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मानसून की आहट यानी धान रोपाई का मौसम। भारत चावल उत्पादन और निर्यात में अग्रणी देशों में है। आज भारत में चावल की उन्नत किस्में तैयार की जा रही हैं। बाजार की मांग के मुताबिक इनमें खुशबू और स्वाद तो है ही, इनसे किसानों को अच्छी कीमत भी मिलती है। बासमती की परंपरागत किस्म भी तैयार की जा रही हैं जिनकी बाजार में बहुत मांग है
नागार्जुन
धान भारत की प्रमुख फसल ही नहीं, बल्कि विरासत भी है। इसकी जड़ें संस्कृति से जुड़ी हुई हैं। शादी-विवाह से लेकर यज्ञ अनुष्ठान जैसे शुभ कार्यों में भी धान का इस्तेमाल किया जाता है। धान की रोपाई किसी उत्सव से कम नहीं है। उत्सव इसलिए भी कि इसी समय मौसम बदलता है और तपती गर्मी के बाद राहत देती बरसात शुरू होती है। देश के विभिन्न इलाकों में आज भी पारंपरिक गीत के साथ धान रोपा जाता है। रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपने काव्य में इसका उल्लेख किया है। धान के बिना खुशहाली के बारे में हम सोच तक नहीं सकते। खास बात यह कि देश में जिस तरह कुछ दूरी पर बोली बदल जाती है, उसी तरह धान की किस्में भी बदल जाती हैं।
कृषि वैज्ञानिकों ने हर राज्य के लिए धान की अलग-अलग किस्में विकसित की हैं। इसमें संंबंधित इलाके की मिट्टी और मौसम के साथ इसका भी ख्याल रखा गया है कि वहां सिंचाई की व्यवस्था है या किसान वर्षा पर निर्भर हैं। ये इलाके बाढ़ या सूखा प्रभावित हैं। इसका मकसद यह है कि किसान अपने इलाके और मिट्टी के लिए विकसित धान की किस्मों की ही खेती करें ताकि उनके जीवन में समृद्धि आए। बीते कुछ वर्षों में कृषि के क्षेत्र में काफी सुधार हुए हैं और नई-नई तकनीकों का इस्तेमाल होने लगा है। दूसरे साधन भी विकसित हो रहे हैं तो लोग गुणवत्ता भी चाह रहे हैं। बाजार में बासमती, अन्य खुशबूदार और स्वादिष्ट चावलों की मांग बढ़ रही है। किसान भी गुणवत्तापूर्ण फसलें उपजाने में रुचि दिखा रहे हैं, क्योंकि बाजार में इनकी अच्छी कीमत मिलती है।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में जेनेटिक्स एवं प्लांट ब्रीडिंग विभाग के प्रो. श्रवण कुमार सिंह के मुताबिक, किसान खासतौर से बासमती के पूर्वज, छोटे व स्थानीय खुशबूदार और देसी धान की तरह-तरह की पुरानी किस्में मांग रहे हैं। लेकिन कुछ पारंपरिक किस्में ऐसी हैं जो देर से तैयार होती हैं और उत्पादन भी कम देती हैं। साथ ही, इनकेपौधे लंबे होते हैं, जो हवा या बारिश में गिर जाते हैं। इसलिए कृषि वैज्ञानिक इनकी ऊंचाई कम करने के साथ कम क्षेत्र और कम समय में अच्छी उपज देने वाली किस्में विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं, जिससे किसानों को फायदा हो।
बेजोड़ पूसा बासमती-1
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के वरिष्ठ वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पादप जैवप्रौद्योगिकी अनुसंधान केंद्र के परियोजना निदेशक डॉ. एन.के. सिंह के मुताबिक, बासमती की किस्में विकसित करने और इनका उत्पादन बढ़ाने में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा की भूमिका काफी अहम है। पूसा ने 1989 में बासमती की पहली किस्म पूसा बासमती-1 विकसित की थी। इसके कारण ही निर्यात बढ़ा। एक समय पूरे बासमती निर्यात का 60 फीसदी हिस्सा पूसा बासमती-1 का ही था। इसके अलावा, बासमती की कुछ परंपरागत किस्में, जैसे टाइप-3, तरावड़ी बासमती, हरियाणा बासमती, सीएसआर-30 या यामिनी भी आईं। लेकिन इनकी ऊंचाई काफी अधिक थी, जिससे ये हवा या बारिश में गिर जाती थीं और इनमें बीमारी भी लग जाती थी। इसके अलावा, प्रति हेक्टेयर उत्पादन भी मुश्किल से दो टन ही था। लेकिन इनकी गुणवत्ता जबरदस्त थी। परंपरागत बासमती की एक समस्या यह भी है कि इसमें नमक प्रतिरोधकता नहीं है। उत्पादन भी कम होने से किसान इनसे मुंह मोड़ने लगे। इसी तरह, करनाल कृषि केंद्र से सीएसआर30 जारी हुई थी, जिसने तरावड़ी बासमती की जगह ली। इसकी गुणवत्ता अच्छी है। हालांकि इसकी लंबाई भी