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इस्लामी संगठन अपने कुतर्कों से पूरी दुनिया के लिए खतरा बन गए हैं। ‘जन्नत की 72 हूरों’ के नाम पर गरीबी और अज्ञानता में पल रहे बच्चों को गुमराह किया जा रहा है। निर्दोषों की हत्या करने वाले जिहादियों को सामान्य अपराधी नहीं समझा जाना चाहिए। दुनिया और इस्लाम के आलिम नेताओं को आतंक के इस नए खतरे से लड़ना होगा
एन. के. सिंह
पाकिस्तान के जाने-माने पत्रकार आरिफ जमाल ने अपनी किताब ‘द अनटोल्ड स्टोरी आॅफ जिहाद इन कश्मीर’ में करीब 600 जिहादियों के अंतिम पत्रों (मरने के पहले के) का अध्ययन करके लिखा कि ‘शायद ही कोई पत्र हो जिसमें जिहाद में मरने के बाद इनाम स्वरूप जन्नत में मिलने वाली 72 हूरों का जिक्र न हो। मरते वक्त इसका उल्लेख यह बताता है कि जन्नत की हूरें उनका मुख्य आकर्षण होती हैं।’ हालांकि कुरआन की कई आयतों में (अल तुर 52-25 और अल वकियाह 56-22, 35, 36 में हूरों, उनकी खूबसूरती और उनके शारीरिक सौष्ठव का जिक्र किया गया है, लेकिन 72 की संख्या हदीस सुन्न खंड 4, अध्याय 21, हदीस 2687 में मिलता है। दुनिया के प्रसिद्ध इस्लाम के जानकार शेख जब्रिल हद्दाद, जिन्हें परंपरागत इस्लाम का सबसे बड़ा जानकार माना जाता है, ने 2005 में एक फतवा जारी करके अल्लाह के नाम पर शहीद हुए लोगों के लिए जन्नत में मिलने वाली 6 नियामतों का जिक्र किया है। इनमें पांचवां और सबसे चर्चित है 72 हूरों का मिलना।
कुरआन में जिहाद को ‘अल्लाह के रास्ते में सबसे बड़ा योगदान’ माना गया है। हदीस अल बुखारी और सहीह मुस्लिम में भी जिहाद को बड़े मुकाम पर रखा गया है। यह जिहाद जमीन पर गैर-इस्लामी लोगों के खिलाफ युद्ध को लेकर है। हालांकि कुछ इस्लामी विद्वानों ने यह कहना चाहा कि दरअसल जब पैगम्बर युद्ध खत्म कर लौटे तो उन्होंने कहा कि यह तो छोटा जिहाद है। बड़ा जिहाद तो अपने अन्दर की बुराइयों से लड़ने को लेकर है। लेकिन कुरआन से लेकर सभी 6 मान्यता प्राप्त हदीसों में इस बात का कहीं भी जिक्र नहीं मिलता। जिहाद का मकसद स्पष्ट रूप से गैर-मुसलमान से लड़ना, या इस लड़ाई में उनसे इस्लाम कुबूल कराना या उन्हें खत्म करना या खुद खत्म हो जाना ही बताया गया है। यहां यह बताना जरूरी है कि कुरआन में यह भी कहा गया है ‘ला इकाराहा फिद्दीन’ (मजहब में कोई जोर-जबरदस्ती नहीं है), लेकिन यह उस वक्त की बात है जब पैगम्बर को प्रारंभिक दौर में (610 ई. से) प्रताड़ित किया जा रहा था और मक्का में कबायलियों का एक बड़ा वर्ग, जिसमें उनके कुरैश समुदाय के लोग भी थे, उनके खिलाफ हो गया था। उन 13 वर्षों के दौरान मुहम्मद लगातार लड़ाई-झगडेÞ से बचने की बात कहते रहे और इस प्रताड़ना से बचते हुए मदीना पहुंचे। मदीना में जब उनकी मान्यता स्थापित हो गई और सामरिक शक्ति भी आ गई और जब 630 ई. में मक्का से गैर-इस्लामी, खासकर यहूदियों और ईसाइयों के साथ अन्य मूर्ति-पूजकों को खदेड़ दिया गया तो उस समय के (622 से 630 ई. तक) लगभग 24 अध्याय (सूरा) गैर-इस्लाम अनुयायियों को चुन-चुन कर मारने की बात कहते हैं। जिहाद को 622 ई. से इस्लाम में एक अलग भूमिका में रखा जाने लगा और उसे सबसे बड़ी कुर्बानी मानी जाने लगी।
