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स्वतंत्रता के बाद से देश के नेताओं की लीगी मानसिकता के कारण आज तक अयोध्या मामला लटका हुआ है। न्यायालय भी एक तरफ इस मामले पर आएदिन नई-नई टिप्पणियां देता है जिससे यह मामला सुलझने के बजाय और जटिल हो जाता है
शंकर शरण
अयोध्या विवाद से जुड़े विभिन्न मुकदमों में न्यायाधीशों की विविध टिप्पणियों में तारतम्य नहीं लगता। अभी-अभी लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी आदि नेताओं पर विवादित ढांचा गिराने के ‘आपराधिक षड्यंत्र’ के लिए मुकदमा चलाने की मंजूरी देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, ‘‘इस अपराध ने संविधान के पंथ-निरपेक्ष ताने-बाने को हिलाकर रख दिया है।’’ जबकि इसी न्यायालय ने दो सप्ताह पहले सुब्रह्मण्यम स्वामी को टका-सा जवाब देते हुए कहा कि अयोध्या मामला तो दो पक्षों के बीच प्रॉपर्टी का मामला है, आप इस में बोलने वाले कौन! पर यदि यह संपत्ति का मामला है तो किसी ने किसी की संपत्ति तोड़ दी, तो यह पंथ-निरपेक्षता का मामला कहां से बन गया?
दूसरी ओर, अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले (2010) पर अपील की सुनवाई करते सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में कहा कि यह ‘धर्म-आस्था का मामला है, इसलिए इसे बातचीत से आपस में सुलझाएं।’ इस तरह, उसने फैसला देने से ही इंकार कर दिया। लेकिन यह कहने के लिए छह साल बैठे रहने की क्या जरूरत थी?
इस तरह, हमारे शासकों और न्यायाधीशों में अयोध्या विवाद, पंथ-निरपेक्षता और अपराध के अर्थों पर स्पष्टता नहीं है। विभिन्न अधिकारी विभिन्न लोगों को विभिन्न बातें कहते रहते हैं। सुब्रह्ण्यम स्वामी को न्यायालय ने यह भी कह दिया था कि उसके पास इसकी सुनवाई करने का समय नहीं है। यानी, जो मामला सन् 1949 से न्यायालय में है, उसे निपटाने की इच्छा या समय नहीं है! फिर, यह भी दिखता है कि जो न्यायालय हिन्दुओं से जुड़ी संस्थाओं, परंपराओं में फौरन फैसला दे डालता है, वह मुसलमानों को छूते मामलों में तरह-तरह के हीले-हवाले करता है। निस्संदेह, यह पंथ-निरपेक्षता का पालन नहीं है कि धर्म-समुदाय देख कर फैसला करें या टालें। संभवत: हम अभी तक ‘जिम्मी’ मानसिकता से उबर नहीं सके। कितना भी दो-टूक मामला हो, यदि उस में मुस्लिम नाराजगी की संभावना हो तो राजसत्ता के सभी अंग टाल-मटोल करने लगते हैं। मामला एक-दूसरे के सिर डालते हैं।
हमारी इस कमजोरी को मुस्लिम नेता भी समझते हैं और उसका जम कर उपयोग करते हैं। समय-समय पर मीडिया, शासन और न्यायपालिका को आंखें दिखाना वही चीज है। दशकों से यह चल रहा है। जिस बात के लिए किसी हिन्दू को फौरन बुरा-भला कहा जाता है, उस से अधिक बुरी बात के लिए भी मुस्लिम को कुछ नहीं कहा जाता। जैसे, लेखकों को मारने या धमकी देने पर। यहीं तसलीमा को मारने की कोशिश करने और हिंसा का खुला आह्वान करने वालों को कुछ नहीं कहा गया।
ऐसे दोहरेपन की जो कैफियत दें, पर यह ‘जिम्मीवाद’ है। ‘जिम्मी’ एक गंभीर अवधारणा है। अफ्रीकी लेखिका बाट ये’ओर ने इस पर प्रसिद्ध पुस्तक लिखी, ‘इस्लाम एंड जिम्मीच्यूड: ह्वेयर सिविलाइजेशंस कोलाइड’ (2001)। अरबी पृष्ठभूमि की इस पुस्तक से हम उस मानसिकता को समझ सकते हैं, जिस से अधिकांश भारतीय भी ग्रस्त हैं।
