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कल (19 मार्च) हाफिज जी कहने लगे, ''ताबिश भाई, इसका मतलब यह निकला कि बहुसंख्यक चाहते हैं कि आतंक का राज हो। परिणामांे (विधान सभा चुनाव) से तो यही लगता है।'' मैंने कहा, ''आप पहले यह बताइए कि आप या आपके नदवा (इस्लामिक संस्था) ने आतंकवाद के खात्मे के लिए अब तक क्या किया है? किस तरह का विरोध किया?'' कहने लगे, ''क्या बात करते हैं? आप उर्दू अखबार नहीं पढ़ते? वहां आलिमों ने कितनी मजम्मत की थी!'' मैंने कहा, ''इतनी बड़ी वैश्विक समस्या है, उसके लिए अखबार में लेख लिखने से काम बन जाएगा? वो आतंकवादी आपका अखबार पढ़ते हैं? जब मुहम्मद साहब का कार्टून बनाया गया, आप लाखों की तादाद में सड़कों पर उतरे? तोड़-फोड़ की? पाकिस्तान और बांग्लादेश में आगजनी हुई। ऐसी मजम्मत हुई कि देश कांप गया और अंत में आप ही के लोगों ने कार्टून बनाने वालांे को मार डाला। आतंकवाद के लिए तो आप यह सब कभी कर न सके? जैसे कार्टूनिस्ट को ढूंढ कर मारा गया, वैसे एक-दो आतंकी भी तो ढूंढ सकते थे। कब, कितने लाख की संख्या में आप जंतर-मंतर पहुंचे?''
कहने लगे, ''आप तो सारा इल्जाम हम पर रख रहे हैं। हम कहीं आतंकवाद फैलाते हैं?'' मैंने कहा, ''हाफिज जी, अब आप दुनिया को उल्लू नहीं बना सकते। भारत में बरसों से धमाके हो रहे थे। आज यहां ब्लास्ट, कल वहां ब्लास्ट… ये क्यों हो रहे थे? इनके पीछे क्या मानसिकता थी? यहां कौन मुसलमानों के पीछे पड़ा था? क्यों ये लोग बम फोड़कर मासूमों को मार रहे थे?
आप लोग इनके खिलाफ कब निकले? सारा भारत देखता रहा और एक वक्त तो लोगों ने समझ लिया था कि ये शायद उनकी नियति है। मगर अब वे समझ रहे हैं कि जब आतंकवादियों के ही धर्म के लोगों ने अपने आतंकियों को नहीं डराया-धमकाया तो अब जबकि हमारे कट्टर लोगों के डराने-धमकाने से बात बन रही है तो फिर सही है। पूरे विश्व ने मॉडरेट मुसलमानों का इंतजार किया, मगर मुसलमान दिन-रात सिर्फ इस्लाम ही बचाता रहा और दलीलें देता रहा। इनसानियत कभी नहीं बचाई और अब विश्व एकजुट है।''
हाफिज जी बोले, ''मगर ताबिश भाई, इस्लाम तो नफरत सिखाता नहीं है। फिर ये आतंकवादी इस्लाम के मानने वाले तो नहीं हो सकते। दुनिया इन्हें मुसलमान कहती है और इनके बहाने हमें गाली देती है।'' मैंने कहा, ''आपने कभी अपनी हदीसों को पढ़ा है हाफिज जी? आप दुनिया को अब और उल्लू नहीं बना सकते, क्योंकि सारा इस्लामिक साहित्य इंटरनेट पर उपलब्ध है। क्या क्या झुठलाएंगे? आप हदीसें बचाएंगे या इनसानियत…यह आप पर निर्भर है। आप नफरत सिखाते हैं। इस्लाम ने मूर्ति पूजा से मना किया, आप मूर्ति पूजने वालों से नफरत करने लगे। काफिर शब्द को आप गाली की तरह इस्तेमाल करते हैं। कुरान ने शराब पीने से मना किया, आप शराबी से नफरत करने लगे। सुअर खाने से नफरत किया तो आप सुअर खाने वालों से नफरत करने लगे।
कुरान चीख-चीख कर कह रहा है कि यहूदी, ईसाई आपके ही समकक्ष हैं, क्योंकि उनके पास भी अल्लाह की किताब है। मगर आपका दावा है कि उन्होंने किताब बदल दी और इस बिना पर आप उनसे नफरत करते हैं। शिया कुरान और पैगम्बर को मानते हैं, पर आपकी जिद है कि खलीफाओं और हमारी आतंकी हदीसों को मानो। नहीं मानेंगे तो आप उनके मरने पर खुश होंगे। यहूदी मरेगा तो खुश, शिया, काफिर मरा तो खुश। आप किसी के जीने पर भी खुश होते हैं?''
