संघ को किसी भी रूप में चातुर्वर्ण्य व्यवस्था स्वीकार नहीं: देवरस

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दिंनाक: 27 Mar 2017 14:38:42


1973 में वरिष्ठ पत्रकार दिनकर विनायक गोखले ने डॉ. हेडगेवार भवन, नागपुर में बालासाहब देवरस का साक्षात्कार लिया था। उस दौरान बालासाहब के निजी सचिव डॉ. आबाजी थत्ते और महाराष्टÑ टाइम्स, नागपुर के प्रतिनिधि केशवराव पोतदार उपस्थित थे। यह साक्षात्कार अगस्त 1973 के किर्लोस्कर मासिक में प्रकाशित हुआ था। यहां बालासाहब के उसी साक्षात्कार के अनूदित स्वरूप को प्रस्तुत किया जा रहा है।

 सरसंघचालक बनने के बाद अपने पहले भाषण में आपने कहा—यह पद मुझे मिलेगा, इसकी मुझे कल्पना नहीं थी। संघ में वरिष्ठता, तपस्या और स्वयंसेवकों में लोकप्रियता को देखते हुए इस पद पर आपकी नियुक्ति स्वाभाविक थी, ऐसा ज्यादातर स्वयंसेवकों को लगता है। फिर आपको इस पर आश्चर्य क्यों हुआ?
सोचा नहीं था या आश्चर्य हुआ, वह केवल स्वास्थ्य के कारण। ऐसा मुझे कभी नहीं लगा कि मुझ में मेरे सहयोगियों की तुलना में  गुणवत्ता में कोई कमी है, लेकिन मेरा स्वास्थ्य पहले जितना अच्छा नहीं है। मैं ब्लड प्रेशर का मरीज हूं। गुरुजी यह जानते थे। इसलिए मुझे नहीं लगता था कि सरसंघचालक की जिम्मेदारी मुझे दी जाएगी।

सरसंघचालक बनने के बाद के आपके दो भाषणों में संस्कृत और अंग्रेजी के कई सुभाषित हैं। आपने संस्कृत का अध्ययन कब किया?
कॉलेज में मैं संस्कृत का छात्र था। मुझे वह विषय पसंद था। मैंने संस्कृत के काव्य और नाटक बहुत पढ़े हैं। मॉरिस कॉलेज में संस्कृत में अंत्याक्षरियां होती थीं, मैं उनमें भाग लेता था। मैंने अंग्रेजी साहित्य काफी पढ़ा है।

कैसा साहित्य? कहानी, उपन्यास या इतिहास और चरित्र…?
वाल्टर स्कॉट के उपन्यास पढ़े हैं मगर इतिहास और चरित्रों में ज्यादा दिलचस्पी रही है।

यह तो कॉलेज की बात हुई, ़पिछले कुछ वर्षों में  क्या पढ़ा?
अभी पहले जितना पुस्तकें पढ़ना नहीं हो पाता। मगर प्रथम और द्वितीय महायुद्ध पर मैंने कई किताबें पढ़ी हैं।
आप बालपन से ही स्वयंसेवक हैं इसलिए पूछना चाहता हूं कि मुसोलिनी के फासिस्ट आंदोलन का 1925 से पहले भारत में बहुत बोलबाला था। डॉ. हेडगेवार फासिस्ट आंदोलन से प्रभावित हुए और उसकी परिणति संघ स्थापना में हुई। यह सही है क्या? डॉक्टरजी के बौद्धिक वर्ग या निजी बातचीत में इस आंदोलन का जिक्र कितना आता था?
संघ की स्थापना 1925 में हुई। मैं संघ में 1926 में आया। मुझे डॉक्टरजी का भरपूर साथ मिला। उनके साथ बातचीत में गलती से भी मुसोलिनी और फासिस्ट आंदोलन का शब्द सुना नहीं। संघ की सोच पूरी तरह से अपनी मिट्टी से जुड़ी हुई है। नौजवानों में फासिज्म और कम्युनिज्म को लेकर उत्सुकता नहीं थी, ऐसा नहीं है। लेकिन उनके बारे में मैंने सबसे पहले सुना बुलढाणा के कानड़े शास्त्री से। उन्होंने इस विषय पर नागपुर में व्याख्यान दिया था। उसमें बहुत भीड़ थी। हम भी उन भाषणों में जाते थे। लेकिन डॉक्टरजी के मन पर फासिज्म का कोई प्रभाव था, ऐसा मुझे नहीं लगता।

