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दुनिया के सभी देश अपनी जरूरतों के लिए अब एक-दूसरे पर निर्भर हैं। सभी के लिए दोस्ती अपनी जगह और व्यापार अपनी जगह है। अगर किसी देश अपने पड़ोसी देश के साथ दुश्मनी भी है तब भी वह उसके साथ व्यापार की गुंजाइश तलाश रहा है। खासकर भारत जैसे बड़े बाजार वाले देशों पर सबकी निगाह है। गाहे-बजाहे चीन भले ही भारत को चिढ़ाए, लेकिन भारत को रोकने का उसके पास कोई कारण नहीं है
अनुराग पुनेठा
अमेरिका में 9/11 की घटना के बाद तमाम देशों ने आतंक के खिलाफ उसका साथ देने के लिए हामी भरी, लेकिन तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश को फोन करने वालों में सिर्फ रूसी राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन थे। पुतिन ने न केवल 9/11 पर दुख जताया, बल्कि आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका की लड़ाई में परोक्ष रूप से साथ देने की भी पेशकश की थी। साथ ही, अफगानिस्तान में हमले और अमेरिकी आधार बनाने की हामी भी भरी थी। सामरिक दृष्टि से ये अभूतपूर्व घटना थी। उस समय रूसी रणनीतिकारों ने आश्चर्य भी जताया था, लेकिन आतंकवाद को लेकर पुतिन की समझ ने उन्हें बाकी नेताओं से आगे रखा। अमेरिका पर हुए हमले को काफी वक्त गुजर चुका है।
2011 में मध्य पूर्व देशों में पहले जनक्रांति के बाद गृहयुद्ध जैसे हालात बने और आईएसआईएस का जन्म हुआ, जो वीभत्सता की सारी सीमाएं लांघ गया। सीरिया और इराक की आग आज यूरोप पंहुच गई है। लंदन में हालिया आतंकी हमलों ने यूरोप में हड़कंप मचा दिया। बेहद कम अंतराल पर हुए ये दो हमले इंग्लैंड के लिए सामान्य घटना नहीं है। यूरोप या अमेरिका अब तक जिसे एशिया या भारत या मध्य पूर्व की घरेलू घटना मानते रहे, उसे नकारते रहे, उसी आतंकवाद ने घर में घुसकर उन्हें चुनौती दी है। वह भी वहीं के रहने वाले मुसलमानों ने। लिहाजा अब तमाम देशों को समझ में आने लगा है कि किसी भी तरह के सशस्त्र विद्रोह और मासूमों की हत्या को किसी भी सूरत में सही नहीं ठहराया जा सकता। मौजूदा दौर की समस्या साझी है। इसलिए सहयोग की अपील और संभावना भी साझी ही होगी। इस्लामी आतंकवाद सिर्फ भारत, मध्यपूर्व की समस्या नहीं रही, बल्कि विश्वव्यापी है। यह भारत, अफगानिस्तान, सीरिया, इराक, यमन, लीबिया, तुर्की या फिर फ्रांस, बेल्जियम, इंग्लैड जैसे देशों तक ही नहीं फैला है। इसका फलक बहुत बड़ा है। जो यूरोप में हो रहा है, वह ज्यादा खतरनाक है। पड़ोस में रहने वाला कोई शख्स अचानक कब अपनी गाड़ी किसी भीड़भाड़ वाले इलाके में घुसा दे, अचानक चाकू-छुरे से लोगों की जान ले ले। दुनिया की कौन सी पुलिस या खुफिया संस्थाएं इन्हें रोक पाएंगी? आईएसआईएस वैचारिक स्तर पर लोगों को इसके लिए तैयार कर रहा है। यूरोपीय समाज में नहीं पटने वाली पांथिक खाई गहरी होती जा रही है।
दोस्ती का नया पैमाना