‘जिम्मा’ अरबी शब्द है जिस का अर्थ है करार। सदियों पहले इस्लामी राज में कुछ ईसाइयों, यहूदियों को जिंदा रहने देने की शर्त पर यह एकतरफा तय हुआ था। उन्हीं रक्षितों को ‘जिम्मी’ कहा गया (बौद्धों, मूर्तिपूजकों को यह रक्षा नहीं मिली थी, उन्हें इस्लाम या मौत में एक चुनना था।) लगभग सन् 634 में खलीफा उमर के समय जिम्मियों वाली शर्तें बनी थीं कि जिम्मी लोग इस्लाम और मुसलमानों को ऊंचा मानते, उन्हें जजिया कर आदि देते हुए नीच लोगों की तरह रहेंगे।
यदि लगे कि जिम्मी वाली बातें पुरानी और आज अनर्गल हैं, तो यह सच नहीं। सऊदी विद्वान अब्दुल रहमान बिन हम्माद अल-उमर ने अपनी पुस्तक ‘द रिलीजन आॅफ ट्रुथ’ (1991) में लिखा, ‘‘मुस्लिम शासन वाले देश में गैर-मुस्लिम को अपने विश्वास की आजादी है किन्तु उसे समर्पित होकर सदैव मुसलमानों को आदर, नजराना देना होगा, इस्लामी कानूनों के सामने आत्मसमर्पण करना होगा, और अपने बहुदेव-पंथी रिवाजों का पालन सार्वजनिक रूप से नहीं करना होगा।’’ यानी, मुस्लिमों में आज भी वही जिद है।
उसी जिद में उन आपत्तियों को समझा जा सकता है, जो यहां दशहरे या रामनवमी पर मुस्लिम बस्तियों के पास हिन्दू जुलूसों, ढोल, कीर्तन आदि पर की जाती हैं। ये आपत्तियां उस मुगल शासन दौर के आदेशों का पालन करवाने की जिद है जब हिन्दू सार्वजनिक रूप से अपने पर्व-त्योहार नहीं मना सकते थे! यह भारतीय परिस्थिति का जिम्मी-कायदा था।
यह आज रामनवमी जुलूस पर नाराजगी का भाव ही है कि मुगल काल वाले बलात् कानून को हिन्दू लोग आज भी भारत में स्वीकारते रहें। डॉ़ अांबेडकर ने भी लिखा है कि अफगानिस्तान, ईरान आदि मुस्लिम देशों में मस्जिद के बाहर गाने-बजाने पर आपत्ति नहीं होती, किन्तु भारत में होती है तो इसलिए कि हिन्दुओं को अधिकार नहीं देना है। डॉ. आंबेडकर के अनुसार, यह मुगलिया राज का अवशेष अहंकार है, कोई सिद्धांत नहीं।
बहरहाल, लंबी इस्लामी अधीनता में रहे गैर-मुस्लिमों में जो स्वभाविक हीनता आ जाती है, वही जिम्मी मानसिकता है। इस की विशेषता यह है कि इस्लामी शासन से मुक्ति के बाद भी जिम्मियों के व्यवहार में इस्लाम के प्रति आदर-भय आदतन बना रहता है। भारत में सैकड़ों वर्ष तक इस्लामी राज से हिन्दुओं में जिम्मी भाव बैठ गया, जिस से वे मुक्त नहीं हो सके हैं। इसलिए मुस्लिम मामलों पर उन में अनायास हिचक पैदा हो जाती है। सारे सिद्धांत, कानून, बौद्धिकता पीछे हो जाती है।
उसी का समानांतर घमंड मुस्लिमों में भी है। वे सदैव अपने लिए हर चीज कुछ ऊपर, कुछ अधिक चाहते हैं। जिन्ना ने मुसलमानों के मालिक कौम (मास्टर रेस) होने के दावे से पाकिस्तान मांगा था। आखिर मालिक और नौकर बराबरी से कैसे रहते, जो अखंड स्वतंत्र भारत में होता! उसी भाव का अवेशष मुस्लिम नेताओं में आज भी है। इसीलिए मुसलमान ऐसे विशेषाधिकार चाहते हैं, जो दूसरों को न हों। जैसे, वे ‘काफिरों’, ‘मूर्तिपूजकों’, ‘वन्दे-मातरम’ राष्टÑ-गान, आदि की निंदा करेंगे, क्योंकि यह उन का मजहबी विश्वास है। किन्तु हिन्दुओं, बौद्धों के धर्म-विश्वास कुछ भी हों, ये लोग इस्लामी कुरीतियों की भी निंदा क्या, उपेक्षा तक न करें! वरना मुस्लिम नेता धमकियां देने लगते हैं। जब चाहे किसी की हत्या का आह्वान करते हैं। आह्वान करने वाला मंत्री पद पर क्यों न हो, उसे कुछ नहीं कहा जाता! हाल में कोलकाता की टीपू सुल्तान मस्जिद के शाही इमाम ने प्रधानमंत्री के लिए अनाप-शनाप बोला। न्यायपालकों ने इस पर क्या किया? क्या ऐसी अनदेखी से पंथ-निरपेक्षता विकसित होती है?