 आपने छोटी उम्र में ही अपने को संघकार्य को समर्पित कर दिया था। तब आपके मन में क्या विचार थे? यानी तब संघ बहुत छोटा था, तो डॉक्टरजी के शब्दों से प्रभावित होकर संघकार्य को अपना जीवन-कार्य बना लिया? या देश के कल्याण का यही एकमात्र रास्ता है, यह विश्वास होने पर संघ कार्य करना स्वीकार किया?
दोनों ही बातें थीं। डॉक्टरजी का वात्सल्य, यह एक भाग तो था ही। डॉक्टरजी ने हमें इतना प्रेम किया, हमारे विकास की इतनी चिंता की कि हमें उनका हर वाक्य वेदवाक्य जैसा लगता था। लेकिन इसके साथ ही क्रांतिकरी संगठनों का महत्व भी हमारे दिलों में गहरे तक पैठा हुआ था। भगतसिंह की गिरफ्तारी का दिन आज भी हमें याद है। संघ के हम नौजवान लोगों में क्रांतिकारी विचार उफन रहे होते थे। भगतसिंह और राजगुरु की तरह हमें भी कुछ ज्वलंत काम करना चाहिए, ऐसा हमें लगता था। इस बारे में हममें चर्चा होने लगी। कहीं से यह बात डॉक्टरजी को पता चली। उन्होंने खुद क्रांतिकारी आंदोलन में हिस्सा लिया था। उसके बाद लंबे समय तक विचार करने के बाद संघ की स्थापना की थी। 8-10 दिन तक वे रोजाना रात को हमें घर बुलाते थे, वहां 2-3 घंटे क्रांतिकारी आंदोलन पर यानी उनसे क्या साध्य हुआ, उनकी क्या सीमाएं हैं और उसके साथ ही सारे समाज को संगठित करने की क्या जरूरत है, ये बातें हमें समझाकर बताते थे। हमारी शंकाओं का बार-बार समाधान कर उत्तर देकर हमें संतुष्ट करते थे। मैं तो यह कहूंगा कि उन बैठकों में हमें डॉक्टरजी की महानता का पता चल पाया। इसके बाद मैंने और मेरे बहुत से सहयोगियों ने संघकार्य के लिए अपने को समर्पित करने का निश्चय किया। इससे यह स्पष्ट है कि तब हमें यह बात समझ में आई कि हिन्दू संगठन ही देश के कल्याण का एकमात्र मंत्र है।

 भारत का विभाजन हमारे आधुनिक इतिहास पर एक कलंक है। यह सही है कि विभाजन के समय संघ ने सीमा प्रांत, पंजाब, सिंध के शरणार्थियों की बहुमूल्य मदद की। लेकिन युवाओं की इतनी शक्ति साथ के होने के बावजूद संघ ने विभाजन को रोकने का प्रयत्न नहीं किया, इस पर आश्चर्य होता है। विभाजन को कैसे रोका जा सकता है, क्या इसका विचार संघ के वरिष्ठ अधिकारियों में हुआ था? मुझे अब तक इस रहस्य का पता नहीं चल पाया, इसलिए पूछ रहा हूं।
इस बारे में  मुझे स्पष्ट रूप से स्वीकार करना होगा कि विभाजन का देश के भविष्य पर कितना अनिष्टकारी परिणाम होगा, इस बारे में आप जैसा कहते हैं, उस तरह का विचार संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं में नहीं हुआ था। सच बताएं तो हमारे लिए यह अचानक,अनपेक्षित रूप से आई आपदा थी। हमें आश्चर्यजनक रूप से धक्का लगा था। आप कह सकते हैं, हम उस समय ऐसा व्यापक विचार करने में कम पड़े। मुझे याद आता है कि मार्च 1947 में विभाजन से पहले मैं सीमा प्रांत और पंजाब का दौरा कर रहा था। तब मुस्लिम लीग ने ‘डायरेक्ट एक्शन’ या दंगे शुरू किए थे। हिन्दू परिवारों को डर लगने लगा था। तब उन्हें संभालना, मदद करना हमारा प्रमुख काम बन गया और वह काम हमने प्राणों की बाजी लगाकर किया।

