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राज्य के दिनभर के दौरे से लौटे उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत जब शाम को देहरादून के न्यू कैंट रोड स्थित मुख्यमंत्री आवास पर पहुंचे तो बिना सुस्ताए सुदूर क्षेत्रों से आए लोगों से भेंट कर उनकी फरियाद सुनने लगे। पाञ्चजन्य के सम्पादक हितेश शंकर और संवाददाता अश्वनी मिश्र ने उनसे लगातार काम और बड़ी चुनौतियों के उस अंबार के बारे में बात की जिनके आगे दिन छोटा पड़ जाता है। प्रस्तुत हैं बातचीत के प्रमुख अंश-
* उत्तराखंड में ऐतिहासिक विजय की आपको ढेर सारी शुभकामनाएं। राज्य छोटा है लेकिन चुनौतियां बड़े राज्यों से कहीं ज्यादा बड़ी हैं। पहाड़ी क्षेत्र के लिए एक पुरानी कहावत है कि पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी टिकते नहीं। टिकाऊ विकास के लिए आपके पास क्या योजना है?
सबसे पहले आपको बहुत-बहुत धन्यवाद। यह बिल्कुल सही है कि चुनौतियां पहाड़ जैसी हैं लेकिन हमारा हौसला भी हिमालय से कम नहीं है। राज्य के सामने जो चुनौतियां हैं, उनसे निबटने और टिकाऊ विकास के लिए मैं तीन महत्वपूर्ण बातें बताना चाहता हूं। पहला, गांव में शिक्षा की व्यवस्था ठीक होनी चाहिए। शिक्षा की जो मौजूदा व्यवस्था है उसमें सुधार करने की आवश्यकता है। दूसरा, स्वास्थ्य सुविधाएं हर स्थान पर उपलब्ध हों और तीसरा, अधिक से अधिक लोगों को रोजगार मिले। आपने जो जवानी न टिकने की बात की तो अगर लोगों को रोजगार मिल जाएगा तो पलायन की समस्या समाप्त हो जाएगी। मेरा मानना है कि उत्तराखंड में पलायन एक बहुत बड़ी समस्या है और पलायन रोजगार के लिए होता है। अगर हम रोजगार देने की बात करें तो हमें कृषि आधारित रोजगार पर विचार करना पड़ेगा। क्योंकि सरकारी नौकरियां सभी को नहीं मिल सकतीं। रही बात औद्योगिक विकास की तो औद्योगिक विकास पर्वतीय क्षेत्र में है। पर पर्वतीय क्षेत्र में अनेक तरह की बाधाएं भी हैं, ऐसे में यहां औद्योगिक विकास थोड़ा कठिन लगता है। लेकिन पर्वतीय क्षेत्रों में कुटीर उद्योगों के माध्यम से हम रोजगार दे सकते हैं। हमारे पास जो प्राकृतिक संसाधन और स्रोत हैं, उनका समुचित उपयोग करते हुए इसे दिशा दी जा सकती है।
ल्ल करीब 2,80,000 घरों में ताले लटके हुए हैं। उत्तराखंड के अनेक गांवों का यह सामान्य चित्र है, जहां से लोगों ने पलायन किया है। यह ठीक है कि उद्योग बड़े-बड़े नहीं हो सकते, परंतु इसका विकल्प क्या है? आपने कोई योजना बनाई है ?
