कसौटी पर यूरोपीय संघ
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कसौटी पर यूरोपीय संघ

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May 8, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 08 May 2017 18:04:07

 

फ्रांस के राष्ट्रपति चुनाव में आतंकी हमले, बेरोजगारी, शरणार्थी समस्या व आंतरिक सुरक्षा ही नहीं, बल्कि यूरोपीय संघ की एकजुटता भी अहम मुद्दा है। दक्षिणपंथी उम्मीदवार मरिन ले पेन ट्रंप की तरह ‘फ्रांस फर्स्ट’ और यूरोपीय संघ से फ्रांस के अलग होने की बात कर रही हैं। उन्हें लोगों का समर्थन भी मिल रहा है

फ्रांल्ल  ललित मोहन बंसल

फ्रांस के राष्ट्र्पति चुनाव में यूरोपीय संघ की एकजुटता कसौटी पर है। इस चुनाव में यूरोपीय संघ के प्रबल समर्थक और मध्यमार्गीय इमैनुअल मैक्रॉन पहले दौर के कड़े मुकाबले में जीत चुके हैं। जैसा कि सर्वेक्षण बता रहे हैं, संभव है कि 7 मई को दूसरे और निर्णायक दौर में वह प्रबल प्रतिद्वंद्वी दक्षिणपंथी और नेशनल फ्रंट की अध्यक्ष मरिन ले पेन को हराकर राष्ट्र्पति बन जाएं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि इमैनुअल मैक्रॉन अगर राष्ट्र्पति चुन भी लिए गए तो क्या वह अपने देश और यूरोपीय संघ की अस्मिता को बचा पाएंगे? देश के समक्ष आर्थिक संकट, 10 फीसदी बेरोजगारी है और इस्लामी आतंकी हमलों के बाद फ्रांसीसी जनता के सब्र का बांध टूट चुका है। उधर, ब्रेग्सिट के बाद भी यूरोपीय संघ के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है। अगले साल इटली में चुनाव होने वाले हैं और यूरोपीय संघ से अलग होने के ‘शोर-शराबे’ से जर्मनी की चांसलर एंजेला मार्केल सहित कई सदस्य देशों के नेताओं की नींद उड़ी हुई है।
आईएसआईएस के हमलों और यूरोप में शरणार्थियों की आवाजाही फ्रांस की आंतरिक सुरक्षा और आव्रजन के लिए बड़ा मुद्दा बना हुआ है। हालांकि अमेरिकी राष्ट्र्पति डोनाल्ड ट्रंप के हालिया बयानों से ‘नाटो’ के प्रमुख घटक फ्रांस को नैतिक बल मिला है। इन चुनौतियों से उपजी राष्ट्र्वादी विचारधारा से अभिभूत मरिन ले पेन ने ट्रंप का अनुसरण करते हुए फ्रांस में समाजवादी, वामपंथी और कंजर्वेटिव सुधारवादियों को चुनौती दी थी। इससे पहले दौर में उनके वोट बैंक में इजाफा हुआ। अब वह दूसरे और निर्णायक दौर की लड़ाई में ‘गुरिल्ला शैली’ में वार कर रही हैं। लेकिन फ्रांसीसी मतदाता ले पेन की विदेश नीति को लेकर आशंकित हैं। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन से ले पेन के संबंध और सीरिया में अमेरिकी मिसाइल हमले का विरोध इसकी मुख्य वजह है।
वहीं, पहले दौर में 39 वर्षीय इमैनुअल मैक्रॉन की जीत से अमेरिकी और यूरोपीय शेयर बाजारों में उछाल आया है। अमेरिकी डॉलर के मुकाबले लगातार रसातल में जा रही यूरो मुद्रा में सुधार आया है और निवेशकों का उत्साह भी बढ़ा है। साथ ही, यूरोपीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए जर्मन कोषागार से बॉण्ड भुनाने की प्रक्रिया पर रोक से जनता का मनोबल बढ़ा है और यूरोपीय संघ भी खुश है। इसके बावजूद अमेरिकी मीडिया और ब्रेग्सिट समर्थक पश्चिमी मीडिया ने सतर्क किया है कि राष्ट्रवादी विचारधारा की पोषक 48 वर्षीया ले पेन को सिरे से खारिज करना जल्दबाजी होगी। लंदन से प्रकाशित द टेलीग्राफ ने लिखा है कि पहले दौर में पिछड़ने के बाद ले पेन ‘गुरिल्ला शैली’ चुनाव प्रचार कर रही हैं। वह अकस्मात लोगों के बीच पहुंच जाती हैं। इससे मैक्रॉन की बढ़त पर कुछ हद तक अंकुश लगा है।