अधिक है और उत्पादन बहुत कम है। अभी इसकी उपज दो-ढाई टन ही है, जो पांच टन तक पहुंच सकती है। तरावड़ी बासमती और सीएसआर-30 के दाने एक जैसे ही दिखते हैं। इसलिए दोनों में फर्क करना मुश्किल होता है। यह किस्म भी खूब चली। इसके अलावा, पूसा बासमती-5 और पूसा बासमती-6 भी हैं। इनका उत्पादन 6 टन तक है, लेकिन 1121 से इनकी गुणवत्ता कम है। जून के पहले सप्ताह में इनकी बिजाई और जुलाई में रोपाई होती है। इसी तरह, तीन साल पहले पूसा 1509 बासमती आई जो एक माह पहले तैयार हो जाती है। यह आसानी से पांच टन तक उपज देने में सक्षम है। लेकिन गुणवत्ता बासमती से कम है। इसकी रोपाई अगस्त में करनी चाहिए ताकि अक्तूबर में फसल तैयार हो जाए। इससे किसानों को फायदा है। वे गेहूं भी लगा सकते हैं।
पूसा बासमती 1121 का फायदा
पूसा में बासमती ब्रीडिंग प्रोग्राम के जरिये करीब 15 वर्षों में बासमती की परंपरागत किस्मों की बौनी प्रजातियां विकसित की गईं। डॉ. एन.के. सिंह कहते हैं, ''पूसा बासमती-1 इन्हीं में से एक है। इसके बाद हाइब्रिड किस्म पूसा आरएच-10 विकसित की गई। इसकी उपज तो अधिक थी, लेकिन गुणवत्ता बासमती जैसी नहीं थी। इसलिए इसे बासमती के तौर पर पहचान नहीं मिली। इसके बाद एक-दो किस्में और विकसित हुईं, जिनमें पूसा सुगंध-2 और पूसा सुगंध-3 थीं। इनके साथ भी वही समस्या थी। यानी इनकी उपज अधिक थी, लेकिन इनमें या तो खुशबू कम थी या दाना मोटा था। हालांकि ये बासमती नहीं थीं। पूसा बासमती-1 के बाद दूसरी किस्म, जिसकी बाजार में बहुत मांग रही, वह है पूसा बासमती-1121। इसे करीब 15 साल पहले जारी किया गया था। इसने बासमती के क्षेत्र में क्रांति ला दी। पकने के बाद इसका दाना करीब एक इंच लंबा हो जाता है जो विश्व रिकॉर्ड है। इसमें बासमती के सारे गुण हैं। हालांकि परंपरागत बासमती के मुकाबले इसमें महक थोड़ी कम होती है। यदि इसे सही समय पर लगाया जाए तो यह प्रति हेक्टेयर पांच टन तक उपज दे सकती है। दरअसल, दाना पकने के समय तापमान कम होने पर इसमें खुशबू आती है। इसलिए किसानों को इसे देर से लगाने की सलाह दी जाती है, ताकि फसल पकने के समय थोड़ी ठंड आ जाए। इससे इसमें खुशबू अधिक आती है। अगर जून में इसकी बिजाई और जुलाई के अंत या अगस्त के पहले हफ्ते कें रोपाई करने पर नवंबर में फसल तैयार हो जाती है। तब इसकी गुणवत्ता काफी अच्छी होगी। पूसा 1121 की मांग अधिक होने का कारण यह है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में यह बड़े ब्रांड के तौर पर स्थापित है और इसकी मांग अधिक है। इस वजह से बासमती की श्रेणी में यह शीर्ष पर बना हुआ है। बासमती की कुछ ऐसी किस्में भी हैं जो आदर्श तरीके से खेती करने पर प्रति हेक्टेयर 9-10 टन तक पैदावार देती हैं।
ब्रीडिंग से तैयार हो रहीं नई किस्में
डॉ. एनके सिंह के मुताबिक, देश में ब्रीडिंग के जरिये धान की नई किस्में तैयार की जा रही हैं। पुरानी विधि से लंबी अवधि की नई किस्म तैयार करने में 10-15 साल लगते थे। 2005 में चावल के जीनोम की डीकोडिंग करने के बाद नई किस्म तैयार करने में अब 6-7 साल लगते हैं। तीन साल तक गुणवत्ता और उत्पादन सहित सभी गुण परखने के बाद इन्हें जारी किया जाता है। दरअसल, एक ही धान में सभी गुणों वाले जीन नहीं होते। अलग-अलग धान से अलग-अलग गुणों वाले जीन खोज कर ब्रीडिंग की जाती है। इसके अलावा, जंगली धान की 600 अलग-अलग किस्में खोजी गई हैं, जिनमें रोग प्रतिरोधकता है। इनमें बाढ़, सूखा, क्षारीय, ब्लास्ट, बैक्टीरियल ब्लाइट जैसी हर तरह की बीमारियों से लड़ने की क्षमता है। इनका इस्तेमाल उन्नत किस्में तैयार करने में किया जा रहा है।
पहचान के लिए संघर्ष जारी
