|
महाप्रभु वल्लभाचार्य जयंती (22 अप्रैल) पर विशेष
महाप्रभु वल्लभाचार्य का पुष्टि मार्ग भगवान श्री कृष्ण से आस बांधकर खुद को उन्हें ही सौंप देने को कहता है। कृष्ण को वल्लभाचार्य ने पुरुषोत्तम माना है और मानव मात्र को उनकी भक्ति की राह दिखाई है। कहते हैं, यह उन्हीं का प्रताप था जो सूरदास ने बंद आंखों से प्रभु की बाल लीलाओं को देखा
– पूनम नेगी-
भारतीय धार्मिक परंपरा में ब्रह्म के तीन रूप माने गए हैं-आदिदैविक, आदिभौतिक और आध्यात्मिक। आदिभौतिक ब्रह्म क्षर पुरुष हैं, वही प्रकृति या जगतरूप हैं। आध्यात्मिक ब्रह्म अक्षर ब्रह्म है, जबकि आदिदैविक ब्रह्म परब्रह्म। क्षर पुरुष से अक्षर ब्रह्म उत्तम है और अक्षर से श्रेष्ठ है परब्रह्म। इसी परब्रह्म को गीताकार ने पुरुषोत्तम ब्रह्म कहा है। ब्रह्म के इसी शुद्धाद्वैत सिद्धांत के प्रवर्तक हैं महाप्रभु वल्लभाचार्य। उनके पूर्व अनेक मनीषियों ने ब्रह्म को अपने-अपने दृष्टिकोण से परिभाषित किया था। महाप्रभु वल्लभाचार्य अद्भुत विद्वान थे। उन्होंने अपने पूर्ववर्ती दर्शनों का गंभीर अध्ययन, अनुशीलन किया और फिर सभी का मूल सत्व ग्रहण कर परब्रह्म का शुद्धाद्वैत सिद्धांत प्रतिपादित किया।
आचार्यश्री का पुष्टि मार्ग
वल्लभाचार्य ने कारण और कार्य को अलग-अलग न मानते हुए कहा है कि उत्पत्ति, स्थिति और लय हो जाने वाला यह समूचा जगत् सही अथार्ें में प्रभु की लीला है। उनके मतानुसार जब सभी कुछ हो भी रहा हो और नहीं भी हो रहा हो अथवा फिर-फिर होकर न होता चला जा रहा हो, यह सब परम प्रभु की लीला है। महाप्रभु ने अपने इस सिद्धांत को पुष्टि मार्ग कहा। पुष्टि यानी प्रभु का अनुग्रह या पोषण। उन्होंने कहा कि लीलापुरुष श्रीकृष्ण ही पुरुषोत्तम हैं। सिर्फ उन्हें ही अपने को अंशरूप में जीवों में बिखराना आता है। पुरुषोत्तम कृष्ण की सभी लीलाएं नित्य हैं। यह समूचा जड़-चेतन संसार उन्हीं के क्रीड़ाभाव के कारण आविर्भाव और तिरोभाव के बीच उबरता-डूबता रहता है। महाप्रभु वल्लभाचार्य के अनुसार, जीव तीन प्रकार के होते हैं—पहला, 'पुष्टि जीव' जो कृष्ण के अनुग्रह पर भरोसा करता है। दूसरा, 'मर्यादा जीव' जो शास्त्र के अनुसार जीवन जीता है। और तीसरा, 'संसारी जीव' जो संसार के प्रवाह में फंसा रहता है। उनका सिद्धान्त है कि सत्य तत्व का कभी विनाश नहीं हो सकता। जगत् भी ब्रह्म का अविकृत परिणाम होने से ब्रह्मरूप है, सत्य है इसलिए उसका कभी विनाश नहीं हो सकता। उसका केवल आविर्भाव और तिरोभाव होता है। सृष्टि के पूर्व और प्रलय की स्थिति में जगत् अव्यक्त होता है, यह उसके तिरोभाव की स्थिति होती है। जब सृष्टि की रचना होती है तो जगत् पुन: व्यक्त हो जाता है, यह उसके आविर्भाव की स्थिति है। आचार्य के 'शुद्धाद्वैत दर्शन' में जगत् और संसार को भिन्न माना गया है। जगत् भगवान की रचना है। अज्ञानी जीव 'यह मैं हूं' के अहं में फंसे रहकर बंधन में पड़ जाता है। इस बंधन से मुक्ति का एकमात्र उपाय है परमप्रभु की शरणागति। उन्होंने भगवद्सेवा के नियामक तत्व 'स्नेह' को मूल तत्व बताया और विशिष्ट सेवाक्रम अपनाकर भगवद्भक्ति को एक नया आयाम दिया तथा श्रीकृष्ण के प्रति निष्काम भक्ति के लिये लोगों को प्रेरित किया। ऐसा था महाप्रभु वल्लभाचार्य का स्वरूप।
अलौकिक जीवन