पहली बार प्रमुख दल पिछड़े
फ्रांस में बीते 60 सालों के दौरान राष्ट्र्पति चुनाव में एक बार भी दक्षिणपंथी या वामपंथी उम्मीदवार दूसरे दौर में नहीं पहुंच पाया। यह पहला अवसर है जब 11 उम्मीदवारों में कंजर्वेटिव और सत्तारूढ़ समाजवादी पिछड़े हैं। चुनाव से पहले ही मुंह मोड़ चुके निर्वतमान राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद की सरकार में दो साल तक आर्थिक मामलों के मंत्री रहे मैक्रॉन 96 फीसदी मतों में से 23.9 फीसद मत हासिल कर ले पेन को पीछे छोड़ दिया है। हालांकि चुनावी गहमागहमी से पहले ट्रंप की नीतियों से अभिभूत ले पेन अमेरिका गई थीं। लेकिन व्हाइट हाउस से मुलाकात का न्योता नहीं मिलने के कारण उन्हें बैरंग लौटना पड़ा था। तब ट्रंप की तर्ज पर ‘फ्रांस फर्स्ट’ का उद्घोष करते हुए उन्होंने कहा था कि वैश्वीकरण के आगोश में हमारी सभ्यता का दम घुट रहा है। इसके साथ ही, आव्रजन के खिलाफ तेवर तल्ख करते हुए कट्टरपंथी इस्लामी गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाने की मांग तेज कर दी थी। फ्रांस के पूर्व में स्थित लियोन शहर में वैश्वीकरण पर हमला बोलते हुए ले पेन ने यूरोपीय संघ और यूरो की कमजोर स्थिति पर भी सवालिया निशान लगाया था। उस समय अपार जन समुदाय ने उन्हें हाथोंहाथ लिया था। ले पेन के पिता और नेशनल फ्रंट के जनक जीन मैरी ले पेन भी 2002 में इतना जनसमर्थन नहीं जुटा पाए थे।
पेन से ट्रंप का मोह भंग
ट्रंप के चुनाव प्रचार से प्रभावित और ब्रेग्सिट से उपजी राष्ट्रवादी नीतियों के कारण ले पेन को समर्थन मिल रहा है। नेशनल फ्रंट को एक तिहाई मत पहले कभी नहीं मिले। इसलिए दूसरे दौर में उनके पहुंचने का प्रश्न ही खड़ा नहीं हुआ। न्यूयॉर्क टाइम्स के मुताबिक, पहले दौर में मैक्रॉन की जीत से ले पेन के प्रति ट्रंप का मोहभंग हुआ है। इसके कई कारण बताए गए हैं। अगर ले पेन इस चुनाव में जीत जाती हैं और बदले हालात में व्हाइट हाउस द्वारा यूरोपीय संघ और नाटो का समर्थन करना डोनाल्ड ट्रंप के लिए सिरदर्द से कम नहीं होगा। इसका कारण यह है कि ले पेन बार-बार यूरोपीय संघ और नाटो से अलग होने की धमकी दे रही हैं। इसके अलावा, ‘अमेरिका फर्स्ट’ की तर्ज पर ‘फ्रांस फर्स्ट’ की बात करना भी ट्रंप को गवारा नहीं होगा। शिकागो ट्रिब्यून लिखता है, पहले दौर में मैक्रॉन की जीत के बाद जिस तरह शेयर बाजार में तेजी आई है और निवेशकों का उत्साह बढ़ा है, उसे देखते हुए ट्रंप कतई नहीं चाहेंगे कि उनकी जीत में कोई व्यवधान आए।
