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ऋषि नारद को कौन नहीं जानता? इहलोक, देवलोक और असुरलोक….तीनों लोेकों में एक समान विचरने वाले भक्त-प्रवर नारद। नारायण के नाम की टेर लगाते जगह-जगह में जो चल रहा है, उसकी सुध लेते, इस लोक से उस लोक तक भ्रमणशील रहने वाले वीणा की तान छेड़ते नारद। संगीत के पंडित और विष्णु के परम भक्त नारद को आदि पत्रकार यूं ही नहीं कहा जाता। जहां जो गलत है, उसकी पूरी खबर ले समाज के चिंतनशील, सकारात्मक सोच वालों तक पहुंचाना ही तो पत्रकार का धर्म होता है। तो इस नाते पत्रकार की भूमिका अहम हो जाती है कि समाज से गलत चीजों और नकारात्मकता के विरुद्ध संत-शक्ति को जगाकर सत्य की, धर्म की, सकारात्मकता की, सज्जनता की स्थापना करने में पत्रकारिता के योगदान की वजह से ही इसे लोकतंत्र काचौथा खंभा कहा जाता है।
इस बार नारद जयंती (11 मई) के अवसर पर प्रस्तुत है पत्रकारिता के कुछ ऐसी ही मूल्यों पर एक विमर्श
प्रो़ बृज किशोर कुठियाला
वर्तमान पत्रकारिता मानव समाज के लिए आधुनिक युग की देन है। पत्रकारिता या मीडिया की आयु अधिकतम तीन-चार सौ वर्ष की है और पिछले सौ वर्षाें में मीडिया का विकास तीव्रतम गति से हुआ है। पत्रकारिता की मुख्य भूमिका समाज को संवादित रखने की रहती है अर्थात् सूचनाआें, जानकारियों और विचारों के माध्यम से पत्रकारिता समाज के विभिन्न वर्गाें को परस्पर जोड़ती है। परन्तु ऐसा नहीं है कि आज की पत्रकारिता ही यह काम कर रही है।
प्राचीन भारतीय समाज भी सुसंवादित था। वृहद भारत में रहने वाले नागरिक उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम, मध्य…सब स्थानों की अनिवार्य सूचनाएं प्राप्त करते ही थे। तब वर्तमान की प्रौद्योगिकी के साधन नहीं थे, परन्तु समाज ने अपनी रचनायें ऐसी बनार्र्इंं थीं कि सम्पूर्ण भारतीय समाज एकात्म रहता था। जनसंचार की अनुपस्थिति में संभव नहीं था कि सम्पूर्ण भारत में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, राम, कृष्ण और अनेक देवी-देवताओं की एक समान जानकारी हर भारतवंशी को हो। जैसे कि उदाहरण और प्रमाण मिलते हैं। प्राचीन भारत में अधिकतर संवाद संत पुरुषों के माध्यम से होता था जो लगातार पूरे देश का भ्रमण एवं प्रवास करते थे। कश्मीर घाटी के संत, विद्वान और दर्शनकार दक्षिण भारत में भी प्रसिद्घ हैं। वेद, पुराण, उपनिषद् आदि का ज्ञान सर्वत्र भारत में बिना सुव्यवस्थित संचार व्यवस्थाओं के संभव नहीं था। आम नागरिक तीर्थ यात्राओं पर निकलता था और न केवल सूचनाओं का आदान-प्रदान करता था बल्कि नवनिर्मित ज्ञान को प्राप्त करके, घर लौटकर उसका प्रचार-प्रसार भी करता था। मुद्रित ग्रंथों के अभाव में श्रुति का मार्ग ही अत्यन्त प्रभावकारी संचार का साधन था। इसी संदर्भ में देवर्षि नारद की भूमिका लोक संचारक के रूप में उभरती है।
ऐसा संभव नहीं लगता कि नारद केवल एक ही व्यक्ति थे क्योंकि सतयुग, द्वापर और त्रेता युग…सभी में नारद के होने के प्रमाण मिलते हैं। विद्वानों का मत है कि हर काल में एक विशेष प्रकार के कार्य का दायित्व संभालने वाले व्यक्ति को एक पदनाम देने की प्रथा हो सकती है। इसलिये जो व्यक्ति एक परम्परा के अन्तर्गत देवताओं, मानवों और असुरों के मध्य संवाद की स्थितियां बनाता हो, उसे नारद कहा गया। प्राचीन भारतीय साहित्य में ऐसे अनेक ग्रंथ हैं जिनके