बासमती की खेती कुछ खास इलाकों में ही होती है, जिनमें पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, देहरादून, जम्मू-कश्मीर और पाकिस्तान के कुछ जिले शामिल हैं। इनके अलावा दूसरे इलाकों में बासमती की खेती करने पर उसमें खुशबू नहीं आती है। इसलिए ज्योग्राफिकल इंडिकेशंस यानी जीआई के तहत बासमती उत्पादन वाले इलाकों को पारिभाषित किया गया। जिस तरह कॉपीराइट और पेटेंट होता है, उसी तरह से आईपीआर का एक मॉड्यूल जीआई है। जीआई के तहत किसी भौगोलिक क्षेत्र से जुड़ी खास वस्तु या उत्पाद को मान्यता दी जाती है, जिसका उत्पादन या निर्माण उसी इलाके में ही होगा और वही उसे बेचेगा। वैश्विक स्तर पर जीआई के तहत भारत और पाकिस्तान के कुछ क्षेत्रों को संयुक्त रूप से बासमती उत्पादन के लिए मान्यता दिलाने का प्रयास चल रहा है। हालांकि इसमें अभी तक सफलता नहीं मिली है।
सूखा और बाढ़रोधी किस्में
प्रो. श्रवण कुमार सिंह ने बताया, ''खुशबूदार धान की स्थानीय किस्मों पर शोध हो रहे हैं और इसमें काफी सफलता भी मिली है। हमारा ध्यान इस पर है कि इनमें महक बरकरार रहे। साथ ही, बढ़ती आबादी को ध्यान में रखते हुए शोध किए जा रहे हैं ताकि देश की जरूरतें पूरी की जा सकें। इस तरह की कई किस्में तो आ भी चुकी हैं और इनका उत्पादन भी हो रहा है। बाढ़ और सूखे की स्थिति में भी उपज देने वाली धान की किस्में तैयार करने में भी सफलता मिली है। देशभर में अभी सबसे ज्यादा उपज देने वाली गैर बासमती की दो किस्में हैं- स्वर्णा और सांबा मंसूरी। दोनों मेगा वैरायटी हैं, लेकिन ये बाढ़ और सूखा रोधी नहीं हैं। रोपाई के बाद 10-12 दिन तक अगर फसल बाढ़ में डूबी रही तो यह पूरी तरह नष्ट हो जाती है। फिलीपींस के सहयोग से दोनों में सब-1 जीन डाल कर इन्हें बाढ़रोधी और सब-1+ड्राउट जीन डालकर सूखारोधी बना दिया गया है। सूखे और बाढ़ की स्थिति में भी ये 50 फीसदी तक उपज देने में सक्षम हैं। बाढ़रोधी किस्में स्वर्णा सब-1 और सांबा सब-1 इस साल जारी हो गईं, लेकिन सूखारोधी स्वर्णा सब-1+ड्राउट और सांबा सब-1+ड्राउट अगले साल तक बाजार में आ जाएंगी। इससे किसानों को विकल्प मिल गए हैं। पहले जहां बाढ़ के कारण हजारों एकड़ फसल पूरी तरह नष्ट हो जाती थी, अब 50 फीसदी तक उपज मिलेगी। बाढ़रोधी किस्में खासतौर से पश्चिमी बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और ओडिशा के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के लिए हैं। सूखा प्रभावित या जिन इलाकों में सिंचाई की व्यवस्था नहीं है, वहां के लिए सूखारोधी किस्में तैयार की गई हैं।''
हाइब्रिड किस्मों पर जोर
बकौल प्रो. सिंह, ''हाईब्रिड धान की एक और तकनीक पर भी काफी आगे तक काम हो चुका है। अब संकर धान के जरिये उपज बढ़ाने की कोशिश की जा रही है। इनका उत्पादन स्वर्णा और सांबा से अधिक हो, इसके प्रयास किए जा रहे हैं। इसमें सफलता मिल गई है। नई किस्मों में संकर धान ज्यादा उपज दे रही है। फसल भी 120-125 दिनों में तैयार भी हो जाती है। हालांकि स्वर्णा और सांबा की हाइब्रिड तैयार करने की कोशिश हो रही है। ये लंबी अवधि वाली किस्में होंगी। भले ही फसल 140-145 दिनों में तैयार हो, पर उपज स्वर्णा और सांबा से अधिक हो। हालांकि इसमें अभी तक सफलता नहीं मिली है, लेकिन उम्मीद है कि कुछ वर्षों में ऐसी संकर किस्म तैयार कर ली जाएगी। इसमें सफलता मिल गई तो प्रति हेक्टेयर उपज 80 से 100 क्विंटल का लक्ष्य हासिल करना संभव हो जाएगा।'' प्रो. सिंह के मुताबिक, चावल उत्पादन बढ़ाने के लिए हाइब्रिड धान लगाने की जरूरत है। अभी देश में 10-12 फीसदी इलाके में ही हाइब्रिड धान की खेती होती है, जबकि चीन में 50 फीसदी इलाके में इसकी खेती होती है। चीन में धान का रकबा भारत से कम है, लेकिन वह हमसे दोगुना उत्पादन करता है। दरअसल, शुरू में जो हाइब्रिड किस्में आईं, उनकी गुणवत्ता अच्छी नहीं थी। इसलिए किसानों ने इन्हें लगाने से इनकार कर दिया। लेकिन अब बहुत-सी अच्छी किस्में उपलब्ध हैं। ये स्वाद और गुणवत्ता के मामले में भी बेहतर हैं। हाइब्रिड धान को बढ़ावा देने के लिए सरकार को किसानों को सस्ती दर पर बीज उपलब्ध कराने होंगे, क्योंकि निजी कंपनियां हाइब्रिड बीज बहुत महंगी दर पर बेचती हैं। इस पर सब्सिडी देने की जरूरत है, क्योंकि संकर धान को हर साल बदलना पड़ता है।
रोपाई नहीं, बिजाई करें