हाफिज जी चुप थे। ''आपने संगीत को हराम कर दिया। पैगम्बर के समय औरतें नाचती-गाती थीं। युद्ध में नाचती थीं, जीत का जश्न मनाती थीं। काबा के भीतर 683 ई. तक जीसस और मरियम की पेंटिंग थी, जिसे पैगम्बर ने न मिटाने को कहा था। यानी पैगम्बर के दुनिया से जाने के 51 साल बाद तक वह पेंटिंग काबा में थी। बाद में खलीफाओं ने सब मिटा दिया और पेंटिंग हराम कर दी। मुसलमान 13 साल तक यहूदियों के यरुशलम की तरफ मुंह करके नमाज पढ़ते रहे। उसके बाद पैगम्बर ने किबला (जिधर मंुह करके नमाज पढ़ी जाती है) को बदला और मक्का में काबा की तरफ मुंह नमाज करके पढ़ी जाने लगी। 624 ई. में उन्होंने इसे बदला और 630 ई. तक मुसलमान उसी काबे की तरफ मुंह करके नमाज पढ़ते रहे, जिसमें 365 मूर्तियां थीं। मूर्तियों से नफरत होती तो छह साल तक पैगम्बर और उनके साथी काबा के आगे झुकते रहते? अगर मदरसे बच्चों को बताने लगें कि पैगम्बर की 'उम्माह' का मतलब यहूदी, ईसाई और मुसलमान तीनों थे तो सदियों से चली आ रही यहूदियों, ईसाइयों के प्रति नफरत खत्म हो जाएगी।''
''मदरसे यह बताने लगें कि काबा में रसूल ने जीसस और मैरी की पेंटिंग रहने दी थी तो मूर्ति पूजकों के प्रति नफरत खत्म हो जाएगी। पैगम्बर का पूरा खानदान मूर्तिपूजक था। पैगम्बर भी उसी परंपरा को मानने वाले थे और उनके दादा, चाचा ने आखिरी समय तक इस्लाम नहीं माना। न जाने कितने लोगों ने नहीं माना और पैगम्बर ने उन्हें कभी दुत्कारा नहीं। मगर बच्चों को आप ये पढ़ाएंगेे? आप वही हदीसें बताएंगे जिसमें कहा जाएगा कि अली ने उन चार लोगों को जिंदा जला दिया, जिन्होंने इस्लाम छोड़ दिया था। आप बताएंगे कि कैसे पैगम्बर ने स्वयं बनू खुरैजा के यहूदियों के गले काटे थे और जब थक गए तो अली ने काटे। आप यही सब बताते हैं और कहते हैं कि नफरत नहीं सिखाते हैं। मुसलमान आपकी बात सुनते हैं, हमारी नहीं। ये इस्लाम बहुत सीख चुके, अब इन्हें इनसानियत का पाठ सिखाइए। नहीं तो हर मुल्क, हर मजहब आपके मदरसों पर ताले जड़ देगा और यह होना है। सौ प्रतिशत होना है।'' हाफिज जी बोले, ''ताबिश भाई, मैं स्वीकार करता हूं कि गलती हम में है और बहुत बड़ी गलती है।''
(ताबिश सिद्दिकी की फेसबुक वॉल से)
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