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-लास एंजेल्स से ललित मोहन बंसल
इन दिनों कैलिफोर्निया में 'विश्व इतिहास और भूगोल' शीर्षक से प्रकाशित एक पुस्तक पर बहस छिड़ी है। छठी कक्षा की इस पुस्तक में हिंदू देवी-देवताओं, हिंदू धर्म और प्राचीन भारत के संदर्भ में कई आपत्तिजनक बातें हैं। इस पर कैलिफोर्निया एजुकेशन बोर्ड द्वारा बनाए गए एक आयोग ने सुनवाई शुरू की है, जो आगामी नवंबर तक चलेगी।
इस पुस्तक की विवादास्पद सामग्री को लेकर प्रवासी भारतीय स्कूली छात्र और अभिभावक समय-समय पर गोष्ठियां और प्रदर्शन करते रहे हैं। इन लोगों का कहना है कि पुस्तक में जो भी विषय लिए गए हैं, उनका यथार्थपरक और तथ्यात्मक चित्रण नहीं किया गया है। इसके बाद कैलिफोर्निया एजुकेशन बोर्ड ने हिंदू एजुकेशन फाउंडेशन के साथ अन्य हिंदू संगठनों, सामान्य जन और विद्वानों से लिखित में विचार मांगे। इस पर पिछले कुछ समय में 73 प्रतिशत विचार स्वीकार किए जा चुके हैं।
अब वह घड़ी आ चुकी है, जब विवादास्पद विषयों को संशोधित कर लिया जाए। लेकिन इसमें अड़चन यह है कि प्रवासी भारतीय समुदाय बंटा हुआ है। एक वर्ग आज भी इस बात पर अड़ा हुआ है कि आजादी से पहले के भारत को भारत नहीं, 'दक्षिण एशिया' लिखा रहने दिया जाए। गौरतलब है कि इस तरह के और भी परस्पर विरोधी विचारों से स्थितियां उलझी हुई हैं।
हिंदू एजुकेशन फाउंडेशन ने पिछले दिनों कैलिफोर्निया के एक दर्जन से अधिक नगरों और उपनगरों में हिंदू मंदिरों, सभा स्थलों और सार्वजनिक पुस्तकालयों में इस पुस्तक के इतिहास के पन्नों पर गहराई से विचार किया। इन सभाओं में प्राचीन भारतीय इतिहास के 50 भारतीय विद्वानों, शोध-शास्त्रियों और इतिहासकारों ने पुराने ग्रंथों में उल्लिखित संदर्भों का हवाला देते हुए एक मत रखा है। अब इन्हीं विचारों पर कैलिफोर्निया एजुकेशन बोर्ड की ओर से नियुक्त आयोग नवंबर, 2017 तक निर्णय लेगा। इसकी बैठकें बोर्ड के सान फ्रांसिस्को स्थित मुख्यालय में हो रही हैं। हिंदू एजुकेशन फाउंडेशन के पदाधिकारी संदीप और अश्वनी ने बताया कि अमेरिका के 50 राज्यों में कैलिफोर्निया ही ऐसा राज्य है, जहां एक बार किसी पाठ्य पुस्तक की रूपरेखा तय हो जाए, तो फिर अन्य राज्य ही नहीं, यूरोप और अफ्रीकी देशों के अनेक प्रकाशक भी कैलिफोर्निया की पाठ्य पुस्तकों की नकल करते हैं। कैलिफोर्निया एजुकेशन बोर्ड स्वत: पुस्तकें प्रकाशित नहीं करता, बल्कि बोर्ड से मान्यता प्राप्त विषय सामग्री के आधार पर विभिन्न अमेरिकी प्रकाशक पुस्तकें प्रकाशित करते हैं। इससे पहले 2005 में कुछ पुस्तकें प्रकाशित हुई थीं। उस समय प्रवासी भारतीयों ने यहां न्यायालय में अलग-अलग याचिकाएं दाखिल की थीं और सर्वोच्च न्यायालय के 1940 के आदेश का हवाला देते हुए इन पुस्तकों में हिंदू धर्म और भारतीय इतिहास के यथार्थ निरूपण पर जोर दिया था। सर्वोच्च न्यायालय के एक आदेश के अनुसार 11 से 13 साल की आयु के बच्चों को इतिहास और सामाजिक विज्ञान की पुस्तकों में दबाव रहित निष्पक्ष जानकारी दी जानी चाहिए।