आज जिहाद के नाम पर इस्लामी आतंकी संगठन एक बड़े वर्ग को बहका रहे हैं। यहां तक कि पाकिस्तान सरीखे तमाम मुल्क के लोग आतंक की त्रासदी झेलते हुए भी इन आतंकी संगठनों से सुर मिला रहे हैं। ‘अगर कोई सैनिक अपने देश के लिए जान देता है तो उसे शहीद कहते हैं, लेकिन अगर कोई मजहब के लिए कुर्बान होता हो तो उसे आतंकवादी कहते हैं? मान लीजिये, कोई भारत सरकार के खिलाफ हो जाता है तो सरकार उसे दंडित करती है कि नहीं?’ यह सवाल इस्लाम कबूल करने वाले केरल के याहिया (जो पहले ईसाई था) का है जो 21 साथियों के साथ देश छोड़ कर अफगानिस्तान में आईएसआईएस से जुड़ गया। वह अपने तमाम पत्रों को एक एनक्रिप्टेड वेबसाइट ‘टेलीग्राम’ के जरिये काफी समय से एक अंग्रेजी अखबार को भेजता रहा था। हाल ही में उसके एक साथी ने खबर दी कि याहिया अमेरिकी सैन्य अभियान में मारा गया।
तर्क याहिया का हो या आईएसआईएस का, वह प्रदर्शित करता है किस तरह विश्व के इस्लामी आतंकी संगठन अपने कुतर्कों से पूरी दुनिया के लिए खतरा बन गए हैं। किस तरह ये संगठन गरीब, अशिक्षित या कम शिक्षित मुसलमान युवाओं को कुतर्क के सहारे गुमराह कर रहे हैं और उनमें उन्माद पैदा कर रहे हैं। आज जरूरत है कि इस्लाम के वास्तविक अलमबरदार इस मजहबी उन्माद से दुनिया को बचाने के लिए आगे आएं व इसे पुनर्परिभाषित करें या दुनिया संगठित होकर इसका प्रतिकार करे। याहिया को यह नहीं बताया गया कि ‘मजहब के लिए मरना और मजहब के लिए मारना’ में कितना अंतर है। न ही यह कि दुनिया में खून बहाकर खलीफा का शासन स्थापित करना अगर मजहब है तो वह पूरी मानवता, समाज की स्थापना के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है। जो सैनिक देश के लिए जान देता है वह अपने वतन की सुरक्षा के लिए ऐसा करता है ताकि पूरा समाज महफूज रहे। लेकिन एक जिहादी को यह नहीं बताया गया कि दुनिया में खलीफा का शासन (एक अवधारणा जिसे दर्जनों इस्लामी देश नकार चुके हंै) लाने के लिए बेगुनाह लोगों को मारना मजहब नहीं हो सकता। उसे यह भी नहीं बताया गया कि खून बहाकर मजहब का प्रसार बर्बरतापूर्ण आदिम सभ्यता का द्योतक है। इसे विश्व समाज काफी पहले खारिज कर चुका है।
जब एक आतंकी मजहब के नाम पर यह सब करता है तो वह उस देश ही नहीं, पूरे विश्व समाज और मानवता के लिए खतरा माना जाता है। याहिया ने लिखा है ‘‘जिहाद बाजार का एक सौदा है अल्लाह के साथ। एक ऐसा सौदा जिसमें हम अपना जीवन और पूंजी अल्लाह को देकर बदले में जन्नत हासिल करते हैं। कितना फायदे का सौदा है!’’ याहिया कुरआन की उस आयत (अल तौबा सूरा 9 आयत 111) को उद्धृत कर रहा था, जिसमें कहा गया है, ‘‘अल्लाह ने इस्लाम में विश्वास करने वालों से उनका जीवन और उनकी संपत्ति खरीद ली है और बदले में उन्हें जन्नत देने का वादा किया है। ये अनुयायी अल्लाह के मार्ग में लड़ते हैं और या तो मारते हैं या मर जाते हैं।’’ अफगानिस्तान में यूएन मिशन की आधिकारिक शोधकर्ता क्रिस्टिनी ने जिहादी मानव बमों का अध्ययन करने पर पाया कि लगभग सभी आत्मघाती जिहादी इस विश्वास से प्रेरित होते हैं कि ‘काफिर (जो इस्लाम की जगह किसी और मत को मानता है) को मारना हमारा मजहबी कर्तव्य है।’
