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बलिदान दिवस पर विशेष / मंगल पाण्डे
यह 1857 का प्रथम स्वातंत्र्य समर ही था जिसने अंग्रेजी हुकूमत और ईस्ट इंडिया कंपनी की चूलें हिला दीं। इस क्रान्ति में नायक के तौर पर उभरे अमर सेनानी मंगल पाण्डे की वीरता इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षरों में दर्ज है
भगवती प्रकाश
देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के क्रान्तिधर्मी अग्रदूत मंगल पाण्डे के आत्मोत्सर्ग को 8 अप्रैल, 2017 को 160 वर्ष पूर्ण होने के साथ ही 19 जुलाई, 2017 को उस दृढ़ निश्चयी, वीरवर के जन्म के 190 वर्ष पूरे हो रहे हैं। विश्व में वर्ष 1857 के उस संग्राम में देश के सशस्त्र सैनिकों से लेकर अनेक राजा-महाराजाओं, पेशवा, कई महारानियों, आम किसानों एवं देश के अनगिनत युवाओं सहित सम्पूर्ण समाज के इस जनयुद्ध में सहभागी होने जैसा राष्ट्र जागरण का दूसरा उदाहरण मिलना दुर्लभ है। कई इतिहासकार इसे विफल भी कहते हंै लेेकिन इसी संग्राम में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के पिछले 100 वषार्ें से चले आ रहे शासन का अन्त कर ब्रिटिश ताज को सीधे-सीधे कूटनीति पूर्वक सत्ता पर नियन्त्रण करना पड़ा था। उसके 90 वर्ष बाद 1947 में अन्तत: ब्रिटिश ताज को भी यहां से पलायन करना पड़ा। ब्रिटिश ताज का भी जून, 1948 तक यहां से जाने का कोई मानस नहीं था। लेकिन, अंग्रेज सत्ता के विरुद्ध मुम्बई में नौसेना, मॉण्टगुमरी में वायु सेना व कामठी में थल सेना में हुये विद्रोहों के फलस्वरूप अंग्रेजों को 15 अगस्त,1947 को ही भागना पड़ा था। उन्हें लग गया था कि जून 1948 तक यहां शासन कर पाना सम्भव नहीं है। पर उन्होंने कूटनीतिपूर्वक इसके साथ ही विभाजन की शर्त रख दी थी। मार्च में कांग्रेस की वर्किंग कमेटी और राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन आदि कई नेताओं ने विभाजन के साथ 15 अगस्त, 1947 को स्वाधीनता के प्रस्ताव को निरस्त कर दिया था। उनका मत था कि अंग्रेजों को तो अब जाना ही है, हम देश विभाजन का प्रस्ताव क्यों स्वीकारें। लेकिन कांग्रेस के एक वर्ग को यह भी डर था कि इस बीच में सशस्त्र क्रान्ति से अंग्रेज अपदस्थ हो गये तो सत्ता सशस्त्र सैन्यबलों के हाथ जाएगी, कांग्रेस के पास नहीं आएगी। इसी उधेड़बुन के चलते कांग्रेस ने विभाजन के साथ 15 अगस्त, 1947 को स्वाधीनता के अंग्रेजों के प्रस्ताव का अनुमोदन कर दिया। यदि मंगल पाण्डे की पहल पर छिड़े उस प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सत्ता के पराभव के साथ बागडोर ब्रिटिश ताज के स्थान पर ही स्वतंत्रता सेनानियों के हाथ आ जाती तो आज एक विशाल अखण्ड भारत विश्व मानचित्र पर होता।
तत्कालीन संयुक्त प्रान्त 'आगरा व अवध' के बलिया जिले के नगवा गांव के सामान्य परिवार में जन्मे और स्वाधीनता की बलिवेदी पर सर्वप्रथम न्योछावर होने वाले मंगल पाण्डे ने ब्रितानी साम्राज्य की अति चतुर व धूर्त व्यापारी ईस्ट इण्डिया कम्पनी, जो इस देश में चल रही फूट से यहां राज्य करने को प्रेरित हो गयी थी, की तो नींव को ही हिला कर रख दिया था। वर्ष 1757 ई़ में प्लासी के युद्ध के बाद देश में ब्रिटिशों के शासन की जड़ें जमने के सौ वर्ष बाद, इस दासता से मुक्ति के लिए उस वीरवर ने एक अपूर्व सामरिक संघर्ष की स्थितियंा बना दी थीं। वस्तुत: इस प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को जन-जन का मुक्ति संग्राम बनाने के लिए स्वाधीनता के तत्कालीन राष्ट्र-यज्ञ के रणनीतिकारों ने