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चंपारण सत्याग्रह के 100वें वर्ष पर विशेष –
-विवेक शुक्ल
पन्द्रह अप्रैल,1917 को गांधीजी राजकुमार शुक्ल जैसे एक अनाम से सत्याग्रही के साथ चंपारण आए। हालांकि वे इससे पहले दक्षिण अफ्रीका में अश्वेतों के हक में लड़ चुके थे और 'हिंद-स्वराज' नामक कालजयी पुस्तक लिख चुके थे। जो लोग चंपारण में गांधीजी के सत्याग्रह को जानते हैं, वे राजकुमार शुक्ल का नाम भी जानते हैं। गांधीजी के चंपारण सत्याग्रह में दर्जनों नाम ऐसे रहे जिन्होंने दिन-रात एक कर गांधी जी का साथ दिया। गांधी जी के आने के पहले चंपारण में कई नायकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इनमें कौन महत्वपूर्ण नायक था, तय करना मुश्किल है। सबकी अपनी भूमिका थी, सबका अपना महत्व था। लेकिन 1907-08 के आंदोलन के बाद गांधी को चंपारण लाने और सत्याग्रही बनाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका राजकुमार शुक्ल की रही।
कैसे बदल गए गांधी
यह राजकुमार शुक्ल जैसे सत्याग्रहियों के तप, त्याग, संघर्ष, मेहनत का ही असर रहा कि काठियावाड़ी वेश में पहुंचे बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी चंपारण से 'महात्मा' बनकर लौटे और फिर भारत की राजनीति में एक नई धारा बहाने के वाहक बने। गांधी जी चंपारण आने के बाद कैसे महात्मा बने, उसकी कहानी भी दुनिया जानती है।
आत्मकथा में शुक्ल
खुद बापू ने अपनी आत्मकथा 'माई एक्सपेरिमेंट विद ट्रुथ' में राजकुमार शुक्ल पर एक पूरा अध्याय समर्पित किया है। गांधी जब बिहार आए तो उनका एकमात्र मकसद चंपारण के किसानों की समस्याओं को समझना, उसका निदान और नील के धब्बों को मिटाना था। राजकुमार शुक्ल ने कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन (1916) में अंग्रेजों द्वारा जबरन नील की खेती कराए जाने के संदर्भ में शिकायत की थी। शुक्ल का आग्रह था कि गांधीजी इस आंदोलन का नेतृत्व करें। गांधीजी ने इस समस्या को न सिर्फ गंभीरतापूर्वक समझा, बल्कि इस दिशा में आगे बढ़े। शुक्ल को तो लगता था कि चंपारण के किसानों का हल गांधीजी के पास ही है।
रॉलेट एक्ट का विरोध
राजकुमार शुक्ल की जिंदगी का एक महत्वपूर्ण अध्याय गांधीजी के चंपारण से चले जाने के बाद का है, जिस पर अधिक बात नहीं होती। उनके जाने के बाद भी शुक्ल का काम जारी रहता है। रॉलेट एक्ट के विरुद्ध वे ग्रामीणों में जन जागरण फैलाते रहे। इस एक्ट को मार्च, 1919 में अंग्रेजों ने भारत में उभर रहे राष्ट्रीय आंदोलन को कुचलने के उद्देश्य से बनाया था। यह कानून सर सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता वाली समिति की सिफारिशों के आधार पर बनाया गया था। इसके अनुसार ब्रितानी सरकार को यह अधिकार प्राप्त हो गया था कि वह किसी भी भारतीय पर अदालत में बिना मुकदमा चलाए और बिना दंड दिए उसे जेल में बंद कर सकती थी। इस कानून के तहत अपराधी को उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज करने वाले का नाम जानने का अधिकार भी समाप्त कर दिया गया था। इस कानून के विरोध में देशव्यापी हड़तालें, जुलूस और प्रदर्शन होने लगे। गांधीजी ने व्यापक हड़ताल का आह्वान किया। गौरतलब है कि जलियांवाला बाग में रॉलेट एक्ट का विरोध करने के लिए एक सभा हो रही थी, जिसमें अंग्रेज अधिकारी जनरल डायर ने अकारण उस सभा में उपस्थित भीड़ पर गोलियां चलवा दी थीं। इस कानून के खिलाफ भी वे जनता को जागृत कर रहे थे। राजकुमार शुक्ल 1920 में हुए असहयोग आंदोलन में भी सक्रिय रहे। वे चंपारण में किसान सभा का काम कर रहे थे।
साबरमती में शुक्ल
राजकुमार शुक्ल को गांधीजी की खबर अखबारों से मिलती रहती थी। उन्होंने उन्हें फिर से चंपारण आने के लिए कई पत्र लिखे पर गांधीजी का कोई आश्वासन नहीं मिला। शुक्ल अपनी जीर्ण-शीर्ण काया लेकर 1929 की शुरुआत में साबरमती आश्रम पहुंचे जहां गांधीजी से उनकी मुलाकात हुई। गांधीजी ने उनसे कहा कि आपकी तपस्या अवश्य रंग लाएगी। राजकुमार ने आगे पूछा, क्या मैं वह दिन देख पाऊंगा? गांधीजी निरुत्तर रहे।
साबरमती से लौटकर शुक्ल अपने गांव सतबरिया नहीं गए। उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा था। 54 वर्ष की उम्र में 1929 में मोतिहारी में उनकी मृत्यु हो गई। मृत्यु के समय उनकी बेटी देवपति वहीं रहती थी। मृत्यु के पूर्व शुक्ल ने अपनी बेटी से ही मुखाग्नि दिलवाने की इच्छा जाहिर की। मोतिहारी के लोगों ने इसके लिए चंदा किया। मोतिहारी में रामबाबू के बगीचे में शुक्ल का अंतिम संस्कार हुआ। उनके श्राद्ध में डॉ. राजेंद्र प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिंह, ब्रजकिशोर प्रसाद आदि दर्जनों नेता मौजूद थे। आजकल जब सारा देश चंपारण आंदोलन के बहाने गांधीजी का स्मरण कर रहा है, तो राजकुमार शुक्ल को भी याद कर लेना उचित रहेगा। ल्ल
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