द टेलीग्राफ के मुताबिक, अमीन की वर्लपूल फैक्ट्री मजदूरों की एक जनसभा में जो लोग कंजर्वेटिव उम्मीदवार फ्रेंकोइस फिलों और वामपंथी जीन लुक मेलेन्चों के साथ खड़े थे, अब वे ले पेन के साथ दिख रहे हैं। फ्रेंकोइस को 19.9 फीसदी और मेलेन्चों को 19.5 फीसदी मत मिले हैं। इससे प्रतीत होता है कि हवा का रुख बदल रहा है। हालांकि फ्रेंकोइस फिलों ने घोषणा की है कि वह दक्षिणपंथी ले पेन का समर्थन करने की बजाए इमैनुअल को वोट देंगे। नाइस शहर फिलों का गढ़ माना जाता है। वहीं, एक अन्य समाजवादी बेनोइट हेमों ने तो ले पेन को नासूर करार दिया है, जो यूरोपीय संघ को तोड़ने पर आमादा हैं। इसके अलावा, ले पेन की नीतियों के खिलाफ फ्रांस के 50 लाख मुस्लिम भी एकजुट हैं।       
बाजी मार सकते हैं मैक्रॉन
अमेरिका के एक अन्य प्रमुख अखबार वा ल स्ट्रीट जर्नल ने लिखा है कि डोनाल्ड ट्रंप की तरह राजनीति में अपेक्षाकृत नए इमैनुअल मैक्रॉन दूसरे दौर में बाजी मार सकते हैं। उनके सामने एक साल पहले बनी पार्टी ‘इन मार्श’ यानी ‘आगे बढ़ो’ के लिए नए चहरे तलाश करने और उन्हें नेशनल लेजिस्लेटिव असेंबली के चुनाव में जिताने की चुनौती होगी। वैसे ओलांद ने मैक्रॉन को समर्थन देने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया है, जबकि पश्चिमी जर्मनी की चांसलर एजेंला मार्केल ने यूरोपीय संघ की एकजुटता कायम रखने के लिए निर्णायक दौर में मैक्रॉन की जीत की कामना की है। यूरोपीय आयोग के अध्यक्ष जीन क्लाडे जुंकर ने भी प्रोटोकॉल के खिलाफ जाकर मैक्रॉन को समर्थन देने की घोषणा की है। उधर, बेल्जियम और लग्जमबर्ग में तो उनकी जीत पर जश्न मनाया जा रहा है। अखबार लिखता है कि जनमत सर्वेक्षण में मैक्रॉन की जीत के बावजूद आगे का रास्ता इतना आसान नहीं है। ले पेन को राजनीति विरासत में मिली है। वह सजग और मंझी हुई राजनेता हैं। 2012 के चुनाव में उन्हें 17.9 फीसदी वोट मिले थे, जबकि इस बार 21.3 फीसदी वोट मिले हैं। ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से अलग होने, पेरिस सहित अन्य स्थलों पर आतंकी हमलों और इटली में अगले साल होने वाले चुनाव से पहले यूरोपीय संघ के खिलाफ आवाजें उठने का सीधा असर फ्रांस की बड़ी आबादी पर पड़ सकता है। ले पेन इसका फायदा उठा सकती हैं और नेशनल लेजिस्लेटिव असेंबली चुनाव में बाजी मार कर राष्ट्रपति के लिए अड़चनें पैदा कर सकती हैं। बता दें कि नेशनल लेजिस्लेटिव असेंबली चुनाव 11 से 18 जून के बीच होने वाले हैं। असेंबली चुनाव में कुल 577 जन प्रतिनिधि होते हैं।
संविधान के अनुसार, नेशनल असेंबली चुनाव में निर्वाचित राष्ट्र्पति अगर अपने समर्थक प्रतिनिधियों को जिताने और बहुमत हासिल करने में असफल रहते हैं तो प्रतिद्वंद्वी दल के नेता यानी प्रधानमंत्री सरकार चलाने के लिए स्वतंत्र होंगे। मैक्रॉन की ‘इन मार्श’ ने अभी तक कुछ ही उम्मीदवारों के नामों की घोषणा की है। उन्हें विश्वस्त भागीदारों की एक बड़ी जमात की जरूरत है। वहीं, सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के बैनेट हैमन और कंजर्वेटिव रिपब्लिकन पार्टी के फ्रेंकोइस फिलों भी मैक्रॉन का साथ दे सकते हैं। ऐसी स्थिति में इमैनुअल मैक्रॉन भले ही राष्ट्रपति पद के लिए निर्वाचित हो जाएं, लेकिन नेशनल असेंबली
में बहुमत हासिल करना उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी।

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