वैश्वीकरण के दौर में आतंकवाद अगर चुनौती है तो आर्थिक लाभ या रिश्ते ही दोस्ती की कसौटी है। यदि मित्र देश के साथ व्यापार हो तो सोने पर सुहागा, नहीं तो दुश्मन देश के साथ व्यापार भी खूब परवान चढ़ सकता है। लिहाजा कुछ बेमेल रिश्ते भी बन रहे हैं। अमेरिका और चीन के बीच रिश्ते तो यही बयान करते हैं। अब न कोई पक्का दोस्त है और न कोई पक्का दुश्मन। पक्का है तो सब का हित। किसी एक का हित नहीं चलेगा। यह दशक कई मायनों में क्रांतिकारी माना जाएगा। 30 वर्षों के बाद जनता ने भारत में एक ऐसी सरकार को चुना जो निर्णायक फैसले ले सके। अमेरिकी जनता ने भी चौंकाते हुए ऐसे व्यक्ति को चुना जो हटकर था। इस शख्स ने पूरी दुनिया में नई बहस को जन्म दिया। भारत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जहां नोटबंदी, सर्जिकल स्ट्राइक, डिजिटल लेन-देन के साथ रक्षा और विदेश नीति में आमूलचूल परिवर्तन किए हैं, वहीं ऐसे काम भी किए जो किसी पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री ने नहीं किए थे। अब तक किसी प्रधानमंत्री ने अपने शपथ समारोह में पड़ोसी राष्ट्राध्यक्षों को नहीं बुलाया था। कोई प्रधानमंत्री अचानक पाकिस्तान नहीं गया था। इसी तरह कश्मीर में सख्त कदम उठाए, जो पहले कभी नहीं हुआ।
उधर, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप नाटो को बदलने की बात करते हैं। चीन को सबक सिखाने की बजाए उससे गलबहियां करने की कोशिश करते दिखते हैं और अपने पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी रूस से दोस्ती करना चाहते हैं। क्या कोई कभी सोच सकता था कि अपने आधिकारिक निवास व्हाइट हाउस में बैठकर अमेरिकी राष्ट्रपति उसके साथ खुफिया जानकारी साझा करेगा? लेकिन ऐसा हुआ है।
हालांकि अमेरिका में एक बड़ा तबका इसका विरोध करता रहा है। इसी तरह, ट्रंप अपनी पहली यात्रा के लिए सऊदी अरब को चुनते हैं, क्योंकि बदलते वैश्विक परिदृश्य में साझा चिंताएं देशों को नजदीक बुला रही हैं और दूर भी कर रही हैं। अब रिश्ते परस्पर लेन-देन पर बन रहे हैं।
भारत का रुतबा बढ़ा
लंदन हमले के बाद जिस तरह से तमाम देशों ने आतंकवाद के खिलाफ आवाज उठाई, उसे बेहतर दिशा में संकेत माना जा सकता है। भारत की बात अब गंभीरता से सुनी जा रही है। अपनी पहचान और अपना हित लिए तमाम देश बाकी मुल्कों से पींगें बढ़ा रहे हैं। यह तिजारत ही है कि चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिन को मोदी अमदाबाद में झूला झुलाते हैं। लेकिन ‘वन बेल्ट वन रोड’ के मुद्दे पर उनके न्योते को ठुकरा देते हैं। यदि चीन पीओके से सड़क निकालने की कोशिश करता है तो दलाई लामा को अरुणाचल की यात्रा पर जाते हैं। चीनी सीमा पर रूसी एस-400 मिसाइल प्रणाली की तैनाती और दक्षिण चीन सागर में नौसेना भेजने के फैसले के पीछे भारत की बढ़ती सैन्य ताकत के साथ-साथ फैसले लेने वाली सरकार को देखा जाना चाहिए। चीन यदि एनएसजी में भारत को रोकने की