अनारकली ऑफ आरा, समीक्षाओं ने मारा
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अनारकली ऑफ आरा, समीक्षाओं ने मारा

by
Apr 10, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 10 Apr 2017 13:29:03

अनारकली ऑफ आरा, अच्छी फिल्म है या सतही, इसका तो मुझे अंदाज नहीं है, क्योंकि मैंने यह फिल्म अभी देखी नहीं है। लेकिन इस फिल्म से मुझे फिल्म जगत और मीडिया में गुटबाजी की एक नई तस्वीर जरूर पता चली है। ऐसी गुटबाजी, जिसमें फिल्म पत्रकार किसी फिल्म को हिट या फ्लॉप कराने की सुपारी ही लेते हैं। अविनाश दास के लिए जिस तरह से दैनिक जागरण, नई दुनिया, दैनिक भास्कर और अमर उजाला के फिल्म पत्रकारों ने खुलकर बेहतरीन समीक्षाओं, रिलीज के पहले ही दिन अनुष्का शर्मा की 'फिल्लौरी' से भी ज्यादा और अपनी लागत का तीन गुना बॉक्स ऑफिस कलेक्शन की झूठी खबरें छापकर, फेसबुक पर 'मुझे देखनी है अनारकली ऑफ आरा' ग्रुप बनाकर, सोशल मीडिया पर अभियान छेड़कर और स्पेशल स्क्रीनिंग आदि में लोगों को अविनाश की तरफ से बुलाने की मुहिम चलाकर इस फिल्म एवं निर्माता को बॉलीवुड का चमकता सितारा बनाने की असफल कोशिश की, उससे इन पत्रकारों की कलई खुल गई है।

अनारकली के जरिये सभी को यह पता चल गया कि ये फिल्म पत्रकार किस तरह अपना ईमान बेचकर झूठी समीक्षाएं या बॉक्स ऑफिस कलेक्शन की रिपोर्ट तैयार करते हैं। अविनाश के मामले में भले ही ये लोग यह दावा करें कि वे 'भास्कर' जैसे अखबारों में बड़े पद पर रह चुके हैं, इसलिए उन्होंने मित्रता निभाने के लिए यह लॉबिइंग की तो भी हर कोई इसे आसानी से समझ सकता है कि आपका ईमान तो ऐसे ही बिक जाता होगा। कभी दोस्ती के नाम पर, कभी गिफ्ट-पैसे, पार्टी, शराब या अन्य किसी लालच में। अगर अविनाश आपके दोस्त हैं और आप उनकी फिल्म को हिट कराने के लिए इस कदर अभियान छेड़े हुए हैं और फर्जी खबर तक लिख रहे हैं तो आपकी किसी भी समीक्षा या रिपोर्ट पर यकीन करने का कोई प्रश्न नहीं उठता, क्योंकि आपके फेसबुक प्रोफाइल पर तो लगभग हर निर्माता-निर्देशक या बॉलीवुड हस्ती की तस्वीरों से आपकी दोस्ती की झलक मिल रही है। यानी आपने कभी कोई समीक्षा या खबर ईमानदारी से लिखी ही नहीं। मीडिया व सोशल मीडिया में झूठा-सच्चा अभियान छेड़कर आपने अविनाश से दोस्ती नहीं निभाई है, बल्कि उनका नुकसान ही किया है। काश! अविनाश को यह साधारण-सी सच्चाई पता होती कि जिस तरह राजनीति पर लिखने वाले पत्रकार किसी नेता को मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री नहीं बना सकते, उसी तरह उनके पुराने फिल्मी पत्रकार मित्र न तो उन्हें बॉलीवुड में बड़े निर्देशक के रूप में स्थापित कर सकते हैं और न ही बेहतरीन समीक्षाएं लिखकर या बॉक्स ऑफिस कलेक्शन की फर्जी रिपोर्ट से उनकी फिल्म के लिए दर्शकों को हॉल तक बुला सकते हैं।

