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इस बदलते दौर में एक वास्तविकता तेजी से उभरी है— भारत में भारतीय भाषाओं में इंटरनेट का बढ़ता इस्तेमाल। इस चलन की वजह से बड़ी-बड़ी कंपनियों को अब अपना उत्पाद या सेवाएं भारतीय भाषाओं के माध्यम से प्रस्तुत करने पर विवश होना पड़ रहा है और भारतीय भी अब इस बदलाव के लिए मन बनाते दिख रहे
हिंदी में सोचने, फिर उसका अंग्रेजी में अनुवाद करने के चक्कर में होता यह है कि जो मूलत: हिंदी में सोचा जाता है, वह अंग्रेजी में ठीक वैसा नहीं आ पाता।
— अमर चौधरी , पुस्तक ‘बॉर्न अगेन’ के लेखक
लोग हिंदी में ज्यादा सहज महसूस करते हैं। इनके तकनीकी प्रशिक्षण की सामग्री हिंदी में बने, तो परिणाम बेहतर आएंगे।
—दिवाकर सरस्वती चन्द्र, वरिष्ठ प्रशिक्षण प्रबंधक, डीएचएफएल प्रेमेरिका इंश्योरेंस
रेशू वर्मा
आज के दौर में चीजें बहुत तेज गति से बदल रही हैं, इतनी तीव्रता से कि उन्हें समझना और स्वीकार करना मुश्किल हो रहा है। दादाजी जब अपने स्मार्टफोन से अपनी सेल्फी लेकर उसे फेसबुक पर अपलोड करके कुछ देर बाद उसे मिले लाइक गिन रहे होते हैं, तभी हमें समझ लेना चाहिए कि जमाना उतनी तेजी से बदल गया है, जितनी तेजी की उम्मीद किसी को थी ही नहीं। सिर्फ हिंदी जानने वाली दादीजी ‘परिवार’ नामक व्हाट्सएप समूह में दूर के रिश्तेदार के बच्चे की सालगिरह की फोटो देखकर मुंह से बोलकर बधाई टाइप करवा रही होें, तो समझना चाहिए कि वक्त बदल गया है। और वक्त जितनी तेजी से बदला है, उससे ज्यादा तेजी से इसके बदलने के आसार हैं, ऐसा हाल में हुए एक अध्ययन ने बताया है। केपीएमजी-गूगल द्वारा किये गये इस अध्ययन में जो आंकड़े-तस्वीर सामने आई है, उनसे साफ होता है कि इंटरनेट पर भारतीय भाषाओं की स्थिति बहुत तेजी से बदल रही है और इस बदलाव के लिए अगर संबंधित पक्षों ने तैयारियां नहीं कीं, तो उनके पीछे छूट जाने का पूरा खतरा है।
बदलावों की प्रकृति ऐसी ही होती है, जब वे आ रहे होते हैं, तो अधिकतर को उनकी ताकत का अंदाजा नहीं होता। पर जब वे हो चुके होते हैं तो कई संस्थान, कई कंपनियां, कई हुनर कूड़े के ढेर में दिखाई पड़ते हैं। और इंटरनेट पर भारतीय भाषाओं की लगातार बढ़ती ताकत कुछ इसी तरह के बदलाव की द्योतक है।
तेज हुई रफ्तार भारतीय भाषाओं की
केपीएमजी-गूगल अध्ययन ने साफ किया है कि 2016 में भारतीय भाषाओं के प्रयोक्ता तेईस करोड़ चालीस लाख थे और अंग्रेजी के प्रयोक्ता सत्रह करोड़ पचास लाख थे। 2021 तक भारतीय भाषाओं के प्रयोक्ताओं की तादाद तरेपन करोड़ साठ लाख हो जाएगी और अंग्रेजी वाले मुश्किल से बढ़कर बीस करोड़ तक पहुंचेगे। साफ है कि भारतीय भाषाओं की विकास दर के मुकाबले अंग्रेजी की विकास दर बहुत कम है। भारतीय भाषाएं सालाना 18 प्रतिशत की दर से उछलेंगी और अंग्रेजी बोलने वाले 3 प्रतिशत सालाना की रफ्तार से आगे जाएंगे। 18 बनाम 3 के आंकड़े में भविष्य की मीडिया की और कारोबार की चुनौतियां छिपी हैं। अध्ययन के मुताबिक अगले पांच साल में हर 10 नए इंटरनेट प्रयोक्ताओं में से 9 भारतीय भाषाओं के ही होंगे।