रचयिता नारद माने जाते हैं। ये सभी एक व्यक्ति के द्वारा रचित हों, संभव नहीं लगता। इसलिये ऐसा मानकर चलना चाहिए कि हर काल में कोई देवता स्वरूप ऋषि होते थे जिनकी समाज के हर वर्ग में मान्यता थी। वे विद्वान थे और निरंतर प्रवास पर रहते थे। इस प्रकार की अनेक कथायें हैं कि नारद ने ब्रह्मा से ज्ञान प्राप्त किया। संगीत का आविष्कार किया। समाज में भक्ति के मार्ग का प्रतिपादन किया और संवाद के माध्यम से लोकहित का कार्य किया। इसलिये नारद को केवल मात्र एक पत्रकार के रूप में समझना या प्रस्तुत करना संभवत: उनके प्रति एकपक्षीय दृष्टि है।
वर्तमान की पत्रकारिता और नारद की संवादपालिका दोनों का आधार संचार या संवाद तो हो सकता है परन्तु कहीं न कहीं दोनों में मौलिक भिन्नता है। वर्तमान पत्रकारिता प्रौद्योगिकी आधारित है। मुद्रण के यंत्रों से पढ़ने वाले जन माध्यमों का प्रसार हुआ। वातावरण में तरंगों के माध्यम से सूचनाओं को प्रसारित करने से रेडियो, टेलीविजन और टेलीफोन या मोबाइल के माध्यम संभव हुए। उपग्रह संचार से सभी प्रकार मीडिया को असीमित विस्तार मिला और वर्तमान के मीडिया संसार की
रचना हुई। नारद के संवाद मुख्यत: समाज के नेतृत्व से ही होते थे। पत्रकारिता या मीडियाकर्मी के रूप में लें तो नारद जनसंचारक नहीं थे। परन्तु जब नारद के संगीत शास्त्र की बात करें या भक्ति सूत्रों की बात करें तो नारद एक विद्वान ऋषि- मुनि की तरह आम जन से संवाद करते हुए दिखते हैं। इसलिये नारद को वर्तमान मीडिया या पत्रकारिता के संदर्भ में समझना या परिभाषित करना उचित नहीं लगता। नारद न तो व्यवसायी थे, न ही उन्हें वर्तमान संदर्भ में समाज सेवी कहा जा सकता था। वे तो ऋषि-मुनि थे। अपने समय की परिस्थितियों को पूर्ण रूप से समझते थे। भविष्य की कल्पना करते थे और उनके संवाद में समाज के मुख्य व्यक्तियों को वार्ता के माध्यम से समझाकर सामाजिक घटनाओं को दिशा देने का कार्य करते थे।
माना जाता है ऋषि नारद के कारण ही असुर हिरण्यकशिपु के प्रह्लाद जैसा संत एवं भक्त समाज को प्राप्त हुआ। यह उदाहरण अकेला नहीं है। नारद ने ऐसे अनेक कार्य किये जिनसे भविष्य का घटनाक्रम ही बदल गया। कंस के मन में उन्होंने यह शक पैदा किया कि देवकी की कोई भी संतान आठवीं हो सकती है इसलिये हर संतान का वध करना कंस के हित में है। नारद ने ऐसा इसलिये किया कि कंस के अत्याचार और पाप इतने बढ़ जायें जिससे उसका वध करना समाज हित के लिए एक अनिवार्य कार्य हो जाए।
व्यापक दृष्टि से देखें तो नारद केवल मात्र सूचनाआें का आदान-प्रदान नहीं करते थे। वे तो वाणी का प्रयोग लोकहित में करते थे। महत्वपूर्ण यह भी है कि नारद स्थायी रूप से कहीं नहीं रहते थे। कहा जाता है कि प्रजापति ने उन्हें यह श्राप दिया था कि वे निरंतर भ्रमण करते रहें और एक स्थान पर रहना उनके लिए अवांछनीय था। वर्तमान के पत्रकारिता जगत में ऐसा कोई उदाहरण नहीं है।
नारदीय संवाद में एक और विशेषता देखने को मिलती है। नारद की छवि किसी जाति, वर्ग, समुदाय, सम्प्रदाय से नहीं जुड़ी थी। वे मनुष्य थे या देवता, यह कहना कठिन है। कहीं-कहीं वे गंधर्व के रूप में भी प्रकट होते हैं। परन्तु उस काल में वे देवताओं, मानवों और दानवों सभी के मित्र-हितैषी थे। सीधी पहुंच नारायण, ब्रह्मा, शिव, विष्णु सब तक उनकी सीधी पहुंच थी। ब्रह्मा के यह कहने पर कि ये कार्य शिव-विष्णु करेंगे तो वे पलक झपकते ही नारायण के पास पहुंच जाते हैं और वहां से तुरन्त शिव से संवाद करने के लिए उपस्थित हो जाते हैं। शिव और पार्वती दोनों की गृहस्थी में वे हर समय हर स्थान पर स्वीकार्य हैं। दानव भी उनका न केवल सत्कार करते हैं परन्तु उनकी कही गई बात को मानते हैं। यह सर्वत्र स्वीकार्यता नारद की अद्वितीय विशेषता है।