 कांग्रेस ने विभाजन मंजूर किया। अगर संघ ने विभाजन का प्रतिरोध करने के लिए आंदोलन खड़ा किया होता तो हिन्दुओं में फूट पड़ जाती। इसे टालने के लिए संघ ने कोई प्रतिरोध नहीं किया, ऐसा कुछ लोग बताते हैं। यह कितना सही है?
यह सही नहीं है। हमारे पास प्रतिरोध की कोई योजना ही नहीं थी, यही सही है।

  बालासाहब, इस सवाल का इतना स्पष्ट उत्तर मैंने पहले नहीं सुना था। संघ के कार्यकर्ता दावा करते हैं कि संघ का कार्य परिस्थिति निरपेक्ष होता है। मगर हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि 1947 तक संघ का काम मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग तेज होने के बाद हवा की तरह फैला। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में संघ की शाखाएं तेजी से घटी हैं। आप किस तरह इसकी मीमांसा करेंगे?
संघ का कार्य परिस्थिति निरपेक्ष है, इसका अर्थ  है कि हिन्दू संगठन की आवश्यकता परिस्थिति निरपेक्ष है। 1947 में हिन्दू संगठन आवश्यक था और आज नहीं है, ऐसा थोड़े ही है। लेकिन किसी भी कार्य को परिस्थिति और वातावरण का फायदा मिलता ही है। 1947 से पहले वातावरण संघ के विस्तार के लिए पोषक था। यह स्पष्ट है। इससे पहले मैंने पंजाब के दौरे के बारे में कहा था—इस दौरे में एक सिख नेता मेरे साथ थे, जो बाद में उपरक्षामंत्री बने। वे दो दिन मेरे साथ घूमे थे। वे अपनी गाड़ी से ही मुझे घुमा रहे थे। उस समय उन्हें मेरा दौरा महत्वपूर्ण लग रहा था। दिल्ली में संघ की एक बैठक हुई। उसमें एक कैबिनेट सेक्रेटरी उपस्थित थे। तब लोगों में यह धारणा थी कि पुलिस और सेना लोगों की मदद करेगी, मगर मदद के लिए कोई दौड़कर आएगा तो संघ ही। 1946-47 की तुलना में अब संघ का काम कम हुआ है, यह सही है। लेकिन उस समय के काम से आज की तुलना करना ही गलत है, क्योंकि वह परिस्थिति ही असामान्य थी। किसी भी काम में उतार-चढ़ाव तो आते ही हैं। संघ का काम कम हुआ है मगर उतना नहीं जितना आप कह रहे हैं।

एक बात सही है कि आज के युवाओं को संघ का हिन्दू संगठन का मंत्र आकर्षक लगता है मगर उसकी कार्यपद्धति यानी शाखा के प्रति आकर्षण नहीं बचा है। ऐसी स्थिति में युवाओं को आकर्षित करने के लिए कार्यक्रम में कोई सुधार, कुछ परिवर्तन आवश्यक हैं। आपको ऐसा लगता है?
यह तो मुझे स्वीकार करना ही चाहिए कि युवा पीढ़ी को पहले की तरह संघ के कार्यक्रम आकर्षक नहीं लगते। और ज्यादा संख्या में युवा संघ में आएं, इसके लिए कार्यक्रम में बदल करने पर विचार चल रहा है। आज ही नहीं, जब गुरुजी जीवित थे, तब भी विचार हुआ था। लेकिन यह बदलाव जितना आसान लगता है, उतना है नहीं। कोई व्यक्ति जितनी जल्दी निर्णय कर सकता है, संगठन में उतने जल्दी निर्णय नहीं हो सकते। मगर इससे भी आगे की महत्वपूर्ण बात यह है कि बदलाव करने पर युवा आकर्षित होंगे, इसका कुछ मात्रा में विश्वास होना चाहिए। संघ में दंड, लेजिम, संचलन, कबड्डी, खोखो आदि कार्यक्रम चलते हैं। आज तक इन कार्यक्रमों ने हमें सफलता दी लेकिन हमारी उनके प्रति कोई भावनात्मक प्रतिबद्धता नहीं है। विदेशी खेलों से हमें कोई एलर्जी है, ऐसा नहीं है। सैनिक पद्धति का संचलन, गणवेश, बैंड तो संघ में शुरुआत से है। जहां संघ प्रार्थना बदलने का  धैर्य दिखा सकता है वहां कार्यक्रम बदलने में क्या मुश्किल हो सकती है। शुरुआत में संघ की प्रार्थना का पूर्वार्ध मराठी और उतरार्ध हिन्दी में  होता था। आखिर में बजरंग बली, बलभीम की जय, राष्ट्रगुरु रामदास स्वामी की जय आदि जय-जयकार के नारे लगते थे। डॉ. हेडगेवार के जीवनकाल में ही प्रार्थना को पूरी तरह संस्कृत में बनाया गया। अभी वही प्रार्थना जारी है। प्रार्थना के अंत में ‘भारतमाता की जय’ का जयकारा लगाया जाता है। लेकिन आज युवाओं में व्यायाम और     खेल का आकर्षण है क्या, यह समझ में नहीं आता। कॉलेज के मैदानों में क्रिकेट, हाकी और फुटबॉल खेलने  कितने युवा आते हैं? दौड़,ऊंची छलांग और गोलाफेंक में कितने युवा हिस्सा लेते हैं? व्यायामशालाओं में कहां भीड़ होती है? पर केवल भीड़ जमा करना हमारा उद्देश्य नहीं है। हम ज्यादा संख्या तो चाहते ही हैं, मगर युवाओं को संस्कारित  करना हमारा मुख्य उद्देश्य है। यह हम नहीं भूल सकते।

