|
माह दिसम्बर, 1947। नागपुर के पास पारडी नामक स्थान पर नागपुर तथा विदर्भ के लगभग दस हजार स्वयंसेवकों का शिविर चल रहा था। इस शिविर की सम्पूर्ण व्यवस्था श्री बालासाहब के हाथों में थी। स्वयंसेवकों के लिए बौद्धिक वर्ग की योजना थी। नियोजित समय पर बौद्धिक वर्ग के लिए बालासाहब निकले, तब आटे से सने हुए हाथ धोकर पोंछते हुए ही। श्री गुरुजी ने उनका परिचय कराते हुए कहा, ''जिनके कारण मुझे सरसंघचालक नाम से पहचाना जाता है, ऐसे ये बालासाहब देवरस''। पू. श्री बालासाहब के 21 वर्षों के सरसंघचालकत्व के प्रदीर्घ कालखण्ड में, जिन्होंने डॉक्टरजी को देखा नहीं था ऐसे हजारों स्वयंसेवकों को तथा हितैषियों को श्री गुरुजी के उपरोक्त उद्गार का प्रत्यक्ष अनुभव हुआ था।
…1935-36 तक लगभग सब सायं शाखाएं ही हुआ करती थीं। रविवार को प्रात: एकत्रीकरण-समता होती थी। सायंकाल को शाखा नहीं होती थी। रोज की आदत के कारण तरुण स्वयंसेवक डॉक्टरजी के साथ एकत्रित बैठते थे। एक रविवार को इस अनौपचारिक बैठक के बाद, डॉक्टरजी ने लिए हुए पत्र घर जाते समय डाक पेटी में डालने के लिए बालासाहब को दिए। इतवारी में घर लौटते समय बालासाहब विचारों में मग्न थे। रास्ते में डाकपेटी दिखी। उसमें पत्र डालना आरम्भ करते समय उन्हें उस पेटी का फीका लाल रंग देखकर ध्वज का आभास हुआ। शरीर और मन के अभ्यास के कारण उन्होंने प्रणाम किया और पत्र डाले। …बालासाहब में नेतृत्व का गुण जन्मजात था। स्वयंसेवक उनका अनुसरण करते थे, यह बात उस पथक के एक कार्यकर्ता ने ही कही थी। साधारण मनुष्य अनुकरण से ही अपने जीवन का मार्ग तैयार करता है। भाषण, चर्चा, ग्रंथाध्ययन, उपदेश आदि से भी सामने दिखने वाले आदर्श जीवन के अनुसार वह अपने जीवन को दिशा देता है। बालासाहब ने ऐसा ही जीवनादर्श खड़ा किया। स्वयंसेवक की निर्मिति में प्रमुख का सब स्वयंसेवकों से निरपेक्ष आत्मीयता से ओतप्रोत व्यक्तिगत संपर्क महत्व का होता है। स्वयंसेवकों को अपने शाखाप्रमुख या गणशिक्षक के विषय में आप्तजनों से अधिक आत्मीयता होती है। ऐसी आत्मीयता के कारण, प्रमुख का अनुसरण करने में उसको संकोच नहीं लगता।
…संघ की कार्यपद्धति नित्य विकसनशील है। प्रारम्भ में खेल, दण्ड आदि शस्त्रों के कार्यक्रम और समता पर विशेष ध्यान रहता था। उसका बहुत आकर्षण भी था। सेना सदृश गणवेश होता था। प्राणिकिनी प्रमुखों को खाकी गणवेश और पदवेश के साथ यज्ञोपवीत जैसा पट्टा रहता था। कारण, सामने आदर्श तत्कालीन का था। उनमें वरिष्ठ अधिकारी सिर खुला ही रखते थे। यूटीसी में श्री विट्ठलराव पत्की, श्री कृष्णराव मोहरीर जैसे ज्येष्ठ स्वयंसेवक थे। इसीलिए संघ की समता का स्वरूप भी वैसा ही था। अनेक यूटीसी अधिकारियों ने स्वयंसेवकों की सैनिकी कवायद यूटीसी के स्तर की है, ऐसी प्रशंसा की थी। श्री बालासाहब को अधिकारियों का गणवेश बहुत अच्छा दिखता था। उनके गौरवपूर्ण होने के कारण वे यूरोपीय अधिकारी जैसे लगते थे। किंतु सिर खुला रखना पूजनीय डॉक्टरजी को पसंद नहीं था। अत: विशेष अधकारियों में खाकी रुमाल (फेटा) का उपयोग करने का निर्णय हुआ। पूजनीय डॉक्टरजी का वैसे गणवेश में एक छायाचित्र अनेकों ने देखा होगा। इन सारे परिवर्तनों में बालासाहब का बड़ा सहभाग था। ऐसे ही अनेक परिवर्तन किए गए।