यानी इंटरनेट की पहुंच बढ़ रही है, यह कहना एक सरलीकृत बयान है जबकि ज्यादा समझदारीपूर्ण बयान यह है कि इंटरनेट हिंदी हो रहा है, इंटरनेट मलयाली हो रहा है, इंटरनेट तमिल हो रहा है। भारतीय भाषाएं इंटरनेट पर ऐसी जगह बनाएंगी, कि अगले पांच साल में हर दस नये इंटरनेट प्रयोक्ताओं में से 9 भारतीय भाषाओं के होंगे। ऐसा अनुमान तो भारतीय भाषाओं के घोर समर्थकों ने भी नहीं लगाया था।
बदल रही है स्मार्टफोन की भाषा
यह अनायास नहीं है कि तमाम फोन कंपनियों ने भारतीय भाषाओं के प्रति खास उदारता दिखानी शुरू कर दी है। हिंदी, तमिल, कन्नड़ मोबाइल फोन में दिखाई पड़ने लगी हैं। बड़ा बाजार यहीं से आने वाला है। अभी करीब 34 करोड़ स्मार्टफोन हैं, आने वाले 5 साल में करीब 18 करोड़ स्मार्टफोन और खरीदे जाएंगे और इनमें से 90 प्रतिशत भारतीय भाषाओं के प्रयोक्ताओं द्वारा ही खरीदे जाएंगे। स्मार्टफोन का मतलब सिर्फ बातचीत और एसएमएस नहीं होता। इंटरनेट के जरिए उसमें मनोरंजन, शिक्षा और खबरें भी आती हैं। बाजार यहीं है। यह पहले भी देखा जा चुका है, पर मुख्यधारा के माध्यमों में, जैसे टीवी पर खेल चैनलों ने कुछ साल पहले हिंदी भाषा अपनाना शुरू किया था। पहले हिंदी और अंग्रेजी दोनों में कमेंट्री होती थी। पर अब हिंदी के महत्व को देख ऐसे चैनल उपलब्ध हैं जो सिर्फ हिंदी में ही खेल को पेश करते हैं। पर बात सिर्फ खेल की कमेंट्री की नहीं है। असल मुद्दा भाषा से जुड़ा अर्थशास्त्र है। जिसकी जेब में पैसा है, वह कौन-सी भाषा बोलता है, यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि आखिर तो उसी की जेब से पैसा निकलवाना है और इसमें मीडिया की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका है। इंटरनेट मीडिया का वाहक है। इसलिए खरीदार कौन-सी भाषा बोल समझ रहे हैं, यह सवाल अत्यन्त महत्वपूर्ण हो गया है।
अपनी भाषा में आॅनलाइन खरीदारी
अभी करीब चार करोड़ बीस लाख भारतीय भाषाओं के प्रयोक्ता आॅनलाइन खरीदारी करते हैं। अध्ययन के मुताबिक खरीदारों की इस संख्या में हर साल 32 प्रतिशत की बढ़ोतरी होगी यानी 2021 तक यह तादाद 16 करोड़ पचास लाख तक पहुंच जाएगी। अर्थात् भारतीय भाषाओं के प्रयोक्ता बढ़-चढ़कर आॅनलाइन खरीदारी कर रहे होंगे। आॅनलाइन खरीदारी के भारतीय भाषाओं में होने में मीडिया और विज्ञापन के गहरे निहितार्थ हैं। जिस भाषा में खरीदारी हो रही है, उस भाषा के विज्ञापन चाहिए यानी विज्ञापन जगत पर इंग्लिश का प्रभुत्व टूटना चाहिए। जिस भाषा के खरीदार की जेब हल्की हो रही है, उसे अपनी भाषा में इश्तिहार देखने का हक है। 