|
इतिहास के पन्नों से
पाञ्चजन्य
वर्ष: 14 अंक: 2
18 जुलाई ,1960
-: हमारे विशेष प्रतिनिधियों द्वारा :-
आंध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबाद की महानगरपालिका (कार्पोरेशन) के चुनाव में 'इत्ते हादुल- मुसलमीन' की अनपेक्षित विजय से कांग्रेसी क्षेत्र में भीषण हलचल है। उक्त संस्था ने 30 प्रतिशत सीटों पर कब्जा किया। कांग्रेसियों का आश्चर्य प्रकट करना वस्तुत: उनकी अदूरदर्शिता का द्योतक है क्योंकि वे सभी भावनाओं और तथ्यों से अच्छी तरह वाकिफ थे।
'इत्ते हादुल-मुसलमीन', (जिसे रजाकारी राक्षस कहना ही उत्तम होगा) के चंगुल से हैदराबाद की मुक्ति के बाद भी यह सर्वदा स्पष्ट रहा कि 'रजाकारों' का अंत अभी तक नहीं हुआ और वे पुन: 'एक संयोग' की प्रतीक्षा में हैं। क्या देशवासियों ने नहीं पढ़ा है कि पिछले अनेक वर्षों से ये लोग हैदराबाद में 15 अगस्त का पर्व पाकिस्तानी झण्डे के साथ मनाते हैं और जनता का स्वागत दंगों से करते हैं। सबको पता है कि रिजवी के पाकिस्तान जाने के पहले 'अब्बासी' को 'दल' का नया नेता चुना गया। जब सारा देश इस तथ्य से वाकिफ है फिर अकेले कांग्रेस इससे कैसे अनभिज्ञ है?
कुछ ऐसी भी बातें हैं जिसे कांग्रेस आम जनता की अपेक्षा अधिक जानती है। हैदराबाद में पुलिस कार्रवाई के बाद बड़ी शीघ्रता के साथ रजाकारों ने कांग्रेस पार्टी में भर्त्ती होना शुरू किया और सफेद खादी और गांधी टोपी की आड़ में आवश्यकता से कहीं अधिक कांग्रेस की चापलूसी की। कांग्रेस के पीछे का सारा वोट इन रजाकारों का अथवा उनसे प्रभावित था। अब तो यह भी संभावना की जाती है कि मौलाना अब्दुल कलाम आजाद दिल्ली से इस मुस्लिम संस्था के हित की चिन्ता किया करते थे। फिलहाल रजाकार के वोट की मदद से इस समय 54 सीटों से कांग्रेस का बहुमत है।
परन्तु अ.भा. मुस्लिम लीगी संगठन के उभाड़ और केरल में कांग्रेस मुस्लिम लीग गठबंधन के कारण इन रजाकारों ने कांग्रेस को छोड़कर अपनी पुरानी हरकतों को फिर से जारी करने का प्रयास किया है। अब कांग्रेस बहाना बनाकर आश्चर्य प्रकट कर रही है कि इन रजाकारों को 18 सीट कैसे मिल गई। आंध्र प्रदेश कांग्रेसाध्यक्ष ने चुनाव परिणाम की टीका करते हुए कहा कि यह सही है कि कुछ मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में कांग्रेस की भारी पराजय हुई है परन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि मुसमलान कांग्रेस के विरुद्ध है। आपने यह भी कहा कि कांग्रेस के लोगों को अधिक बल लगाकर प्रयासपूर्वक मुसलमानों को इस बात से परिचित कराना चाहिए कि…… इन दो पंक्तियों से ही कांग्रेस की रजाकारों के प्रति अपनाई गई वर्तमान नीति स्पष्ट होती है जो स्वयं को धोखा देने वाली होने के साथ-साथ इस बात के लिए भी उत्तरदायी है कि रजाकार अपनी राष्ट्रवादी कार्रवाइयों को पुन: चालू करने में सफल हो रहे हैं। रजाकारों को खुश करने के लिए ही कांग्रेसी प्रदेश सरकार राज्य में गोहत्या पर 5 वर्ष से प्रतिबंध लगाने की बात टाल रही है जबकि ईश्वर में विश्वास करने वाले कतिपय मुसलमान भी इस प्रतिबंध के समर्थक हैं। यही नहीं तो कांग्रेस ने अन्य राष्ट्रीय संस्थाओं को साम्प्रदायिक घोषित कर उनकी तुलना रजाकारों से की है। यह धमकी भी दी गई कि यदि सभी हिंदू कांग्रेस को वोट नहीं देंगे तो रजाकार फिर सिर उठाएंगे।
पर्यटक: राष्ट्रीय घटना — चक्र
