके उसे जीत लिया। साथ ही दासों और दस्युओं पर शासन किया। यदि मानवमिति विज्ञान के सिद्धांत पर चला जाए तो यह पता लगता है कि ब्राह्मण और निचली जाति के लोग एक ही वंश के हैं। यानी यदि ब्राह्मण आर्य हैं तो अन्य जाति के लोग भी आर्य हैं। यदि ब्राह्मण द्रविड़ हैं तो अन्य जाति के लोग भी द्रविड़ ही हैं। डॉ. आंबेडकर जानते थे कि उनको इस क्रांतिकारी सिद्धांत को लोग किस प्रकार से लेंगे और उन पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, इसलिए अपनी बात को साबित करने के लिए उन्होंने इसे विस्तार से भी समझाया।
उन्होंने कहा कि आर्य सिद्धांत को इसलिए मृत नहीं माना जा सकता, क्योंकि यूरोप के दर्शनशास्त्रियों के अनुसार वर्ण शब्द का अर्थ रंग से है, जिसे सर्वव्यापी रूप से माना गया है। आर्यों के आने से पहले ब्रिटिशों को आखिरी घुसपैठियों के रूप में देखा जाता है। डा़ॅ आंबेडकर ने पूरी तरह इस बात को समझा कि कैसे इन गलत सिद्धांतों को भारतीय सभ्यता पर थोपा गया और कैसे भारतीय दर्शनशास्त्रियों ने बार-बार इन्हीं चीजों को दोहराया। इसलिए आर्यावर्त एक ऐसी भूमि है, जहां आर्य नामक अच्छे लोग रहते हैं। एआईटी, एक झूठा और दोषपूर्ण सिद्धांत है, जिसका कोई वास्तविक धरातल नहीं है।
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