 किसी जगह ‘पायलट प्रोजेक्ट’ के तौर पर अपने बदलाव लागू करके देखने में क्या हर्ज है?
आपने योग्य शब्द का प्रयोग किया। वह हमारे मन में है। कुछ शाखाओं को छूट देने का विचार है। अभी निर्णय नहीं हुआ है। लेकिन अब बहुत देर नहीं होगी।

 संघ से प्रतिबंध हटने के बाद संघ का काम ज्यादा कल्पनाशील और समाजोन्मुख हो, यह संघ के युवाओं को लगने लगा था। उनकी इस बेचैनी पर संघ के वरिष्ठ अधिकारियों ने ध्यान नहीं दिया। इसलिए इस मुद्दे पर सार्वजनिक तौर पर विचार मंथन हुआ। इसमें संघ की थोड़ी-बहुत आलोचना होने के कारण संघ के अनेक वरिष्ठ अधिकारियों को सार्वजनिक विचार मंथन पसंद नहीं आया। संघ में हजारों युवा होने के कारण ऐसा खुला विचार मंथन अपरिहार्य है, शायद स्वागतयोग्य है। आपको ऐसा नहीं लगता?
अपरिहार्य सही है, लेकिन आलोचना के बारे में स्वागतयोग्य नहीं कहा जा सकता। आलोचना कौन करता है, किस उद्देश्य  से करता है, यह तो देखना पड़ेगा। पर संघ के कुछ शक्तिस्थान भी हंै। संघ के लोग सार्वजनिक तौर पर बहसबाजी न करते हुए एकजुट होकर काम करते हैं। यह भी एक शक्तिस्थान है। आम जनता में संघ के प्रति आदर की एक वजह यह भी है। विचार मंथन में कुछ मर्यादाओं का पालन किया जाना चाहिए। जिससे कटुता निर्माण हो, काम में बाधा पैदा हो, ऐसे तरीकों से बचना चाहिए। इसका मतलब यह नहीं है कि हमें आत्मपरीक्षण नहीं करना चाहिए। और ऐसा न समझें कि संघ में आत्मपरीक्षण नहीं होता। गुरुजी के साथ बैठक में हर मुद्दे पर बेबाक चर्चा होती थी।

मर्यादा रहें, यह बात समझ में आती है। लेकिन सामान्य स्वयंसेवक को कोई बात खटकती है या उसे कोई नई बात सूझती है, और वह उसे वरिष्ठों को  बताना चाहे तो क्या संघ में ऐसा वातावरण निर्माण नहीं होना चाहिए?
जरूर होना चाहिए। हमें संघ के स्वयंसेवक में यह विश्वास बढ़ाना है कि वह संघ के अधिकारी से कोई भी बात खुलकर कह सकता है। मैं स्वयं इस दिशा में कोशिश करता हूं। मैं बौद्धिक वर्ग न लेकर स्वयंसेवकों से चर्चा करता हूं। मेरा कार्यक्रम ऐसा होता है कि वे सवाल पूछें और मैं उनका उत्तर दूं। इसके बाद भी
किसी स्वयंसेवक का समाधान न हो तो वह बाद में मेरे से चर्चा कर सकता है।