जम्मू क्षेत्र के नगरोटा सैन्य शिविर में बीते 29 नवंबर को आतंकी हमले में मरे फिदायीन के पास मिले सामान में एक असाल्ट राइफल और कुछ कारतूस के अलावा जो चीज मिली वह थी सस्ते इत्र की एक बोतल। पिछले सबूतों के आधार पर पाया गया कि फिदायीन जान देने के पहले नहाता है, फिर दूल्हे की तरह शृंगार करता है। आंखों में काजल और शरीर पर इत्र लगाता है। इसका आशय यह निकाला गया कि ऐसे फिदायीन की मान्यता होती है कि मरने के बाद जब वह जन्नत के दरवाजे पर पहुंचे तो हूरों को उसके शरीर से खुशबू आए और वह खूबसूरत दिखे। अमेरिका में 9/11 के हमले के साजिशकर्ता मुहम्मद अता ने भी अपने अंतिम पत्र में मजहब के नाम पर कुर्बान होने का हवाला दिया था। 1995 में ओसामा बिन लादेन ने सऊदी शाह फहद को गुस्से में एक पत्र लिखा था। इस पत्र में उसने बताया था कि सारा झगड़ा कुरआन के मुताबिक चलने और न चलने वालों के बीच है। उसने उस लंबे पत्र में 20 बार कुरआन की आयतों को उद्धृत करते हुए कहा, ‘हम अल्लाह के मजहब पर विश्वास न करने वालों से बदला लेंगे।’ शायद इस्लाम का एक कट्टर वर्ग है जो सही परिभाषा और उदार व्याख्या की जगह अपनी दुकानें चलाने के लिए पूरी दुनिया में आतंक फैलाना चाह रहा है। उधर, इसका और विद्रूप चेहरा आईएसआईएस के रूप में उभरा है। दुनिया में अमन के दो रास्ते हैं या तो इस्लाम स्वयं इन तत्वों को खत्म करे या पूरी दुनिया एकजुट होकर इस खतरे से लड़े।
दरअसल, इस्लाम के प्रसार और काफिरों से लड़ने के लिए आत्मघाती दस्ते तैयार करने का इतिहास 11वीं सदी के उत्तरार्ध से शुरू होता है। इसका जनक हसन इब्न अत-सब्बह माना जाता है। ये फिदायीन सेल्जुक तुर्की साम्राज्य से लड़ने के लिए तैयार किए गए थे। फिदायीन को यही बताया जाता है कि उसका जन्म अल्लाह के काम के लिए ही हुआ है। उसका उद्देश्य अल्लाह के लिए कुर्बानी देते हुए जन्नत में वह सब हासिल करना होता है जो यहां नहीं मिलता। जम्मू में 2013 में आत्मघाती हमले के बाद आतंकी इमरान माजिद बट्ट ने अपनी मां को लिखी एक कविता में कहा, ‘‘ऐ अल्लाह, तू कब ये आवाज देगा कि खून में लथपथ पड़े इस गुलाब की मां कहां है।’’ 2014 में पेशावर के सैनिक स्कूल पर तहरीक-ए-तालिबान के साथ अफगानिस्तान, चेचन्या व अरब के आत्मघाती दस्ते ने हमला किया। तहरीक-ए-तालिबान ने बच्चों के मारे जाने को भी ‘अल्लाह का काम’ बता कर खुद को न्यायोचित ठहराया।
ऐसा नहीं है कि इस्लाम में एक बड़ा वर्ग कठमुल्लाओं के इस गैर-मानवीय कृत्य के खिलाफ आवाज नहीं उठाता, परंतु इस वर्ग के रहनुमाओं की परिभाषा का नतीजा यह रहा कि जब एबीसी न्यूज के पत्रकार बिल रेडेकर ने पेशावर के एक मदरसे में दरी पर पढ़ रहे 60 बच्चों की कक्षा में सवाल किया कि जो बच्चे इंजीनियर या डॉक्टर बनाना चाहते हैं, वे हाथ उठायें। केवल दो हाथ उठे। लेकिन जब उन्होंने पूछा कि कितने बच्चे जिहाद लड़ना चाहते हैं, तो सारे हाथ उठे। यकीनन मासूम बच्चों के यह उठे हाथ भविष्य के खतरे का संकेत दे रहे हैं। दुनिया का ध्यान अब भी इस ओर नहीं गया तो बहुत देर हो जाएगी ल्ल
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