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ऐसा लगता है कि देश को जातीय और साम्प्रदायिक हिंसा में झोंकने की कोई साजिश चल रही है और मीडिया का एक तबका इसमें शामिल है। वरना सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने वाले मामलों में इतनी गैर-जिम्मेदार रिपोटिंर्ग नहीं होती। सहारनपुर में दो समुदायों के बीच हिंसा की आग में कई अखबार और चैनल घी डालने में जुटे हैं। बाकायदा बताया जा रहा है कि फलां जाति का व्यक्ति हिंसा में मरा और फलां जाति के इतने घर जलाए गए। इससे पहले कम से कम मुख्यधारा मीडिया में 'जातीय सेनाओं' का महिमामंडन होते नहीं देखा गया। इंडियन एक्सप्रेस ने सहारनपुर की एक हथियारबंद जातीय सेना के स्वयंभू नेता का बाकायदा महिमामंडन छापा। इसके बाद लगभग सभी न्यूज चैनलों ने भी उसे हीरो की तरह दिखाया। एबीपी चैनल ने उसे 'सहारनपुर की आग से निकला नया मसीहा' करार दिया। जातिवाद और सांप्रदायिकता की बेडि़यां तोड़कर खड़े हो रहे समाज में ऐसे जातीय नायक गढ़ने की कोशिश के पीछे आखिर क्या नीयत है?
बीते कुछ वक्त में यह चलन दिख रहा है। केजरीवाल और कन्हैया को भी मीडिया ने इसी तरह से गढ़ा था। इनका क्या हश्र हुआ, यह किसी से छिपा नहीं है। समस्या यह है कि ऐसे नायक समाज में जहर घोल रहे हैं और मीडिया उनकी मदद कर रहा है। खुद को व्यवस्था विरोधी बताने वाला मीडिया का यह धड़ा दरअसल सुविधाभोगी है। इन्हें सत्ता के संरक्षण की इतनी आदत है कि जब यह बंद हुआ तो वे बौखला गए। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चा चोरी होने की अफवाहों के कारण हिंसा की खबरें अक्सर आती हैं। झारखंड में ऐसे ही एक मामले पर एक महिला पत्रकार ने झूठ और पागलपन से भरा ट्वीट किया कि देशभर में मुसलमानों को मारा जा रहा है और कहीं कोई इंसाफ नहीं है। दरअसल, समाज में जहर घोलने और दंगे भड़काने की ये छोटी-छोटी कोशिशें हैं। खुशकिस्मती है कि पत्रकार के चोले में घूम रहे ऐसे दंगाइयों को जनता ने पहचान लिया है और उनकी नजरों में ये लोग मजाक का पात्र बनकर रह गए हैं। आजतक चैनल ने अलीगढ़ में हिंसा की मामूली घटना की तस्वीरों को बार-बार घुमा-घुमाकर दिखाया। इसे और हाहाकारी दिखाने के लिए खबर में बाकायदा डरावना संगीत डाला गया। यह भीड़ का क्षणिक उन्माद था, जिस पर काबू पा लिया गया, पर टीवी के जरिये यह देर रात तक चला। चैनल के सृजनशील संपादकों ने जरासी बात को ऐसा बना दिया, मानो पूरा अलीगढ़ शहर धधक रहा हो। खुद चैनलों द्वारा तय दिशानिर्देश में ऐसा करने की साफ मनाही है। ऐसी तस्वीरों में फाइल या पुरानी तस्वीर लिखना जरूरी होता है। चैनल अपने ही बनाए नियम का पालन करने में विफल हैं तो कोई दर्शक इसकी शिकायत किससे करे?
उधर, बंगाल में वामपंथी दलों के प्रदर्शन के दौरान पुलिस ने कई पत्रकारों को बुरी तरह से पीटा। इनमें एनडीटीवी का कैमरामैन भी था। कल्पना कीजिए, यदि उत्तर प्रदेश या किसी भाजपा शासित प्रदेश में ऐसी घटना हुई होती तो अब तक राष्ट्रव्यापी कोहराम मच चुका होता। एनडीटीवी ने अपने कैमरामैन के पिटने की खबर लगभग दबा ही दी। न स्क्रीन काली हुई, न मीडिया के दमन पर कोई परिचर्चा या मार्च हुआ। ऐसी घटनाएं इन चैनलों के असली चेहरे को उजागर कर देती हैं। तमाम कथित बड़े पत्रकारों ने इस बर्बर लाठीचार्ज पर सोशल मीडिया के जरिए विरोध दर्ज कराना तक जरूरी नहीं समझा।
मीडिया के इस तबके का दोहरा चेहरा तब भी सामने आया जब वह परेश रावल के ट्वीट पर भड़ककर अचानक अरुंधति रॉय के पक्ष में खड़ा हो गया। वह अरुंधति, जिनकी कश्मीर से लेकर देश के तमाम हिस्सों के बारे में राय पढ़-सुन कर लोगों का खून खौल उठता है। आतंकियों व नक्सलियों के कथित एजेंट के रूप में काम कर रही लेखिका अगर राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े सवालों पर गैर-जिम्मेदार बयानबाजी कर रही है तो देश से प्रेम करने वालों को क्या यह हक नहीं है कि वो उनके खिलाफ कुछ लिख सकें? विचारों की आजादी के नाम पर शुरू हुआ ट्विटर ही जब खास विचारधारा के लोगों के अकाउंट बंद करने लगे तो इसे क्या कहेंगे? परेश रावल और सोनू निगम के मामले ने ट्विटर की निष्पक्षता पर सवाल खड़े किए हैं। साफ दिख रहा है कि ट्विटर पर आतंकियों, नक्सलियों व हिंसा की वकालत करने वालों को बढ़ावा दिया जा रहा है। ट्विटर भले ही अमेरिकी कंपनी है, पर उसमें बड़ी मात्रा में इस्लामी देशों का पैसा लगा है। ऐसे में इसकी निष्पक्षता संदिग्ध है।
जो अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर उच्छृंखलता चाहते हैं, वे दूसरी विचारधारा की बात सुनने को भी राजी नहीं हैं। दुख है कि ट्विटर जैसे सोशल मीडिया पर भी इसकी गुंजाइश कम होती जा रही है। वरना जिस देश में प्रधानमंत्री को अपशब्द बोलने वाले को कोई कुछ नहीं कहता, वहां देश को तोड़ने की बातें कर रही अरुंधति रॉय के खिलाफ कड़वी बात लिखने वाले को उसे हटाने को मजबूर नहीं किया जाता। मुख्यधारा मीडिया के साथ अगर सोशल मीडिया का भी दोहरा चरित्र होता है तो चिंता की बात है। *
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