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इस्लाम में तीन तलाक के मौजूदा स्वरूप में कमियां हैं। शायरा बानो की अपील पर सुप्रीम कोर्ट में इसके सामाजिक और मजहबी पक्ष पर सुनवाई चल रही है। कोर्ट ने कहा है कि अगर यह मजहब का अंग हुआ तो वह इसमें दखल नहीं देगा। सामाजिक पक्ष पर ही फैसला दिया जाएगा। इस लेख के जरिये तीन तलाक के संवैधानिक, वैधानिक एवं शरिया पक्ष पर प्रकाश डाला जा रहा है
अमित त्यागी
भारत 1947 में आजाद हुआ और बंटवारे के बाद मजहब के नाम पर अलग देश पाकिस्तान का जन्म हुआ। विभाजन के बाद भारत का संविधान बना, जिसमें धार्मिक स्वतंत्रता की व्यवस्था की गई। यानी व्यक्ति को कोई भी धर्म और जीवनशैली अपनाने की छूट दी गई। मूल अधिकारों (अनुच्छेद 14 से 32) के तहत इन अधिकारों को स्पष्ट किया गया। इसी क्रम में अनुच्छेद 44 के तहत देश के नागरिकों को एक समान मानते हुए समान नागरिक संहिता की व्यवस्था की गई। महत्वपूर्ण बात यह कि धर्म की आड़ में चल रहे आडंबर, कुरीतियों एवं आस्था के नाम पर ठगी को संविधान में जगह नहीं मिली और इन्हें खत्म करने के लिए विभिन्न कानून बनाए गए। हालांकि देश में धार्मिक स्वतंत्रता है, पर संविधान को ही सर्वोपरि रखा गया है।
हिन्दू धर्म में भी सती प्रथा, बाल विवाह, बहुविवाह जैसी कुरीतियां थीं, जो समाज में विघटन पैदा करने वाली थीं। 1871 में राजा राममोहन राय और लॉर्ड विलियम बेंटिक के संयुक्त प्रयासों से हिंदू समाज से सती प्रथा का अंत हुआ। इसे भारतीय दंड संहिता की धारा 306 (आत्महत्या के लिए उकसाना) के अंतर्गत रखा गया। धर्म के ठेकेदारों ने इस फैसले का बहुत विरोध किया, लेकिन बडी संख्या में महिलाओं ने इसे सराहा। 1958 में राजस्थान हाई कोर्ट ने तेज सिंह वाद में सती होने के लिए उकसाने वाले को पांच साल कठोर कारावास की सजा सुनाई। इसके बाद सरकार ने सती (निरोधक) कानून,1987 बनाकर इस कुरीति पर पूरी तरह से रोक लगा दी। इसके अलावा, हिन्दू धर्म में बाल विवाह और बहुविवाह पर 1956 में फेमिली एक्ट के तहत आधा दर्जन कानून लागू कर रोक लगा दी गई। इन कुप्रथाओं का अंत पंडितों, पुजारियों या धर्म के ठेकेदारों ने नहीं किया, बल्कि भारतीय संविधान के अंतर्गत बने कानूनों ने किया। इससे उनके छद्म स्वाभिमान को ठेस तो पहुंची, लेकिन जनता ने इसे खुले दिल से स्वीकार किया। हिन्दू विवाह को संस्कार माना गया है, जबकि इस्लाम के जानकार मुल्ला (अब्दुल कादिर बनाम सलीमा वाद) के अनुसार, निकाह एक सामाजिक समझौता है। इसमें दो पक्ष होते हैं, जिनके बीच कुछ तय शर्तों पर करार होता है। निकाह के बाद दोनों पक्षकारों के अधिकार और दायित्व उसी संविदा से उत्पन्न होते हैं। इन शर्तों का किसी एक पक्ष ने भी उल्लंघन किया तो समझौते की शर्तें शून्य हो जाती हैं। इसमें भी वैसे ही प्रावधान होते हैं, जैसे भारतीय संविदा अधिनियम में वर्णित हैं।