प्रो. सिंह के मुताबिक, जिन इलाकों में सिंचाई की अच्छी सुविधा नहीं है, उनके लिए भी काफी किस्में तैयार की गई हैं। इसके लिए भी किसानों को जागरूक करने की जरूरत है कि उनके लिए बीज की कमी नहीं है। वे वैसी फसलें नहीं लगाएं, जिसमें पानी की अधिक जरूरत पड़ती है। साथ ही, इन किस्मों की प्रकृति पूरी तरह अलग है। धान की तरह इनकी रोपाई नहीं की जाती, बल्कि गेहूं की तरह इनकी बिजाई की जाती है। इससे पानी की बचत होगी। बस इनकी निड़ाई-गुड़ाई और खरपतवार नियंत्रण करना पड़ता है। लेकिन उपज अच्छी मिलती है।
कुपोषण से लड़ेगा चावल
प्रो. श्रवण कुमार सिंह के मुताबिक, फिलीपींस के शोध संस्थान इरी के सहयोग से धान की कुछ किस्मों में पोषक तत्व डालने की दिशा में काम चल रहा है। यानी ऐसा चावल जिस् कुपोषण से लड़ने की क्षमता हो। बायो फर्र्टिफिकेशन के जरिये धान की मेगा वैराइटी में एक ऐसा जीन डालने का प्रयास किया जा रहा है जो जमीन से जिंक और आयरन लेकर धान-चावल में पहुंचा सके। इससे कुपोषण के शिकार बच्चों और गरीबों को पोषक तत्व मिलेंगे जो भोजन के लिए चावल पर ही निर्भर हैं। जिंक बच्चों के मानसिक और शारीरिक विकास के लिए बहुत जरूरी होता है। इससे खासतौर से एशियाई और अफ्रीकी देशों में रहने वाले गरीबों को काफी फायदा होगा। उन्हें इन पोषक तत्वों के लिए अलग से दवा लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी। इसके अलावा, गोल्डन राइस पर भी शोध किया जा रहा है। नाम के अनुरूप यह सुनहरे रंग का है। खास बात यह कि इसमें विटामिन ए बनाने वाला जीन डालकर इसे विकसित करने का प्रयास चल रहा है। यह चावल आंखों के लिए फायदेमंद होगा।
दुनिया का दूसरा बड़ा बीज बैंक
देश में पाए जाने वाले धान की अब तक की सभी किस्मों को संरक्षित कर के रखा गया है। जीन बैंक में एक लाख से अधिक तरह के बीज सुरक्षित रखे गए हैं। खास बात यह है कि धान की कोई भी किस्म विलुप्त नहीं हुई है। फिलीपींस के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा जीन बैंक भारत में है। इसमें मौजूद जीन्स का इस्तेमाल नई किस्में तैयार करने में होता है। खासकर पोषक गुणों वाले बीज तैयार करने में इनका इस्तेमाल किया जा सकता है।
राजेंद्र कस्तूरी
यह कम पानी में उपजने वाला अपनी तरह का पहला सुगंधित धान है। इसमें प्राकृतिक आपदा सहने की क्षमता है। खास बात यह कि इसका दाना छोटा है और सुगंधित होने के साथ इसका स्वाद भी बहुत अच्छा है। यह किस्म तेजी से लोकप्रिय हो रही हो रही है। शार्ट ग्रेन एरोमैटिक की इस किस्म की ऊंचाई कम कर दी गई है। इसकी फसल 125-130 दिन में तैयार हो जाती है और प्रति हेक्टेयर 35-40 क्विंटल उत्पादन मिलता है।
स्वर्णा (मंसूरी या एमटीयू 7029)
यह धान की सबसे प्रसिद्ध और सर्वाधिक उपज देने वाली किस्म है। खासतौर से पश्चिमी इलाकों में उपजने वाली इस मेगा वैराइटी के दाने थोड़े मोटे होते हैं और स्वाद भी उतना अच्छा नहीं है। इसलिए बाजार में इसकी कीमत उतनी अच्छी नहीं मिलती। यह प्रति हेक्टेयर 60-70 क्विंटल तक पैदावार देती है। वहीं, इसकी रूपांतरित किस्म स्वर्णा सब-1 बाढ़ के बावजूद प्रति हेक्टेयर 40-50 क्विंटल तक उपज देती है। रोपाई के बाद 10-12 दिनों तक बाढ़ में डूबने के बाद भी इसके पौधे मरते नहीं। उदाहरण के लिए, अगर किसी किसान ने स्वर्णा के साथ स्वर्णा सब-1 लगाया है और बाढ़ आ गई तो स्वर्णा से उसे 10 क्विंटल उपज की उम्मीद थी और बाढ़ के कारण यह पूरी तरह नष्ट हो गई तो स्वर्णा सब-1 आधी उपज दे देगी। स्वर्णा नवंबर में तैयार होती है।
सांबा मंसूरी
स्वर्णा के विपरीत यह खाने में काफी स्वादिष्ट और अधिक उपज देने वाली किस्म है। किसानों को इसकी कीमत भी अच्छी मिलती है। लेकिन इसमें ब्लास्ट और बैक्टीरियल ब्लाइट, ये दो रोग लग जाते हैं। इसलिए किसान इसे उपजाने से डरने लगे। बाद में इसमें आरपी बायो 902 जीन डाल कर इसका रूपान्तिरित रूप विकसित किया गया जो रोगरोधी है। जिन किसानों को इसकी जानकारी है वे इसकी खेती कर रहे हैं। इसे मुख्य रूप से सभी धान क्षेत्रों उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल और ओडिशा के लिए तैयार किया गया है। यह प्रति हेक्टेयर 60-70 क्विंटल तक पैदावार देती है। सांबा मंसूरी भी नवंबर में तैयार होती है।
