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तुलसी और कबीर के निकष अलग

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May 29, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 29 May 2017 12:26:40


तथाकथित जनवादी या कहें, भारत की सांस्कृतिक भाव धारा के विरोधी लेखकों, आलोचकों ने तुलसी के बरक्स कबीर को रखते हुए राम-भक्त तुलसी को हाशिए पर दिखाने का खेल बरसों से चलाया हुआ है  

अनंत विजय
क्या यह संभव है कि एक कालखंड में या अलग-अलग कालखंड में दो या तीन कवि महान हो सकते हैं? क्या एक कवि को दूसरे कवि के निकष पर कसना और फिर उनका मूल्यांकन करना उचित है? एक कवि के पदों में से दो-एक पदों को उठाकर उन्हें प्रचारित कर देना और दूसरे कवि के चंद पदों के आधार पर उनको क्रांतिकारी ठहरा देना कितना उचित है? पर हमारे देश के दो महान कवियों के साथ यह सब किया गया। तुलसीदास को नीचा दिखाने के लिए कबीर को उठाने का सुनियोजित खेल खेला गया।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास में तुलसीदास को लेकर अपनी मान्यताओं को स्थापित किया था। जब 20वीं शताब्दी में हजारी प्रसाद द्विवेदी आए तो उनके सामने यह चुनौती थी कि वे आचार्य शुक्ल से अलग दृष्टि वाले आलोचक के तौर पर खुद को स्थापित करें। इसके लिए यह आवश्यक था कि वे कोई नई स्थापना लेकर आते या पहले से चली आ रही स्थापनाओं को चुनौती देते। द्विवेदी जी के सामने शुक्ल जी की आलोचना थी जिसमें उन्होंने तुलसी को स्थापित किया था। द्विवेदीजी ने माहौल के हिसाब से कबीर की व्याख्या की और उन्हें क्रांतिकारी कवि सिद्ध किया। इस क्रम में उन्होंने तुलसीदास को प्रत्यक्ष रूप से कमतर आंकने की कोशिश नहीं की, लेकिन तुलसी पर गंभीरता से स्वतंत्र लेखन न करके उन्हें उपेक्षित रखा। कालांतर में हिंदी साहित्य में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शिष्यों का बोलबाला रहा और उन सबने द्विवेदी जी की स्थापना को मजबूत करने के लिए कबीर को श्रेष्ठ दिखाने को अलग-अलग तरह से लेखन किया और तुलसी को उपेक्षित ही रहने दिया। विनांद कैलवर्त ने अपनी पुस्तक-द मिलेनियम कबीर वाणी, अ कलेक्शन आफ पदाज-में साफ तौर पर लिखा है कि निहित स्वार्थों ने कबीर को बहुत जल्दी हथिया लिया। संभव है कि विनांद कैलवर्त की स्थापनाएं अतिरेकी हों, लेकिन इस बात से कहां इनकार किया जा सकता है कि कबीर का इस्तेमाल विचारधारात्मक उद्देश्यों और फायदों के लिए किया गया।
कबीर को क्रांतिकारी दिखाने और तुलसी को परंपरावादी साबित करने की होड़ में कुछ क्रांतिकारी लेखकों ने तुलसीदास को वर्णाश्रम व्यवस्था का पोषक, नारी और शूद्र विरोधी करार देकर उनकी घोर अवमानना की। रामचरित मानस की एक पंक्ति ‘ढोल गंवार…’ को पकड़कर तुलसी को कलंकित करने की कुत्सित कोशिश की गई। तुलसी की कविता की व्याख्या करने वाले आलोचक या लेखक बहुधा बहुत ही सुनियोजित तरीके से तुलसीदास के उन पदों को प्रमुखता से उठाते हैं जिनसे उनकी छवि स्त्री विरोधी और वर्णाश्रम व्यवस्था के समर्थक की बनती है। तुलसीदास को स्त्री विरोधी करार देने वाले मानस में अन्यत्र स्त्रियों का जो वर्णन है, उसकी ओर देखते ही नहीं हैं। एक प्रसंग में तुलसीदास कहते हैं-कत विधि सृजीं नारि जग माहीं, पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं। इसी तरह मानस में पुत्री की विदाई के प्रसंग में है- ‘बहुरि बहुरि भेटहिं महतारी, कहहिं बिरंची रचीं कत नारी।’ इसके अलावा तुलसी साफतौर पर कहते हैं-रामहि केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जाननिहारा। इन पदों को आलोच्य पद के सामने रखकर तुलसीदास का मूल्यांकन किया जाना चाहिए। नारी के अलावा जब उनको शूद्र विरोधी कहा जाता है तब भी खास विचार के पोषक आलोचक तुलसी के उन पदों को भूल जाते हैं जहां वे रामराज्य की बात करते हुए सबकी बराबरी की बात करते हैं। तुलसी जब रामराज्य की बात करते हैं तो चारों वर्णों के सरयू नदी के तट पर साथ स्नान करने का वर्णन करते हैं जिसकी ओर क्रांतिकारी लेखकों का ध्यान नहीं जाता। वे कहते हैं-राजघाट सब बिधि सुंदर बर, मज्जहिं तहां बरन चारिउ नर। यहां यह खेल तुलसीदास तक ही नहीं चला बल्कि निराला को लेकर भी इस तरह का खेल खेला गया। निराला ने कल्याण पत्रिका के भक्ति अंक से लेकर कई अन्य अंकों में जो लेख लिखे थे, उन्हें ओझल कर दिया गया। नई पीढ़ी के पाठकों को इस बात का पता ही नहीं है कि भक्त निराला ने किस तरह की रचना की।
