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पीयूष द्विवेदी
भारत देश में हिंदी को लेकर बहस अक्सर चलती ही रहती है। लेकिन अभी हाल ही में हिंदी के प्रयोग के संबंध में गठित एक संसदीय समिति की रिपोर्ट राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को सौंपी गई थी। उसे मंजूरी दिए जाने के बाद यह बहस एक बार पुन: प्रासंगिक हो उठी है। रिपोर्ट की सिफारिशों के मुताबिक राष्ट्रपति और सरकार के मंत्रियों समेत सभी प्रतिष्ठित पदों पर आसीन व्यक्तियों, जिन्हें हिंदी आती हो, के लिए अपने वक्तव्य हिंदी में देना जरूरी हो जाएगा। साथ ही, केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) तथा अन्य केन्द्रीय विद्यालयों में 10वीं तक की शिक्षा में हिंदी को अनिवार्य कर देने की सिफारिश भी समिति द्वारा की गई है। उसने ऐसी और भी कई सिफारिशें की हंै, जिन्हें राष्ट्रपति ने मंजूरी दे दी है। हालांकि अभी ये लागू नहीं हुई हैं, मगर अभी से ही इन पर देश के गैर-हिंदीभाषी राज्यों के दलों की भृकुटियां तन गई हैं। इस रिपोर्ट के स्वीकृत होने के बाद द्रमुक नेता स्टालिन ने केंद्र सरकार पर आरोप लगा दिया कि वह गैर-हिन्दीभाषी राज्यों पर हिंदी थोप रही है।
वैसे, यह लड़ाई बेहद पुरानी है। जब भी देश में हिंदी के हित में किसी राष्ट्रव्यापी पहल की बात आती है, उस पर तमिलनाडु आदि राज्यों के राजनेताओं का रुख बिना सोचे-विचारे तल्ख हो जाता है। गैर-हिंदीभाषी राज्यों का हिंदी के प्रति यह विद्वेष समझ से परे है। एक तरफ तो वे अपने यहां विदेशी अंग्रेजी को अपनाए हुए हैं, दूसरी तरफ हिंदी के नाम से भी उन्हें चिढ़ होती है। यदि उन्हें सिर्फ अपनी क्षेत्रीय भाषाओं से ही लगाव होता और इसी कारण हिंदी का विरोध कर रहे होते तो उन्हें अंग्रेजी को भी नहीं अपनाना चाहिए था। लेकिन, उन्हें अंग्रेजी से तो कोई दिक्कत नहीं है मगर इस देश, जिसके वे अंग हैं, की संविधान स्वीकृत राजभाषा हिंदी से उन्हें समस्या होती है। प्रश्न यह है कि यदि इन गैर-हिंदीभाषी क्षेत्रों के लोग अपनी क्षेत्रीय भाषाओं के साथ अंग्रेजी को अपना सकते हैं, तो हिंदी को अपनाने में उन्हें क्या दिक्कत है? कहना न होगा कि हिंदी को लेकर कुछ प्रदेशों का विरोध तार्किक कम पूर्वाग्रह से प्रेरित अधिक है। यह एक अनुचित हठधर्मिता ही है, जिसने आज से पांच दशक पहले हिंसक आन्दोलन का रूप ले लिया था। दरअसल तत्कालीन नेहरू सरकार ने तब उस हिंदी विरोधी आन्दोलन के आगे झुककर बड़ी भूल की थी, जिसके फलस्वरूप आज दक्षिण में हिंदी विरोध इतना बढ़ चुका है।
उल्लेखनीय है कि हिंदी की महत्ता की बात करने का यह अर्थ नहीं कि अन्य भारतीय भाषाओं को कमतर समझा जा रहा है। निस्संदेह कोई भी भारतीय भाषा हिंदी से कम नहीं है। सबका बराबर स्थान है। लेकिन, भारत को एक सूत्र में पिरोए रखने और संस्कृतियों का संवहन करने की सर्वाधिक सामर्थ्य यदि किसी भाषा में है, तो वह फिलहाल हिंदी में ही है। हिंदी ही वह भाषा है, जो अंग्रेजी का जवाब बनकर देश के अंग्रेजीकरण को रोक सकती है। कोई अन्य भारतीय भाषा फिलहाल अंग्रेजी का सामना कर पाने की स्थिति में नजर नहीं आती। उदाहरणस्वरूप हिंदी का विरोध करने वाले तमिलनाडु का उल्लेख करें तो उसने हिंदी को स्वीकार नहीं किया, फलस्वरूप आज उसकी अपनी क्षेत्रीय भाषा के साथ-साथ अंग्रेजी का भी पूर्ण वर्चस्व है, बल्कि अंग्रेजी अधिक ही है। यह लज्जा का विषय होना चाहिए जिसे औपनिवेशिक शासन की देन अंग्रेजी तो बेहतर ढंग से आती है, मगर भारत की भाषा हिंदी के मामले में उनकी जीभ अटक जाती है।