कोशिश करता है तो उसे मनाने के लिए भारत रूस से अपील करता है। यह चतुराई भरी कूटनीति है, जिसे मोदी, पुतिन, ट्रंप, जिनपिन सरीखे नेता बखूबी खेल रहे हंै। इसका श्रेय भारत को दिया जा सकता है। भारत ने दुनिया में अपनी ऐसी छवि बनाई है जो शांतिप्रिय है, धैर्यवान है और व्यापार करना चाहता है। पड़ोसी देशों के साथ बेहतर संबधों का हिमायती है। हाल ही में सऊदी अरब समेत कुछ और देशों ने कतर से संबध खत्म किए, लेकिन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से जब पूछा गया कि भारत किसका साथ देगा तो उन्होंने जो जवाब दिया वह भारतीय जीवनदर्शन को दर्शाता है। उन्होंने कहा कि वर्षों से हमारा रिश्ता सऊदी अरब से है। हमारे संबंध उसके घोर विरोधी ईरान से भी रहे हंै। हम इस्रायल के दोस्त हैं, फिलिस्तीन, लेबनान से भी अच्छे संबंध रहे हैं।
दुनिया के लिए भारत जरूरी
भारत की बढ़ती अर्थव्यवस्था ने इसे पूरी दुनिया के लिए जरूरी बना दिया है। पिछले तीन साल से विदेशी निवेश के मामले में सबसे बेहतर मुल्कों में भारत शीर्ष 10 देशों में शामिल है। यह जरूरत ही है कि दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियां अब मोदी के मेक इन इंडिया के लिए तैयार हैं। चाहे वह एप्पल हो, आॅडी, बीएमडब्ल्यू या लड़ाकू जहाज बनाने वाली कंपनियां जैसे- बोइंग, लॉकहीड मार्टिन, स्वाब, ग्रिपिन, एयरोफाइटर बनाने वाली ईडीएस, सभी भारत में उद्योग लगाना चाहती हैं। इससे भारतीयों को रोजगार के साथ तकनीक भी मिलेगी। यह संभवत: समझभरी नीति ही है कि मध्य पूर्व में जब सीरिया अलग-थलग पड़ता है तो रूस और ईरान प्रवेश करते हैं और सारा खेल बदल देते हैं। रूस ने राष्ट्रपति बशर अल-असद को मजबूत किया और आईएसआईएस के खिलाफ मोर्चा खोला है। उसने अमेरिका के सामने कोई रास्ता नहीं छोड़ा, सिवाय इसके कि दोनों मुल्क आतंकवाद पर एक-सा बोलें।
अमेरिका-रूस भी आए करीब
बदले राजनीतिक और सामरिक समीकरण में डोनाल्ड ट्रंप ने रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव और रूसी राजदूत किसलिक के साथ बैठक में आईएसआईएस के खिलाफ अभियान से जुड़ी अमेरिकी खुफिया सूचनाएं साझा कीं। हालांकि इसकी आलोचना हुई, लेकिन ट्रंप ने अपना बचाव करते हुए कहा,‘‘बदलते सामाजिक परिवेश में मैं चाहता हूं कि रूस इस्लामी स्टेट और आतंकवाद के खिलाफ तेजी से कदम उठाए और ऐसा करने का मुझे पूरा अधिकार है।’’ ट्रंप की सफाई को अमेरिका के तमाम बड़े अखबारों ने प्रमुखता से प्रकाशित किया। इसके अलावा, ट्रंप ने जिस अंदाज ने जर्मनी की चांसलर एजेला मार्केल को झिड़का, वह भी पुतिन और ट्रंप को करीब लाने में सहयोग करेगा। यह जगजाहिर है कि 29 देशों के समूह नाटो से यदि अमेरिका निकल जाए तो इसका कोई मतलब ही नहीं रह जाएगा। फ्रांस, जर्मनी और इंग्लैड के पास ताकत तो है, पर इतनी नहीं कि वे रूस से टक्कर ले सकें। ट्रंप का कहना है कि नाटो का खर्च अमेरिका ही क्यों उठाए? हालांकि उनकी सोच का अमेरिकी पुरातनपंथी विरोध कर रहे हैं, लेकिन व्यापारी ट्रंप जानते हैं कि रोजगार और पैसा कमाना उनके लिए बहुत जरूरी है। उधर, पुतिन हालात के पारखी होने के साथ-साथ अच्छे अर्थशास्त्री भी हैं। चीन के साथ समझौता और अमेरिका के साथ दोस्ती की वजह ही यह है।