कबीर को तुलसी के सामने रखकर जिस तरह से तुलनात्मक बातें हो रही थीं उसी क्रांतिकारी व्याख्या से उत्साहित होकर एक पत्रिका ने तुलसीदास को हिंदू समाज का ‘पथभ्रष्टक’ साबित करने के लिए लेखों की एक श्रृंखला प्रकाशित की थी जो बाद में पुस्तकाकार भी छपी। बावजूद इसके तुलसी की व्याप्ति भारतीय मानस से जरा भी नहीं डिगी। तुलसीदास के सामने कबीर को सोशल रिवोल्यूशनरी साबित करने वाले यह भूल गए कि वे वेदांतवादी थे और वैष्णव होने की वजह से एकात्मवाद को बढ़ावा देते थे और सार्वजनिक जीवन में किसी भी तरह के आडंबर के खिलाफ थे। वे राम को मानते रहे। राम का नाम कबीर के पदों में बार बार आता है-‘राम मेरे पिऊ, मैं राम की बहुरिया’ हो या ‘राम निरंजन न्यारा के, अंजन सकल पसारा’। कबीर को राम से अलग करके देखने की गलती बार बार हुई या जान-बूझकर की गई, इस बारे में निश्चित तौर पर कुछ भी कहना मुश्किल है। वामपंथी लेखकों ने लगातार रामचरित मानस को धर्म से जोड़कर मूल्यांकन किया और कबीर को क्रांतिकारी समाज सुधारक और कुरीतियों पर प्रहार करने वाला बताया गया। यहां उनसे एक चूक हो गई। वे यह भूल गए कि किसी कवि की कृति को अगर धर्मग्रंथ का दर्जा हासिल हो जाए तो वह महान हो जाता है। आज मानस की स्थिति क्या है, विचार करिए। लोग उसे मंदिरों में रखते हैं, उसकी पूजा होती है, जन्म-मरण के समय उसका पारायण होता है। एक कवि के लिए इससे बड़ी बात क्या हो सकती है। लेकिन वामपंथी बौद्धिकों को इससे घबराहट होने लगी और उन्होंने तुलसीदास को उनके विचारों के आधार पर खारिज करने की लगातार मुहिम चलाई। लेकिन तुलसीदास की वाणी में वह तेज है जिसने अपनी तमाम आलोचनाओं को धता बताते हुए अपनी लोकव्याप्ति का दायरा और बढ़ाया है।
दरअसल तुलसीदास के सृजन का जो कालखंड है उसमें भारतीय संस्कृति एक संक्रमण के दौर से गुजर रही थी। अपनी समृद्ध विरासत और संस्कृति के प्रति लोगों की निष्ठा कमजोर हो रही थी या कह सकते हैं कि लगभग खत्म सी होने लगी थी। एक के बाद एक लगातार हो रहे विदेशी आक्रमणों से देश जख्मी था। तुलसीदास के सामने एक कवि के रूप में चुनौती थी कि वह जनता को अपने लोक से जोड़ने वाली कोई रचना प्रस्तुत करें। यह अकारण नहीं है कि तुलसीदास ने रामचरित मानस की शुरुआत सरस्वती और गणेश वंदना से की-वणार्नामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि/मंगलानां च कर्त्तरौ वन्दे वाणीविनायकौ। तुलसीदास ने जब रामचरित मानस की रचना की तो एक आदर्श राज्य की अवधारणा को राम के माध्यम से प्रस्तुत किया, जिसे रामराज्य कहा गया। राम का चरित्र एक मर्यादा पुरुष के तौर पर पेश किया जहां वह न्याय के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। एक ऐसा राजा जिसकी प्राथमिकता में उसका राज्य उसके परिवार से पहले है। महाकवि पत्नी के तौर पर जब सीता का चरित्र चित्रण किया तो एक ऐसी आदर्श पत्नी के तौर पर जो अपने पति के मान-सम्मान के लिए राजसी जीवन छोड़ने में देर नहीं लगाती। लोकोपवाद के छींटे पति पर ना पड़ें इसके लिए अग्निपरीक्षा देने को तैयार हो जाती है। पति के वनवास के वक्त उसके साथ कदम से कदम मिलाकर चलती है।  भाई हो तो लक्ष्मण और भरत जैसा जो आदर्श हैं। और तो और, दुश्मन भी बनाया तो रावण को जो उद्भट विद्वान और शिव का उपासक था। तुलसीदास का जो समय था वह कबीर के समय से अलग था। तुलसी के सामने देश का सांस्कृतिक संकट था और वह अपनी लेखनी के माध्यम से उस संकट से मुठभेड़ कर रहे थे। दूसरी तरफ कबीर समाज में व्याप्त कुरीतियों पर प्रहार कर रहे थे। इस तरह दोनों कवियों का निकष अलग था। तुलसी और कबीर की तुलना करने का उपक्रम ही गलत इरादे से किया गया था।
’80 के दशक के अंत में जब राम मंदिर का आंदोलन परवान चढ़ा तो हमारे वामपंथी आलोचक दिग्गजों ने राम को ही कठघरे में खड़ा करने की कोशिशें शुरू कर दीं। उन्होंने लोक अभिवादन का जो सबसे लोकप्रिय तरीका था, राम-राम जी, उसे भी सांप्रदायिकता से जोड़ने की कोशिश की। यह अनायास नहीं हो सकता कि हर हर महादेव कहने वाले, या राधे राधे कहने वाले, या फिर जयश्री कृष्ण कहनेवाले सांप्रदायिक ना हों और जयश्री राम बोलने वाले सांप्रदायिक हों। तुलसी को नीचा दिखाने के लिए इन लोगों ने कबीर का
सहारा लिया।
हमें कबीर की महानता पर कोई शक नहीं लेकिन संदेह तो तब होता है जब दो महान कवियों में से एक को सिर्फ इस आधार पर हाशिए पर डालने की कोशिश होती है कि वह भारत को सांस्कृतिक रूप से जोड़ने का काम करता है। हिंदी साहित्य में इस तरह की बेइमानी लंबे समय से चली आ रही है और इसने साहित्य का बड़ा नुकसान किया। जितनी जल्दी इस प्रवृत्ति से छुटकारा मिलेगा, उतनी जल्दी साहित्य का भला होना शुरू हो जाएगा।