2021 में कुल भारतीय भाषाओं में इंटरनेट प्रयोक्ताओं में करीब 38 प्रतिशत हिंदी वाले होंगे यानी करीब बीस करोड़ हिंदी वाले इंटरनेट प्रयोक्ता होंगे। यह 20 करोड़ का आंकड़ा क्या है, इसे समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि पूरे ब्रिटेन की जनसंख्या यानी करीब छह करोड़ पचास लाख के तीन गुना से भी ज्यादा होंगे हिंदी वाले। ये हिंदी वाले सिर्फ हिंदी बोलने वाले नहीं हैं, ये ऐसे हिंदी वाले होंगे जो आॅनलाइन खरीदारी में मोबाइल फोन से लेकर टी शर्ट तक खरीद रहे होंगे। इसलिए भारतीय भाषाओं का अर्थशास्त्र बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। 32 प्रतिशत की विकास दर का बहुत महत्व है। दुनियाभर में मंदी का माहौल है, विकसित देशों में 2 प्रतिशत-4 प्रतिशत विकास को बड़ा विकास माना जाता है। ऐसे में 32 प्रतिशत विकास का आंकड़ा कितना महत्वपूर्ण है, इसे समझा जा सकता है। जिस भाषा के पास खरीदार हैं, वह ताकतवर भाषा है। इसी तर्क के आधार पर अंग्रेजी ताकतवर भाषा मानी जाती रही है। समाज के संपन्न तबके द्वारा बोली जाने वाली भाषा में संवाद की जरूरत हर उस माल विक्रेता को पड़ती है, जिसे अपना महंगा और प्रीमियम माल संपन्न तबके को बेचना है। तो कुल मिलाकर दो आशय हैं इन आंकड़ों के— एक तो यह भारतीय भाषा बोलने वाले संपन्न हो रहे हैं, दूसरे वे आॅनलाइन खरीदारी के लिए ज्यादा से ज्यादा उत्सुक भी हो रहे हैं। अपनी भाषा में बोलने-बरतने की सहजता अलग ही होती है। आखिर विभिन्न प्रकार की वस्तुएं आॅनलाइन बिकने के साथ-साथ बौद्धिक उत्पाद भी आॅनलाइन बेचना आसान रहेगा। जैसे किताबें, प्रशिक्षण सामग्री को हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में बेचा जाना संभव हो सकेगा। डीएचएफल प्रेमिरिका इंश्योरेंस के वरिष्ठ प्रशिक्षण प्रबंधक दिवाकर सरस्वती चंद्र कहते हैं कि हमारे समाज का एक बड़ा समूह है, जिसकी मातृभाषा हिंदी है, ये लोग हिंदी में ज्यादा सहज महसूस करते हैं। इनके प्रशिक्षण की सामग्री हिंदी में बने तो परिणाम बेहतर आएंगे। गौरतलब है कि अभी तक तकनीकी विषयों से जुड़े अधिकांश प्रशिक्षण कार्यक्रमों की भाषा मूलत अंग्रेजी होती है।
बौद्धिक उत्पादों के बारे में मूलत: हिंदी में सोचना, तैयार करना और बेचना अब बदलते वक्त में आसान होगा, क्योंकि इंटरनेट पर हिंदी समेत तमाम भारतीय भाषाएं धूम मचा रही हैं। ‘बॉर्न अगेन’ नामक किताब के लेखक और लोकप्रिय प्रेरक-चिंतक वक्ता अमर चौधरी इस संबंध में एक महत्वपूर्ण बात कहते हैं कि हिंदी में सोचना, फिर उसका अंग्रेजी में अनुवाद करना एक जटिल प्रक्रिया है। इस चक्कर में होता यह है कि जो मूलत: हिंदी में सोचा जाता है, वह अंग्रेजी में ठीक वैसा नहीं आ पाता। इसलिए जो सोचा गया और जो पेश किया गया, उसमें फर्क रहता है। इंटरनेट पर हिंदी की ताकत बढ़ेगी तो तमाम बौद्धिक उत्पादों को हिंदी में सोचा जा सकेगा और हिंदी में ही प्रस्तुत भी किया जा सकेगा। इससे मूल भाव जस का तस बना रहेगा।