अमेरिका की गिरती साख
21वीं सदी एशिया की सदी है। इस महाद्वीप पर जो ताकतवर बन कर उभरेगा, वही दुनिया पर राज कर सकेगा। यहां यह समझना भी जरूरी है कि बदलते वैश्विक परिदृश्य में अमेरिका, चीन, रूस और भारत की क्या भूमिका हो सकती है। ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका की साख गिरी है। उनके बारे में लोगों की राय है कि वे अपना व्यापार बढ़ाना चाहते हैं या अमेरिका की नीति, यह समझ में नहीं आता है। वह चीन के साथ दोस्ती बढ़ा रहे हैं। रूस और खासकर पुतिन के साथ उनके संबंध दुनिया को चौंका रहे हैं। फ्रांस और जर्मनी के साथ संबंधों में भी बदलाव है। दरअसल, ट्रंप की अमेरिका प्रथम की नीति उनके दुश्मन ज्यादा खडेÞ कर रही है। दोस्त भी नाराज हैं। चुनाव के वक्त भारत को लेकर मीठी बातें करने वाले ट्रंप भारत के साथ भी गरमी दिखा रहे हैं। ट्रांस पैसिफिक संधि से जिस तरह अमेरिका अलग हुआ है, उससे भी उसकी साख गिरी है। हिंद महासागर और प्रशांत क्षेत्र में हालात भी बदल रहे हैं। दुनिया का बड़ा कारोबार इसी इलाके से हो रहा है। यही कारण है कि भारत अपनी नौसेना को ब्लू वाटर नेवी बनाना चाहता है, जबकि चीन अपनी ताकत। दक्षिण चीन सागर इस वक्त गंभीर तनाव से गुजर रहा है। इस क्षेत्र में चीन के दबदबे के चलते रिश्ते बनते, बिगड़ते रहेंगे। चीन, अमेरिका, जापान, आॅस्ट्रेलिया अपनी ताकत दिखाते रहेंगे।
पूर्व अतिरिक्त सचिव और वर्तमान में सेंटर फॉर चाइनीज एड स्ट्रेटजी के अध्यक्ष जयदेव रानाडे कहते हैं कि दक्षिण चीन सागर एक ‘फ्लैश प्वाइंट’ है जो कभी भी भड़क सकता है। लेकिन भारत को अपना तेल खोज अभियान बंद नहीं करना चाहिए। भारत उस क्षेत्र में अमेरिकी मदद से वियतनाम के साथ संबंध बढ़ा रहा है। एशिया या मध्य पूर्व में जिस देश ने ताकत के समीकरण को बदला है वह है रूस। पुतिन ने जिस अंदाज में अपने पत्ते खोले हैं, वह रूस की बढ़ती ताकत को दिखाते हैं। दुनिया पुतिन को एक कठोर शासक मानती है, जो अपने देश के लिये कुछ भी कर सकता है। पुतिन ने क्रीमिया को रूस में मिलाया और मध्य पूर्व में आखिरी वक्त में सीरिया में घुसकर हारते बशर अल असद के पक्ष मे लड़ाई मोड़ दी। अमेरिका देखता रह गया, पुतिन मध्य पूर्व का पासा पलटने में कामयाब रहे। जिन देशों के साथ रूस की कभी बिल्कुल नहीं पटती थी, वे अब उसके नजदीक आते जा रहे हैं। पुतिन किसी भी संकट में रूस की विदेश नीति के हितों को पहचानने में जरा भी देर नहीं लगाते हैं और फिर उन्हें हासिल करने के लिए पूरे संसाधन भी लगा देते हैं।
बड़े हैं चीन के सपने