…बालासाहब की मनुष्यों को परखने की कला और क्षमता अवर्णनीय है। पू. डॉक्टर साहब का यह गुण उनमें पूर्णत: संक्रमित हुआ है। केवल संघकार्य में ही नहीं, अपितु समाचार पत्र, शैक्षणिक संस्था, बैंक, सेवा प्रकल्प, राजकीय पक्ष, सामाजिक संस्था आदि अनेक क्षेत्रों में कार्यकर्ताओं का चयन करते हुए उन्हें उन क्षेत्रों में कार्यरत किया। कुछ सक्षम व्यक्ति अन्य कार्यक्षेत्रों में फंसे थे, उनको उन क्षेत्रों में अलग नियोजित क्षेत्रों में सम्मिलित करने की दृष्टि से प्रोत्साहित किया। संघकार्य में सफलता तथा क्षमता के साथ कार्य करने वाला अधिकारी या प्रचारक अन्य क्षेत्रों के लिए उपयुक्त लगा, तो उसे शाखा कार्यों से मुक्त कर नियोजित क्षेत्र का दायित्व सौंपा गया। श्री बापूराव भिशिकर, श्री बाबूराव वैद्य आदि शैक्षणिक क्षेत्र में योग्यतापूर्वक काम करतेे थे। उन्हें ऊपर के अत्युच्च पद प्राप्त हो सकते थे। किन्तु बालासाहब के निर्देश के अनुसार उनकी समाचार पत्रों के क्षेत्र में नियुक्ति हुई। श्री भास्करराव कलंबी, श्रीराम गोपालन, श्री अशोक सिंहल आदि कार्यक्षम तथा यशस्वी कार्यकर्ताओं को कार्यमुक्त कर अन्य क्षेत्रों का कार्यभार सौंपा गया। उन क्षेत्रों का आज का विस्तार और प्रभाव देखने पर उनकी योग्यता का परिचय मिलता है।
…पू. डॉक्टरजी के समय का एक किस्सा बताया जाता है। गुरुदक्षिणा के विषय में एक बैठक थी। ऐसी बैठक में कई लोग अपना दक्षिणा समर्पण का संकल्प प्रकट करते हैं। उस बैठक के प्रारम्भ में एक प्रमुख कार्यकर्ता ने अपना कम आंकड़ा बताया। परिणामत: उसके बाद सभी स्वयसेवकों ने काम ही आंकड़े बताए। बैठक समाप्त होने पर पू. डॉक्टरजी ने उसको कहा, ''तुम्हें अधिक बड़ा आंकड़ा बताने में क्या परेशानी थी?'' प्रत्यक्ष में जैसा जमता वैसा करने में कौन रोकने वाला था? तुम्हारी कृति के कारण अपेक्षित वायुमंडल निर्माण नहीं हो पाया। यह ठीक नहीं हुआ।'' श्री बालासाहब इस विषय में बहुत सतर्क रहते थे। …1947 की बात होगी। संघ शिक्षा वर्ग के कार्यक्रम और स्वरूप, इस विषय की चर्चा, विचार-विनिमय की बैठक श्री गुरुजी के निवास स्थान पर रात 9 बजे प्रारम्भ हुई। इस बैठक में श्री बालासाहब, श्री एकनाथजी रानडे, श्री अप्पाजी जोशी, श्री कृष्णराव मोहरीर आदि प्रमुख कार्यकर्ता थे। उस समय मैं विभाग प्रमुख था। किन्तु कई बार मैं रात को श्री गुरुजी के अनौपचारिक वार्तालाप में उपस्थित रहता था। उस दिन मैं और हमारे भाग कार्यवाह श्री पांडुरंगपंत सावरकर श्री गुरुजी के घर गए थे। बैठक शुरू हुई। हम लोग अनेक बार रात्रि बैठकों में उपस्थित रहते थे इसलिए हमें किसी ने उठ जाने को नहीं कहा। चर्चा का विषय था, 'संघशिक्षा वगोंर् में कार्यक्रमों का स्वरूप एक जैसे हो या प्रांत की सुविधानुसार हो।' कइयों ने सभी प्रांतों में स्वरूप एक जैसा हो, ऐसा मत प्रदर्शित किया। इस मत के कारण भी बताए। किन्तु श्री एकनाथजी का 'प्रांतों