निर्णायक फैसले से चूकी सरकारें
जनहित से जुडेÞ किसी विषय पर लोगों की राय जानने की कोशिश में कुछ भी नया नहीं है। विधि आयोग ने जब शादी, तलाक और उत्तराधिकार संबंधी कानूनों पर लोगों की राय जानने के लिए कुछ सवालों की सूची जारी की थी, तब से अब तक मुस्लिम पर्सनल लॉं बोर्ड और मुल्ला-मौलवियों का बौखलाना समझ से परे है। ऐसा नहीं है कि उस सूची में केवल मुस्लिमों से संबंधित प्रश्न पूछे गए। उसमें अन्य धर्मों से जुड़े प्रश्न भी शामिल थे। इसके बावजूद इसे केवल एक धर्म पर प्रहार मानकर ये लोग खुद को ही गलत साबित कर रहे हैं। विधि आयोग द्वारा कराए गए सर्वेक्षण की रिपोर्ट समान नागरिक संहिता की दिशा में अगला कदम साबित होगी। अनुच्छेद 44 सभी नागरिकों के लिए समान आचार संहिता की भी बात करता है। चूंकि संविधान में समान नागरिक संहिता एक प्रावधान है, लिहाजा केवल सरकार की इच्छाशक्ति ही इसे अमली जामा पहना सकती है। अभी तो सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक पर सरकार का दृष्टिकोण ही मांगा है। यह पहला अवसर नहीं है, जब सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर सरकार को निर्देश दिया है।
सुप्रीम कोर्ट ने इससे पहले 1995 में ‘सरला मुद्गल वाद’ में तत्कालीन नरसिंह राव सरकार को अनुच्छेद 44 पर नए सिरे से विचार करने का निर्देश दिया था। इसमें समान नागरिक संहिता को देश की एकता और अखंडता के लिए जरूरी बताते हुए सरकार से यह बताने को कहा गया था कि इस दिशा में कौन-कौन से कदम उठाए गए। लेकिन प्रधानमंत्री नरसिंह राव सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर देशहित में फैसला करने की इच्छाशक्ति नहीं जुटा सके। रामपुर के उलेमा सम्मेलन में उनके भाषण ने समान नागरिक संहिता पर सरकार को एक कदम पीछे धकेल दिया। मुस्लिम वोट बैंक छिन जाने के डर ने कांग्रेस सरकार को लाचार बना दिया। 1986 में राजीव गांधी सरकार भी शाहबानो प्रकरण के समय उलेमाओं के दबाव में आ गई थी, जो सुप्रीम कोर्ट के फैसले से खुश नहीं थे। कभी-कभी कुछ ऐसे नाजुक क्षण आते हैं जब सरकार को निर्णायक फैसले लेने पड़ते हैं। इसी समय नेतृत्व की इच्छाशक्ति की परीक्षा होती है। राजीव गांधी और नरसिंह राव, दोनों ही ऐसे मौकों पर चूक गए। उन्होंने मुस्लिम महिलाओं के हक की लड़ाई
लड़ने की बजाय मुस्लिम वोट बैंक को प्राथमिकता दी।
क्या था शाहबानो प्रकरण