नारदीय प्रकरणों का विश्लेषण करें तो एक अन्य महत्वपूर्ण बिंदु उभरकर आता है। नारद की दी गई सूचना पर किसी ने भी प्रश्नचिह्न नहीं लगाया। नारद ने जैसा कहा, उसे हर किसी ने सौ प्रतिशत सत्य और तथ्यात्मक माना। इतना ही नहीं, नारद ने जो सुझाव दिया, उसे किसी दानव, मानव या देवता ने न माना हो, ऐसा भी प्रकरण नहीं आता है। यहां तक कि पार्वती अपने पति शिव की बात को न मानकर नारद के कहने पर अपने पिता दक्ष प्रजापति के यज्ञ में जाती हंै और एक बड़े घटनाक्रम का सूत्रपात होता है जिसमें शिव के तांडव का उद्घाटन है। संवाद की यह विश्वसनीयता भी अद्वितीय है, अनुकरणीय है। नारद के अटल चरित्र का प्रमाण तो तब मिलता है जब कामदेव के हर प्रयास के बावजूद नारद अपने चरित्र की प्रामाणिकता सिद्ध करते हैं। नारद के चरित्र में रत्ती भर भी कोई लोभ या स्वार्थ नहीं है।
प्राचीन भारतीय ग्रंथों में नारदीय चरित्र का विश्लेषण तो उनके जीवन के विभिन्न घटनाक्रमों से उज्ज्वल होता है। परन्तु नारद तो इससे भी अधिक विराट हैं। उनका संगीत का आविष्कारक व विशेषज्ञ होना अपने आप में उन्हें देवत्व का उदाहरण बनाता है। संगीत क्षेत्र के सोलहवीं शताब्दी के जो महापुरुष थे, वे थे तो दक्षिण भारत के, परन्तु आज पूरी दुनिया में नवाचारों के लिए सुप्रसिद्ध हैं, ऐसे कर्नाटक संगीत के प्रणेता त्यागराज के प्रेरणास्रोत नारद ही थे। त्यागराज ने नारद की स्तुति में अनेक रचनायें की हैं और उनका यह कहना था कि नारद ने स्वयं उनके सामने प्रत्यक्ष वीणा वादन किया था। ऐसे संगीत सम्राट नारद को केवल पत्रकार मानना उचित नहीं है।
यदि संवाद, संचार एवं मीडिया के संसार की दृष्टि से देखें तो नारद का एक और पक्ष उभरकर आता है। हमारे अनेक ऋषि, मुनि, संत पुरुषों ने भक्ति मार्ग पर चलने के लिए सूत्र दिये हैं और वर्तमान में उनका खूब विश्लेषण भी हो रहा है। इसी कड़ी में नारद के चौरासी भक्ति सूत्र प्राप्त हैं। संस्कृत भाषा में नारद के सूत्र समझने में अत्यन्त सरल और सहज हैं। प्रथम दृष्टया ये सूत्र भगवान् और भक्त के मध्य आदर्श सम्बन्धों के निर्देश हैं। परन्तु भिन्न दृष्टि से देखने पर हर भक्ति सूत्र का एक अन्य अर्थ भी निकलता है जिनमें वार्ता करने वालों के बीच की मर्यादाओं एवं आदर्श व्यवहार की भी स्पष्ट रूप से चर्चा है। नारद को वर्तमान मीडिया की कल्पना नहीं होगी, ऐसा तो माना जा सकता है, परन्तु उनके सभी भक्ति सूत्र वर्तमान मीडिया की आदर्श आचार संहिता माने जा सकते हैं। हां उनके समझने और विश्लेषण के लिए एक भिन्न दृष्टि चाहिए। दुर्भाग्य यह है कि मीडिया के क्षेत्र में ही नहीं, प्राचीन भारतीय ज्ञान के अध्ययनकर्ता भी इस ओर प्रयास नहीं कर पाये हैं। विषय बड़ा है परन्तु यहां से दो-तीन उदाहरण देना उचित रहेगा। वर्तमान पत्रकारिता का आधार इस तथ्य पर स्थापित है कि मनुष्य समाज की प्रवृत्ति है, कि एक ही विषय पर अनेक एवं विविध मत होंगे। नारद का पंद्रहवां सूत्र इस प्रकार है- तल्लक्षणानि वाच्यन्ते नानामतभेदात् अर्थात् भक्ति के लक्षणों के विषय में अनेक मतभेद हैं। भक्ति तो स्थायी तत्व है, परन्तु उसके विषय में मतभेद होना आवश्यक है। पत्रकारिता भी मतों की भिन्नता को स्वीकार करती है।