की सुविधानुसार कार्यक्रमों की रचना हो, शूल-खड्ग आदि की शिक्षा व्यवस्था हो,' वैकल्पिक ऐसा भिन्न मत था। चर्चा काफी देर तक चली। श्री गुरुजी का विचार भी सभी प्रांतों में समान कार्यक्रम रखने का था। अनेक कार्यकर्ताओं ने वैसे ही विचार रखे। बालासाहब कुछ बोले नहीं। उनके जैसे ज्येष्ठ कार्यकर्ता के मत को दुर्लक्षित कर निर्णय के बिना ही बैठक लेना श्री गुरुजी को भी अटपटा लगा। उनके बोलने में तीव्रता आई। वायुमण्डल गरम होने लगा। सभी अस्वस्थ हुए। निर्णय के बिना ही बैठक समाप्त होगी क्या, ऐसा लगने लगा। शिक्षा वर्ग के दिन पास आने के कारण निर्णय लेना आवश्यक था। पूर्ण परिस्थिति का विचार कर श्री बालासाहब आगे बढ़े। उन्होंने कहा, ''हम लोग, यहां उपस्थिति सभी लोगों का मत जानकर बहुमत का निर्णय स्वीकार करेंगे। प्रथम मैं अपना मत बताता हूं। सब वर्गों में कार्यक्रमों का स्वरूप एक हो, यह मेरा मत है।'' उसके बाद उस बैठक में उपस्थित सभी से उनके मत पूछे गए। सभी ने क्रमश: बालासाहब का अनुसरण किया। श्री सावरकर जी के बाद मेरी बारी आई। मैं बोल नहीं सका। श्री बालासाहब ने मुझे जोर से पूछा। मेरा मत सावरकर जी जैसा ही है, इतना ही मैं बोल पाया। निर्णय निश्चित होने पर वायुमण्डल शांत हुआ तथा हास्य विनोद शुरू हुआ। संघ जैसे स्वयं अनुशासन पर अधिष्ठित संघटना के सर्वोच्च पद पर बैठे व्यक्ति पर संगठन के सभी घटकों की निरपवाद तथा अविचल श्रद्धा, निष्ठा रहना, यह संगठन शास्त्र का प्रमुख नियम है। उस नियम के अनुसार श्री बालासाहब की भूमिका सभी को अनुकरणीय लगी। बैठक में अनेक लोगों को पूजनीय डॉक्टरजी की याद आई।
राजनीति का सम्यक ज्ञान
राजनीति के संदर्भ में अनेक पहलुओं का उनका विवरण, विश्लेषण और मूल्यांकन वस्तुनिष्ठ, गहरा और दूरगामी विचार का होता था। उनको उस क्षेत्र में विविध प्रवृत्ति-प्रकृति के नेता और कार्यकर्ताओं के व्यक्तित्व का सही आकलन था। इसीलिए चुनाव के उम्मीदवार या पक्षकार्य करने वाले सक्षम कार्यकर्ताओं के चयन के विषय में उनसे सदैव विचार-विमर्श होता था। अत: सभी चुनावों के समय जनसंघ का सहकार्य पाने के लिए अन्य समय मुंह न दिखाने वाले समय देते थे। दिल्ली के राजकरण में घुटे हुए अनेक बड़े-बड़े नेता बालासाहब के परिचय के थे और आज भी हैं। विशेषत: आपातकाल के बाद के 'दिल्ली कार्यालय में श्री बालासाहब का वास्तव्य' में श्री बालासाहब से मिलने आए नेताओं के नाम प्रकाशित किए जाएं तो कई लोगों की आश्चर्य लगेगा। मंत्रिमंडल के मंत्रियों को खुल्लमखुला संघ कार्यालय में आना अड़चन का काम लगता था, इसलिए कुछ लोगों से बालासाहब उनके बंगलों पर जाकर मिले। पूर्व प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई की संघ के विषय में विरोधी भावना सर्वज्ञात है। किन्तु संघ की ताकत के कारण इंदिरा गांधी को चुनाव में मुंह की खानी पड़ी, आपातकालीन स्थिति हटायी गयी और जनता पक्ष शासनाष्ठि हुआ, यह जानने पर उनका दृष्टिकोण बदल गया। उनसे भी बालासाहब मिले थे। प्रधानमंत्री रहते हुए वे जब नागपुर आए थे तब बालासाहब नागपुर में होने का समाचार मिलने पर रात को ही राजभवन से डॉ. हेडगेवार भवन में दूरध्वनि कर बालासाहब से बात की तथा कुशल समाचार पूछा। जगजीवनराम जी के घर पर तो बालासाहब भोजन पर भी गए थे।