चीन की बात करें तो राष्ट्रपति शी जिनपिन ने जब से सत्ता संभाली है, तभी से उनका सपना 2021 तक प्रति व्यक्ति आय दुगुनी करना और 2049 तक अपने देश को दुनिया का सबसे बड़ा व ताकतवर मुल्क बनाने का है। जिस अंदाज से चीन सिल्क रोड को बनाने में लगा है, उससे सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि उसे बाजार चाहिए और हर हाल में चाहिए। सिंगापुर में चीन मामलों जानकार ली कुआन ज्यू कहते हैं, ‘‘यह जरूरी है कि चीन को संतुलित करने के लिए दूसरी अर्थव्यवस्था खड़ी हो। आकार के हिसाब से सिर्फ भारत ही खड़ा होता है। अमेरिका आर्थिक तौर पर कमजोर हुआ है और संभवत: आगे भी होगा। चीन की चिंता भारत की आबादी और यहां पैदा हो रही तमाम संभावनाओं को लेकर है। सारी कवायद चीनी माल की खपत बढ़ाने के लिए हो रही है। माल की आवाजाही किसी एक रास्ते पर निर्भर न हो। चीन का ज्यादातर व्यापार दक्षिण चीन सागर या पूर्व चीन सागर से होता है, लेकिन उसमें खतरे बढ़ रहे हैं। वहां जापान है, वियतनाम है, जिनसे उसकी कम पटती है। लिहाजा बाकी रास्ते भी चाहिए। इसीलिए चीन के हर्बिन से जर्मनी के हैम्बर्ग तक दुनिया का सबसे लंबा रेल मार्ग (9820 किमी) बनाया, ताकि चीनी माल आधे समय में यूरोप के बाजारों में पहुंच सके।
हाल ही में भारतीयों ने जिस शब्द को सबसे ज्यादा सुना, वह है चीन की महत्वाकांक्षी योजना-वन बेल्ट वन रोड। इसी का एक हिस्सा है ‘सीपैक’। तकरीबन 45 अरब डॉलर की यह योजना चीन को पाकिस्तान से जोड़ेगी और पाकिस्तान के बलूचिस्तान से होते हुए ग्वादर पोर्ट तक जाएगी, जहां जहाजों से माल उतारकर सीधे चीन पहुंचाया जा सकता है। हालांकि इसके अस्तित्व को लेकर जानकार आशंकित हैं। पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) के सीनेटर अनवर बेग कहते हैं कि सीपैक से पाकिस्तान को कुछ नहीं मिलने वाला। सारा माल चीनी ले जाएंगे और पाकिस्तानी तो चीनी ट्रकों के पंचर ही बनाते रह जाएंगे। लेकिन चीनी पैसे ने पाकिस्तान की आखों पर पट्टी बांध दी है। चीन अपनी आर्थिक ताकत और बदलती सामरिक जरूरतों का खाका खींचने मे व्यस्त है। लेकिन भारत को कभी-कभी चिढ़ाने के अलावा चीन के पास भारत को रोकने का कोई कारण नहीं है। यही वजह है कि चीन और भारत में ऐसे लोगों की तादाद बढ़ रही है जो भारत-चीन संबंधों को 1962 और पश्चिमी चश्मे से नहीं देखते।
रणनीतिक लक्ष्यों पर चलता चीन
जेएनयू में अंतराष्ट्रीय मामलों की प्रोफेसर शीतल शर्मा कहती हैं, ‘‘सिर्फ अपने चश्मे बदलने की जरूरत है। भारत चीन को अमेरिकी चश्मे से देखता है और चीन भारत पर अमेरिका के नजदीक जाने का आरोप लगाता है।’’ चीन सिर्फ सीपैक ही नहीं, बल्कि हर तरफ आर्थिक सड़क बना रहा है। चीन-मंगोलिया-रूस गलियारा के अलावा वह चीन-मध्य एशिया और पश्चिम एशिया गलियारा और चीन-इंडोनेशिया प्रायद्वीप गलियारा भी बना रहा है। इसके अलावा, रेशम समुद्र मार्ग भी है, जहां वह लाखों डॉलर निवेश कर बंदरगाह बना रहा है या फिर कर्ज दे रहा है। म्यांमार में क्याउकफीयू द्वीप है, जिसे युन्नान के कुनमिंग में पाइपलाइन से जोड़ा गया है ताकि मल्लका जलडमरूमध्य पर निर्भरता कम हो सके।
