ऊपर से ‘भोले’, भीतर से ‘भाले’
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ऊपर से ‘भोले’, भीतर से ‘भाले’

by
May 15, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 15 May 2017 12:17:15

‘उन्नीस सौ बयालिस मेंं हमारे देश में एक क्रांति हुई थी, जिससे अंग्रेज चले गए थे। अंग्रेज चले गए, लेकिन भ्रष्टाचार खत्म नहीं हुआ। इसलिए अब आजादी की दूसरी लड़ाई की शुरुआत हो गई है। देश के सभी लोगों ने मेरे भाई, मेरी बहन, युवक-युवतियों ने यह जो मशाल जलाई है, इस मशाल को कभी बुझने नहीं देना। चाहे अण्णा हजारे रहे न रहे मशाल जलती रहेगी। अभी एक लोकपाल नहीं, इस देश में पूरा परिवर्तन लाना है। देश के गरीब तबके को हम कैसे महल दे सकेंगे, यह सोचना है। क्रांति की शुरुआत हो चुकी है। मैं आज ज्यादा कुछ नहीं बोलूंगा, क्योंकि पिछले तीन दिन में मेरा वजन तीन किलो कम हो गया है, लेकिन आप लोग जो आंदोलन देश में चला रहे हैं उसकी ऊर्जा मुझे मिल रही है।’
-अण्णा हजारे (18 अगस्त, 2011 को रामलीला मैदान के मंच से)
पता नहीं, अण्णा का वजन तब से अब तक कितना घटा है। यह भी नहीं पता कि उस आंदोलन की स्मृति उन्हें अब शक्ति देती है या कसक! लेकिन कुछ ऐसा है जो सबको पता है- मशाल बुझ चुकी है। उस आंदोलन की रगड़ से पैदा हुई चिनगारी से भी स्वार्थी सियायत के ही तंदूर सुलगाए गए हैं। अब बस राख बची है, सब ठगे गए। अण्णा अलग हैं। समग्र आंदोलन को गूंथने-बुनने वाले प्रतीक चेहरे अलग-अलग… ..और इस सबसे अलग हैं कालिख भरे उन आरोपों के पहाड़, जो आम आदमी पार्टी के नेतृत्व में बनी सरकार और खासकर अरविंद केजरीवाल पर लगाए गए हैं। दिल्ली में जनता की उम्मीदें राज्य सरकार ने घूरे पर फेंक दीं, आंदोलन के साथियों को बेइज्जत करते हुए (पहलवानों से ठेलकर या मंत्रिमंडल से धक्का देकर) निकाला गया। ऐसे में एक अकेले अण्णा क्यों, सबके सब आहत हैं।
इस आंदोलन को राजनैतिक मंसूबों की सान पर चढ़ाते हुए तब एकाएक जिस चेहरे ने जनाकांक्षाओं के ज्वार कोे बड़े करतब के साथ सिर्फ अपने पर केंद्रित कर लिया, आज उससे सबका एक ही सवाल है-यह सिर्फ तुम्हारा आंदोलन नहीं था। पार्टी भी सिर्फ तुम्हारी नहीं है। बाकियों पर लगातार उंगलियां उठाने वाले, निराधार आरोप लगाने वाले और एक जनांदोलन की पूरी ताकत को सोख जाने वाले तुम होते कौन हो?
क्यों जो नियम बाकी सबके लिए हैं, वे तुम पर लागू नहीं होते? तुम ठेकों में घपले का आरोप लगाते थे। आज तुम्हारे ही नातेदार संदिग्ध उपकृतों की कतारों में क्यों नजर आ रहे हैं? कपिल मिश्रा सिर्फ एक प्रकरण है, सिर्फ एक संज्ञा। नाम से क्या फर्क पड़ता है। क्या ऐसे ही आरोप तुम्हारे पूर्व साथी, पार्टी के कार्यकर्ता भी अरसे से नहीं लगा रहे? क्या यह सच नहीं कि तुमने अहंकार में चूर होकर अपने सबसे प्यारे साथियों को, उनकी  अपनी अर्जित छवि और गरिमा को रौंद  दिया?  ऐसे में नाम से, संज्ञा से क्या फर्क पड़ना है। वह भी एक संज्ञाशून्य व्यक्ति को…. संवेदनाओं का स्थान अब सत्ता और सियासत ले चुकी है। रहा होगा कोई भावुक, सच्चा अरविंद केजरीवाल नाम का, अब इस नाम को एक घुटा हुआ नेता ओढ़ता, बिछाता है…. पार्टी की साख सूख चुकी है और एक अहंकारी नेतागीरी लहलहा रही है। भ्रष्टाचार का उर्वरक ही अब उस चेहरे की चमक है।  भारतीय लोकतंत्र में नैतिकता, पारदर्शिता का आह्वान करती डुगडुगी जब जंतर-मंतर पर बजी थी तो करोड़ों आंखों में उम्मीद के जुगनू तैरने लगे थे। बारी-बारी से घुमड़ते लोगों के जत्थे उपवासी अण्णा की उस सात्विक दृढ़ता को नमन कर रहे थे जिसने तत्कालीन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार को झकझोर दिया था। अण्णा को तो गुमान तक नहीं रहा होगा कि उनका कोई आंदोलनकारी चेला इतना तेज निकलेगा कि जनक्रांति की मशाल का इस्तेमाल अपने लिए, आभामंडल का छद्म रचने के लिए करेगा। इस पूरे प्रकरण में दु:ख और शर्म से भी बड़ी बात खतरे की है। राजनीति की सफाई के नाम पर जनांदोलन में शामिल हुए छलिया अब लोकतंत्र को निशाना बनाने के दुस्साहस पर उतर आए हैं। दिल्ली विधानसभा में इस छलिये पर लगे ताजा आरोपों से ध्यान हटाने के लिए हुआ तमाशा इस दुस्साहस की बानगी है। सदन के भीतर ईवीएम से भरोसा डिगाने का ‘डेमो’ क्या कहलाएगा? जन के मन में तंत्र के प्रति अविश्वास और आशंकाएं बोने की साजिश! या कुछ और? सवाल यह नहीं कि अकेले अण्णा छले गए या हम सब! सवाल यह भी नहीं कि कपिल मिश्रा के लगाए आरोपों के बाद केजरीवाल सरकार का पतन किस गति से बढ़ेगा! सवाल यह है कि क्या विधानसभा में विशेषाधिकारों की छतरी तले जनतंत्र को ही निशाना बनाने की छूट दी जा सकती है? भोले-भाले लोग कब तक ‘अण्णा’ बने रहेंगे? खासकर तब जबकि उनका पाला ऐसे लोगों से पड़ा हो, जो ऊपर से ‘भोले’ और भीतर से ‘भाले’ हों!

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