देखिए, जो आकंड़े आपने बताए, वे जरूर मन को अशांत करते हैं और मैं मानता हूं कि यहां से हो रहा पलायन राज्य के लिए चिंता का विषय है। यह समस्या समाप्त हो, इसके लिए हमने काम करना शुरू कर दिया है। हमारा जो पर्यटन का क्षेत्र है, वह बहुत ही विशाल है। अगर हमने ठीक से सूचना तकनीकी का इस्तेमाल किया, तो हम इस क्षेत्र से बहुत रोजगार उत्पन्न कर सकते हैं। पुराने घर 'हेरिटेज टूरिज्म' को बढ़ावा दे सकते हैं। इसके लिए सतपाल महाराज जी, जिन्हें इस क्षेत्र का बहुत अच्छा अनुभव है, उन्हें हमने यह कार्य करने के लिए कहा है। दूसरी बात, हम प्रयास कर रहे हैं कि यहां आने वाले यात्रियों के लिए हर मौसम में सड़क मार्ग खुले रहें। इससे स्वाभाविक रूप से यहां पर पर्यटक आएंगे। 'विन्टर टूरिज्म', जो यहां पर नहीं है, उसे बढ़ावा दिया जा सकता है। ऐसे ही आने वाले समय में रेल मार्ग की कर्णप्रयाग तक पहुंच हो रही है। अभी वहां पहुंचने में छह घंटे लगते हैं। रेल सेवा होने पर दो, सवा दो घंटे में पहुंच जाएंगे। देहरादून का हवाई अड्डा अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा बनने की ओर है। कुल मिलाकर हमारी नजर यहां की प्रत्येक समस्या पर है, और हम उन्हें दूर करने के प्रयास करेंगे।
ल्ल आपने हवाई अड्डे के अन्तरराष्ट्रीयकरण की बात की, रेल की बात की। दूसरी तरफ उत्तराखंड को राज्य बने 16 साल हो गए हैं। मगर आज भी सैकड़ों की तादाद में ऐसे गांव हैं जहां सड़क तक की सुविधा नहीं है। इन गांवों को कब तक सड़कें मिलेंगी?
यह सच है कि हर गांव तक सड़कें नहीं हैं, लेकिन इन 15-16 सालों में मैं यह कह सकता हूं कि काफी सड़कें बनी हैं। विशेषकर पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने जो प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना चलाई थी, उसका उत्तराखंड को बहुत लाभ मिला है। इसलिए अधिक तो नहीं, कुछ गांव हैं, जहां पर बहुत ज्यादा पैदल चलना पड़ता है। रही इन गांवों तक सड़कें जाने के आश्वासन की बात, तो देखिए, काम लगातार चल रहा है और हमारी योजना यह है कि जो हमारे न्याय पंचायत केन्द्र हैं वहां पर एक नए तरीके से टाउनशिप विकसित हो। गांव के लोगों को जो सुविधाएं चाहिए, चाहें वे खेत से संबंधित हों, पर्यट यातायात, जंगल, कृषि से संबंधित जो जरूरतें हैं, वे यहां पर पूरी हों। एक तरह से न्याय पंचायत को हम सचिवालय के रूप में विकसित करना चाहते हैं। इसलिए मूल बात है कि हमारी सरकार यहां के नागरिकों की मूलभूत सुविधाओं को पूरा करने और उनकी समस्याओं के निदान के लिए जुट चुकी है।
ल्ल स्कूलों में शिक्षक नहीं हैं। अस्पतालों की बात करें तो डाक्टर बहुत कम हैं। दिक्कत एक नहीं है। जनता ने आपको ऐतिहासिक बहुमत दिया है तो स्वाभाविक है, अपेक्षाओं का दबाव भी उतना ही है। शिक्षा और चिकित्सा के लिए आप की योजना?
दो बातें हैं, पहली तो चिकित्सा के क्षेत्र में हम बहुत जल्दी 250 चिकित्सकों की भर्ती करने वाले हैं, जिससे हमारा काफी क्षेत्र कवर हो जाएगा। आज तक कभी भी एक साथ 250 डॉक्टरों की भर्ती नहीं हुई। तो इस दिशा में प्रक्रिया चल रही है और यह बहुत जल्द पूरी हो जाएगी। दूसरी बात, मैं बताना चाहता हूं कि उत्तराखंड में 60 फीसद बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं। यानी 23 लाख के करीब बच्चे निजी विद्यालयों में हैं। 40 फीसद बच्चे ही सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे हैं। अगर औसत देखेंगे तो सरकारी स्कूलों में 12 बच्चों पर एक अध्यापक है। जो निजी विद्यालय हैं, उनमें 25 बच्चों पर एक अध्यापक है। अध्यापक हैं हमारे पास, लेकिन कई ऐसी जगह हैं जहां वे नहीं हैं, सिफारिश के कारण। इसी को देखते हुए हम वार्षिक स्थानांतरण अधिनियम लाए हैं। वार्षिक स्थानांतरण अधिनियम में ऐसे प्रावधान हैं कि जो लोग सिफारिश से या दूसरे तरीकों से सुलभ और सरल जगहों पर जमे रहते हैं, वह सब खत्म हो जाएगा। यह पूरी तरह से पारदर्शी होगा।
ल्ल जैसे ही एनएच-24 की सीबीआई जांच की सरकार बात करती है, 145 फाइलें गायब हो जाती हंै। भ्रष्टाचार की जड़ें कितनी गहरी हैं और उससे लड़ने का संकल्प कैसा है?