हाइब्रिड धान
देश में धान की कई हाइब्रिड किस्में उपलब्ध हैं। इनमें एनपीएच 8899 करिश्मा 130-135 दिन में तैयार होने वाली किस्म है। इसका दाना मध्यम पतला होता है। यह बदरा और भूरी चित्ति कीट के प्रति सहनशील है। बीजों की बुआई का सही समय जून मध्य है। उपज 6.5 से 7.75 टन होती है। वहीं, चैंपियन-207 का दाना लंबा पतला होता है।
यह 120-125 दिन में तैयार हो जाती है और बदरा और भूरी चित्ति कीट के प्रति सहनशील है। इसकी बिजाई भी जून मध्य तक होती है। राजा-369 का दाना लंबा मोटा होता है और 110-115 दिन में तैयार हो जाता है। इसी तरह, विनर-567, पवन-एनपीएच 909, एनपीएच 910, एनपीएच-911, एनपीएच 2006, एनपीएच 4008, रौनक, हंसा और पीएनपीएच 24 (विजय) भी हाइब्रिड किस्में हैं।
हालांकि किसानों को इस बात के लिए जागरूक करने की जरूरत है कि उनके खेत के लिए कौन-सा बीज उपयुक्त है। अभी लालच में वे कोई भी किस्म लगा देते हैं, जिससे उन्हें नुकसान उठाना पड़ता है। उन्हें बताया जाए कि उनके खेतों के लिए किस तरह के बीज उपयुक्त है ताकि उन्हें नुकसान न हो। मिट्टी के अनुसार बीज इस्तेमाल करने पर उत्पादन भी बढ़ेगा।
साथ ही, कृषि वैज्ञानिकों द्वारा किए गए शोध के प्रचार-प्रसार की भी जरूरत है। इसके अलावा, प्रयोगशाला में मिट्टी की जांच कराई जाए और उसके अनुसार किसानों को बीज भी दिए जाएं।
पूर्वी उत्तर प्रदेश की प्रसिद्ध किस्में
पूर्वी उत्तर प्रदेश में धान की कुछ किस्में प्रसिद्ध हैं, जो सूखा क्षेत्रों के लिए ही विकसित की गई हैं। इनमें एनडीआर 97, वंदना, एनडीआर 359 प्रमुख हैं। एनडीआर 97 को सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती और फसल 100 दिन में तैयार हो जाती है। इसका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 25-30 क्विंटल है। इसका दाना मोटा होता है। इसी तरह, वंदना भी 105 दिन में तैयार होती है और 30-35 क्विंटल पैदावार देती है। इसका दाना पतला होता है। एनडीआर 359 भी कम पानी वाली मध्यम दिन की फसल है। इसका दाना मोटा होता है। फसल 100 दिन में तैयार हो जाती है और उत्पादकता 45-50 क्विंटल है। इसके अलावा, दूसरी किस्मों में सहभागी धान 125 दिन में तैयार होता है। यह 40-45 क्विंटल उपज देता है। इसका दाना भी मोटा है। इसके अलावा, खुशबूदार मोटे दाने वाली किस्म माधुरी 105 है जो 130 दिन में तैयार हो जाती है और 50-60 क्विंटल तक उत्पादन देने में सक्षम है।
ये हैं बिहार की शान
बिहार में धान की कई किस्में हैं, जो बासमती को टक्कर देने में सक्षम हैं। इनमें भागलपुर की कतरनी, मालभोग, सोनाचुर, श्यामजीरा, हटसाल, कालीबंगा, वर्मा भूसी, झुमका, पदमुकिया प्रमुख हैं। कतरनी और मालभोग भागलपुर और मुंगेर, जबकि सोनाचूर रोहतास और इसके आसपास उगाई जाती है। हटसाल का क्षेत्र कोशी, पूर्णिया एवं कटिहार है, जबकि कालीबंगा का क्षेत्र शेखपुरा, वर्मा भूसी समस्तीपुर है। श्यामजीरा का उत्पादन लखीसराय और चंपारण में झुमका व पदमुकिया का उत्पादन होता है। पदमुकिया से घी जैसी खुशबू आती है। भागलपुर के कुछ इलाकों में कतरनी की कभी एक हजार एकड़ में खेती होती थी, जो सिमट कर 500 एकड़ रह गई है। हालांकि इसका उत्पादन बहुत कम यानी 25 क्विंटल ही है। लेकिन इसकी उन्नत किस्म 40-45 क्विंटल उपज दे सकती है। बांका के रजौन, बाराहाट के अलावा मुंगेर के तारापुर में भी इसकी खेती होती है। वहीं, सोनाचूर का दाना कतरनी से थोड़ा छोटा और स्वाद भी बेजोड़ होता है।
रंग-बिरंगे चावल
भारत में कई रंग के चावल उपलब्ध हैं। इनमें काला, लाल, सफेद, हरा, भूरा, पीला और सुनहरा प्रमुख हैं। हालांकि इनका उत्पादन नहीं होता, लेकिन ये बीज बैंक में उपलब्ध हैं। इनमें मौजूद जीन्स का इस्तेमाल कर उन्नत किस्में तैयार करने के प्रयास किए जा रहे हैं।
चावल में हम आत्मनिर्भर