तीन तलाक के वर्तमान मुद्दे को समझने के लिए इसकी प्रारंभिक कड़ी शाहबानो प्रकरण को समझना जरूरी है। शाहबानो एक अधेड़ उम्र की मुस्लिम महिला थी, जिसे 1975 में पति ने घर से निकाल दिया था। अप्रैल 1978 में पांच बच्चों की मां शाहबानो ने 500 रुपये महीना गुजारा भत्ता लेने के लिए अपने पति मोहम्मद अहमद खान के विरुद्ध मुकदमा दायर किया। लेकिन नवंबर 1978 में पति ने उसे तलाक दे दिया। साथ ही, सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा दाखिल कर कहा कि वह शाहबानो को गुजारा भत्ता देने के लिए बाध्य नहीं है, क्योंकि उसने दूसरा निकाह कर लिया है। इस्लामी कानून के मुताबिक, शाहबानो अब उसकी जिम्मेदारी नहीं है। लेकिन शाहबानो ने सुप्रीम कोर्ट से गुजारिश की कि उसके पास आय का कोई स्रोत नहीं है, इसलिए पति की जिम्मेदारी है कि वह उसे और बच्चों के भरण-पोषण के लिए गुजारा भत्ता दे। 1985 में सुप्रीम कोर्ट ने सीआरपीसी की धारा 125 के तहत फैसला दिया कि शाहबानो को पति से गुजारा भत्ता पाने का अधिकार है।
राजीव गांधी ने बनाया नया कानून
यह फैसला बहुत महत्वपूर्ण था और कानून के दायरे में था, लेकिन इस्लामी कानून की मान्यताओं के मुताबिक नहीं था। इसके बाद देश की राजनीति में बवाल मच गया। मुस्लिम नेताओं ने इसे मुस्लिम पर्सनल लॉ में अदालत का दखल माना। चूंकि यह फैसला सीआरपीसी के तहत दिया गया था, इसलिए तकनीकी तौर पर इससे मुस्लिम पर्सनल ला का उल्लंघन नहीं हो रहा था। लेकिन कट्टर मुस्लिम नेताओं ने इसे लेकर तनाव का माहौल बना दिया। तरक्कीपसंद मुस्लिम उस समय भी अदालत के फैसले को नया और सकारात्मक सुधार का आधार मान रहे थे। लेकिन कट्टरपंथियों के दबाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए संसद से नया कानून पारित करा दिया। ‘द मुस्लिम वुमन (प्रोटेक्शन एंड राइट आॅन डायवोर्स) एक्ट 1986’ के प्रभाव में आने से सुप्रीम कोर्ट का फैसला रद्द हो गया। यह तरक्कीपसंद मुस्लिमों पर कट्टरपंथियों के हावी होने की शुरुआत थी। इस बार अदालत के माध्यम से मुस्लिम महिलाओं की स्थिति में सुधार की शुरुआत हुई है तो उसी विचारधारा की लॉबी फिर शोर-शराबा कर रही है। तलाक के बारे में जितना बताया जा रहा है या चर्चा में सामने आ रहा है, वह उतने तक ही सीमित नहीं है। भारत में प्रचलित तलाक के प्रारूप को तो इस्लामी देशों ने भी खारिज कर दिया है।
सकारात्मक व्याख्या
इस्लाम में तलाक को दो भागों में बांटा गया है। तलाक उल सुन्नत और तलाक उल बिद्दत। ‘तलाक उल सुन्नत’ में तीन बार तलाक कहने के बाद पति के पास अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने का हक होता है। वह बाद में चाहे तो अपने निर्णय को वापस भी ले सकता है। तलाक के इस प्रारूप का समर्थन पैगंबर ने भी किया था।
इस्लामी गं्रथों के अनुसार, तलाक उल सुन्नत को हसन और एहसन दो भागों में वर्गीकृत किया गया है। दोनों तलाक की अलग-अलग विधियां हैं। लेकिन इन दोनों विधियों में तुहर के समय को महत्वपूर्ण माना गया है। तुहर किसी स्त्री के दो मासिक धर्मों के बीच का समय होता है, जिसके आधार पर उसके गर्भधारण का निर्धारण होता है। इस विधि के अनुसार तुहर के दौरान दिया गया तलाक अगर तुहर के दौरान ही वापस भी ले लिया जाए तो खंडित हो जाता है। मतलब तलाक खारिज हो जाता है तथा पति और पत्नी खुशी-खुशी साथ रह सकते हैं।