आज हिंदी के लिए जितनी भी चुनौतियां हैं, इनके लिए कहीं न कहीं स्वतंत्रता के पश्चात हमारे नीति नियंताओं की ऐतिहासिक भूलें जिम्मेदार हैं। आज हिंदी को अपने अस्तित्व के लिए अंग्रेजी से संघर्ष करना पड़ रहा है। रोजगार क्षेत्र और शहरी बोलचाल में तो अंग्रेजी का लगभग वर्चस्व हो ही चुका है। इसी का परिणाम है कि आज कथित हिंग्लिश चलन में आ गई है। आजाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं नेहरू के राजभाषा अधिनियम में हिंदी के साथ अंग्रेजी को राजकाज की भाषा के रूप में सिर्फ दशक भर के लिए रखा गया था, लेकिन ऐसा कभी हो न सका।
आज इस देश में अंग्रेजी सिर्फ एक भाषा भर नहीं रह गयी है, यह उच्चताबोध का साधन व प्रतीक बन गई है। यहां तक कि किसी व्यक्ति के विविध विषयों के ज्ञान से अधिक महत्व उसके अंग्रेजी ज्ञान का हो गया है। इस अंग्रेजी के प्रति अन्धोत्साही आकर्षण में डूबे लोग देश के गांव-शहर दोनों जगह हैं। अमीर-गरीब जैसी भेद भी इस मामले में नहीं रह गए हैं। कितना भी कम कमाने वाला व्यक्ति हो, अब उसका जोर इसी पर रहने लगा है कि उसके बच्चे अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्राप्त करें। लोग अपने बच्चों को मां और पापा कहना सिखाने की बजाय ‘फादर’ और ‘मदर’ सिखाने को उत्सुक नजर आने लगे हैं। निस्संदेह रोजगार के सम्बन्ध में आज अंग्रेजी एक सीमा तक इस देश की मजबूरी है, मगर फिर भी वह है तो मजबूरी ही न! और मजबूरियों को खत्म करने या कम करने के लिए प्रयास किया जाता है।
आज हिंदी को बढ़ावा देने की जरूरत तो है ही, देश में व्याप रही इस अंग्रेज मानसिकता को जड़ से समाप्त करने की भी है। इसके लिए सबसे बेहतर यही होगा कि देश में शिक्षा का माध्यम हिंदी समेत भारतीय भाषाएं हों। अंग्रेजी सिर्फ एक भाषा के रूप में पढ़ाए जाने तक सीमित रहे, इससे अधिक कुछ नहीं।
वास्तव में तो यह कार्य आजादी के तुरंत बाद ही कर लेना चाहिए था। गांधी जी भी यही चाहते थे। वे कहते थे, ‘‘किसी विदेशी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाना मैं राष्ट्र का बड़ा दुर्भाग्य मानता हूं।’’ इस दृष्टि से कदम उठाने से सरकार को पीछे नहीं हटना चाहिए। Þ
चिकित्सा से जुड़ी तमाम जानकारियां हिंदी में तब ही सही मंजिल पायेंगी जब इंटरनेट पर हिंदी बोलने वाले और हिंदी भाषा, दोनों ही मजबूत स्थिति में होंगे। — डॉ. हिमांशु वर्मा, वरिष्ठ चिकित्सक
भारत में अगर इंटरनेट पर भारतीय भाषाओं में ज्ञान आसानी से उपलब्ध होगा, तो हमारे विद्यार्थियों की गुणवत्ता और निखरेगी।
—क्षिप्रा जायसवाल,सहायक प्रोफेसर, जीवी कालेज आॅफ एजुकेशन, राजस्थान
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