 आपने हाल ही में एक साक्षात्कार में कहा कि संघ का काम लोगों में राष्ट्रीयता की भावना का निर्माण कर हरेक को उसके पसंदीदा क्षेत्र में काम करने देना है। लेकिन जिन स्वयंसेवकों ने रचनात्मक काम शुरू किये हैं, उन्हें संघ के स्थानीय अधिकारियों की तरफ से प्रतिसाद नहीं मिलता। ऐसा क्यों होता है?
जो अच्छे रचनात्मक काम हैं, उन्हें अवश्य प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। मैं खुद ऐसे कामों में मदद करता हूं। बापू लाखड़ीकर ने लाखड़ी गांव में स्कूल, कॉलेज आदि संस्थाएं खड़ी की हैं। मुझसे जितना होता है, उतनी उनकी मदद करता रहता हूं। बाकी लोगों को को भी ऐसा करने के लिए कहता हूं। कुछ लोगों ने बिहार और मध्यप्रदेश में स्कूल और अस्पताल शुरू किए हैं। उन्हें हम मदद करते हैं। लेकिन  हमारा कहना होता है कि वे संघ की मदद पर निर्भर न रहें, बाहरी संसाधन जुटाएं। आखिर संघ के संगठन को मजबूत बनाने और इन कामों के लिए लोगों का मिलना महत्वपूर्ण है। एक बात सही है कि लोगों की जितनी अपेक्षा थी, प्रसिद्धि परांगमुखता उतने रचनात्मक काम खड़े नहीं हो पाए हैं। संघ की प्रेरणा के कारण जो काम अच्छे चल रहे हैं, उनके भी ज्यादा ढोल नहीं पीटे जाते।

 अब एक नाजुक विषय की तरफ बढ़ता हूं। 3-4 साल पहले गोलवलकर गुरुजी ने चातुर्वर्ण्य के बारे में साक्षात्कार दिया थ। उस पर महाराष्टÑ में बहुत विवाद हुआ। क्या सचमुच चातुर्वर्ण्य पर संघ का अलग नजरिया है?
गुरुजी ने चातुर्वर्ण्य पर उद्बोदन दिया, लेकिन हरेक की विषय-प्रस्तुति की अलग पद्धति होती है। गुरुजी का हमारे प्राचीन साहित्य और धर्म का गहरा अध्ययन था। इसलिए वे प्राचीन काल के उदाहरण देते थे। मैं जर्मनी, इस्रायल और इंडोनेशिया के उदाहरण दूंगा। गुरुजी इस तरह से अपनी बातें कहते थे ताकि पुरानी परंपरा की शुभ और कल्याणकारी बातें टिकी रहें। लेकिन आज की व्यवस्था को वे समाज व्यवस्था न कहकर अव्यवस्था कहते थे।

लेकिन चातुर्वर्ण्य के बारे में संघ का नजरिया क्या है?
बिल्कुल स्पष्ट लिखिये कि संघ को किसी भी रूप में चातुर्वर्ण्य व्यवस्था मंजूर नहीं है।

