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ईसाइयत की जन्मभूमि अरब ही है। लेकिन अब अरब और मध्य-पूर्वी ल्लदेशों में इस्लामी जिहादियों ने स्थिति इतनी खराब कर दी है कि ईसाई अपनी जन्मभूमि से जान बचाकर भाग रहे हैं। इन देशों में ज्यादातरईसाइयों को मार दिया गया या फिर इस्लाम कबूल करवा दिया गया।
सतीश पेडणेकर
गत दिनों पोप फ्रांसिस ने ईसाई समुदाय पर मंडरा रहे इस्लामिक स्टेट (आईएस) के खतरे के बीच इजिप्ट की यात्रा की। उद्देश्य था इस्लामी दुनिया के साथ ईसाइयों के रिश्ते सुधारने की कोशिश करना। आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट ने इजिप्ट से ईसाइयों के पूरी तरह खात्मे की धमकी दे रखी है। पिछले दिनों मिस्र के लोगों के नाम एक संदेश में पोप ने उम्मीद जताई थी कि इस यात्रा से शांति की शुरुआत होगी। उन्होंने इस्लामी दुनिया के साथ समझौते की उम्मीद जताई। बता दें कि पिछले महीने मिस्र में क्रिप्टो ईसाइयों के दो चर्चों में हुए विस्फोटों में 45 लोग मारे गए थे। पिछले साल दिसंबर में भी एक कैथेड्रल में हुए बम विस्फोट में 28 लोगों की जान चली गई थी। इससे पहले आईएस ने एक वीडियो जारी किया था जिसमें समुद्र किनारे 21 ईसाइयों के सिर कलम कर दिए गए थे। लगातार हमलों के चलते वहां के ईसाई खौफ खाए हुए हैं। अधिकांश लोग सुरक्षित इलाकों की ओर पलायन भी कर रहे हैं। क्रिप्टो ईसाई मिस्र की आबादी के 10 प्रतिशत हैं। वे सदियों से बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी के साथ रह रहे हैं। मगर सवाल यह है कि पोप की इस यात्रा से क्या ईसाइयों और मुस्लिमों के बीच सौहार्द के युग की शुरुआत होगी?
दरअसल, इस्लाम और ईसाइयत के रिश्ते बेहद विस्फोटक रहे हैं। कुछ साल पहले तत्कालीन पोप बेनेडिक्ट ने जर्मनी के रेगेन्सबर्ग विश्वविद्यालय में एक भाषण दिया, जिसे लेकर दुनियाभर में बवाल मच गया। पोप ने अपने भाषण में चौदहवीं शताब्दी बायजन्टाईन सम्राट मेनुअल द्वितीय पेलियोलोगस की 1391 ई. में किसी फारसी विद्वान से हुई बातचीत का एक वाक्य भी उद्धृत कर दिया। सम्राट पेलियोलोगस ने उस फारसी विद्वान से पूछा था कि ‘‘पैगंबर मुहम्मद ने कौन-सी नई चीज विश्व को दी है, सिवाय इसके कि तलवार के बल पर मजहब का प्रचार किया जाए?’’ पोप के लंबे भाषण में इस अति संक्षिप्त उद्धरण को लेकर दुनियाभर में मुस्लिम नेताओं ने तूफान खड़ा कर दिया। हमारे वर्तमान उप राष्टÑपति और तत्कालीन अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष हामिद अंसारी ने पोप बेनेडिक्ट ‘सोलहवें’ को इस्लाम के विरुद्ध 12वीं शताब्दी में क्रूसेड शुरू करने वाला पोप घोषित कर दिया। आखिरकार पोप को इस वक्तव्य के लिए माफी मांगनी पड़ी। इतने विस्फोटक हैं दोनों के रिश्ते।
ईसाइयत और इस्लाम के इतिहास पर एक सरसरी नजर डालें तो यह बात स्पष्ट होते देर नहीं लगेगी कि दोनों के बीच न कभी सुलह हुई है, न होने के आसार हैं। कारण यह है कि दोनों ही मजहब एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हैं तथा दोनों के असहिष्णु और विस्तारवादी होने के कारण टकराव होना लाजिमी है। दरअसल, टकराव इनकी कुंडली में लिखा हुआ है। यही कारण है कि ईसाइयों को अपना पहला मजहबी युद्ध मुस्लिमों के खिलाफ लड़ना पड़ा। शुरुआत में क्रूसेड (जिहाद) भले ही ईसा मसीह के जन्मस्थल की रक्षा करने को कहा जाता हो, मगर बाद में जिहाद इस्लाम के वर्चस्व के अभियान और क्रूसेड ईसाइयत के वर्चस्व के अभियान का पर्याय माना जाने लगा। दोनों ने ही हिंसा का सहारा लेकर अपने मजहब को दुनियाभर में फैलाया। अक्सर कहा जाता है कि इस्लाम तलवार के जरिए फैला, मगर एक मुस्लिम शायर ने सवाल उठाया था, ‘‘लोग कहते हैं तलवार से फैला इस्लाम, यह क्यों नहीं बताते कि तोप से क्या फैला?’’