चावल उत्पादन में भारत आत्मनिर्भर होने के साथ दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक देश भी बन गया है। पश्चिम भारत से खासतौर से बासमती की किस्मों का निर्यात काफी बढ़ा है। इसके अलावा, पूर्वी भारत से गैर बासमती चावल खासकर स्वर्णा और मंसूरी का भी बड़े पैमाने पर निर्यात हो रहा है। बासमती के सबसे बड़े खरीदार देशों में सऊदी अरब, ईरान, संयुक्त अरब अमीरात, इराक, कुवैत, इंग्लैंड, अमेरिका हैं, जबकि गैर बासमती का सर्वाधिक निर्यात बांग्लादेश, नेपाल, दक्षिण अफ्रीका, सोमालिया, सेनेगल, बेनिन, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब आदि देशों में किया जाता है। कुल मिलाकर भारत दुनिया के 100 देशों में चावल का निर्यात करता है। इससे पहले थाईलैंड सबसे बड़ा चावल निर्यातक देश था। वह मध्यम दाने वाले खुशबूदार जेसमिन चावल का निर्यात करता है।
10 प्रमुख श्रेणियां
दुनियाभर में खपत होने वाले चावलों को 10 भागों में बांटा जा सकता है
लंबे दाने वाले
इन्हें सर्वोपयोगी चावल भी कहा जाता है, क्योंंकि इसका विभिन्न प्रकार के व्यंजनों में सबसे अधिक प्रयोग होता है। ये पतले होते हैं और सामान्य चावल के मुकाबले इनकी लंबाई 4-5 गुना ज्यादा होती है। इन्हें मुख्यत: अमेरिका, सूरीनाम, स्पेन, इटली, थाईलैंड और गुयाना से आयात किया जाता है।
सामान्य लंबे दाने वाले सफेद चावल पकाने के बाद ये फूलने के साथ नरम और स्वादिष्ट हो जाते हैं। इस वजह से कई अंतरराष्ट्रीय स्वादिष्ट व्यंजनों, खासकर चीनी व्यंजनों में इनका विविध तरह से इस्तेमाल होता है। विशेष मिलिंग तकनीक से 4-5 गुना लंबे दाने वाले चावल को सफेद रंग दिया जाता है। आसानी से पकने वाले लंबे दाने के सफेद चावल: इन्हें उबला, पहले से फूला हुआ या रुपान्तरित चावल भी कहा जाता है। इन्हें निश्चित दबाव पर भाप दी जाती है, जिससे ये फूल जाते हैं और इनमें स्वाद भी आ जाता है। अगर इन्हें ज्यादा देर तक पकाया भी जाए तो ये सख्त नहीं होते हैं। भाप देने के कारण इसके सुनहरे दाने सफेद हो जाते हैं।
लंबे दाने वाला भूरा चावल
इसे शुद्ध या साबुत चावल भी कहा जाता है। इसका स्वाद अखरोट जैसा होता है। मिलिंग के बाद भी इस पर चोकर की परत रह जाती है। इसमें विटामिन, खनिज, फाइबर अधिक मात्रा में होते हैं। इसे पकाने में ज्यादा समय लगता है और इसे ज्यादा चबाना पड़ता है।
विशिष्ट चावल
इस श्रेणी के चावल की विभिन्न किस्में होती हैं, जिनका इस्तेमाल विशेष प्रकार के व्यंजन जैसे- रिसोट्टो (इतालवी पुलाव), खीर, ग्लूटनस आदि बनाने में किया जाता है। इस श्रेणी में खुशबूदार चावल भी होते हैं। इस प्रकार के चावल की खपत उन्हीं इलाकों में होती है, जिन इलाकों में इनका उत्पादन होता है।
खुशबूदार चावल
इस चावल में प्राकृतिक अवयव मौजूद होते हैं जिसे 2-एसिटाइल 1-पाइरोलिन कहा जाता है। इस गुण के कारण इस खुशबूदार चावल का इस्तेमाल मुख्यत: सुगंधित स्वादिष्ट व्यंजन और खास महक देने के लिए किया जाता है। यह चावल जैसे-जैसे पुराना होता है, इसमें खुशबू बढ़ती जाती है।
बासमती
इसे 'चावलों का राजा' भी कहा जाता है। यह पतले दाने वाला खुशबूदार चावल होता है, जिसका उत्पादन मुख्यत: भारत और पाकिस्तान में होता है। पकाने के बाद यह फूलता है और सुगंधित स्वाद के साथ अनूठी खुशबू भी आती है। इस कारण इसका इस्तेमाल कई भारतीय व्यंजनों में पसंदीदा चावल के रूप में किया जाता है।
जेसमिन
इसे थाई सुगंधित चावल भी कहा जाता है। जेसमिन भी अपनी महक और सुगंध के लिए प्रसिद्ध है। इसका दाना बेहद पतला होता है, जो पकाने के बाद मुलायम और चिपचिपा हो जाता है। चिपचिपा होने के कारण चीनी और दक्षिणी पूर्वी एशियाई व्यंजनों में इसका इस्तेमाल पसंदीदा चावल के रूप में होता है।
अमेरिकी सुगंधित चावल
इसका उत्पादन अमेरिका में होता है। इसकी खासियत यह है कि इसमें भारतीय बासमती और थाई जेसमिन की मिश्रित खुशबू होती है। तेज खुशबू के साथ इसमें सुगंधित स्वाद भी होता है।
जैपोनिका : इसका उत्पादन मुख्यत: कैलिफोर्निया में होता है। ये लाल, भूरे और काले रंग के होते हैं। इसके दाने छोटे और मध्यम आकार के होते हैं। पकाने पर ये लसदार, नमीयुक्त और सख्त हो जाते हैं, इसलिए जापानी और कैरिबियाई व्यंजनों के लिए आदर्श माने जाते हैं।