 चातुर्वर्ण्य व्यवस्था ने सबसे बड़ी समस्या निर्माण की है अस्पृश्यता और सामाजिक विषमता की। क्या समाज के शरीर में लगी यह बीमारी विशेष आंदोलन के बगैर खत्म नहीं होगी? क्या ऐसा आंदेलन करने की योजना संघ के पास है?
 इस बात को सभी ने स्वीकार किया है कि संघ में अस्पृश्यता और जाति-पाति नाम की चीज नहीं है। हमारे बढ़िये नाम के एक कार्यकर्ता हैं। बढ़िये बेलदार समाज से हैं, यह बात हमें काफी साल बाद संयोग से पता चली। हमने कभी उनकी जाति की पूछताछ नहीं की। हमारे घर में बचपन में सनातनी वातावरण था, लेकिन संघ में आने के बाद मैंने माताजी से कह रखा था कि मेरे साथ जो कोई खाना खाने आएगा, उसकी थाली मेरे साथ में ही परोसें और खाना खाने के बाद वे थाली उठाएंगे नहीं। कई अस्पृश्य कहे जाने वाले लोगों ने मेरे घर खाना खाया है। इसकी वजह यह है कि संघ के कार्यक्रमों में अस्पृश्यों से जो व्यवहार होता है, वह अकृत्रिम, निरपेक्ष होता है। स्पृश्य और अस्पृश्य का भेद नहीं रह जाता। लेकिन यह ध्यान में रखिए, यह 2-4,000 साल पुरानी समस्या है। केवल आक्रोश प्रगट करने और कोई स्टंट करने से यह हल नहीं होगी। आज तक कई आंदोलन हुए होंगे मगर अस्पृश्यता तो कायम है ना। हम लगातार हरिजनों के पीछे पड़ते हैं तो उन्हें संदेह होता है। वह स्वाभाविक भी है। इसलिए संघ की पद्धति ज्यादा परिणामकारक है, ऐसा मुझे लगता है। फिर भी मैं मानता हूं कि परिवर्तन की गति तेज होनी चाहिए। लेकिन बहुत जल्दबाजी करने से भी काम नहीं होगा। मेरी मान्यता है कि अस्पृश्य बस्तियों में संघ की शाखाएं बढ़ें तो स्वाभाविक रूप से अस्पृश्यता का निवारण होगा।

 नागपुर में एक बड़ी नवबौद्ध बस्ती है। उस दृष्टि से आपकी क्या कोशिश होगी?
इस बार के संघ शिक्षा वर्ग में 7-8 नवबौद्ध स्वयंसेवक आए थे। हम बौद्ध बस्तियों में कोशिश करके शाखाएं शुरू करने वाले हैं। शाखाओं के कारण सालभर संपर्क रहता है। इसी तकनीक को सभी जगह ज्यादा प्रभावी बनाने की हमारी योजना है।

 अपने नवीनतम भाषण में (गुरुजी स्मृतिदिन) आपने कहा कि संघ पुनरुत्थानवादी (रिवाइवलिस्ट) नहीं है, न ही परिवर्तन विरोधी है। इससे सामाजिक परिवर्तन के बारे में मुझे एक बात याद आती है, हिन्दू कोड बिल की। इस बिल का संघ के अनेक कार्यकर्ताओं ने विरोध किया?
कुछ ने किया होगा, लेकिन बहुुतों ने समर्थन भी किया। उदाहरणार्थ विदर्भ के हमारे पूर्व संघचालक बापूसाहब सोहोनी।

 संघ परिवर्तन विरोधी नहीं होगा, लेकिन उसकी भूमिका ‘पैसिव’ है। ऐसा लगता नहीं कि संघ सुधारवादी है। संघ के अधिकारियों या लोगों द्वारा निकाले गए समाचार पत्र अंतर्जातीय विवाह, दहेज के बारे में कोई प्रचार करते नहीं दिखते?
संघ के बारे में एक बात ध्यान रखनी चाहिए कि कथनी और करनी में सामंजस्य हो, ऐसी हमारी सीख है। अंतर्जातीय विवाह का ढोल पीटने वालों में से कितने अपनी बेटी का विवाह अन्य जाति में करने को तैयार होते हैं? हमारे देवरस परिवार में अंतर्जातीय विवाह हुए तो घर के लोगों का विरोध था। लेकिन मैं और भाऊ (भाऊराव देवरस) इस विवाह के साथ खड़े हुए। गुरुजी को जब निमंत्रण मिलता तो वे अंतर्जातीय विवाह में विशेष रूप से उपस्थित रहते थे। फिर भी मैं स्वीकार करता हूं कि अंतरजातीय विवाह के समर्थकों की संख्या बढ़नी चाहिए।

अब फिर पुनरुत्थानवाद की बात करें। आपके विचार सराहनीय हैं, क्योंकि सभी हिन्दुत्ववादी आंदोलनों को पुनरुत्थानवादी माना जाता है। स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने अपने विचार बहुत स्पष्ट रूप से रखे। वेद, श्रुति, स्मृति और पुराणों को हम आदरणीय ग्रंथ तो मानते हैं, मगर उनके निर्देशों का पालन नहीं करेंगे। हमें जो हिन्दू समाज चाहिए वह विज्ञानवादी, उपयुक्ततावादी होगा, ऐसा उनका प्रतिपादन था। संघ की इस बारे में क्या राय है?