देखिए, हमने इसको सीबीआई को सौंपा है। इसकी हम सीबीसीआईडी से भी जांच करा सकते थे। कोई एसआईटी गठित कर सकते थे। हमने सीबीआई को यह मामला इसलिए दिया है कि हमें लगा कि इस मामले में बहुत अधिक गहराई से छानबीन की जरूरत है। और जो दिखायी दे रहा है वही सच नहीं है, उससे कहीं अधिक सचाई छुपी हुई है। सीबीआई परखी हुई और प्रतिष्ठित जांच इकाई है इसलिए हमने उसे यह मामला सौंपा है, क्योंकि उसमें ताकत है कि वह इससे जुड़े सभी अपराधियों को पकड़ेगी और उन सभी को घसीटकर बाहर लाएगी।
ल्ल पिछली सरकार में कई जगहों पर 'बिल्डर लॉबी' बड़ी प्रभावी दिखी। बेतरतीब कंक्रीट का जंगल देहरादून में दिखाई देता है। राजधानी, राजधानी जैसी लगे, नियमों का पालन हो, बिल्डर लॉबी के आगे झुकने के जो आरोप लगते रहे हैं, उस पर नकेल कसी जाए। यह सब कैसे करेंगे?
इसके लिए हमारी कानून व्यवस्था और हमारे एक्ट में सारी व्यवस्थाए हैं। जैसे पुलिस एक्ट है, उसमें सारी व्यवस्थाएं हैं, बस उसे हमें 'एक्टिवेट' करना है। हमें उन्हें विश्वास में लेकर काम में लगाना है और जब ये काम में लग जाएंगे, तो स्वाभाविक रूप से इन सभी चीजों पर नियंत्रण हो जाएगा।
उत्तर प्रदेश की खूब चर्चा है। एक साथ ही चुनाव हुए, नतीजे भी साथ आए। लेकिन मीडिया केवल उ.प्र. की खबरों के लिए लपकता है। वहां की तेज कार्यशैली की भी चर्चा होती है। उत्तराखंड की ओर मीडिया का ध्यान कम है। इसके लिए मीडिया की सुस्ती जिम्मेदार है या आपने जो अभी प्रशासनिक फैसले लिए हैं, उनका सामने आना बाकी है?
मीडिया का खबरों के प्रति क्या नजरिया है, उस पर चर्चा न करके मैं आपके माध्यम से बताना चाहूंगा कि भाजपा की राज्य में सरकार बनते ही हमने कई प्रशासनिक फैसले लिए हैं। भ्रष्टाचार पर बहुत कड़ा रुख अख्तियार किया है। 6 पीसीएस अधिकारियों को एक साथ निलंबित करके भ्रष्टाचारियों को एक कड़ा संदेश दिया है। सरकार के कड़े कदमों का आभास कराया है। दूसरी बात, हर व्यक्ति का काम करने का तरीका अलग होता है। योगी जी, चंद्रबाबू नायडू, रमन जी और शिवराज जी, सभी का अपना-अपना काम करने का तरीका है। इसलिए मीडिया को दोष देना भी ठीक नहीं है।
राज्य के गठन के बाद कई बड़े नामों ने सत्ता संभाली। उम्मीद थी कि तेजी से विकास होगा। जनता की जो इच्छाएं हैं वे तेजी के साथ तो नहीं, लेकिन 16 सालों में तो पूरी हो ही जाएंगी। मगर ऐसा कुछ हुआ नहीं। आपकी नजर में इसका कारण क्या रहा?
