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पास-पड़ोस/म्यांमार
म्यांमार में तमिलों की अच्छी-खासी संख्या होने के बावजूद उन्हें अभी तक वहां के नागरिक अधिकार प्राप्त न होना दुखद है। आज भी मंदिरों, उत्सवों के माध्यम से अपनी अगली पीढ़ी में तमिल संस्कृति के संस्कार रोपते ह
श्याम परांडे
पड़ोसी देश म्यांमार का सबसे दिलचस्प तथ्य यह है कि भारतीयों के रिहाइशी इलाके का नक्शा भारत के मानचित्र के समान है। यहां के दक्षिणी क्षेत्र में तमिल और तेलुगुभाषी बसे हैं तो हिंदी-भोजपुरीभाषी मध्य और ऊपरी भाग में हैं, जबकि उत्तरी क्षेत्र में बंगाली और मणिपुरी निवास करते हैं। पंजाबी और राजस्थानी पूरे देश में फैले हैं।
यांगून (पहले रंगून) एक ऐसा शहर रहा है जहां एक समय बड़ी संख्या में दक्षिण-एशियाई आबादी बसती थी, लेकिन आज गिने-चुने भारतीय-बर्मी लोग रह गए हैं जिन्हें वहां की नागरिकता हासिल है। बाकी समुदायों के पास कोई नागरिकता नहीं है। रंगून 60 के दशक तक एक जीता-जागता शहर था जहां भारतीय साहित्य और संस्कृति के विकास के लिए काफी सहूलियत थी।
हम शरतचंद्र चटर्जी के प्रसिद्ध बांग्ला उपन्यास सब्यसाची को भी नहीं भूल सकते, जिसकी कहानी पिछली शताब्दी के पूर्वार्द्ध में बर्मा के जीवन और अनुभवों का ताना-बाना पेश करती है। हम माण्डले किले को भी नजरअंदाज नहीं कर सकते जहां लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे महान स्वतंत्रता सेनानियों को कैद रखा गया था। किला आज भी मौजूद है, लेेकिन वहां भारत के उन महान नेताओं के अपूर्व बलिदानों की कोई स्मृति या स्मारक मौजूद नहीं है।
यांगून आने वाला प्रत्येक भारतीय पर्यटक भारत के आखिरी मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर और उनकी बेगम जीनत महल का मकबरा देखना नहीं भूलता जिन्हें 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद ब्रिटिश सरकार ने कैद कर लिया था।
बीसवीं शताब्दी के दौरान म्यांमार में रहने वाले भारतीयों का सबसे बड़ा योगदान आर्थिक रूप से माना जा सकता है। अंग्रेज उन्हें कृषि कायार्ें में नियुक्त करने के लिए अपने मातहतों के तौर पर बर्मा लेकर आए थे। वे धान उपजाने में कुशल थे। हालांकि, महाजनी का कारोबार करने वाले चेट्टियार भी म्यांमार और अन्य दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में खूब फले-फूले और भारी धन कमाया। वे तमिलनाडु के चेट्टीनाड क्षेत्र से जुड़े थे। इस समुदाय पर शोषण का आरोप लगाया जाता है, पर इसमें अतिशयोक्ति ज्यादा है। हां, कुछ मामलों में कुछ हद तक शोषण से इनकार नहीं किया जा सकता, लेेकिन स्थानीय समुदायों के आर्थिक विकास में इनका महती योगदान रहा। उन दिनों वहां बैंक नहीं थे और किसान समुदाय को धन उधार लेने के लिए इन पर निर्भर रहना पड़ता था। म्यांमार में न तो अतीत में, न ही आज बैंकों से जुड़ी उचित वित्तीय व्यवस्था मौजूद है।
अर्थशास्त्री शॉन टर्नेल ने 2005 में अपने एक आलेेख में यह तर्क पेश किया है कि चेट्टियारों की वैसी छवि के बावजूद बर्मा में कृषि क्षेत्र के आधुनिकीकरण में उन्होंने सकारात्मक भूमिका निभाई; उन्होंने स्थानीय समुदाय और यूरोपीय वित्तपोषण के बीच पुल का काम किया, मशीनरी के आयात का रास्ता तैयार किया और स्थानीय आबादी को काम करने के ढेर सारे विकल्प मुहैया कराए। उन्होंने बर्मा में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, लेकिन अफसोस की बात है कि आमतौर पर लोग उन्हें 'दूसरों का धन हड़पने वाला लोभी समुदाय' मानते हुए उनकी अत्यधिक निन्दा करते हैं और औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था से जुड़े सभी तरह के दोषों का जिम्मेदार ठहराते हैं।
हालांकि, कुछ समीक्षकों का मानना है कि चेट्टियारों ने ऋण देने के नियमों को बहुत कड़ाई से लागू किया जिसकी वजह से उन्हें अपयश मिला। स्थानीय जनसंख्या को उनके दिए हुए उधार को चुकाने के एवज में भूमि का बहुत बड़ा हिस्सा खोना पड़ा, जिससे उनके मन में तमिल समुदाय के प्रति वैर पनपने लगा।