प्राचीन हिन्दू समाज विज्ञानवादी ही रहा होगा वरना वे भारत के बाहर जाकर अपना साम्राज्य नहीं बनाते। व्यापार और संस्कृति को वहां नहीं ले गए होते। मेरी राय है कि हम हिन्दू मूलत: विज्ञानवादी हैं। सारी गड़बड़ हुई मुस्लिम आक्रमण के बाद जिसे ‘अंधकारमय युग’कहा जाता है, आज के विज्ञान युग में जो भी कल्याणकारी है, जो भी आवश्यक है, हमें उसे स्वीकार करना चाहिए। लेकिन पश्चिम का अंधानुकरण घातक साबित होगा। इष्ट और अनिष्ट की
कसौटी पर कसकर जो भी इष्ट है उसे स्वीकार करना चाहिए, ऐसा मैं मानता हूं।

 गुरुजी के प्रथम स्मृतिदिन के कार्यक्रम की शुरूआत आपने महात्मा फुले की प्रतिमा को पुष्पहार पहनाकर की। वह हवा का सुखद झोंका आने जैसा लगा, क्योंकि संघ में सुधारकों के प्रति इतनी आस्था नहीं दिखती। संघ में गाए जाने वाले गीत संघर्षशील देशभक्ति पर हैं। उनमें चंद्रगुप्त से लेकर लक्ष्मीबाई तक के का जिक्र है। मगर कभी महात्मा फुले, आगरकर, आंबेडकर और सावरकर का नाम नहीं आता?
संघ के गीत उज्ज्वल देशभक्ति परक हैं। हममें और उनमें फर्क यह है कि वे  देशभक्ति को यू हीं मानते हैं। इसके विपरीत हम आग्रहपूर्वक देशभक्ति सिखाते हैं। हम मानते हैं कि हर हिन्दू को देशभक्ति का सबक देना जरूरी है। हम सामाजिक कमजोरियों का विचार करते हैं। मगर इन कमजोरियों पर बल नहीं देते। चरित्र, राष्ट्रीय जिम्मेदारी, सामूहिक जीवन की आदत आदि मूल्यों को प्राथमिकता देते हैं। यही बात संघ के गीतों में भी प्रतिबिंबित हुई है।

संघ मानता है कि इस देश का अल्पसंख्यक समाज विशेषकर मुस्लिम समाज देश की मुख्यधारा में शामिल हो, इसके प्रति उसकी भी कोई जिम्मेदारी है क्या? संघ इस दिशा में कौन से कदम उठाने का विचार करता है?
हम मानते हैं कि अल्पसंख्यक समुदाय देश की मुख्यधारा में शामिल हो, इसकी जिम्मेदारी हमारी है। हमारी मान्यता है इसके लिए हिन्दू समाज का संगठन ही रामबाण उपाय है। समाज तर्कशास्त्र के हिसाब से नहीं चलता। इस कारण हिन्दुओं द्वारा किए गए तुष्टीकरण, सुविधाएं देने और खुशामद करने का फल कड़वा ही रहा। आजादी मिलने के बाद मुसलमानों ने अपनी ‘गोल टोपी’ और हरा झंडा फेंक दिया था।

आज देश में ऐसी स्थिति है कि निकट भविष्य में तो कांग्रेस ही भविष्य का निर्माण करने वाली है। और कांग्रेस का स्वास्थ्य कुछ अच्छा नहीं है। सरदार पटेल को उसकी ही चिंता सताती थी इसलिए उन्होंने सुझाव दिया था कि संघ के स्वयंसेवक कांग्रेस में आएं। देश का शासन कार्यक्षम हो, इसके लिए क्या स्वयंसेवकों को कांग्रेस में प्रवेश करना चाहिए। क्या आप ऐसा सुझाएंगे?
बिल्कुल नहीं सुझाऊंगा। संघ के स्वंसेवकों के कांग्रेस में जाने से उसका शुद्धिकरण होगा, इसकी क्या गारंटी है? कांग्रेस का शुद्धिकरण कांग्रेस के लोगों को ही करना चाहिए। किसी भी संगठन को बाहर के लोगों को लाकर शुद्ध नहीं किया जा सकता। लेकिन कुछ स्वयंसेवक कांग्रेस में जाएंगे तो हमें कोई ऐतराज नहीं होगा।

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