बड़े ही व्यापक पैमाने पर इस संग्राम की सुनियोजित तैयारी की थी। इस समवेत मुक्ति संग्राम को आरम्भ करने की तिथि उनके द्वारा 31 मई, 1857 निर्धारित की गई थी। लेकिन, इस तिथि से दो माह पूर्व ही गंगा की उर्वर मिट्टी में इस क्रान्ति का बीज फूट पड़ा। मार्च 29, 1857 को बैरकपुर छावनी (कलकत्ता) में अंग्रेजी फौज की 34 नम्बर देसी सेना की 39वीं पलटन के 1446 नम्बर के साधारण सिपाही मंगल पाण्डे ने सेना के दो अधिकारियों मि़ बॉफ और मि़ ह्यूस्टन को मौत के घाट उतार कर, स्वतंत्रता की बलिवेदी पर अपना नाम स्वर्णिम अक्षरों में अंकित करा लिया था। यद्यपि, ब्रिटिश इतिहासज्ञों एवं उनके पिछलग्गू कुछ अन्य इतिहासकारों ने मंगल पाण्डे के बलिदान को एक मामूली सैनिक विद्रोह बताने का असफल प्रयास अवश्य किया था। लेकिन, मंगल पाण्डे का वह प्रयास यदि मात्र 'एक सिपाही का विद्रोह' था, तो इस एक अकेले 'विद्रोही' को नियंत्रित करने के लिए बैरकपुर छावनी में बाहर से बड़ी कुमुक क्यों मंगानी पड़ी? अगर यह एक सैनिक का ही 'विद्रोह' था तो हजारों किलोमीटर दूर मेरठ छावनी में 10 मई 1857 को वहां के सैनिकों ने कैसे 'विद्रोह' कर दिया? यदि यह छिटपुट विद्रोह था तो ब्रिटिश संसद ने इसे भारी विपत्ति क्यों कहा?
मंगल पाण्डे द्वारा दो ब्रिटिश अफसरों, ह्यूसन को गोली मारकर व बॉफ को संगीन से मौत के घाट उतार देने के बाद भी जब कर्नल ह्ेवलर ने वहां उपस्थित जमादार राम टहल व तीस अन्य सैनिकों से मंगल पाण्डे को गिरफ्तार करने का आदेश दिया तो सबने मना कर दिया था। इस पर जमादार राम टहल के तो वहीं कोर्ट मार्शल के आदेश भी दे दिये गए और बाद में उसे फांसी भी लगायी गयी थी। एक अन्य सिपाही शेख पलटू खां ने देशद्रोह करते हुये एक बार मंगल पाण्डे को पकड़ लिया था। लेकिन इस पर भी शेष सिपाही शेख पलटू खां पर जूते व पत्थर ले कर टूट पड़े थे व उसे पांडे को छोड़ना पड़ा था। उसे वहीं पदोन्नत करने की भी घोषणा कर दी गई। मंगल पाण्डे के पक्ष में तो तब जन मानस इतना प्रबल था कि उसके कोर्ट मार्शल के बाद जब उसे 7 अप्रैल,1857 को फांसी की सजा देना तय हुआ, तो एक दिन वह सजा केवल इसलिये टल गई कि बैरकपुर का कोई भी जल्लाद देश धर्म पर न्योछावर इस वीर को फांसी देने को तैयार नहीं हुआ। बाहर से जल्लाद बुलाने पड़े थे। यह क्रान्ति फिर तो, शीघ्र ही देश भर में फैल गई और कुछ राष्ट्र विरोधी स्थानीय शासकों द्वारा अंग्रेजों का साथ नहीं दिया जाता तो इस संग्राम का परिणाम अलग ही होता। फिर भी ईस्ट इण्डिया कम्पनी को तो जाना पड़ा व सत्ता ब्रिटिश ताज को अपने हाथ लेनी पड़ी थी। इसके अतिरिक्त भारत में पुन: क्रान्ति न हो जाये और भारतीय समाज को ब्रिटिश ताज के अनुकूल बनाने और जन मानस को ब्रिटिश ताज के साथ लेने हेतु तत्कालीन अंग्रेज कलेक्टर एलन ओ़ ह्यूम ने तब 1885 में कांग्रेस की स्थापना भी की थी। अंग्रेजी राज्य को सुदृढ़ करने हेतु बनाई गई वही कांग्रेस शीघ्र ही लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में स्वाधीनता संग्राम की सूत्रधार ही
हो गई।
यह एलन ओ़ ह्यूम वह व्यक्ति हैं जो 1857 के स्वाधीनता संग्राम के दौरान इटावा के जिलाधीश थे व स्वतंत्रता सेनानियों से बचने के लिये स्त्रियों के वस्त्र पहन कर भागे थे। कांग्रेस स्थापना के प्रारम्भिक वषार्ें में तो उसकी हर बैठक में इंग्लैण्ड के राजा-रानी के स्वास्थ्य व दीर्घायु की कामना की जाती थी। इसे लोकमान्य तिलक ने बन्द करवाया और उनकी ही प्रेरणा से वहीं कांग्रेस देश की स्वाधीनता के आन्दोलन का साधन बनी थी। लोकमान्य के स्वाधीनता की रचना योजनाओं को आगे बढ़ाने पर उनका विरोध होने को चलते ही उन्होंने यह उद्घोष किया था कि 'स्वाधीनता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार' है।
