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पांरंपरिक पोशाकों में हजारों की संख्या में जुटीं महिलाएं, बच्चे और जवानों की शोभायात्रा निकल रही है। महिलाओं ने हर तरह के आभूषण पहन रखे हैं। खासतौर से नथ तो विशिष्ट है, जिसे विशुद्ध मराठी महिलाएं पहनती हैं। हालांकि उनके हाथों में दीया और सिंदूर वाली थाली नहीं है, जैसा कि पारंपरिक परिधान पहने महिलाएं तस्वीरों में दिखती हैं। सैकड़ों मोटरसाइकिल सवारों का जुलूस निकल रहा है, जिस पर हाथों में ध्वज लिए लड़कियां बैठी हैं और पताका फहरा रही है। मोटरसाइकिल सवारों का हुजूम पारंपरिक भारतीय पोशाक और गेरुआ टोपी पहने सैकड़ों पुरुष-महिलाओं के पीछे चल रहा है। समूचा वातावरण जय श्रीराम के जयघोष और संतों के भजन से गुंजायमान है। गुड़ी पड़वा पर हर साल महाराष्ट्र के सभी बड़े शहरों में सार्वजनिक स्थलों पर यह दृश्य आम है।
जब शोभायात्राएं नहीं निकलती थीं, तब युवाओं के लिए नए साल का एक ही मतलब था— 31 दिसंबर की पूरी रात पार्टी करना, शराब पीना और एक-दूसरे को शुभकामनाएं देना। नए कैलेंडर वर्ष को लेकर युवा पीढ़ी के पास कोई दूसरा विचार ही नहीं था। लेकिन गुड़ी पड़वा पर शोभायात्रा शुरू होने के बाद समाज में बहुत कुछ बदल गया है। अब उनके पास अपना नया साल है, जो प्राचीन परंपरा से जुड़ा है। इससे भी अधिक यह पर्व वीरता से जुड़ा हुआ है जिस पर गर्व तो होना ही चाहिए। इसी दिन शकों ने हूणों और शालिवाहन ने अपने दुश्मनों को हराया था। यही कारण है कि शालिवाहन शक अथवा नया कैलेंडर इसी दिन से शुरू होता है। इस दिन को रावण पर श्रीराम की जीत और उनके अयोध्या लौटने की खुशी में हर घर पर ब्रह्मध्वज का प्रतीक माने जाने वाले गुड़ी को फहराया जाता है। इन परंपरागत तौर-तरीकों में अब जुलूस या शोभायात्रा भी शामिल हो गई है। गुड़ी पड़वा के अवसर पर शोभायात्रा निकालने की परंपरा शुरू होने के बाद नववर्ष का उत्सव नई परिभाषा लेकर आया है। अब यह हिंदुओं के लिए विविध रंगों वाला सांस्कृतिक प्रतीक बन गया है। इस शोभायात्रा को नववर्ष स्वागत यात्रा भी कहा जाता है, जो अब मराठी संस्कृति का नव-प्रतीक है।
इस शोभायात्रा में हर जाति-वर्ग की महिलाएं, पुरुष, बच्चे और युवा शामिल होते हैं और आध्यात्मिक एवं सामाजिक महत्व का संदेश फैलाते हैं, जिनमें हिन्दू एकता और संस्कृति का संरक्षण प्रमुख है। वहीं, पुणे जैसे शहर जो परंपरागत रूप से सांस्कृतिक विरासत पर अभिमान करते हैं, ऐसे जुलूसों के आयोजन में सबसे आगे हैं। डोंबिवली ने भी इस दिशा में कदम बढ़ाया है। दरअसल, गुड़ी पड़वा पर इस तरह की शोभायात्रा डोंबिवली में पहली बार 1999 में निकाली गई थी। लेकिन हिंदुओं को एकजुट करने की इसकी क्षमता को देखते हुए दीवाली, गणेशोत्सव और नवरात्रि जैसे अन्य महत्वपूर्ण त्योहारों पर भी ऐसे आयोजन किए जाने लगे। इस तरह डोंबिवली से शुरू हुई यह परंपरा पड़ोसी जिले ठाणे और उसके बाद राज्य के दूसरे शहरों में भी फैल गई। लोगों ने इस सामाजिक अवसर को समुदाय को एकजुट करने वाले अवसर में तब्दील कर दिया है। ब्रिटिशराज में लोकमान्य तिलक द्वारा गणेशोत्सव के आयोजन के पीछे यह भी एक मुख्य उद्देश्य था। हालांकि गणेशोत्सव का मकसद आम लोगों को दमनकारी शासकों के खिलाफ खड़ा करना था। शोभायात्रा का आयोजन इसी उद्देश्य का एक हिस्सा था ताकि हिंदुओं को उनके गौरवशाली अतीत के प्रति जागरूक किया जा सके जिस पर वे गर्व कर सकें। इस मौके पर बच्चे छत्रपति शिवाजी, झांसी की रानी और स्वतंत्रता सेनानियों के किरदार में भी दिखते हैं। यहां तक कि कोई-कोई तो भगवान शिव की वेशभूषा में बाइक पर भी जाते दिख जाता है। इसमें सामाजिक संस्थाएं और राजनीतिक दल भी शामिल होते हैं और जल संरक्षण, पर्यावरण के प्रति जागरूकता और सामाजिक एकता बनाए रखने जैसे संदेश देते हैं।
अबासाहेब पटवारी ने गुड़ी पड़वा पर गणेश मंदिर संस्था के अपने साथियों के साथ इस जुलूस परंपरा की शुरुआत की थी। उन्होंने विभिन्न सामाजिक संगठनों और स्कूलों को भी इस आयोजन से जोड़ने के लिए संपर्क किया। हालांकि पहले साल आयोजकों ने बमुश्किल 7-8,000 लोगों के जुटने की उम्मीद की थी, लेकिन करीब 50,000 लोगों की भीड़ जुट गई। लोगों को एकजुट करने वाले आयोजन का विचार यहीं से मिला। पटवारी कहते हैं कि 1999 में जब शोभायात्रा शुरू हुई तब इसमें शामिल होने वालों में मध्य आयु के लोगों की संख्या ज्यादा थी। लेकिन अब नवयुवक बढ़-चढ़कर इस आयोजन में हिस्सा ले रहे हैं। देवीदास देशपांडे
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