जीवी कॉलेज आॅफ एजुकेशन संगरिया, हनुमानगढ़, राजस्थान में सहायक प्रोफेसर क्षिप्रा जायसवाल हिंदी के इंटरनेट के मजबूत होने को शिक्षा के नजरिये से बहुत महत्वपूर्ण मानती हैं। उनका कहना है कि भारत में अगर इंटरनेट पर भारतीय भाषाओं में आसानी से ज्ञान उपलब्ध होगा, तो हमारे विद्यार्थियों की गुणवत्ता और निखरेगी। अभी तकनीकी विषयों की अधिकांश सामग्री अंग्रेजी में ही मिल पाती है। वरिष्ठ चिकित्सक डॉ. हिमांशु वर्मा इंटरनेट पर हिंदी की मजबूती को एक बेहतर विकास मानते हुए कहते हैं कि हिंदी में अगर तकनीकी विषयों की जानकारी भी मिले तो ज्ञान-संसार और समृद्ध होगा। चिकित्सा से जुड़ी तमाम जानकारियां हिंदी में तब ही सही मंजिल पाएंगी जब इंटरनेट पर हिंदी बोलने वाले और हिंदी भाषा, दोनों ही मजबूत स्थिति में होंगे।
भारतीय भाषाओं में आॅनलाइन खबर
अभी भारतीय भाषाओं के करीब दस करोड़ साठ लाख प्रयोक्ता इंटरनेट के जरिये खबर पढ़ते हैं। इस आंकड़े के अगले पांच साल 2021 में बढ़कर अट्ठाइस करोड़ चालीस लाख होने की उम्मीद है। यानी कुल मिलाकर सोशल मीडिया, फेसबुक, ट्विटर समेत तमाम इंटरनेट प्लेटफार्मों पर भारतीय भाषाओं और हिंदी का महत्व बढ़ने वाला है। पर सवाल यह है कि क्या इस बदलते परिदृश्य की तैयारियां भारतीय कारोबारियों, लेखकों, पत्रकारों में दिखायी पड़ती हैं? इस सवाल का जवाब है—नहीं।
पत्रकारिता की पढ़ाई
आज पत्रकारिता का महत्वपूर्ण हिस्सा बना सोशल मीडिया अब भी कई महत्वपूर्ण विश्वविद्यालयों के पत्रकारिता पाठ्यक्रमों में शामिल नहीं है। बच्चे पत्रकारिता पढ़ लेते हैं, पर उन्हें यह नहीं सिखाया जाता कि 140 अक्षरों में कोई बात कैसे रख दी जाए। तमाम कंपनियां अब अपने इश्तिहार अभियान सोशल मीडिया पर चला रही हैं। वे अपनी उपस्थिति ट्विटर, फेसबुक पर चाहती हैं। इसके लिए उन्हें लोग चाहिए। ये लोग स्वशिक्षा से सीख रहे हैं। भारतीय शैक्षिक संस्थानों में अभी भी इन्हें सिखाने के संस्थागत इंतजाम नहीं हैं। पत्रकारिता की शिक्षा दे रहे भारतीय शैक्षिक संस्थानों को जान लेना चाहिए कि 2017 में पहले हिंदी अखबार ‘उदंत मार्तंड’ के बारे में पढ़ाना जरूरी है पर फेसबुक, ट्विटर पर बेहतर प्रस्तुतीकरण कैसे किया जाए, यह भी बताना बहुत जरूरी है।
जो आॅनलाइन नहीं, वह कहीं नहीं