2016 में चीन ने दुनिया के व्यस्ततम मार्गों में से एक, गल्फ आॅफ अदन के जिबूती में बंदरगाह खोला। इसके अलावा इंडोनेशिया, बांग्लादेश के चटगांव, श्रीलंका के हंबनटोटा और कोलंबो में, पाकिस्तान के कराची में ग्वादर पोर्ट का निर्माण कर रहा है। ये सभी परियोजनाएं चीन के रणनीतिक लक्ष्यों के अनुरूप हैं। हालांकि चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा भारत और चीन संबंधों पर असर डाल रहा है। सीपैक के जरिये चीन एक तीर से कई निशाने साधने की कोशिश में, परियोजना में लगने वाले पैसे से पाकिस्तान को खरीद कर भारत को भी चिढ़ा तो रहा है, लेकिन चीन और पाकिस्तान की सीमा पर उइगुर समुदाय में इस्लामी आतंकवाद बढ़ने से पाकिस्तान के साथ संबंध तनावपूर्ण हो सकते हैं। साथ ही चीन बांग्लादेश-चीन-भारत-म्यांमार गलियारा भी बनाना चाहता है, लेकिन अकेले भारत के बहिष्कार ने ओबीओआर पर कई सवाल खड़े कर दिए हैं।
हर तरफ से मुसीबत में पाकिस्तान
पाकिस्तान की हालत धीरे-धीरे बिगड़ती जा रही है। अमेरिका से उसके संबंध काफी हद तक बिगड़ चुके हैं। पाकिस्तान की छवि तार-तार हो चुकी है। पाकिस्तान की सरकार और फौज के बीच रिश्तों में तल्खी बढ़ रही है। अफगानिस्तान के साथ रिश्ते इस वक्त सबसे खराब दौर में हैं और ईरान के साथ रिश्ते बिगड़ रहे हंै। हाल ही में ईरान ने पाकिस्तान को धमकी दी थी यदि उसने अपने इलाके यानी बलूचिस्तान में कुछ आतंकी संगठनों को नहीं रोका तो ईरान उस पर सर्जिकल स्ट्राइक करने को मजबूर हो सकता है। हाल ही में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शंघाई कोआॅपरेशन आॅर्गेनाइजेशन के बारे में कहा कि इस मंच का उपयोग आतंकवाद के खिलाफ किया जा सकता है। यह देखना दिलचस्प होगा कि चीन क्या रुख अपनाता है। चीन ने हाल ही में मसूद अजहर का जिस तरह से बचाव किया है, उससे उसकी छवि खराब हुई है।
वैश्वीकरण के दौर में सभी देशों की एक-दूसरे पर निर्भरता बढ़ी है, व्यापार और आपसी सहयोग की सीमाएं और आगे जा रही हैं। कुछ देश से अपने हितों के लिए ज्यादा समय तक दूसरों की अनदेखी नहीं कर पाएंगे। व्यापार बढ़ाने के लिए, देश के आम नागरिकों की बेहतरी के लिए दूसरे देशों पर निर्भरता जरूरी है। शायद यही वजह है कि चीन का मुख्य समाचारपत्र इशारा करता है कि सीमा विवाद के बावजूद भारत और चीन लंबी दूरी तय कर सकते हैं। 21वीं सदी व्यापार की सदी है, वैश्वीकरण की सदी है। देश एक दूसरे पर निर्भर हैं, यहां से उनको उनकी जरूरतों का ख्याल भी रखना होगा। साझा चिंताएं, ताजा जानकारी और साझा व्यापार, यही मंत्र है जिस पर चलकर देश एक-दूसरे के साथ चल कर विकास कर सकते हैं। संभवत: भारत दुनिया को नई राह दिखा सकता है।
कच्चे तेल का खेल