विकास एक सतत प्रक्रिया है और यह कभी समाप्त नहीं होता। विकास कहीं अवरुद्ध तो हो सकता है लेकिन वह एक निरंतर प्रक्रिया है। जो चीज बनती है, वह बिखरती है। जहां तक राज्य के 16-17 साल के राजनीतिक सफरनामे की बात है तो मुझे लगता है कि राज्य बनने के बाद विकास में गति आई है। कोई अगर यह कहता है कि विकास नहीं हुआ है तो मुझे लगता है, वह अर्धसत्य है। हमारी अपेक्षाएं और भी हो सकती हैं। लेकिन यहां का जीवन स्तर बढ़ा है। हां, यह सत्य है कि राज्य बनाने के लिए जब हम श्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिलते थे, तब कहते थे कि राज्य बनाना इसलिए जरूरी है कि यहां से पलायन रुकेगा, लेकिन हुआ उम्मीद के उलट। राज्य के गठन के बाद पलायन और तेजी से बढ़ा। जो पहले दिल्ली की तरफ होता था, वह देहरादून, हल्द्वानी, उधम सिंह नगर में होता है। लेकिन पहाड़ों से पलायन तेजी से हुआ है, इसको स्वीकार करने में मुझे कोई तकलीफ नहीं है। पर अब हमारी सरकार इस मसले पर सिर्फ चिन्तित ही नहीं है बल्कि हम इस दिशा में ठोस नीति बना रहे हैं और आने वाले समय में इसका असर भी दिखाई देगा।
औद्योगिक विकास तराई वाले क्षेत्र में हुआ। लेकिन ऊंचाई वाले क्षेत्र में औद्योगिकीकरण की गति उतनी दिखाई नहीं दी। यह केवल बुनियादी सुविधाओं की कमी है या और कुछ?
कोई भी व्यक्ति उद्योग स्थापित करता है तो पहले वह यह देखता है कि हमें इसमें क्या बचत होगी। कोई धर्मार्थ तो उद्योग लगाता नहीं। निश्चित रूप से अपने व्यापार को बढ़ाने के लिए काम करता है। इसलिए उद्योग वही सफल होता है जिसमें स्थान-स्थान पर कच्चा माल भी हो और बाजार भी हो। दुर्भाग्य से उत्तराखंड में बाजार कम हैं, लेकिन यहां औद्योगिक इकाइयां काफी बड़ी मात्रा में लगी हैं। लेकिन वह पर्वतीय क्षेत्रों के अनुकूल नहीं हंै। क्योंकि वहां पर न तो 'कच्चा माल' है और न 'ट्रांसपोर्टेशन' है। यहां कोई भी चीज स्थापित करना बड़ा महंगा साबित होता है।
नई औद्योगिक नीति की योजना है?
देखिए, जब पहले हमारी सरकार थी तब भी हमने पर्वतीय औद्योगिक नीति बनाई थी। लेकिन इसके बावजूद हम निवेशकों को लाने में सफल नहीं हो पाये या कहें कि उन्होंने यहां रुचि नहीं दिखायी। इसलिए पर्वतीय क्षेत्र के लिए अलग तरीके से विचार करना ही पड़ेगा।
हर पीढ़ी पर जोत आधी हो जाती है। पहाड़ों पर तो खेत वैसे भी छोटे हैं, कृषि का रकबा भी घट रहा है। किसान बेहाल हैं। कृषि और किसान के लिए आपने क्या सोचा है?
खेती के लिए पहली चीज जो जरूरी है वह है कि भूमि प्रबंधन ठीक हो। भूमि प्रबंधन से मेरा आशय यह है कि पहाड़ों में जो खेत होते हैं वे बहुत छोटे और बिखरे होते हैं। इसलिए जब मैं कृषि मंत्री था तो उस समय स्वैच्छिक चकबंदी का आदेश दिया था, क्योंकि चकबंदी जरूरी है। अगर हम चकबंदी कर लेंगे तो खेत एकत्र हो जाएंगे। हम 'रेन वाटर हार्वेस्टिंग' के लिए, किसी को कोई हौज बनाने के लिए या फिर पानी के टैंक बनाने के लिए पैसा देते हैं जैसे मैंने पहले पैसा दिया है। पर परिणाम क्या रहा उसका? क्योंकि जिसके खेत में पानी का टैंक बना, पता चला, 200 मीटर दूर पर उसका खेत है। फिर वह किसके काम आएगा? किसान मौसमी फल-फूल, सब्जियां उगा सकते हैं और अधिक लाभ कमा सकते हैं। सरकार कृषि और किसान की चिंता कर रही है।
राज्य में पर्यटन की दृष्टि से असीमित संभावनाएं हैं। लेकिन राज्य का गढ़वाल क्षेत्र या अन्य ऐसे बहुत से क्षेत्र जो पर्यटन की दृष्टि से तो अतिसमृद्ध हैं, पर सुविधाओं के अभाव के चलते यहां पर्यटक पहुंच नहीं पाते। इन जगहों पर सुविधाएं हों और ऐसे क्षेत्रों को पहचान मिले, इसके लिए कुछ विशेष
प्रयास करेंगे?