आपातकालीन स्थिति का विशेष
सरसंघचालकत्व स्वीकारने के पश्चात श्री बालासाहब ने संघकार्य की सर्वांगीण वृद्धि, प्रसार तथा सार्वत्रित प्रभाव निर्माण करने पर ध्यान केन्द्रित किया। दैनंदिन शाखा पद्धति अधिक निर्दोष तथा सक्षम बनाए रखने पर कार्यकर्ताओं का ध्यान कंेद्रित किया। द्रुतगति से प्रगति करने के लिए योजनाएं बनने लगीं। वे क्रमश: कार्यान्वित होने लगीं और आपातकालीन स्थिति घोषित हुई। संघ और जनसंघ छोड़कर अन्य सभी पक्ष और संघटनाएं गलितगात्र हुईं। निराशा के अंधकार से बाहर निकलकर और भीतग्रस्त वायुमण्डल पर विजय पाकर, समाज को आपातकाल के विरुद्ध खड़ा कर, प्रखर संघर्ष कर, श्रीमती इंदिरा गांधी की अजेय समझी जाने वाली शक्ति को निष्प्रभ बनाने में संघ का श्रेय था, यह इतिहास सर्वज्ञात है।
सही आकलन
1977 के प्रवास में बुद्धिजीवी, विचारवंत, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में कार्यरत समाज के प्रबुद्ध वर्ग की बैठकों में, संघ को सत्तात्मक राजकरण में रुचि नहीं है, यह विचार श्री बालासाहब प्रतिपादित करते थे। उस समय बहुसंख्य जागृत नागरिक और विचारवंत, संघ को राजकीय क्षेत्र में पदार्पण कर वह क्षेत्र भी परिष्कृत करना चाहिए, ऐसे विचार आग्रहपूर्वक रखते थे।
21 फरवरी, 1983 को श्री बालासाहब हवाई जहाज से बम्बई जा रहे थे। उसी जहाज से रामकृष्ण मिशन, दिल्ली के निवासी स्वामी रंगनाथानंद बम्बई जाने के लिए हवाई अड्डे पर आए थे। स्वामी रंगनाथानंद तत्वज्ञान के अभ्यासक, प्रवाचक और प्रभावी वक्ता थे। किन्तु हिन्दू शब्द से उनको बहुत चिढ़ थी। उनके साथ नागपुर के रामकृ ष्ण आश्रम के आदरणीय स्वामी व्योमरूपानंद भी थे। उन्होंने स्वामी रंगनाथानंदजी का का बालासाहब से परिचय कराया। रंगनाथानंद जी ने कहा, ''बालासाहब, आप हिन्दुओं की बहुसंख्या की अपरिहार्यता का जो विचार रखते हैं उससे मैं पूर्णत: सहमत हूं। आप अपना कार्य ऐसा ही चलने दीजिए।'' उनकी बातों से, उसी समय जनता पक्ष के एक सचिव तथा सांसद श्री शहाबुद्दीन के इलेस्ट्रेटेड वीकली में प्रकाशित लेख के कारण वे प्रक्षुब्ध थे, यह स्पष्ट हुआ। योगायोग व महाराष्ट्र के प्रतिभासंपन्न विद्वान तथा राष्ट्रवादी पुरोगामी विचारक स्व. तर्कतीर्थ लक्ष्मणशास्त्री जोशी बम्बई जाने के लिए हवाई अड्डे पर आए थे। वे श्री बालासाहब को जानते नहीं थे, किन्तु उनके पास बैठे स्वामी रंगनाथानंदजी को देखकर उन्होेंने पूछताछ की। वे बालासाहब देवरस हैं, ऐसा जानने पर वे पास आए। स्वामीजी की बातचीत समाप्त होने पर वे सामने आए, और 'मैं लक्ष्मणशास्त्री जोशी' ऐसा अपना परिचय दिया। उस पर 'मैं आपको पहचानता हूं' ऐसा बालासाहब ने कहा। उसके बाद तर्कतीर्थ ने कहा, ''आपके भाषण के (हिन्दू बहुसंख्या की अपरिहार्यता) सभी मुद्दों से मैं सहमत हूं। आप कहते हैं वह शत-प्रतिशत सत्य है। आप इन्हीं विचारों का सातत्य से प्रचार करते रहें, यही आपसे आग्रह है।'' श्री स्वामी जी या तर्कतीर्थ को संघ से पे्रम था, ऐसा बात नहीं। किन्तु श्री बालासाहब द्वारा किये हुए देश की गंभीर समस्याओं से ग्रस्त परिस्थिति के सही आकलन और पूर्वाग्रहविरहित विश्लेषण और मूल्यांकन से प्रभावित होकर वे अपने अंत:करण के स्वाभाविक विचारों को शब्दों में प्रकट करने से स्वयं को रोक नहीं सके।