उसका सवाल वाजिब ही था। दोनों ने ही रक्तपात और नरसंहार के जरिए दुनियाभर में अपना मजहब फैलाया था। इसके कारण दोनों के रिश्ते हमेशा सांप-नेवले के रहे। तभी तो मशहूर लेखक और ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ के सिद्धांत के रचयिता सेमुअल हंटिंग्टन इस नतीजे पर पहुंचे कि अगला टकराव ईसाई और मुस्लिम सभ्यताओं के बीच होगा। मगर केवल हंटिंग्टन को ही दोष क्यों दें? दार्शनिक सईद कुत्ब का कहना था कि इस्लाम का संघर्ष जाहिलिया सभ्यताओं के साथ होगा। असलियत यह है कि भाईचारे के तमाम नारों के बीच दोनों मजहब एक-दूसरे को फूटी आंख देखना पसंद नहीं करते। दुनियाभर के इस्लामी देशों में ईसाइयों का सफाया किया जा रहा है और उन्हें दबाने की कोशिश जारी है। ईसाई देश लोकतांत्रिक और सेकुलर हो गए हैं मगर बहुलतावादी यूरोप भी मुस्लिमों को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा। यूरोप पर इस्लामी आबादी के हमले के गंभीर नतीजों की चेतावनी देने वाली दुस्साहसी इतालवी पत्रकार ओरिनिया फलेसी ने लिखा था, ‘‘यूरोप अब यूरोप नहीं रहा़.़ वह अब यूरेबिया हो गया है। इस्लामी हमला भौतिक रूप से ही नहीं, मानसिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी चल रहा है। हर शहर में एक दूसरा शहर है मुस्लिम शहर, कुरान से चलने वाला। ऐसा अजीब है इस्लामी विस्तारवाद।’’ वे यह भी लिखती हैं, ‘‘मैं नहीं मानती कि अल्लाह की संतानों द्वारा हमारे खिलाफ छेड़े गए इस युद्ध में इस्लामी आतंकवाद मुख्य हथियार है, वरना इस युद्ध में पश्चिम के लिए दीर्घकाल में सबसे खतरनाक बात है। अनियंत्रित मुस्लिम घुसपैठ जो ढाई करोड़ तक पहुंच चुकी है और 2016 के बाद दोगुनी हो जाएगी, जिससे मुस्लिम यूरोप का निर्माण होगा। जिस तरह इटली और यूरोप में मुस्लिमों की तादाद बढ़ती है उसी अनुपात में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क्षरण होता है।’’
स्पष्ट है कि इस्लामी दुनिया ईसाइयत पर कहर ढाह रही है। इसे सबसे ज्यादा कहीं देखा जा सकता है तो वह है अरब की धरती। अजीब विडंबना है ईसाइयत आबादी के लिहाज से दुनिया का सबसे बड़ा मजहब है, लेकिन अपनी ही जन्मभूमि अरब में वह अस्तप्राय होता जा रहा है। जब आईएस के ईसाइयत के खिलाफ जुल्मों की तस्वीरें टीवी के जरिए सारी दुनिया तक पहुंचीं तब पश्चिम के आम लोगों को भी पता चला कि अरब देशों में भी ईसाई बसते हैं, वरना तो अरब का नाम केवल इस्लाम के साथ जुड़ गया है। वे यह भूल गए कि अरब ईसाइयत की भी जन्मभूमि है। ईसाई मजहब ने यहीं आकार लिया था। सातवीं सदी में इस्लाम के उदय से पहले सारी अरब भूमि में ईसाइयत छाई हुई थी। इसी जमीन से ईसाइयत सारे यूरोप और अमेरिका में फैली। सातवीं सदी में इस्लाम अरब को जीतने और वहां अपना प्रभुत्व कायम करने में कामयाब रहा। वह प्रभुत्व आज तक चला आ रहा है। इसके बावजूद हर देश में स्थानीय ईसाई समुदाय थे। कई शहरों में तो मध्यकाल तक ईसाई काफी बड़ी तादाद में हुआ करते थे। ऐसा नहीं था कि तब हालात बहुत अनुकूल थे। तब भी उन्हें मजहबी हिंसा, अन्यायपूर्ण करों और भेदभाव का सामना करना पड़ता था, लेकिन इन सबके बीच वे राजनय और व्यापार के जरिए बाकी विश्व के साथ जुड़ने की कड़ी बने रहे।