1.भारत से दुनियाभर में पहुंचा चावल
धान को जंगली घास का वंशज माना जाता है। प्राचीन काल में इसकी खेती संभवत: हिमालय की पूर्वी तलहटी में की जाती थी। दूसरी मान्यता है कि इसकी उत्पत्ति दक्षिणी भारत में हुई और वहां से यह उत्तर भारत होते चीन पहुंचा। करीब 2000 ईसा पूर्व में यह कोरिया, फिलीपींस और करीब 1000 ईसा पूर्व में जापान और इंडोनेशिया पहुंचा। ईसा पूर्व 327 में सिकंदर (अलेक्जेंडर) ने भारत पर आक्रमण किया और माना जाता है कि वह धान को अपने साथ इसे ग्रीस ले गया। बाद में अरब के यात्री इसे मिस्र, मोरक्को ले गए और इसी तरह यह स्पेन और पूरे यूरोप में पहुंच गया। पुर्तगाल और नीदरलैंड्स चावल को अपने उपनिवेश पश्चिम अफ्रीका ले गए और वहां से यह 'कोलंबियन एक्सचेंज' के तहत अमेरिका पहुंचा।
2.पहली किस्म 'इंडिका'
इतिहासकारों के मुताबिक, चावल की 'इंडिका' किस्म की खेती सबसे पहले पूर्वी हिमालय (उत्तर-पूर्वी भारत) की तलहटी में की जाती थी। यह इलाका बर्मा, थाईलैंड, लाओस, वियतनाम और दक्षिणी चीन तक फैला हुआ था। वहीं, चावल की जंगली किस्म 'जैपोनिका' दक्षिणी चीन से भारत लाई गई। असम और नेपाल में अभी भी बारहमासी जंगली चावल की खेती होती है।
3.क्या आप जानते हैं?
चावल का प्रथम उल्लेख यजुर्वेद (1500 से 800 ईसा पूर्व) में मिलता है। बाद के संस्कृत ग्रंथों में भी बहुत जगह चावल का उल्लेख है।
भारत में कहा जाता है कि चावल के दानों को दो भाइयों की तरह होना चाहिए, लेकिन एक-दूसरे के बिल्कुल पास नहीं होना चाहिए।
ईसा पूर्व 1000-750 (लगभग) में उत्खनन के दौरान हस्तिनापुर (भारत) में धान के दाने पाए गए थे। इस हिसाब से चावल दुनिया का सबसे पुराना अनाज है।
4.जीनस ओरीजा की प्रजातियां
डी. चटर्जी (1948) के अनुसार, जीनस ओरीजा की कुल 24 प्रजातियां हैं, जिनमें 21 जंगली हैं, जबकि दो ओरीजा सैटिवा और ओरीजा ग्लैबिरीमा की खेती की जाती है। ओरीजा सैटिवा की खेती सभी धान उत्पादक इलाकों में होती है, लेकिन ओरीजा ग्लैबिरीमा केवल पश्चिम अफ्रीका तक ही सीमित है।
5.चावल का महत्व
चावल सीधे तौर से समृद्धि और उत्पादकता से जुड़ा है। पूजा-पाठ, विवाह और अन्य शुभ कार्यों में चावल का इस्तेमाल अक्षत के रूप में किया जाता है। नवविवाहिता आशीर्वादस्वरूप चावल ग्रहण करती है। इसके अलावा, बच्चे जब खाना शुरू करते हैं तो उन्हें दिया जाना जाने वाला पहला भोजन भी चावल ही होता है। चावल ने करोड़ों लोगों की संस्कृति, आहार और आर्थिक समृद्धि दी है।
6.अंतरराष्ट्रीय चावल दिवस
दुनिया की 60 फीसदी से अधिक आबादी के लिए 'चावल ही जीवन' है। चावल के महत्व को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने साल 2004 को 'अंतरराष्ट्रीय चावल दिवस' के रूप में मनाया। यूएसडीए (संयुक्त राज्य अमेरिका का कृषि विभाग) के अनुसार, 2008 में दुनियाभर में 4300 लाख टन चावल की खपत हुई।
7.पौष्टिक तत्वों से भरपूर
चावल मुख्य पोषक खाद्य है जो तत्काल ऊर्जा देता है, क्योंकि इसमें स्टार्च (कार्बोहाइड्रेट) होता है। इसमें नाइट्रोजन के तत्व बहुत कमं, जबकि वसा या लिपिड तत्व नगण्य होते हैं। पके चावल में प्रोटीन की मात्रा 7-12 फीसदी होती है। इसलिए इसे पूर्ण भोजन माना जाता है।
चावल के आटे में प्रचुर मात्रा में स्टार्च होता है, इसलिए इसका इस्तेमाल विभिन्न खाद्य सामग्री और शराब बनाने में होता है।
ब्राउन राइस में कई तरह के विटामिन, खासकर बी1 या थाइमिन, बी2 या राइबोफोलाविन, नियासिन या निकोटिनिक एसिड होते हैं। इसके विपरीत, सफेद चावल में विटामिन कम होते हैं। चावल की ऊपरी परत में खनिज होते हैं जो पॉलिश करने के बाद खत्म हो जाते हैं।
8.धान की भूसी भी उपयोगी
मवेशियों और पोल्ट्री चारे, कागज निर्माण और ईंधन के रूप में प्रयुक्त होता है। इस भूसी में वसा नहीं होती और भरपूर प्रोटीन होता है। बिस्कुट बनाने में भी इसका इस्तेमाल होता है।
