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देश में कितने लोग सैनिक के प्रति विशेष आत्मीयता दिखाते हैं? विदेशों में जब कोई सैनिक वर्दी में दिखता है तो अनजान लोग भी उनका अभिवादन करते हैं, उनका परिवार मुश्किल में हो तो उनकी मदद करते हैं
तरुण विजय
क्कीस परमवीर चक्र विजेताओं के चित्र लगाने वाला जेएनयू देश का प्रथम शिक्षा संस्थान बना, यह खबर है या कल्पना? 16 मई को देश ने आनंद और आश्चर्य से देखा कि कश्मीर की आजादी और सैन्य-विरोधी नारों के लिए कभी चर्चा में आया जेएनयू सैनिकों के सम्मान में एकजुट हुआ। खचाखच भरे सभागार में विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. जगदेश कुमार ने 21 परमवीर चक्र विजेता सेनानियों के चित्रों का उद्घाटन किया। इस अवसर पर वरिष्ठ पूर्व सैन्य अधिकारी, विश्वविद्यालय के वरिष्ठ प्राध्यापक, बड़ी संख्या में छात्र-छात्राएं एवं विद्या वीरता अभियान के कार्यकर्ता उपस्थित थे। कुलपति ने कहा कि यह जेएनयू का राष्टÑवादी स्वरूप दिख रहा है। देश पर आक्रमण केवल बाहर से ही नहीं, भीतर से भी होता है। आज यदि विश्वविद्यालय में छात्र शांति और तन्मयता से कक्षाओं और प्रयोगशालाओं में काम कर रहे हैं तो उसका कारण है कि सीमा पर सैनिक जान हथेली पर रखकर देश की रक्षा कर रहे हैं। उनको नमन करने एवं उनके चित्र विश्वविद्यालय में सुशोभित करने का अवसर पाकर हम कृतज्ञ हुए हैं। इस दृश्य को शब्दों में बांधना कठिन है।
विद्या-वीरता अभियान की प्रेरणा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लेह में सैनिकों से समक्ष दिए उद्बोधन से मिली, जहां वे उपस्थित थे। यह अभियान रक्षा मंत्री अरुण जेटली और मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावडेकर के सहयोग एवं मार्गदर्शन में प्रारंभ हुआ जो अब देश के 1000 विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों में क्रियान्वित हो रहा है। लेकिन ऐसा क्यों होना चाहिए? पराक्रमी सैनिकों के चित्र हमारे शिक्षा संस्थानों में क्यों लगने चाहिए? इसका उत्तर हमें अपने अन्तर्मन से पूछना होगा या शायद लेफ्टिनेंट उमर फैयाज की मां से पूछना पड़े। जवाब में शायद यह सच पढ़ने को मिले-
‘‘ऐ दोस्त, हम तुम एक साथ पढ़े, बढ़े।
तुम्हें सर्वश्रेष्ठ कमाई की कंपनी मिली,
मुझे सर्वश्रेष्ठ पराक्रम वाली पल्टन मिली।
तुम्हारे परिवार का हर सदस्य तुमसे मिलने आता था,
तुम्हारे बंगले में तरसता था शायद जल्दी ही मैं अपने बूढ़े माता-पिता से मिल पाऊं,
तुम दिवाली, होली पलकों और पिचकारियों से मनाते थे,
हम गोलियों के बीच खून की धाराओं से नहाते थे,
तुम्हारी शादी हो गई, तुम्हारी पत्नी तुम्हारे साथ दुनिया घूम आई,
मैं अपनी बहन से राखी बंधाने भी शायद कभी जा पाया,
हम दोनों घर लौटे, हम दोनों का हमारे घर वालों ने स्वागत किया-
तुम अपनी गाड़ी से दमदमाते उतरे तो बैंड-बाजे बजे
मेरा शव तिरंगे में लिपटा आया तो हवा में लहराती बंदूकों ने सलामी दी।
मेरे दोस्त! हम दोनों ने अठारह साल की उम्र में घर छोड़ा था।’’
उमर का यह खत हम सबसे सवाल पूछ रहा है। आपके पास जवाब है? विद्या वीरता अभियान इस जवाब को तलाशने की मुहिम है। वास्तव में कटु सत्य यह है कि हम अपने जीवन में, अपने आसपास सैनिकों का रुझान करने में कम रह जाते हैं। दफ्तर में काम के लिए, स्कूल में बच्चों के प्रवेश के लिए, बस की कतार में टिकट के लिए या अनारक्षित डिब्बे में रेल यात्रा करते हुए क्या हम सैनिक के प्रति विशेष आत्मीयता दिखाते हैं? मैंने विदेशों में देखा है कि हवाईअड्डों पर यदि सैनिक विमान में सवार होने को कतार में आते हैं तो शेष यात्री उन्हें अपने से आगे कर खुश होते हैं। यदि सैनिक वर्दी में रास्ते में दिख जाएं तो अपरिचित, अनजान नागरिक भी अभिवादन करते हैं। यदि सैनिक के परिवार को कोई कष्ट या समस्या है तो वहां के लोग इकट्ठा होकर उसका समाधान करते हैं, पर भारत में क्या ऐसा होता है?
उत्तराखंड का ही उदाहरण लें। कुछ समय पहले वहां 500 जवानों की भर्ती होनी थी। प्रदेश के कोने-कोने से 38000 युवाओं ने प्रार्थनापत्र भेजे। जगह तो 500 के लिए है, बाकी पर क्या बीतती होगी? फौज में भर्ती होना आज भी हजारों-लाखों परिवारों के लिए खानदानी इज्जत का सवाल है। गत वर्ष भारतीय सैन्य अकादमी की दीक्षांत परेड के समय ले.जनरल ओ.पी. कौशिक के परिवार से मिला। वे पोते को सर्वश्रेष्ठ कैडेट का पुरस्कार ‘सम्मान खड्ग’ मिलने की खुशी मना रहे थे। दादा, पिता, बेटा और अब पोता फौजी। किसी और कार्य में शहादत व कठिनतम जीवन जीने के प्रति इतनी परंपरागत श्रद्धा है? यह परंपरा सम्मानित हो, इसके लिए देशभर में विद्या-वीरता अभियान का स्वागत हुआ। केवल जेएनयू ही नहीं, जामिया मिलिया इस्लामिया, अरुणाचल में राजीव गांधी केंद्रीय विवि, केरल केंद्रीय विवि, जम्मू केंद्रीय विवि सहित सैकड़ों शिक्षा संस्थान अपने परिसरों में परमवीर चक्र विजेता सेनानियों के चित्र लगाने आगे आए हैं।
उ.प्र. के राज्यपाल रामनाइक भिन्न, विशिष्ट व असाधारण कार्यों के लिए विख्यात हैं। बंबई का नाम मुंबई, संसद में वन्देमातरम् जैसे कार्य उन्हीं की देन हैं। राज्यपाल बनने के बाद उन्होंने लखनऊ के केंद्रीय कमान में उ.प्र. से परमवीर चक्र विजेता सेनानियों की पत्थर पर उत्कीर्णित भव्य प्रतिमाएं स्थापित करवार्इं। अब वे उ.प्र. के विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों में परमवीरों के चित्र भी लगवाने का अभियान हाथ में लेंगे। राष्टÑ का भविष्य छात्र और युवा ही संवारते हैं। बंकिम का आनंदमठ हो या विवेकानंद का बेलूर मठ या डॉ. हेडगेवार की शाखा- सब ओर केवल छात्र, युवा ही दिखते हैं जिन्होंने राष्टÑ की नियति को रचा।
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