दूसरा तलाक होता है ‘तलाक उल बिद्दत’। इसमें पति द्वारा एक बार में तीन तलाक कह देने भर से तलाक मुकम्मल हो जाता है और पति के पास उस पर दुबारा विचार करने का मौका नहीं होता। अब इसे दुर्भाग्य कहें या परंपरा का हिस्सा, भारत में तलाक उल बिद्दत प्रचलन में है। यह अखंडनीय तलाक है, इसलिए इसे खराब तलाक भी कहा गया है। इस्लामी विचारधारा के अनुसार, यह तलाक एक समुचित समयावधि में मुकम्मल हो जाना चाहिए। चूंकि यह समुचित शब्द परिभाषित नहीं है, इसलिए यही विवाद की मूल वजह है। विधि कहती है कि यह समुचित समयावधि तीन तुहर की होनी चाहिए। यानी तीन तलाक तीन महीने में दिया जाए। बहुत से कट्टर इस्लामी देश एक बार में तीन तलाक के प्रारूप को खारिज कर चुके हैं। चूंकि भारत में यह प्रचलन में है, इसलिए अब इसमें सुधार के लिये किए जा रहे प्रयास को मुल्ला-मौलवी इस्लाम और शरीयत में दखल कहकर प्रचारित कर रहे हैं।
न अपील, न दलील
भारतीय संविधान निचली अदालत में सजा पाये अपराधी को भी उच्च एवं उच्चतम न्यायालय में अपील का मौका देता है। लेकिन यहां तो एक निर्दोष के पास अपनी बात कहने का भी विकल्प नहीं है। तीन तलाक का विरोध नहीं हो रहा, बल्कि इसमें सुधार की बात की जा रही है। तीन तलाक की अवधारणा इस्लाम में जायज है। लेकिन इसकी व्याख्या पर पुनर्विचार होना चाहिए। गौरतलब है कि इस्लाम में शराब पीना हराम है, लेकिन मुस्लिम पी रहे हैं वे शराब के नशे में घर आते हैं और पत्नी पर गुस्सा करते हैं। बेखुदी की हालत में तलाक… तलाक… तलाक… कहकर एक औरत को बेदखल कर देते हैं। चूंकि मजहब में गुजारा भत्ता देने का कोई प्रावधान नहीं है, इसलिए लाचार और मजबूर औरत सड़क पर आ
जाती है।
अब अगर अगली सुबह पति को अपनी गलती का एहसास भी होता है तो भी वह अपनी रात की गलती पर अफसोस नहीं कर सकता। उसके पास विकल्प ही नहीं है। जो विकल्प है, वह और भी भयावह है। पहले स्त्री को किसी अन्य मर्द के साथ निकाह करना होगा। वह तलाक देगा और तब वह अपने पूर्व पति के पास जा पाएगी। इस प्रक्रिया को हलाला कहा जाता है।
अब इसके दूसरे पक्ष को समझते हैं। पुरुष के विपरीत यदि स्त्री अपने शौहर को तलाक देना चाहे तो वह तीन तलाक कहकर तलाकशुदा नहीं हो सकती। इसके लिये उसे अपने पति से सहमति लेनी होती है। इस तलाक को खुला कहा जाता है। पत्नी के पास किसी न्यायिक प्रक्रिया द्वारा भी बिना पति की सहमति के तलाक देने का अधिकार नहीं है। मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम,1939 की धारा-2 में पत्नी के लिये तलाक के प्रावधान तो किये