भारत पर 18वीं सदी में अंग्रेजी राज्य कुछ स्वार्थी भारतीयों द्वारा अंग्रेजों को दिये समर्थन से ही संभव हुआ था। वर्ष 1599 में भारत से गरम मसाले ले जाकर इंग्लैण्ड में बेचने वाले पुर्तगाली व्यापारियों द्वारा दाम कुछ बढ़ा देने पर वहां के छोटे-छोटे किराना व्यापारियों को लगा कि पुर्तगाली व्यापारी उन्हें दबाते हैं। इसलिए भारत से सीधे ही माल क्रय करने हेतु एक कम्पनी बनानी चाहिये। तब वहां के 145 छोटे-छोटे खुदरा व्यापारियों द्वारा मात्र 72000 पाउण्ड, जो तब के 72000 भारतीय रुपये के तुल्य ही थे, की पूंजी जोड़ कर ईस्ट इण्डिया ट्रेडिंग कम्पनी बनायी गई। वर्ष 1600 से इस कम्पनी ने भारत से व्यापार प्रारम्भ किया। उसने यहीं से धन अर्जित कर अपनी निजी सेना भी बना ली। ऐसी ही एक 3300 सैनिकों की सेना लेकर राबर्ट क्लाइव जो मूलत: क्लर्क था, ने 50,000 – 60,000 की सेना वाले बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला पर 1757 में आक्रमण कर दिया था। क्लाइव की उन 3300 सैनिकों की सेना में भी अंग्रेज सैनिक तो मात्र 600 ही थे, शेष 2700 भारतीय सैनिक थे। उन्हें कम्पनी ने यहीं से कमाये धन से वेतन पर कम्पनी की सेना में नियुक्त कर लिया था। तब उस 32 वर्षीय, क्लर्क रहे राबर्ट क्लाइव ने चतुराई से पैसा देकर नवाब के सेनापति मीर जाफर को खरीद लिया, जिससे नवाब की ओर से बिना लड़े प्लासी के युद्ध में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का बंगाल पर नियन्त्रण हो गया। धीरे-धीरे उन्होंने पूरे भारत पर नियन्त्रण कर लिया। यहां पर उल्लेखनीय है कि तब क्लाइव ने बंगाल प्रेसीडेन्सी का गवर्नर बन कर जनता का भारी शोषण किया। उसने उड़ीसा, बिहार व आसम भी उस प्रेसीडेन्सी के अधीन कर लिये थे। लेकिन बंगाल का गवर्नर रह कर अथाह धन लेकर इंग्लैण्ड लौटने पर क्लाइव को 49 वर्ष की आयु में आत्महत्या करनी पड़ी थी। वह भी केवल इसलिये कि क्लाइव के पास अथाह धन होने पर भी इंग्लैण्ड का सभ्य समाज उसे लुटेरा ठहरा कर अत्यन्त हेय दृष्टि से देखता था। उनका मानना था कि क्लाइव ने बंगाल के लोगों का अमानुषिक शोषण कर वह धन अर्जित किया है। उसकी तब की अत्यन्त खर्चीली पार्टियों व महंगे उपहारों को लोग इसी कारण स्वीकार भी नहीं करते थे। अन्तत: 1757 से लेकर 1947 तक चले अंग्रेजी शासन में भारत का अथाह शोषण हुआ।
मंगल पाण्डे द्वारा किये आत्मोत्सर्ग के अवसर पर पूरा देश यदि एकजुट हो जाता व कुछ स्थानीय रियासतें अपनी सेना के साथ अंग्रेजों का साथ न देकर भागते अंग्रेजों को अपने किलों में शरण नहीं देतीं तो आज का भारत अपने उसी प्राचीन आर्थिक गौरव से युक्त होता, जिसका विवेचन एंडस मेडिसन ने किया है। अस्तुु, अब ऐसा ही हो, इसके लिए हमें देश में पनपती सभी अलगाववादी व आतंककारी शक्तियों के षड्यन्त्रों के विरुद्ध समवेत स्वरों में एकजुट होना होगा।
यदि अब हम देश में यदा कदा उपजते अलगाववादी व आतंकवादी स्वरों को नियंत्रित कर लेंगे तो हम पुन: वैसा ही समर्थ भारत, सशक्त भारत व सबल भारत बना सकेंगे जैसा विदेशी आक्रमणों के पूर्व था। देश में कहीं-कहीं उपजते जिहादी आतंक, नक्सली व माओवादी हिंसा, मिशनरियों द्वारा चलाये जा रहे कन्वर्जन आदि पर नियन्त्रण करके ही देश तेजी से विकास के पथ पर आगे बढ़ सकेगा।
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