मैंने संबंधित विभाग के मंत्री से कहा है कि आप ऐसी योजना बनाइये जिससे पर्यटक ज्यादा से ज्यादा यहां आएं। जैसे 'विंटर टूरिज्म' जिसे हम बढ़ावा देना चाहते हैं। क्योंकि यूरोपीय देशों में इस समय बहुत अधिक बर्फबारी हो जाती है। हमारे यहां उस समय ज्यादातर होटल खाली होते हैं। ऐसे में होटल मालिकों से बात हो और वे पर्यटकों को आधे मूल्य पर कमरे दे दें तो एक तो उनकी आमदनी होगी, व्यापार बढ़ेगा और जो बाहर से लोग आएंगे उन्हें घूमने- फिरने का एक शांत वातावरण मिल जाएगा। दूसरा, हमारे पास नदियां हैं। उनमें रिवर राफ्टिंग है, पर्वतारोहण है और साथ ही जो हमारी पर्वतीय व्यंजन विधियां हैं उनको प्रोत्साहित कर सकते हैं, क्योंकि बाहर से आने वाले व्यक्ति की इच्छा यहां के स्थानीय व्यंजन को खाने की होती है। इसलिए हमारे पर्वतीय व्यंजनों का स्वाद लेने के लिए लोग यहां पर आएं, हम इस क्षेत्र में भी काम कर रहे हैं। इसके साथ ही हमारे स्थानीय खाद्यान्न हैं। बद्रीनाथ, केदानाथ एवं चारों धामों में लाखों लोग आते हैं। हमारा विचार है कि जम्मू-कश्मीर की तर्ज पर स्थानीय उत्पादों से प्रसाद बनाएं और आने वालों को दें तो स्वास्थ्य की दृष्टि से भी अच्छा रहेगा और आर्थिक रूप से भी इससे जुड़े लोगों को मदद मिलेगी।
राज्य पर लगभग 45,000 करोड़ रुपए के कर्ज का अनुमान है, जो आपको चुनौती के तौर पर मिला है। बोझ भी है मगर विकास की चुनौती भी है। ऐसे में तात्कालिक और दीर्घकालिक योजनाएं क्या हैं?
पहला तो जो यहां भ्रष्टाचार है, हम उसे हटा रहे हैं। दूसरी बात, राजस्व बढ़ाने पर विचार कर रहे हैं। हमारे यहां आबकारी, खनन, पर्यटन और कर हैं। ये हमारे चार मुख्य स्रोत हैं रेवन्यू के। और मुझे लगता है कि थोड़ा सा इसमें सख्ती करेंगे तो हमारा राजस्व बढ़ सकता है। एक तरह से आर्थिक अनुशासन लाकर इसको और नियंत्रित कर सकते हैं। रही बात 45,000 करोड़ की तो यह निश्चित रूप से बड़ा कर्ज है। यानी पैदा होते ही हर बच्चे पर 45,000 का कर्जा हो जाता है। ऐसे में हम अपने आय के स्रोत बढ़ाएंगे। इस पर मंथन करेंगे तो निश्चित रूप से इसको नियंत्रित कर लेंगे।
केदारनाथ आपदा के प्रभावितों के पास अभी तक सरकार या अन्य संस्थाओं द्वारा जारी की गयी क्षतिपूर्ति राशि नहीं पहुंची। हताहत परिवार अपने को ठगा हुआ महसूस करते हैं। आप इस दिशा में कुछ करने वाले हैं?