पुआल मवेशियों के चारे, छप्पर बनाने और कुटीर उद्योग जैसे टोपी, चटाई, रस्सी, ध्वनि अवशोषक, स्ट्रॉ बोर्ड एवं कूड़ादान आदि बनाने में होता है। भूसी से निकलने वाला तेल साबुन उद्योग में प्रयुक्त होता है।
अन्य चीजों के साथ धान की भूसी मिलाकर चीनी मिट्टी, कांच और मिट्टी के बर्तन भी बनाए जाते हैं।
9.चीन सबसे बड़ा उत्पादक और आयातक
चीन दुनिया का सबसे बड़ा चावल उत्पादक देश है। चावल उत्पादन में इसने कुछ साल पहले ही भारत को पीछे छोड़ा है। चीन सालाना 144,850,000 मीट्रिक टन चावल का उत्पादन करता है। वह दुनिया का सबसे बड़ा चावल आयातक देश भी है। यह सालाना 190 लाख मीट्रिक टन चावल आयात करता है।
10 निर्यात में भारत की भागीदारी
विश्व के कुल चावल निर्यात में भारत की हिस्सेदारी 28.9 फीसदी है। भारत सालाना करीब 103 लाख मीट्रिक टन चावल निर्यात करता है। इसका मूल्य 5.3 अरब डॉलर है। 2015-16 में 40.45 लाख मीट्रिक टन बासमती और 63.66 लाख मीट्रिक टन गैर-बासमती चावल का निर्यात हुआ। देश में धान का रकबा 400 लाख हेक्टेयर से अधिक है। देश के कुल उत्पादन का 80 फीसदी से अधिक चावल दस राज्यों में होता है। प. बंगाल का योगदान सर्वाधिक 13 फीसदी से अधिक है।
बोलते आंकड़े
40,000 से अधिक चावल की किस्मों का उत्पादन होता है दुनियाभर में
400 के करीब चावल की किस्मों का उत्पादन होता है भारत में
109 मिलियन टन का रिकॉर्ड चावल उत्पादन हुआ इस बार देश में
125 मिलियन टन चावल उत्पादन लक्ष्य है अगले 5-7 वर्षों में
03 टन प्रति हेक्टेयर से कम है भारत का राष्ट्रीय औसत चावल उत्पादन में
06 टन प्रति हेक्टेयर से अधिक है चीन का राष्ट्रीय औसत चावल उत्पादन में
बासमती की प्रमुख किस्में
बीज अधिनियम, 1966 के अध्यादेश के मुताबिक, बासमती की प्रमुख किस्में हैं- बासमती 386, बासमती 217, रणबीर बासमती, करनाल बासमती/तरावड़ी बासमती, बासमती 370, टाइप-3 (देहरादून बासमती), पूसा बासमती-1, पूसा बासमती 1121, पंजाब बासमती-1, हरियाणा बासमती-1, कस्तूरी और माही सुगंधा।
उत्पादन क्षेत्र
बासमती का उत्पादन मुख्यत: पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में होता है।
असम में रंजीत और बहादुर
डॉ. एन.के. सिंह ने प्रसन्नता जताते हुए कहा कि काफी समय बाद इस साल तीन किस्में जारी की गई हैं। असम के लिए धान की दो किस्में जारी हुई हैं— रंजीत और बहादुर। जिस तरह स्वर्णा बिहार, उत्तर प्रदेश और ओडिशा में प्रसिद्ध है, उसी तरह रंजीत समूचे पूर्वोत्तर और नेपाल के कुछ इलाकों में प्रसिद्ध है। इसकी फसल स्वर्णा से थोड़ी लंबी होती है। सब-1 जीन डालकर इन्हें भी बाढ़रोधी बना दिया गया है। सामान्य स्थिति में यह 5-6 टन से अधिक पैदावार देती है और बाढ़ की सूरत में लगभग चार टन। इसके अलावा, पूर्वी उत्तर प्रदेश के बस्ती, गोरखपुर, सिद्धार्थनगर इलाके में उपजाई जाने वाली काला नमक किस्म के लिए जीआई मंजूर हो गया है। काला नमक में खुशबू तो होती ही है, खाने में भी यह मक्खन की तरह मुलायम होता है। यह शॉर्ट ग्रेन एरोमैटिक धान है, लेकिन बासमती जैसा ही है। हालांकि इसका बाजार अभी विकसित नहीं हुआ है। यह किस्म पांच टन तक पैदावार देती है। इसके अलावा, करीब एक दर्जन प्रसिद्ध किस्मों में एक खास जीन को डाला गया है, जो सभी की उत्पादकता को बढ़ा देता है। स्वर्णा को ही लें तो इसमें उस जीन को डालने पर इसका उत्पादन 7 टन से 8.5 टन पहुंच गया। हालांकि अभी इसका परीक्षण चल रहा है।
बासमती निर्यात
29,999.96करोड़ रुपये का बासमती निर्यात किया गया 2013-14 में
27,597.89करोड़ रुपये का बासमती निर्यात किया गया 2014-15 में
22,718.44 करोड़ रुपये का बासमती निर्यात किया गया 2015-16 में
गैर बासमती निर्यात
17,749.86करोड़ रुपये का गैर बासमती चावल निर्यात किया गया 2013-14 में
20,428.54 करोड़ रुपये का गैर बासमती चावल निर्यात किया गया 2014-15 में
15,129.09 करोड़ रुपये का गैर बासमती चावल निर्यात किया गया 2015-16 में
स्रोत: डीजीसीआई एंड एस
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