सऊदी अरब इन दिनों रूस के साथ मिलकर इस बारे में काम कर रहा है कि कैसे अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दामों को स्थिर किया जाए। सऊदी अरब यह भी चाहता है कि इस मामले में पुतिन ईरान पर दबाव डालें। ईरान और सीरिया के साथ दोस्ती के बावजूद पुतिन इस्रायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के भी उतने ही करीब हैं। वे शायद नेतन्याहू को यकीन दिला चुके हैं कि सीरिया और ईरान इस्रायल के वजूद के लिए खतरा नहीं हैं। पुतिन ने कुछ परेशानियों के बावजूद तुर्की के साथ संबंध ठीक रखे और ईरान को मजबूती दी। चीन के साथ बिलियन डॉलर का सौदा किया। क्रीमिया घटनाक्रम के बाद पश्चिमी देशों ने रूस पर कई तरह के प्रतिबंध लगाए। रूस को पैसा चाहिए। लिहाजा पुतिन अपने पत्ते संभल के खेल रहे हंै। वे अपनी अब तक की नीति से हटकर सऊदी अरब से भी संबंध बना रहे हैं तो पाकिस्तान के साथ भी सैन्य संबंध बनाए हैं जिसने भारत की परेशानी बढ़ाई है। राहत की बात ये रही है कि पुतिन ने भारत के खिलाफ काम नहीं किया है। लिहाजा यह तो कहा ही जा सकता है कि हिंद और प्रशांत महासागर क्षेत्र ही इस सदी के वे इलाके हैं, जहां आर्थिक तरक्की होगी। एशिया इस सदी में फले-फूलेगा। चीन, भारत, इंडोनेशिया जैसे देशों की अर्थव्यवस्थाएं तमाम देशों को खींचेगी, सबसे ज्यादा आबादी वाला इलाका ये पहले से ही है। व्यापार, आर्थिक हित, सामरिक समीकरण, आतंकवाद, तस्करी जैसे मुद्दों से इस इलाके के देशों को जूझना होगा। यहां कोई न तो स्थाई दोस्त होगा और न ही स्थायी दुश्मन।
तीन संभावनाएं
सामरिक-आर्थिक नजरिये से देखा जाए तो पूरे विश्व में तीन संभावनाएं दिख रही हैं। पहली चीन-रूस धुरी, जो सबसे ज्यादा मजबूत होती दिख रही हैं। चीन और रूस के बीच तनाव के मुद्दे कम हैं। दोनों को एक-दूसरे की जरूरत है। दोनों सटे हुए हैं। चीन का पैसा और रूस के सैन्य सामान किसी भी ब्लॉक से टक्कर लेने ताकत रखते हैं और अमेरिकी की ताकत को कम कर सकते हैं। दूसरी संभावना है अमेरिका-भारत और जापान जैसे देशों का ब्लॉक, जो चीनी साम्राज्यवाद को रोकने की ताकत रखता है। इसमें यूरोपीय संघ के कुछ देश शामिल होंगे। भारत का बाजार अमेरिका की जरूरत है और अमेरिकी सैन्य सामान की भारत को। लिहाजा दोनों करीब आकर एक दूसरे को फायदा पहुंचा सकते हैं। तीसरी संभावना अमेरिका-रूस की बनती है। डोनाल्ड ट्रंप तो संकेत दे ही रहे हैं। यह भारत के लिए भी राहत की बात हो सकती है। हिंदुस्थान उस ब्लॉक का अद्योषित हिस्सा हो सकता है। हालांकि ज्यादातर जानकार तीसरी संभावना से इनकार करते हैं। प्रोफेसर शीतल शर्मा कहती हैं कि रूस-चीन दोस्ती दुनिया के शक्ति संतुलन को बदलेगी। भारत को उससे नुकसान कम है। प्रधानमंत्री मोदी ने हाल ही में कहा है कि सीमा विवाद के बावजूद भारत-चीन के बीच एक भी गोली नहीं चली। इसके गहरे मायने हंै। यदि अपने हित पर गौर करें तो दोनों देश एक-दूसरे के साथ आगे बढ़ सकते हैं। ये तमाम संभावनाओं का खेल होगा, कौन देश अपने पत्ते किस तरह खेलता है। भारत इस वक्त बेहतर स्थित में है। चीन को सीपैक से उतना फायदा नहीं, जितना भारत-चीन संबध बेहतर होने की स्थिति में किसी तरह की सड़क बनने से होगी, जो दोनों देशों के हितों का ध्यान रखे।