करीब 15 साल पहले जब भारतीय पत्रकारिता ने आॅनलाइन होना शुरू किया था, तब कई अखबार मालिकों को लगा था कि आॅनलाइन पत्रकारिता की भूमिका कुछ खास नहीं होगी। मुख्यधारा की पत्रकारिता तो मुद्रित पत्रकारिता ही मानी जाएगी। पर यह दृश्य बदला। अब हाल यह है कि किसी भी कंपनी, किसी भी संस्थान की अगर आॅनलाइन उपस्थिति नहीं है, तो उसकी उपस्थिति लगभग न के बराबर मानी जाएगी, क्योंकि अब खरीदारी की आदतें बदल रही हैं। इन नई आदतों के हिसाब से ही गूगल का अध्ययन बता रहा है कि भविष्य में ज्यादा से ज्यादा भारतीय भाषाओं वाले हिंदी भाषा में इंटरनेट का प्रयोग करेंगे। ऐसे दृश्य देखे जा सकते हैं कि 17 वर्षीय पोती अपने कपड़ों की खरीदारी के लिए सबसे पहले फ्लिपकार्ट की साइट पर जाकर कपड़े देखेती है, फिर अपनी दादी को भी सिखाती है कि वे उस साइट से अपने लिए एक घड़ी कैसे मंगवाएंगी। यह सब देखते ही देखते हो गया है। दादियां, नानियां व्हाट्सएप समूहों में सहभागिता करती दिखने लगी हैं, जो अपनी भाषाओं में ही संभव है।
परंपरागत सोच से आगे
तमाम भारतीय कारोबारियों को अब नई चुनौतियों पर विचार कर लेना चाहिए। दुनिया आॅनलाइन हो रही है। इसका मतलब यह नहीं है कि आॅफलाइन या आमने-सामने का कारोबार खत्म हो जाएगा। वह कभी खत्म नहीं होगा। जो कंपनियां अब तक सिर्फ आॅनलाइन चीजें बेचती थीं, वे भी अब आॅफलाइन वास्तविक दुकानें खोल रही हैं। जैसे, जियोमी नामक चीनी मोबाइल कंपनी कुछ समय पहले तक अपने मोबाइल सिर्फ आॅनलाइन बेचती थी, पर अब उसने भारत में दुकानें खोल ली हैं। यानी आॅफलाइन कारोबार खत्म नहीं हो रहा है, पर विकास की नयी संभावनाएं आॅनलाइन से आ रही हैं। यह भी देखने में आया है कि तमिल, कन्नड़, तेलुगु भाषी इंटरनेट से जुड़े बदलावों को बहुत तेजी से आत्मसात कर रहे हैं, हिंदी वाले ही इसमें थोड़ा वक्त ले रहे हैं। नतीजतन गुड़ की चिक्की जैसी सामान्य वस्तु की आॅनलाइन खरीदारी करने निकले ग्राहक को कोच्चि के गुड़ चिक्की कारोबारी की आॅनलाइन उपस्थिति तो दिख जाती है, पर गुड़ के केंद्र मेरठ के गुड़ चिक्की कारोबारी अपनी आनलाइन उपस्थिति उतनी मजबूती से दर्ज नहीं करा पाते।
कार्यशालां, सेमिनार, ज्ञान-चर्चाएं
बदले माहौल को हिंदी क्षेत्र के कारोबारियों, पत्रकारों, मीडिया संस्थानों को आसान भाषा में समझाने के लिए कार्यशालाएं, सेमिनार वगैरह आयोजित किये जाए तो बेहतर होगा। लोगों तक ज्ञान पहुंचाया जाए। इंटरनेट ने दुनिया पूरी तरह बदल कर रख दी है, इस बदलाव के साथ जो नहीं चल पा रहा है, उसके लिए विकास का नहीं, बल्कि अस्तित्व का संकट खड़ा होने वाला है। कुल मिलाकर सामने एक परिदृश्य दिखायी पड़ रहा है बदलाव का। इसका सकारात्मक लाभ उठाने कि लिए तैयारी जरूरी है। वरना कुछ लोग इसमें पीछे छूट जायेंगे और बाद में कुंठित होकर रह जाएंगे।
(लेखिका संचार और तकनीकी मामलों की जानकार हैं)
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