फिल्में हिट कराना या नामचीन निर्देशक बनाना इतना ही आसान होता तो बड़े बजट, भारी पब्लिसिटी, मीडिया कवरेज, बेहतरीन समीक्षाओं के बावजूद फिल्में यूं फ्लॉप न हो जातीं। हर बड़ा अभिनेता या निर्देशक कभी न कभी सुपर फ्लॉप फिल्में दे चुका है। ये पत्रकार अगर किसी काम के होते तो फ्लॉप फिल्मों से बर्बाद हो चुके निर्माता-निर्देशक इन्हीं के चरण धो-धोकर पी रहे होते और नोटों में खेल भी रहे होते। शायद अविनाश यह सोच रहे होंगे कि उन्होंने कोई मास्टरपीस बनाई है, जिसकी जानकारी कम बजट के कारण लोगों तक पहुंच नहीं पाई, वरना हॉल में अनारकली के दीवाने कुर्सियां भी तोड़ देते।

मैं इलाहाबाद में पढ़ाई के दिनों में अपने दोस्त के साथ घूमने निकला था। टाइम पास न हो पाने के कारण हम मजबूरी में वहीं एक हॉल में पहुंचे। वहां रामगोपाल वर्मा की 'सत्या' का पहला शो शुरू होने वाला था। उर्मिला मातोंडकर तब बहुत जानामाना नाम नहीं था और फिल्म के बाकी के कलाकारों को तो कोई पहचानता तक नहीं था। हॉल में हम दोनों के अलावा 10-15 लोग थे। हम यह कहकर अंदर घुसे कि थोड़ी देर टांग फैलाकर सो लेंगे, फिर इंटरवल में हॉस्टल लौट चलेंगे। मगर हम दोनों ने फिल्म के पहले ही दृश्य के बाद आपस में एक बात तक नहीं की। बस टकटकी बांधे देखते रहे। इंटरवल में भी हम जल्दी से सीट पर आ गए कि कोई सीन छूट न जाए। फिल्म खत्म हुई तो कल्लू मामा, भीखू म्हात्रे भी हमारे साथ हमारे दिमाग में ही हॉस्टल लौटे। हमने वह फिल्म कई बार देखी और हर बार हमें हॉल हाउसफुल मिला। यानी दर्शक जान चुके थे, बिना किसी रैकेटियर पत्रकार के बताए ही कि फिल्म कैसी है। अगर रैकेटियर पत्रकार ही फिल्म चलाते या फ्लॉप करवाते हैं तो 'सत्या' के अनजान सितारों की तुलना में उसी राम गोपाल वर्मा को अमिताभ जैसे महानायक के साथ 'आग' मूवी को एक हफ्ते में ही समेट कर शमिंर्दा क्यों होना पड़ा था?

अविनाश जी, मेरी सलाह है कि यदि आप मीडिया छोड़ चुके हैं तो फर्जी खबरों के दम पर दिखने वाली फर्जी ताकत का भ्रम भी दिमाग से निकाल दीजिये। आपके जैसे कई ऐसे नवोदित निर्माता-निर्देशक हैं फिल्मी दुनिया में, जिन्होंने बड़ी कामयाबियां हासिल की हैं, बिना किसी रैकेट और अथाह धन के। पिछले साल में आई मराठी फिल्म 'सैराट' इसका अच्छा उदाहरण है, जो 'अनारकली ऑफ आरा' की ही तरह बनी तो महज 4 करोड़ में, लेकिन न सिर्फ सराही गई, बल्कि 100 करोड़ क्लब को पार भी कर गई। लाख गुटबाजी के बावजूद बॉक्स ऑफिस पर 'अनारकली ऑफ आरा' के हाल से लगता है कि वह लागत तो, क्या एक करोड़ की भी कमाई नहीं कर पाएगी। अविनाश और उनकी टीम बॉक्स ऑफिस आंकड़े बताने से हिचकिचा रही है।

यह मीडिया नहीं है अविनाश जी, जहां लोग क्षेत्र या जाति के नाम पर गुटबाजी करके संपादक या बड़े पत्रकार बन जाते हों। हां, बॉलीवुड में शहंशाह बनने के बाद जरूर बड़े लोग गुटबाजी करने लग जाते हैं। ध्यान रखिए कि बॉलीवुड में गुटबाजी का यह मीडिया जैसा सुख भोगने के लिए यहां पहले कामयाब होकर दुनिया को दिखाना बहुत जरूरी है और वह भी अपनी प्रतिभा के दम पर, दोस्ती या क्षेत्र के दम पर नहीं। 

(अश्विनी कुमार श्रीवास्तव की फेसबुक वॉल से)

 

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