दरअसल, मध्य-पूर्व में विविधता का क्षरण 100 साल पहले आटोमान साम्राज्य के दौरान शुरू हुआ, जब मजहबी सफाए का अभियान आरंभ हुआ। पूर्वी एटोलिया में 15 लाख आर्मेनियाई और सीरियाई ईसाइयों का हत्याकांड और विस्थापन हुआ। 1967 में अरब-इस्रायल के बीच हुए छह दिवसीय युद्ध के दौरान राजनीतिक इस्लाम का उदय मजहबी अल्पसंख्यकों के लिए झटका था। उस जमाने में इस्लामी पुनर्जागरण को हर मर्ज की दवा के रूप में प्रस्तुत किया गया। इस्लामवाद के कारण वे सारे गैर-मुस्लिम समुदाय हाशिए पर चले गए जो इस क्षेत्र में सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक भूमिका निभाते थे। नतीजतन मिस्र जैसे देश में ईसाइयों को घोर भेदभाव और हिंसा का सामना करना पड़ा। कई बार तो इसमें सेकुलर राज्य की भूमिका होती थी।
अरब देशों में लोकतांत्रिक वसंत के आंदोलन के दौरान मध्य-पूर्व में सांस्कृतिक और मजहबी विविधता के लिए कई चुनौतियां उठ खड़ी हुर्इं। किसी समय ईसाइयत के इंद्रधनुष में यहां तरह-तरह के रंग थे। इजिप्ट में करीब 50 लाख क्रिप्टो और लगभग चार लाख मेरोनाइट ईसाई थे। लेबनान में भी लाखों मेरोनाइट ईसाई थे। एक अनुमान के अनुसार मध्य-पूर्व के देशों में लगभग 20 लाख ग्रीक आर्थोडॉक्स ईसाई थे।
इन सभी देशों में ईसाई मतावलंबी इस्लामी कट्टरता का शिकार बने। 2003 के इराक युद्ध के बाद असीरियन ईसाइयों की संख्या 14 लाख से केवल तीन लाख रह गई। वे या तो शिया और सुन्नियों के गृहयुद्ध में फंस गए, या उन्हें भागना पड़ा या विस्थापित होना पड़ा। 2011 में इजिप्ट में क्रांति के दौरान क्रिप्टो ईसाइयों और मुस्लिमों में दंगे हुए। लेबनान में मेरोनाइट ईसाइयों का राज खत्म हो गया है। वे कुल जनसंख्या के 29 प्रतिशत रह गए हैं। शिया संगठन उजोबोल्लाह और फलांगे पार्टी के बीच संघर्ष जारी है और ईसाई देश छोड़कर जाना ज्यादा बेहतर समझते हैं।
सबसे जानलेवा रही इस्लामिक स्टेट की क्रूरता। उसकी खबरें सुनने के बाद तो ईसाई अरब की धरती को छोड़ना ज्यादा पसंद करते हैं। उत्तरी इराक के प्रमुख शहर मोसूल पर कब्जा करने के बाद इस्लामिक स्टेट सामूहिक हत्या, शरिया कानून को लागू करवाने, लूट और चर्च जलाने में लगा रहा। मोसूल में ईसाई कभी मुस्लिमों से ज्यादा थे। अब वहां उनकी आबादी बहुत ही कम रह गई है। वहां अधिकतर ईसाइयों को मुसलमान बनना पड़ा है।