इतिहास की इस मौजूदा पुस्तक में भारतीय देवी-देवताओं, खासकर 'हनुमान' और 'गणेश' के त्रुटिपूर्ण चित्रण को लेकर उठाई गईं आपत्तियों का निराकरण कर लिया गया है। अमेरिका में पैदा हुए और पले-बढ़े ज्यादातर हिंदू बच्चे रामकथा से परिचित हैं। उन्हें पारिवारिक माहौल में रहते हुए दादा-दादी और नाना-नानी के मुंह से रामभक्त हनुमान के चरित्र के बारे में यह तो बताया जाता रहा है कि जहां भी रामकथा होती है, वहां राम का यह अनन्य भक्त मौजूद रहता है। लेकिन इस पाठ्य पुस्तक में रामभक्त हनुमान को 'वानर किंग' के रूप में निरूपित कर छात्रों को इस कथन के साथ यह पढ़ाया जाना कि 'अपने ईद-गिर्द देखें, वानर दिखाई पड़ जाएंगे' एक कटाक्षपूर्ण कथन है। यही नहीं, प्राचीन भारत के बारे में कई त्रुटिपूर्ण बातें हैं। अफ्रीका की नील घाटी का वर्णन करते समय अन्य देशों के पूरे नाम के साथ भारत का आधा-अधूरा अर्थात् 'उत्तर भारत' का उल्लेख था। भारत के कबीलों और राजे-रजवाड़ों के शासन कार्य की चर्चा करते हुए भगवान के नाम पर अथवा अपने किसी पूर्वज के नाम पर राजपाट करने और जनता से कर आदि वसूलने का 'संकुचित' वर्णन किया गया है, पर उसी काल में एक सामुदाय आधारित आदर्श 'सरस्वती सभ्यता' तंत्र भी था, जिसमें लोग मिल-जुलकर शासन कार्य में हाथ बंटाते थे, उनके अधिकार सीमित होते थे। इसी अध्याय में गंगा और सिंधु नदी के साथ सरस्वती का एक साथ उल्लेख करने के स्थान पर सरस्वती को सिंधु की सहायक नदियों में शुमार किया जाना तथ्यात्मक और भ्रामक त्रुटि है।
इस पुस्तक में ऋषि और मुनि को 'ब्राह्मण' की परिधि में ले लिया गया है, जो भ्रामक है। असल में ब्राह्मण की परिभाषा कर्म के आधार पर संकुचित दायरे में की गई है, जबकि ऋषि-मुनि ब्राह्मण की परिभाषा से ऊपर हैं। इसलिए महर्षि वाल्मीकि और महर्षि वेद व्यास 'ब्राह्मण' अर्थात् जात-पात से ऊपर थे। वेदव्यास महाभारत और वेदों के रचयिता थे, जबकि महर्षि वाल्मीकि ने रामायण की रचना की थी। यहां पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं की कमजोर स्थिति और उनके नगण्य अधिकारों का उल्लेख किया गया है, जबकि विश्व की अन्यान्य सभ्यताओं में पुरुष प्रधान समाज की एक जैसी स्थिति होते हुए भी उसका उल्लेख नहीं किया गया है। यह सरासर दुर्भावनापूर्ण है, क्योंकि वैदिक काल में लोपमुद्रा का नाम विद्वता में ही नहीं, समाज में भी उच्च रहा है। फाउंडेशन ने प्ुरुष और महिलाओं के मस्तक पर बिंदी के महात्मय का भी सही परिप्रेक्ष्य में वर्णन करने पर जोर दिया है। अमेरिका में महिलाएं और पुरुष मस्तक पर बिंदी अथवा टीका लगाने से परहेज क्यों करते हैं? इस पुस्तक में एक चित्र में भगवान शिव को पद्मासन के साथ ध्यान और नमस्ते मुद्रा में दिखाया जाना उपयुक्त होता, और शिव के मस्तक पर बिंदी अथवा तिलक दिखा दिया गया होता तो आज स्थिति भिन्न होती। उस काल के प्रमुख ऋषियों में वाल्मीकि, वेदव्यास, जाबालि, विश्वामित्र और महिलाओं में लोपामुद्रा के नाम का उल्लेख जरूरी है। ये सभी अलग-अलग सामाजिक परिवेश से संंबंधित थे।