भारत के इस महान् संत का जन्म वि़ सं़ 1535 को चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी के दिन रायपुर जिलेे में स्थित महातीर्थ राजिम के पास चम्पारण में हुआ था। बाद में उनके पिता काशी आकर बस गये थे। उनके पिता का नाम लक्ष्मण भट्ट तथा माता का नाम इल्लमा था। उनके पूर्वज आंध्र प्रदेश में गोदावरी के तट पर कांकरवाड ग्राम के निवासी थे। महाप्रभु के अनुयायी उन्हें भगवान का अवतार मानते हैं जो भगवान श्रीकृष्ण की सरस भक्ति का प्रचार-प्रसार करने के लिए भूतल पर अवतरित हुए थे। हिन्दू दर्शन में प्रत्येक अवतार में अलौकिकता विद्यमान रहती है, उसके अवतरण में भी और गमन में भी। यही अलौकिकता महाप्रभु के जीवन में भी दिखती है। कहा जाता है कि उनके पिता श्री लक्ष्मणभट्ट अपने यात्रा दल के साथ जा रहे थे कि मध्य प्रदेश के चम्पारण्य नामक स्थान पर उनकी पत्नी इल्लमा को प्रसव वेदना होने पर वे रात्रि में वन में रुक गये। वहां वैशाख कृष्ण एकादशी के दिन सात माह का बालक प्रकट हुआ। बालक को अचेत देख माता-पिता उसे शमीवृक्ष की कोटर में रख वहां से चले गये। अगले दिन काशी जाते समय वे लोग पुन: उसी वन से होकर गुजरे तो देखा कि शमीवृक्ष के पास एक सुन्दर बालक अग्नि के घेरे में सकुशल खेल रहा है। कहते हैं कि अभिभूत मां ने अपने बालक को गोद में लेने को कदम बढ़ाया तो अग्निदेव ने उन्हें रास्ता दे दिया। मां ने तत्क्षण शिशु को गोद में उठा लिया। वह अद्भुत बालक श्रीमद्वल्लभाचार्य महाप्रभु के नाम से लोकविख्यात हुआ। इसी प्रकार इच्छित लक्ष्य पूरा होने पर 52 वर्ष की मध्यवय में वि़ सं़ 1587 को आषाढ़ शुक्ल तृतीया के दिन मध्याह्न में श्रीमहाप्रभु ने काशी के हनुमान घाट पर गंगा जी में प्रवेश कर अपनी लोकलीला का संवरण कर लिया। जैसे ही उन्होंने जल समाधि ली, वहां से एक तेजपुंज प्रकट होकर देखते ही देखते आकाश में विलीन हो गया।
11 की उम्र में वेद-शास्त्रों में पारंगत
वल्लभाचार्य जी का अधिकांश समय काशी, प्रयाग और वृंदावन में बीता। पांच वर्ष की अवस्था में उनकी शिक्षा-दीक्षा पं़ नारायण भट्ट व माधवेंद्रपुरी के सान्निध्य में काशी में प्रारंभ हुई। रुद्रसंप्रदाय के श्री विल्वमंगलाचार्य जी द्वारा इन्हें अष्टादशाक्षर गोपाल मंत्र की दीक्षा दी गयी तथा त्रिदंड संन्यास की दीक्षा स्वामी नारायणेन्द्र तीर्थ से मिली। मात्र 11 वर्ष की आयु में वे वेद-शास्त्रों में पारंगत हो गये। उन्होंने काशी और जगदीशपुरी में अनेक विद्वानों से शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त की। आगे चलकर उन्होंने विष्णुस्वामी संप्रदाय की परंपरा में एक स्वतंत्र भक्ति पंथ 'शुद्धाद्वैत दार्शनिक सिद्धांत' की प्रतिष्ठा की। उन्होंने एकमात्र शब्द को ही प्रमाण बतलाया और प्रस्थान चतुष्टयी (वेद, ब्रह्मसूत्र, गीता और भागवत) के आधार पर धर्माश्रयत्व और जगत् का सत्यत्व सिद्ध किया। यद्यपि वल्लभाचार्य ने जो दर्शन गढ़ा, उसके मूल सूत्र वेदांत में निहित हैं।
अनुयायी व रचनाकर्म
आचार्य वल्लभ की प्रत्येक कृति लोकहित और सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए सृजित हुई। उनका कहना था कि समष्टिगत चेतना का अवतरण जब स्थूल तनधारी में होता है तो वह सामान्य न रहकर भगवत्स्वरूप ही हो जाता है। श्री वल्लभाचार्यजी की 84 बैठक, 84 शिष्य और 84 ग्रंथ प्रसिद्ध हैं। उनके ग्रंथों में टीका, भाष्य निबंध, शिक्षा और साहित्य आदि सभी कुछ है। इनमें गायत्री भाष्य, पूर्वमीमांसा, उत्तर मीमांसा, तवार्थदीप निबंध, शास्त्रार्थ प्रकरण, सर्वनिर्णय प्रकरण, भगवातार्थ निर्णय, सुबोधिनी और षोडश ग्रंथ प्रमुख हैं। उपर्युक्त ग्रंथों के अतिरिक्त महाप्रभु ने अन्य अनेक ग्रन्थों और स्तोत्रों की भी