आपदा के बाद इस गंभीर मामले में सरकारी तंत्र का बहुत अधिक दुरुपयोग हुआ है। यहां तक कि जो अधिकारी थे, वे भी उसमें शामिल पाये गये। इसलिए सावधानी बरतते हुए हम इस पूरे मामले को गंभीरता से लेकर इसका समाधन करेंगे और चीजें ठीक होंगी।
ल्ल उत्तराखंड ने संस्कृत को द्वितीय राजभाषा बनाया है। लेकिन राज्य में परंपरागत गुरुकुलों या संस्कृत विश्वविद्यालयों की हालत ज्यादा अच्छी नहीं है। इनकी स्थिति सही हो और संस्कृत शिक्षा को बढ़ावा मिले, इसकी क्या कोई नीति है?
संस्कृत भाषा को जो द्वितीय राजभाषा का दर्जा मिला है संयोग से उस समय भाषा विभाग मेरे पास ही था। 2007 तक भाषा के नाम पर एक भी फाइल उत्तराखंड के सचिवालय में नहीं थी, न ही कोई कर्मचारी था। मैंने उत्तर प्रदेश से एक फाइल मंगवाई थी। लेकिन उसमें भी कुछ नहीं था। फिर मैंने माननीय खंडूरी जी, जो कि उस समय मुख्यमंत्री थे, से बात की और अनुरोध किया कि संस्कृत को द्वितीय राजभाषा बनाना चाहिए, आप चाहें तो इस विभाग को अपने पास रखिए।
फर उन्होंने संस्कृत को द्वितीय राजभाषा बनाने की जिम्मेदारी मुझे दी थी। अब फिर हम सरकार में हैं और अब भी संस्कृत के प्रोत्साहन के लिए कोई कमी नहीं रखने वाले हैं। हर पग पर इसका ध्यान रखा जाएगा।
उत्तराखंड देवभूमि है। बड़े स्थानों को छोड़ दें तो सुदूर घाटियों में छोटे-छोटे धार्मिक स्थल और सिद्धपीठ मौजूद हैं, जिनका महत्व है, मान्यता है, लेकिन अभावग्रस्त हैं। इन छोटे-छोटे स्थलों के लिए आपके पास कोई योजना है या ये बड़ी नीति का
हिस्सा होंगे?
अभी हमारे पर्यटन मंत्री एक 'महाभारत सर्किट' बनाने की तैयारी कर रहे हैं। इस पर उनका अध्ययन चल रहा है। यह पांडवों की भूमि है। पांडव जिस रास्ते पर चले थे, उन रास्तों को ढूंढकर विकसित करना। यहां की संस्कृति, लोकगायन में पांडवों के वनवास का बहुत उल्लेख मिलेगा। नृत्य शैलियों की बात करें तो ये रग-रग में भरी हैं। स्थानीय देवी-देवताओं भी बहुत मान्यता है। इसलिए ऐसे सभी विषयों पर हम काम कर रहे हैं।
ल्ल हिमाचल के सेब प्रसिद्ध हैं। उत्तराखंड के बुरांस के फूलों को भी ऐसी पहचान दिलवाएंगे?
देखिए, बुरांस के फूल की बहुत अच्छी पहचान पूरे देश में है। सच ये है कि जितनी मांग है, हम लोग उसको पूरी नहीं कर पा रहे हैं। बुरांस एक प्राकृतिक रूप से उपजा हुआ पौधा है, वह प्रकृति के संरक्षण में ही पलता है। इसकी कहीं पर खेती होती हो, ऐसा नहीं है। एक तरह से यह एक जंगली पौधा है। लेकिन बुरांस हमारा अच्छा ब्रांड है और बाजार में इसकी अपनी अलग पहचान है। हमारी इच्छा है कि मांग को देखते हुए इसका प्रसंस्करण और अधिक
बढ़ाया जाए।
टिहरी बांध से सबको पानी मिलता है। पर उसके पास के दर्जनों गांव पीने के पानी के लिए मोहताज हैैं। क्या ऐसी समस्याओं से निबटने के लिए या फिर इसी समस्या से निबटने के लिए कोई विशेष कार्य योजना है?