इराक में हुए कई हमलों के बाद ईसाइयों को बड़ी संख्या में देश छोड़ने को विवश होना पड़ा। कुछ महीने पहले एक इराकी ईसाई पादरी ने कहा था, ‘‘अभी हाल में एक रात को चर्च को उन बपतिस्मा फार्मों को अधिक भरना पड़ा, जो देश छोड़ना चाहते हैं न कि जो उपासना के लिए अपनी सेवाएं देना चाहते हैं। .. हमारा समुदाय घटता जा रहा है।’’ इराक के प्रवासी और स्थानांतरण मंत्री पास्केल इको वारदा ने अनुमान लगाया है कि बम विस्फोटों के बाद दो सप्ताह में 40,000 ईसाइयों ने इराक छोड़ दिया है। 2003 में जब अमेरिका ने इराक पर हमला किया था उस समय वहां लगभग 15,00,000 ईसाई थे। सद्दाम के विदेश मंत्री तारिक अजीज ईसाई थे, जो इस बात का प्रतीक था कि देश में कुछ मजहबी सहनशीलता थी। लेकिन सद्दाम के बाद शिया और सुन्नियों के बीच जो सांप्रदायिक हिंसा भड़की, वह ईसाइयों के लिए विभीषिका साबित हुई, क्योंकि ईसाइयों को क्रूसेड से जोड़कर देखा गया। 2003 से अब तक इराक के तीन चौथाई ईसाई या तो मारे गए या पलायन को मजबूर हुए। यह कहानी सारे मध्य-पूर्व में दोहराई जा रही है।
इस्लामी उत्पीड़न और कम जन्मदर के कारण ईसाई पूरे मध्य-पूर्व में लुप्त हो रहे हैं। पृथ्वी पर ईसाइयों की पहचान से जुड़े दो शहर बेथलेहम और नजारेथ दो सहस्राब्दी तक ईसाई-बहुल रहे, परंतु अब नहीं हैं। येरूसलम में तो यह गिरावट और भी तीव्र है। 1922 में वहां ईसाइयों की संख्या मुसलमानों से अधिक थी, परंतु अब इस शहर की जनसंख्या का दो प्रतिशत से भी कम है। तुर्की में 1920 में 20 लाख ईसाई थे, परंतु अब कुछ हजार ही बचे हैं। पिछली शताब्दी के आरंभ में सीरिया में एक तिहाई ईसाई थे। अब उनकी संख्या 10 प्रतिशत ही रह गई है। लेबनान में 1932 में कुल जनसंख्या का 55 प्रतिशत ईसाई थे, परंतु अब 30 प्रतिशत ही बचे हैं। इजिप्ट से ईसाई 1950 से ही दूसरे देशों की ओर जा रहे हैं। पलायन की दर यही रही तो मध्य-पूर्व के 1़1 करोड़ ईसाई एक या दो दशक में अपनी सांस्कृतिक विशिष्टता और राजनीतिक महत्व खो देंगे। ध्यान देने योग्य बात है कि ईसाई कुछ दशक पूर्व के यहूदियों के सामूहिक पलायन को दोहरा रहे हैं। 1948 में मध्य-पूर्व में यहूदी लाखों की संख्या में थे, परंतु अब इस्रायल से बाहर मात्र लगभग 60,000 ही शेष रहे हैं। दो मजहबों की नस्ल का इस प्रकार टकराव होना एक युग के अंत का प्रतीक है।
दरअसल, पोप चाहें मिस्र जाएं या लेबनान, मुस्लिम मानसिकता में खास फर्क नहीं आने वाला। मुस्लिम दूसरे मत-पंथों के लोगों को बर्दाश्त नहीं कर सकते। वे बाकी देशों में जाकर तो मजहबी स्वतंत्रता का स्वच्छंद उपभोग करते हैं, लेकिन अपने देशों में अल्पसंख्यकों को सताने से बाज नहीं आते। इसके लिए सेकुलर लोकतांत्रिक देशों को एकजुट होकर मुस्लिम देशों पर दबाव बनाना चाहिए कि वे अपने देश के मुसलमानों को तब तक बराबरी का दर्जा नहीं देंगे, जब तक कि मुस्लिम देशों में अल्पसंख्यकों को समान अधिकार न मिल जाएं। आज नहीं तो कल यह करना ही पड़ेगा तभी गैर-मुसलमान इस धरती पर टिक सकेंगे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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