रचना की। इनमें पंचश्लोकी, शिक्षाश्लोक, त्रिविधनामावली, भगवत्पीठिका आदि ग्रंथ तथा मधुराष्टक, परिवृढाष्टक, गिरिराजधार्याष्टक आदि स्तोत्र विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। कहते हैं कि उनका विवाह महालक्ष्मी के साथ संपन्न हुआ। विवाह के पश्चात वे प्रयाग के निकट अडैल ग्राम में बस गये। यहीं उनके बड़े पुत्र गोपीनाथ का जन्म सं़ 1568 को हुआ और छोटे पुत्र विट्ठलनाथ का जन्म सं़ 1572 को चरणाट में हुआ। दोनों पुत्र अपने पिता के अनुयायी व धर्मनिष्ठ विद्वान बने। कुछ समय बाद आचार्य वल्लभ वृन्दावन चले आये और भगवान श्री कृष्ण की भक्ति में रम गये। कृष्ण की धरती पर उन्हें बालगोपाल के रूप में भगवान् कंभन दास के दर्शन हुए और महाप्रभु की प्रेरणा से उन्होंने गिरिराज में श्रीनाथ जी के विशाल मंदिर का निर्माण कराया। इस मंदिर को पूरा होने में 20 वर्ष लगे। कुंभनदास जी इस मंदिर के प्रधान कीर्तनिया बने और कृष्णदास जी अधिकारी।
महाप्रभु वल्लभाचार्य द्वारा संस्थापित पुष्टि मार्ग में यूं तो अनेक भक्त कवि हुए हैं पर इनमें महाकवि सूरदास, कुंभनदास, परमानंददास और कृष्णदास आदि 8 कवि विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। गोसाईं विट्ठलनाथ ने पुष्टि मार्ग के इन 8 कवियों को 'अष्टछाप' के रूप में सम्मानित किया है। छत्तीसगढ़ के महाकवि गोपाल पर भी पुष्टिमार्ग का गहरा प्रभाव था। उनका प्रसिद्ध ग्रंथ 'भक्ति चिंतामणि' श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध पर आधारित है। भक्तिकालीन सगुणधारा की कृष्णभक्ति शाखा के आधार स्तंभ एवं पुष्टिमार्ग के प्रणेता वल्लभाचार्य ने अपने सिद्धांतों के प्रचार-प्रसार के लिये तीन बार पूरे भारत का भ्रमण किया तथा विभिन्न विद्वानों से शास्त्रार्थ कर अपने मत की पुष्टि की। कहा जाता है कि उनकी ये यात्राएं लगभग 19 वर्ष में पूरी हुईं। इन्हीं यात्राओं के दौरान उन्होंने मथुरा, गोवर्धन आदि स्थानों में श्रीनाथजी की पूजा की विशेष व्यवस्था की।
वल्लभ न होते तो सूर न होते
एक रोचक प्रसंग है। कहते हैं कि एक बार भगवद्भक्ति के प्रचार के दौरान वल्लभाचार्य जब वृंदावन आ रहे थे तभी रास्ते में उन्हें एक नेत्रहीन व्यक्ति रोता दिखाई पड़ा। उन्होंने रोने का कारण पूछा, ''रोते क्यों हो? कृष्ण लीला का गायन क्यों नहीं करते?'' सूरदास बोलेे-''मैं अंधा क्या जानूं लीला क्या होती है?'' यह सुनकर महाप्रभु ने सूरदास के मस्तक पर अपना हाथ रख दिया। कहते हैं कि उनके इस दिव्य स्पर्श से श्रीकृष्ण की सभी बाल लीलाएं सूरदास की अंतस में तैर गयीं। इन्हीं सूरदास के हजारों पद 'सूरसागर' में संग्रहित हैं। इन पदों का रस आज भी श्रीकृष्णभक्तों के बीच प्रेम की निर्मल काव्यधारा के रूप में प्रवाहित हो रहा है।
संत वल्लभाचार्य मन्दिर
छत्तीसगढ़ राज्य में रायपुर से लगभग 60 किमी दूर चम्पारण गांव में संत वल्लभाचार्य मन्दिर स्थित है। यह विशाल मंदिर चांदी के बड़े-बड़े दरवाजों से सुसज्जित है। मंदिर प्रांगण में एक संग्रहालय भी है। वल्लभाचार्य मंदिर से थोड़ी ही दूरी पर चम्पकेश्वर महादेव का मंदिर स्थित है। महाप्रभु वल्लभाचार्य की जन्मस्थली होने के कारण चम्पारण की धार्मिक महत्ता है और इसे एक पावन स्थल माना जाता है। इस गांव को स्थानीय भाषा में 'चम्पारण्य' भी कहा जाता है। वल्लभाचार्य की स्मृति में यहां वार्षिक मेले का आयोजन होता है और बरूथिनी एकादशी के दिन उनका जयंती समारोह श्रद्धा के साथ मनाया जाता है।
टिप्पणियाँ