गए, किन्तु उसमें भी इस्लामी प्रथाओं को अमली जामा पहना दिया गया। इसमें कोई गुणात्मक सुधार नहीं किया गया। इसमें तलाक के जो आधार रखे गये, उसमें पति के लापता होने, भरण-पोषण में कमी, नपुंसकता, पागलपन आदि आधार को शामिल किया गया। इसमें तलाक के लिये यौवनागमन के विकल्प का अधिकार शामिल है। यौवनागमन (निकाह) के समय लड़की की उम्र कम से कम 9 साल होनी चाहिए। लेकिन उससे निकाह करने वाले पुरुष की अधिकतम उम्र का जिक्र नहीं है। वैसे पुरुष की न्यूनतम उम्र 12 वर्ष रखी गई है।
सादिक अली खान (1937) के वाद में यदि 15 साल से कम उम्र की लड़की का निकाह उसके संरक्षक द्वारा कर दिया गया है तो जब तक वह 15 वर्ष की नहीं हो जाएगी, वह अपने निकाह को तलाक में तब्दील नहीं कर सकती। 15 वर्ष की होने के बाद ही वह तलाक ले सकती। इसमें भी शर्त है कि उसके साथ समागम नहीं हुआ हो। इसके पहले यदि उसके साथ समागम हो चुका है तो वह तलाक के लिये आवेदन भी नहीं कर सकती है। यह शर्त ही विरोधाभासी है।
मुल्लाओं की जिद
तलाक का मौजूदा चलन पूरी तरह से एकतरफा और स्त्री के अधिकारों का हनन करता है। इसने पुरुष को सर्व शक्तिशाली और स्त्री को लाचार बना दिया है। मुस्लिम समाज में दो विचारधाराएं प्रमुख हैं—शिया और सुन्नी। शिया के अनुसार, निकाह के समय दो गवाहों की मौजूदगी जरूरी नहीं है, लेकिन तलाक दो गवाहों के सामने ही होगा। सुन्नी में निकाह दो लोगों के बतौर गवाह रहने पर ही होता है, लेकिन तलाक के लिए दो गवाहों के होने की शर्त नहीं है। साथ ही, तलाक लिखित या मौखिक किसी भी रूप में दिया जा सकता है।
जब कुरान एक है तो दो अलग-अलग नियम कैसे? जाहिर है कि यह इस्लामी परिपाटी नहीं है। यह तो केवल उलेमाओं की अपनी-अपनी व्याख्या से पैदा हुई परिपाटी है। ऐसे में जिन परिपाटियों को खुद उलेमाओं ने शुरू किया है, उनमें सुधार की जिम्मेदारी भी उन्हीं की है। खासतौर पर ऐसे नाजुक वक्त में जब उनके समाज की पीड़ित महिलाएं अदालत के समक्ष उनके खिलाफ आवाज उठा रही हों। चूंकि उनके माध्यम से सुधार नहीं हो पाया तो यह दायित्व संविधान के अंतर्गत संसद और न्यायालय पर आ गया है कि वह अपने नागरिकों के हितों की रक्षा करे। ल्ल
विभिन्न धर्मों के लिए विवाह और तलाक से संबंधित भारतीय कानून
’ कन्वर्ट्स मैरिज डिसोलुशन एक्ट,1866
’ इंडियन डायवोर्स एक्ट,1869
’ इंडियन क्रिश्चियन मैरिज एक्ट,1872
’ काजी एक्ट,1880
’ आनंद मैरिज एक्ट,1909
’ इंडियन सक्सेशन एक्ट,1925
’ चाइल्ड मैरिज रेस्ट्रेंट एक्ट,1929
’ पारसी मैरिज एंड डायवोर्स एक्ट, 1936
’ डिसोलुशन आॅफ मुस्लिम मैरिज एक्ट,1939
’ स्पेशल मैरिज एक्ट, 1954
’ हिन्दू मैरिज एक्ट,1955
’ फारन मैरिज एक्ट,1969
’ मुस्लिम वीमन (प्रोटेक्शन आॅफ राइट्स आॅन डायवोर्स एक्ट),1986
क्या कहता है कुरान और संविधान?