देखिए, इससे निबटने के लिए हमने पिछले 26-27 मार्च में बैठक की थी। बैठक में राज्य के ऐसे सभी गांवों को चिह्नित किया है जहां पानी का अभाव है। कई ऐसे गांव हैं जहां वाहन सहजता से पहुंच जाता है, वहां पर हमारे टैंकर जाते हैं। लेकिन जहां पर टैंकरों के माध्यम से पानी नहीं जा सकता है वहां पर घोड़ों से, खच्चरों से पानी भिजवाने की व्यवस्था की जा रही है।
ल्ल पुराने समय से यहां पर घराट की एक संस्कृति रही है। घराट से बिजली बनाना या चक्की चलाना यहां के लोग जानते हैं। मगर इस पद्धति का राज्य में बड़े स्तर पर प्रयोग होते नहीं दिखा। जल ऊर्जा का दोहन करके ऊर्जा के क्षेत्र में सक्षम बनने और समृद्धि के शिखर पर पहुंचने की ऐसी संभावनाएं इस राज्य में हैं। आप भविष्य में इसे कैसे देखते हैं?
ऊर्जा की यहां पर बहुत बड़ी संभावना है। राज्य की बिजली की क्षमता लगभग 37,000 मेगावाट है। लेकिन दुर्भाग्य से बीच का कालखंड ऐसा रहा कि जितना हम दोहन कर सकते थे, उतना नहीं कर पाए। एक वन अधिनियम-1980 है, उसकी वजह से तमाम तरह की दिक्कतें हैं। और हर काम की स्वीकृति के दिल्ली भागना पड़ता है। इसलिए इन दिक्कतों को लेकर माननीय प्रधानमंत्री जी से मिलेंगे और बातचीत के माध्यम से उनके सामने इसे रखेंगे। लेकिन हमारी योजना यह है कि जो छोटी परियोजनाएं हैं 5 मेगावाट तक की, उनको प्रोत्साहित करें। ये कम समय में बन जाती हैं और उनसे विस्थापन ज्यादा नहीं होता है। इकाइयां जल्दी उत्पादन करने लगती हैं। हमारा जो लखबार व्यासी बांध है उसकी 300 मेगावाट की क्षमता है। उसके टेंडर भी हुए हैं। मुझे लगता है कि टेंडर खुलने के बाद वह जल्दी उत्पादन करने लगेगा। हमारे लिए यह आय का भी जरिया है और हम देश को ऊर्जा देने का काम इस परियोजना के माध्यम से करेंगे।
बहुत सारे देसी बीज, जानवरों की देसी नस्लों की एक थाती राज्य में रही है। आज बड़ा संकट है कि न देसी बीज मिलते हैं और न ही देसी जानवरों की नस्लें। इस धरोहर को कैसे बचाएंगे?
जो भी हमारे पास है, उसे बचाएंगे और संरक्षित करेंगे। इसके लिए राज्य और सरकारों की नीतियां भी हैं। जैसे उत्तराखंड की गाय है, उसे हमने ब्रांड किया था बद्री गाय के नाम से। उसके दूध की मात्रा बहुत कम है लेकिन यह गुणवत्ता में बहुत अच्छा है। औषधीय प्रभाव से युक्त यह दूध स्वादिष्ट होता है। जब मेरे पास पशुपालन विभाग था तो चंपावत जिले में नंदियाल गांव में हमने बद्री गाय के संवर्द्धन और संरक्षण के लिए पूरे प्रदेश से 50 गाय एकत्रित की थीं। उनका संरक्षण और संवर्द्धन किया था। अब फिर से इन सभी दिशाओं में यह कार्य बढ़ेगा और जो हमारी अपनी चीजें हैं, जिनसे राज्य की पहचान होती है, उन्हें संरक्षित करेंगे।
यहां आग लगने की घटनाएं हर बार देखने को मिलती हैं। चीड़ इसका बड़ा कारण है। जंगल की आग का निदान और चीड़ की वजह से आग न फैले, इसके लिए कोई कार्य योजना है?
इसमें अनेक बातों पर विचार चल रहा है। राज्य में चीड़ की इतनी मात्रा है कि उसे संभाल पाना बहुत कठिन काम है। इसलिए हम भारत सरकार से यह अनुरोध कर रहे हैं कि चीड़ को कम करें और जो चौड़ी पत्ती वाले पौधे हैं, उनको यहां प्रोत्साहित करें।
एक बात बार-बार आती है कि राज्य छोटा है मगर लालबत्तियां बहुत हैं। इससे खबरें भी खूब बनती रही हैं। इसके बारे में
क्या कहेंगे?
अब इन खबरों पर विराम लगने का समय आ गया है। इसको बहुत ज्यादा प्रोत्साहित करने की हमारी कोई नीति नहीं है।
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