विभिन्न मतों की प्रस्तुति ही पत्रकारिता का मापदंड मानी जाती है। 16 से 19 भक्ति सूत्रों में नारद ने विभिन्न मतों को प्रकट किया है। भक्ति के विषय में व्यास, गर्ग, शांडिल्य और अंत में 19वें सूत्र में अपना मत व्यक्त किया है। नारद कहते हैं कि इन विभिन्न मतों में से भक्त अपना मत बनाये। वर्तमान की आदर्श पत्रकारिता के अनुसार नारद अपने मत को प्रस्तुत करते हैं परन्तु थोपने का प्रयास नहीं करते। इसी प्रकार सूत्र 45 है-
तरंगायिता अपीमे संगात् समुद्रायन्ति।
इसमें नारद भक्त को बता रहे हैं कि बुराई का प्रारंभ एक छोटी तरंग के समान आता है, परन्तु क्रमश: इसका इतना विस्तार होता है कि बुराई कुसंग पाकर समुद्र बन जाती है।
समाज में बहुत कुछ अच्छा भी होता है और थोड़ा बहुत बुरा भी होता है। परन्तु वर्तमान पत्रकारिता में बुराई को राई के पहाड़ की तरह प्रस्तुत कर दिया जाता है और समाज के सकारात्मक पक्ष के पहाड़ को राई के समान छोटा या अदृश्य कर दिया जाता है। यदि पत्रकारिता का उद्देश्य समाज में नकारात्मकता का भाव प्रसारित करना है तब तो ठीक है अन्यथा बुराई को कम से कम उजागर करना समाज के हित में है। ऐसी सोच क्रमश: मीडिया में बढ़ती जा रही है। अमेरिका के 11 सितम्बर, 2001 के आतंकी हमले के विभीषिका को वहां के मीडिया ने न दिखाने का निर्णय किया क्योंकि उनको डर था कि इसे अमेरिकी समाज में भय का प्रसार होगा और व्यवस्थाओं पर आस्था कम होगी। हमारे देश में हिंदी का एक मुख्य समाचारपत्र हर सोमवार को ‘नो नेगेटिव न्यूज’ का समाचारपत्र निकालता है। अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम्, मूकास्वादनवत ् इन 51वें और 52वें सूत्र में नारद पत्रकारिता की सीमाओं को दर्शाते हैं। प्रेम के विषय में उन्होंने कहा कि प्रेम का स्वरूप अवर्णनीय है और यह गूंगे के स्वाद लेने के समान है। मीडिया के माध्यम से किसी भी तथ्य की सम्पूर्ण और समग्र प्रस्तुति संभव नहीं है क्योंकि शब्दों एवं चित्रों की सम्प्रेषणीयता की सीमायें हैं। 84 सूत्रों के रचयिता के रूप में नारद एक मीडिया शिक्षक के रूप में भी जाने जा सकते हैं। प्राचीन भारतीय साहित्य में नारद का चरित्र बहुआयामी है। वे अच्छे वक्ता, गंभीर विद्वान, सफल लेखक एवं उत्तम व्यवहार वाले व्यक्ति के रूप में उभरकर आते हैं। इसलिये नारद को सम्पूर्ण रूप से समझने की आवश्यकता है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मीडियाकर्मी कैसा हो, उसके दायित्व क्या हों, उसकी भूमिका क्या हो, ये दिशा-निर्देश प्राचीन गं्रथों से नारद के माध्यम से निकाले जा सकते हैं। मीडिया नीति या समाज की संचार नीति के निर्धारण में, मीडिया की आचार संहिता के निर्माण में और मीडिया की स्वतंत्रता जैसे विषयों को भारतीय दृष्टि से देखने के लिए नारद को समझना लाभकारी होगा। नारद की प्रस्तुति हम सर्वश्रेष्ठ लोक संचारक एवं आदर्श पत्रकार के रूप में कर सकते हैं।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्टÑीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति हैं)
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