आखिर, 11 जुलाई की मध्य रात्रि अपना काली और मनहूस छाया को लेकर हमारे राष्ट्रीय आकाश पर छा ही गई। अंतिम क्षण तक उसे टालने का प्रयास किया गया, पर वह नहीं टली। हड़ताल के औचित्य-अनौचित्य पर विवाद करने का समय अब बीत चुका है। भारतीय कम्युनिस्ट एवं चीनी प्रचारतंत्र को छोड़कर कोई हड़ताल को कार्यान्वित करने के पक्ष में नहीं था। भारत के सभी राष्ट्रीय अखबारों ने वे चाहे किसी भी पक्ष का प्रतिनिधित्व करते हों, हड़ताल को असामयिक एवं अनुचित बताया। जनसंघ सरीखे राजनीतिक दल सरकारी कर्मचारियों के दु:ख-दर्द के प्रति पूर्ण सहानुभूति रखते हुए भी इस हड़ताल को राष्ट्र के लिए दुर्भाग्यपूर्ण बताते रहे, यहां तक कि जिस प्रजा समाजवादी नेतृत्व ने हड़ताल का वातावरण तैयार किया, युद्ध का बिगुल फूंका, वह स्वयं अंतिम संघर्ष के लिए सिद्ध नहीं था और अंत तक हड़ताल को टालने का प्रयास कराते हुए भी उसके शिकंजे में जा फांसा।
यह एक बहुत ही दु:खद किन्तु कटु सत्य है। भारत के भावी इतिहास के पृष्ठों पर इस दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य को अंकित होने से रोका नहीं जा सकता कि भारत के ट्रेड यूनियन आंदोलन का नेतृत्व एक समय ऐसे हाथों में जा पड़ा था, जिसने युद्ध की सिद्धता न होने पर भी युद्ध का बिगुल फूंक दिया, जो अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए सरकार से अधिक सौदेबाजी करने के लोभ में अंतिम क्षण तक अनिश्चय और दुविधा के झूले में झूलता रहा, और जिसके न चाहते हुए भी हड़ताल का तरकस तीर से निकल ही गया, युद्ध छिड़ ही गया। 20 लाख सरकारी कर्मचारियों के साथ-साथ सम्पूर्ण राष्ट्र का भाग दांव पर लग गया। हड़ताल के सर्वोच्च नेतृत्व की इस लज्जाजनक अवस्था का बहुत ही करुणोत्पादक चित्र 2 जुलाई को 'स्टेट्समैन' में खींचा गया है। 11 जुलाई की रात्रि में हड़ताल प्रारम्भ होने के पूर्व जब 'स्टेट्समैन' का विशेष प्रतिनिधि केन्द्रीय सरकारी कर्मचारियों की संयुक्त संघर्ष समिति के महामंत्री श्री पीटर अलवारेस, जिन्हें संघर्ष समिति ने हड़ताल को प्रारम्भ करने अथवा स्थापित करने के सर्वाधिकार सौंप दिए थे, से भेंट कर विदा लेने लगा तो श्री अलवारेस ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से उसे बताया कि 'हड़ताल तो प्रारम्भ हो ही गयी, किन्तु अब मेरे सामने-प्रमुख समस्या यह है कि मैं हड़ताल वापस कैसे लूंगा।' क्या शानदार नेतृत्व के समक्ष युद्ध को जीतने का चित्र नहीं है, किन्तु युद्ध से पयालन करने की उधेड़बुन है। इससे भी अधिक तो यह पता चला कि 11 जुलाई की सायं 5 बजे तक हड़ताली नेताओं और सरकार के मध्य गुप्त समझौता वार्ता चलती रही और सरकार ने नेताओं को सायं 5 बजे तक हड़ताल के स्थगन का निर्णय लेने का अवकाश दे दिया था, अन्यथा सरकार ने प्रतिरोधात्मक कार्यवाही प्रारम्भ कर देने की सिद्धता प्रकट कर दी थी। 'स्टेट्समैन' के कथनानुसार सायं 4 बजे ऐसी स्थिति बन चुकी थी।
दिशाबोध : गलत दिशा में कदम
''केन्द्र में अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी के प्रयोग में शासन की नीति के कारण बराबर कठिनाइयां रही हैं। यह खेद का विषय है कि कांग्रेस शासन ने इस दिशा में सकारात्मक पग उठाने के बजाय विवाद और आशंकाएं पैदा करने का ही काम किया है। जनसंघ ऐसे किसी कदम का समर्थक नहीं जिससे हिन्दी न जानने वालों को किसी भी अधिकार से वंचित रहना पड़े। इस हेतु जनसंघ ने यह मांग की है कि संघ सेवा आयोग की सभी परीक्षाएं प्रादेशिक भाषाओं के माध्यम से हों तथा भर्ती के लिए किसी भी भाषा-विशेष के ज्ञान की बाध्यता न रहे। संक्रमण-काल में जो अंग्रेजी का प्रयोग करना चाहें उन्हें भी सुविधा दी जा सकती है; किन्तु अंग्रेजी का तो प्रभुत्व निर्बाध बना रहे तथा हिन्दी के प्रयोग की भी छूट न हो, यह बर्दाश्त नहीं किया सकता। हाल में जो राजभाषा संशोधन विधेयक तथा प्रस्ताव पारित हुआ है, वह एक गलत दिशा में कदम है।''
—पं. दीनदयाल उपाध्याय (विचार-दर्शन, खण्ड-7, पृ. 85)
टिप्पणियाँ