अनूठे सुधारवादी संत
केरल में किसान परिवार में जन्मे नारायण ग
रु एक अनूठे सुधारवादी संत थे। उन्होंने केरल में सामाजिक और धार्मिक सुधार किए। सामाजिक जड़ता के दौर में उन्होंने अद्वैत सिद्धांत का प्रसार किया और एक सूत्र दिया कि भगवान के लिए सभी लोग बराबर हैं। उन्होंने छोटे-छोटे स्कूल खोले और खासकर पिछड़े वर्ग के बच्चों को पढ़ाना शुरू किया और अन्य सामाजिक कार्य भी किए। आरुविपुरम में नेय्यार नदी के किनारे शिव मंदिर की स्थापना कर इस मान्यता को ठुकराया कि केवल ब्राह्मण ही पुजारी हो सकता है। उन्होंने समाज के उत्थान के लिए तीन उपाय सुझाए थे। वे थे संगठन, शिक्षा और औद्योगिक विकास।

कृष्ण के अनन्य भक्त
पश्चिम बंगाल के नादिया जिले में जन्मे चैतन्य महाप्रभु भक्तिकाल के प्रमुख संतों में हैं। इन्होंने गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय की नींव रखी और भजन गायकी की नई शैली को जन्म दिया। विलुप्त वृंदावन को दोबारा बसाया और जीवन के अंतिम वर्ष वहीं बिताए। इनके बचपन का नाम विश्वंभर था, पर लोग इन्हें ‘निमाई’ बुलाते थे। इनके द्वारा शुरू किए गए महामंत्र ‘नाम संकीर्तन’ का पश्चिमी देशों में भी गहरा प्रभाव है। चैतन्य कृष्ण भक्त थे और उनके अनुयायी उन्हें कृष्ण का अवतार मानते हैं। नित्यानंद प्रभु और अद्वैताचार्य महाराज इनके शिष्य थे और इन दोनों ने ही चैतन्य के भक्ति आंदोलन को गति दी।

अंधविश्वास का तम दूर किया
असमी भाषा के कवि शंकरदेव ने लोगों को अशिक्षा और अंधविश्वास से दूर रहने की शिक्षा दी और ज्ञान के सच्चे स्वरूप का दर्शन कराया। उन्होंने सत्य, सादगी, ज्ञान व एकता का संदेश दिया और पौराणिक नाटकों तथा नृत्य-संगीत के जरिये मत का प्रचार किया। साथ ही, एकशरण मत की स्थापना की, जिसमें मूर्ति पूजा नहीं होती। आज भी असम के नामघरों में मणिकूट (गुरु आसन) पर उनके लिखे कीर्तन घोषा श्रीमद्भागवत की प्रति रखकर उसकी पूजा की जाती है। आदिदशम उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना है। उन्होंने मार्कंडेय पुराण पर आधारित 615 छंदों के हरिश्चंद्र उपाख्यान और अन्य ग्रंथों की रचना की।

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