-साथ में संतोष वर्मा
हरफनमौला पुतिन
17 वर्षों से रूस की सत्ता पर काबिज व्लादिमिर पुतिन के बारे में विश्व को कम पता है। लोग यही जानते हैं कि वे सेहत का ख्याल रखते हैं। सख्त हंै, दुश्मनों से कड़ाई से निपटते हैं। लेकिन कम लोगों को पता है कि 7 अक्तूबर 1952 को जन्मे पुतिन एक अच्छे अर्थशास्त्री हैं। उन्होंने स्नातकोत्तर डिग्री हासिल की है। 16 साल तक दुनिया की मशहूर जासूसी संस्था केजीबी में काम किया और लेफ्टिनेंट कर्नल के पद तक गए। उनके पिता सोवियत नौसेना में काम करते थे। मां एक फैक्टरी में काम करती थीं।
बोरिस येल्तसिन के बाद सत्ता संभालने वाले पुतिन की साझेदारियां वास्तविकता पर आधारित होती हैं। उनका इकलौता मकसद रूस के हितों को बढ़ावा देना है। वे गठबंधनों की विरासत को ढोने के पक्षकार नहीं हैं, जिनसे रूस के रणनीतिक हित पूरे न होते हों। वे सीरिया, ईरान और इराक की शिया सरकारों का समर्थन करते हैं, क्योंकि सुन्नी चरमपंथ को एक बड़ा खतरा मानते हैं। इस्लामी कट्टरपंथ मध्य पूर्व ही नहीं, बल्कि रूस की सीमा से लगने वाले अन्य देशों में भी अस्थिरता फैला सकता है। वे शिया सरकारों के साथ नजदीकी सहयोग तो कर रहे हैं, लेकिन सुन्नी अरब देशों के साथ औद्योगिक और व्यापारिक रिश्तों को भी आगे बढ़ाना चाहते हैं। हाल ही में रूस की बड़ी तेल कंपनी के मालिक ने सऊदी अरब के तेल मंत्री से मुलाकात कर नई संभावना को बढ़ाया।
विवादों के सौदागर ट्रंप
अप्रत्याशित और विवादास्पद कहे जाते हैं डोनाल्ड ट्रंप। व्यापारी ट्रंप खरबपति हैं। कहते हैं, जहां पैसा होता है, उस जगह को सूंघ लेने की क्षमता रखने वाले ट्रंप संभवत: अमेरिकी चुनाव के इतिहास में सबसे ज्यादा विवादास्पद शख्सियत रहे हैं। उनका चुनाव भी विवादों में रहा। पॉपुलर वोट में पिछड़ने के बाद भी वे राष्ट्रपति बने। आलीशान जीवन जीने वाले ट्रंप दशकों पुरानी अमेरिकी नीतियों को भी बदल रहे हैं।
1946 में जन्मे ट्रंप ने अर्थशास्त्र में डिग्री हासिल की। राजनीति में आने से पहले वे व्यापार के साथ-साथ टीवी में भी काम कर चुके हैं। उनकी आय 350 करोड़ डॉलर है। तीन शादियां कर चुके ट्रंप के 5 बच्चे हैं। राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने आदेश पारित किए जो विवादास्पद रहे हैं। मुसलमानों को अमेरिका में आने से रोकने के आदेश के अलावा ट्रांस पैसिफिक समझौता, पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते से अलग होने के फैसले से उनके आलोचकों की संख्या बढ़ी है।
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