मुस्लिम महिलाएं तीन तलाक पर कुरान और संविधान के अनुसार, नागरिक अधिकार मांग रही हैं, जिसे नाजायज नहीं कहा जा सकता। जहां तक कुरान की बात है तो पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान ने एक किताब लिखी है- ‘कुरान एंड कंटेमपररी चैलेंजेज’। इसमें कई आवश्यक सुझाव दिए गए हैं।
इस्लामी न्याय शास्त्र में कानून या नैतिक सिद्धान्त का प्रथम आधार कुरान है। इसके बाद सुन्नत एवं हदीस का जिक्र आता है। सुन्नत एवं हदीस पैगंबर की कथनी और करनी पर आधारित है। इन दोनों स्रोतों के बाद इजमा और कयास का जिक्र है। यह आपसी सहमति एवं विवेक तथा जमाने की जरूरतों के मुताबिक नियम रचना के सिद्धांतों पर आधारित है। कुरान में वर्णित तलाक के तरीके के अनुसार, पहले कदम के रूप में पति और पत्नी, दोनों को बिस्तर पर अलहदगी करनी होगी। इसके बाद के चरण में दोनों पक्षों को एक, एक पंच नियुक्त करने का कहा गया है। परिवार के द्वारा किए गए तमाम प्रयास नाकाम होने के बाद ही तलाक दिया जा सकता है। कुरान में बताया गया है कि ‘‘जब तुम औरतों को तलाक देने लगो तो इद्दत (तीन महीने की प्रतीक्षा अवधि) के शुरू में तलाक दो और इद्दत का शुमार (गिनती) रखो। इस बीच इन्हें घरों से मत निकालो और न ही वे खुद बाहर निकलें। तुम्हें क्या पता शायद
खुदा इसके बाद (मिलने) की कोई राह पैदा कर दे।’’
कहा जाता है कि इस्लाम के पहले जलालत युग में अरब के लोगों में बहुत बार तलाक कहने की कुप्रथा थी, जिसे इस्लाम खत्म करना चाहता था। हदीस में एक वाकये का जिक्र है कि जब एक व्यक्ति ने तीन तलाक दिया तो पैगंबर ने पत्नी को वापस लेने का हुक्म दिया। इसी के साथ पत्नी को तीन तलाक देने के एक अन्य मामले के बारे में जब पैगंबर को पता चला तो वे बहुत नाराज हुए और कहा, ‘‘मेरी मौजूदगी में ही खुदा की किताब के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है।’’
आज मुस्लिम पर्सनल लॉं बोर्ड जिस तीन तलाक की वकालत कर रहा है, उस पर मजमुआ कवानीन इस्लामी के पृष्ठ 137 में कहा गया है कि ‘तलाक बिद्दत है और ममनु है’। अर्थात् यह धार्मिक विकृति है, निषिद्ध है। जिसे ये लोग धार्मिक विकृति मान रहे हैं उसे बचाने के लिये क्यों अहम की लड़ाई लड़ रहे हैं। इनके बीच पिस रही है मुस्लिम महिला।
बहरहाल, भारतीय संविधान मुस्लिम महिलाओं को अनुच्छेद-14 के तहत जीवन जीने का अधिकार देता है तो अनुच्छेद-15 में मजहब के आधार पर भेदभाव नहीं करता। अनुच्छेद-21 में जीवन जीने का अधिकार और अनुच्छेद-25 में हर नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता देता है। इसके अंतर्गत ही भारत में मुस्लिमों को अपने पर्सनल लॉं के नियम में छूट मिली हुई है। साथ ही, अनुच्छेद-44 में समान नागरिक संहिता को राज्य का दायित्व और अनुच्छेद -51 में कहा गया है कि संविधान को मानना हर भारतीय का कर्तव्य है। इतने संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद अगर मजहब के कुछ ठेकेदार पर्सनल लॉं के नाम पर मुस्लिम महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित किए हुए हैं तो यह एक गंभीर विषय है।
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