संदीप ने लास एंजेल्स में भारतीय विचार मंच गोष्ठी में अपने उद्बोधन में कहा कि पिछले तीन साल से बोर्ड के 'इंस्ट्रक्शनल क्वालिटी कमीशन' के सामने ढेरों विचार प्रस्तुत किए गए हैं। इनमें प्राचीन भारत के इतिहास की अनेक गंभीर खामियों की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए उनमें संशोधन और संवर्धन किए जाने का आग्रह किया गया है। उन्होंने बताया कि भारतीय इतिहास के पन्नों पर संक्षिप्त में ही सही, मध्यकाल के राजे-रजवाड़ों के शासन काल में संस्कृत के उत्थान और मंदिरों के प्रसार की बात तो की गई है, पर कवि कालिदास, रविदास और आलवार भक्तों के नाम का उल्लेख तक नहीं है। मीरां बाई का उल्लेख है, तो मध्यकाल में भक्ति आंदोलन ने नई ऊंचाइयों का आलिंगन किया, यह अछूता रह गया। इस समुदाय को 'हिंदूवाद' की जगह 'वेद' कहलाना ज्यादा सुहाता है। क्या आप यह स्वीकार करेंगे कि हिंदी को 18 'अक्षरों' की अरबी लिपि में समेट दिया जाए?
मध्यकाल में संस्कृत और मंदिरों के प्रसार का वर्णन है। यहां कवि कालिदास और बौद्ध भिक्षुक वसु बंधु का उल्लेख मात्र बच्चों के लिए प्रेरणास्रोत होते। इस काल में विज्ञान, गणित, कला, संस्कृत और वास्तुकला के विकास का उल्लेख है, पर इस काल में संगीत और नृत्य के प्रसार को नजरअंदाज किया गया है। इसी तरह इस काल में भक्ति आंदोलन के विकास की चर्चा में मीरां बाई और रामानंद का नाम है, जबकि रविदास और आलवार का नाम जोड़ा जाना जरूरी है। यहां बौद्ध मत की शिक्षा का प्रचार-प्रसार गौतम बुद्ध के भारत से जाने के बाद हुआ, कहना तर्कहीन है। गुरुनानक को एक समाज सुधारक के रूप में चित्रित किया गया है। यहां गुरुनानक के ब्राह्मण और हिंदू जाति प्रथा को चुनौती दिए जाने की बात पर फाउंडेशन ने आपत्ति दर्ज करते हुए कहा है कि इसे सकारात्मक रूप में दर्शाया जाना ज्यादा उपयुक्त होगा।
यहां सिख पंथ की अच्छाइयों का चित्रण किया जाता तो बेहतर होता। इस काल में बौद्ध मत की चर्चा के साथ-साथ जैन मत की शिक्षा पर जोर दिया जा सकता था, भले ही थोड़े शब्दों में। इसी तरह चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में देश के अधिकांश हिस्सों को एकसूत्र में पिरोये जाने तथा उनके अदम्य साहस और कूटनीति का उल्लेख तो है, पर चाण्क्य नीति और अर्थशास्त्र का उल्लेख नदारद है।
अंत में आधुनिक काल में मोहनदास करमचंद गांधी के अहिंसात्मक अवज्ञा आंदोलन के विचार उल्लिखित हैं। इस विषय को कुछ और पंक्तियों के साथ जोड़ा जा सकता था।
बहरहाल, हम यही उम्मीद कर सकते हैं कि इस मसले की सुनवाई जिस तत्परता और मंशा से हो रही है, वह हिंदू समाज के लिए सुखद परिणाम लाएगी। *
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