ध्यान दें, मुस्लिम नेताओं द्वारा सदैव दबंगई, धमकी, हिंसा का प्रयोग होता है। तब शासक, न्यायपालक, मीडिया, मानवाधिकारवादी, सब बगलें झांकने लगते हैं। बल्कि दूसरों को ही दोष देते हैं, धमकी देने वाले को नहीं। यह सब मुस्लिम ‘भावना’ के नाम पर होता है, मानो मुस्लिम भावनाएं अन्य लोगों की भावनाओं या कानून से भी ऊंची चीज हों! यही जिम्मी मानस है। एक बार कोलकाता के तत्कालीन पुलिस आयुक्त प्रसून मुखर्जी ने तसलीमा नसरीन को साफ-साफ कहा था कि उन्हें आपराधिक मामलों में भी मुसलमानों और हिन्दुओं के बीच भेद करना ही पड़ेगा। वह पूरी बात-चीत तसलीमा ने अपनी नई पुस्तक ‘एक्जाइल’ (पृ़ 60 -71) में प्रकाशित की है। यह लज्जास्पद शासकीय दोहरापन न्यायपालिका को भी घेरे में लेता ही है। इस में कोलकाता या दिल्ली का भेद नहीं। पीनल कोड में लिखा समानता का सिद्धांत इस्लाम के सामने पीछे रह जाता है।
अयोध्या विवाद के लटके रहने में यह भी एक कारण है। यदि अयोध्या ‘संपत्ति विवाद’ है, तो इसे निपटाने में क्या हिचक! विशेषकर जब उच्च न्यायालय एक फैसला दे चुका। क्या न्यायाधीश ऐसा निर्णय चाहते हैं जिसे मुस्लिम भी खुशी-खुशी मानें? यह बात जितनी स्वाभाविक लगती है, वैसी है नहीं। क्योंकि यही ‘खुशी’ हिन्दुओं के लिए कभी ध्यान नहीं रखी जाती। मुसलमानों को खुश रखने की अतिरिक्त चिन्ता ही जिम्मीवाद है! यह कड़वी सचाई तब साफ दिखेगी जब अयोध्या की तुलना काशी, मथुरा विवादों से करें।
क्या कारण है कि अयोध्या में विवादित-स्थल पर पहले मंदिर होने या न होने के प्रमाण पर सन् 1989 से आज तक बहस चल रही है? मानो प्रमाण से कुछ तय होना हो! किन्तु काशी और मथुरा मंदिरों पर तो प्रमाण प्रत्यक्ष है। तब वे दोनों महान हिन्दू-स्थल क्यों नहीं हिन्दुओं को सौंपे गये? यानी एक ही तरह के मामले मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाये गए स्थान पर दो तरह की दलीलें। केवल इसलिए, क्योंकि हर हाल में मुसलमानों को नाराज न करना मुख्य चिंता रही है। ऐसे में न्याय हो नहीं सकता। क्या इसीलिए न्यायाधीश भी कन्नी काटते रहे हैं?
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस से मुसलमानों का भी भला नहीं होता। वे अपने कट्टरपंथी मौलानाओं की जकड़ में बने रहते हैं क्योंकि वैसे ही नेताओं की तवज्जो होती है। यदि खुला विमर्श और निष्पक्ष न्याय होता तो सुधारवादी मुसलमानों को आगे आने का मौका मिलता। मगर इस्लाम को विशेष आदर देने की आदत ने इसका उलट किया है।
यदि भारत में महत्वपूर्ण मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें बनाई गईं जगहों को 1947 में ही पुनसर््थापित कर दिया गया होता, तो थोड़ी-बहुत आलोचना के बावजूद मामला खत्म हो जाता। अधिकांश मुस्लिम भी उसे सहज स्वीकारते, क्योंकि वे सचाई जानते हैं। वही आज भी होगा। किन्तु मुसलमान नेता खुश रहें, इसे दिमाग में रखते कभी न्याय नहीं हो सकता। हमें हर विषय में सभी मत-पंथों की और सभी समुदायों की सच्ची बराबरी सुनिश्चित करनी चाहिए। तब अयोध्या ही नहीं, धारा 370 और तीन तलाक जैसे सभी विवादित मामले सुलझाने का मार्ग मिल जाएगा।
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