1962 में बड़ी संख्या में भारतीय प्रवासी परिवारों के वापस लौटने के बावजूद म्यांमार में मौजूद भारतीयों के बीच सबसे बड़ी आबादी तमिलभाषी समूहों की है और वे अपनी संस्कृति और भाषा को संरक्षित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। म्यांमार की शिक्षा प्रणाली मातृभाषा में शिक्षा की अनुमति नहीं देती जो सबसे बड़ी चुनौती है क्योंकि छात्रों के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं होता। बाद के वषार्ें में इस समुदाय के ज्यादातर लोगों ने बर्मी भाषा अपना ली और समय के साथ घरों में भी उसी भाषा में बातचीत करने लगे। तमिल भाषा के अस्तित्व को बरकरार रखने की दिशा में आशा की एकमात्र किरण मंदिरों और अन्य सामाजिक केंद्रों में आयोजित तमिल कक्षाएं हैं। यांगून में कुछ तमिल प्रकाशक हैं जो केवल धार्मिक ग्रंथों को प्रकाशित करते हैं, कोई और सामग्री नहीं।
हाल में, तमिल कक्षाओं में भाग लेने वाले छात्रों की संख्या में लगातार वृद्धि हुई है। ऐसा देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था के आगमन के कारण संभव हो पाया है। साथ ही, म्यांमार के तमिलभाषी रिहाइशी इलाकों को तमिल फिल्में और टीवी कार्यक्रमों का आनंद उठाने का मौका मिलने लगा है। इससे म्यांमार में तमिल भाषा और संस्कृति के संरक्षण की संभावना पुनर्जीवित हो रही है। तमिलनाडु में संगीत और नृत्य बहुत लोकप्रिय और विकसित स्वरूप में मौजूद हैं। लेेकिन म्यांमार में रहने वाला तमिल समुदाय इन सभी पारंपरिक कलाओं से वंचित है क्योंकि वहां युवा पीढ़ी को सिखाने के लिए कोई शिक्षक नहीं है। लिहाजा जब भी कला से जुड़ा कोई शिक्षक वहां जाता है तो वह अल्प समय के लिए ही सही, यांगून जरूर पहुंचता है और हरियाली से भरपूर पूर्वी इलाकों में थोड़े वक्त के लिए संगीत और नृत्य की कक्षाओं का आयोजन करता है।
यहां तमिल सांस्कृतिक पुनरुत्थान की स्पष्ट झलक पिछले वर्ष मिली जब लोकप्रिय तमिल हिंदू त्योहार थईपूसम को जो विभिन्न देशों में मनाया जाता है, यांगून में भी मनाया गया। इस रंगारंग समारोह के सहभागी दूध से भरे भारी पात्र उठाकर चलते हैं और बीच-बीच में अपनी श्रद्धा की अभिव्यक्ति के तौर पर अपने शरीर छिदवाते हैं। यांगून के जुलूस में हजारों श्रद्धालुओं ने भाग लिया और अगिनत गैलन दूध का पात्र उठाकर पूरे शहर की परिक्रमा की।
भारत और तमिलनाडु के विभिन्न मंदिरों की तीर्थयात्रा के साथ-साथ चंद स्वामियों और आश्रमों का दर्शन करने से म्यांमार के तमिलों को अपनी मातृभूमि की संस्कृति से जुड़ने का मौका मिलता है जिससे उनके अंदर आत्मविश्वास मजबूत होता है। ये तमिलनाडु में अपने रिश्तेदारों के जरिए भी अपनी मूल परंपराओं और संस्कृति से जुड़े रहते हैं। हालांकि, भारत या तमिलनाडु के बीच उड़ानों की संख्या सीमित है, जिससे यात्रा महंगी है। समुदाय के कई लोगों के लिए तो यह जीवन भर की कमाई के बराबर है।
इस समुदाय के सामने सबसे गंभीर चुनौती यह है कि उनके पास म्यांमार की नागरिकता नहीं है। वे जमीन के स्वामी तो हैं पर नागरिकों के मौलिक अधिकारों से वंचित हैं। दूर-दूराज के गांवों में अब भी बड़ी संख्या में नागरिकताविहीन लोग मौजूद हैं। यह स्थिति बहुत भीषण है। इसके अभाव में बच्चों का स्कूल में दाखिला नहीं हो सकता, कोई बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध नहीं, ड्राइविंग लाइसेंस या कोई सरकारी दस्तावेज नहीं मिल सकता।
'90 के दशक के उत्तरार्द्ध में दक्षिण म्यांमार में बसे भारतीय, खासकर तमिल कारोबार के क्षेत्र में फिर से तरक्की करने लगे, क्योंकि देश की अर्थव्यवस्था में ढेरों संभावनाएं खुलने लगीं थी। हमेशा हाशिए पर जिंदगी बिताने के कारण भारतीय आबादी को महसूस होता रहा कि उन्हें कभी सरकारी नौकरी नहीं मिलेेगी, लिहाजा उन्होंने कारोबार का क्षेत्र चुन लिया। इसके अलावा, यह समुदाय उद्यमी और मेहनती है और व्यवसाय को चलाने के तौर-तरीके जल्दी सीखता है, इस प्रकार उनकी दिलचस्पी दशकों पहले के उसी व्यवसाय को अपनाने में ज्यादा रही जो वे करते आए थे। पिछले कुछ दशकों की अवधि के दौरान संघर्ष के दौर से गुजर रहा यह समुदाय अब व्यावहारिक दृष्टिकोण के साथ उज्ज्वल भविष्य की ओर देख रहा है और मुश्किलों से भरे अतीत के हालातों को भूल कर आगे बढ़ रहा है। हमें यांगून के दक्षिणी इलाके में स्थित सुंदर कोइल (मंदिर) में शिव के दर्शन का अवसर मिला जहां बड़ी संख्या में तमिलों की बस्तियां हैं। इस मंदिर का वार्षिक त्योहार देशभर के हजारों तमिलों और अन्य हिंदू आबादी को आकर्षित करता है। यह मंदिर तमिल समुदाय के सांस्कृतिक और आर्थिक मोर्चे पर फिर से उभरने का प्रतीक है और यह एहसास सुकून देने वाला है। (क्रमश:)
(लेखक अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद के महामंत्री हैं)ैं
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