1977 के पूर्व के चुनावों में मुसलमानों ने अपने गड्ढा मत कांग्रेस को देकर उनको विजयी बनाया था। किन्तु 1977 में विशेष कारणों से इन मतों का बड़ा हिस्सा जनता पक्ष को मिला। ये सारे मत हमेशा अपने को मिलते रहें, इस दृष्टि से जनता पक्ष के मुखियों में मुस्लिम तोषण की स्पर्धा शुरू हुई। मुसलमान तो संघ पर नाराज ही थे। किन्तु संघ का मजबूत आधार छोड़ना नेताओं को संभव नहीं था। अत: इससे मुक्ति पाने के लिए संघ अब बदल गया है, ऐसा वे मुसलमानों को समझाने लगे। संघ बदल गया है, इस बात पर विश्वास हो इसलिए संघ को, संघ में अहिन्दुओं को प्रवेश देना चाहिए, हिन्दुत्व की संकल्पना छोड़ दें, ध्वज बदल दें, संघ के अधिकारी चुनाव प्रक्रिया द्वारा नियुक्त हों आदि अनाहृत सूचनाएं दी जाने लगीं। संघ से सहानुभूति रखने वाले कुछ प्रमुख नेताओं ने भी ऐसी सूचनाएं भेजी थीं। समाचार पत्रों में भी उसी प्रकार के लेख प्रकाशित हुए थे। इस परिस्थिति का खुला प्रतिवाद न करते हुए अपना कार्य पूर्ववत् चालू रखने का निर्णय श्री बालासाहब ने लिया। स्वयंसेवकों को भी वह निर्णय विचित्र-सा लगा। किन्तु सब स्वयंसेवकों को प्रगट प्रतिवाद नहीं करना, ऐसा बालासाहब ने उनको समझाया था।
समरसता का विचार
प्रारम्भ से ही श्री बालासाहब दैनंदिन शाखा के स्वरूप के विषय में उनकी कल्पना सामने रखते थे। शाखा यानी नियमित प्रतिदिन चलने वाली, जिसमें तरुण और बालों की भरपूर संख्या होगी और जिसमें संस्कार देने वाले विविध कार्यक्रम नियमित होते रहेंगे, इस आग्रह के साथ विविध सामाजिक समस्याओं के प्रति स्वयंसेवक नित्य जागृत रहकर उन समस्याओं का हल निकालने में सक्रिय रहें, ऐसा ही उनका आग्रह रहता था। …गत 10-15 वर्षों से दलित समस्या ने गंभीर रूप लिया है। अन्य पक्ष इस प्रश्न का चुनाव की दृष्टि से विचार करते हैं। 'मतपेटी' का विचार प्रमुखता से होता है। अत: समाज के विविध गुटों में तथा वर्गों में परस्पर सहकार्य और सामंजस्य लुप्त होता जा रहा है और पृथकवादी प्रवृत्ति बढ़ रही है। जातियों के आधार पर बने गुटों में संघर्ष होते हैं। विशेषत: उत्तर भारत में इसकी तीव्रता का अनुभव मिलता है। इस समस्या पर विजय प्राप्त कर सामाजिक समरसता की योजनाओं को प्रधानता देने के विषय में स्वयंसेवकों से आग्रह किया जाता है। महाराष्ट्र में 'सामाजिक समरसता मंच' की स्थापना होने से इन प्रयत्नों को दिशा प्राप्त हो रही है। इस मंच को श्री बालासाहब का मार्गदर्शन सदैव प्राप्त होता है। महाराष्ट्र में इस समरसता मंच को प्रतिष्ठा प्राप्त है। अन्य प्रांतों में उसका प्रारंभ हुआ है और कार्य प्रगति पर है।
…दि. 7 मई, 1974 को बालासाहब के पूना की वसंत व्याख्यामाला में हुए भाषण में उन्होंने वर्णव्यवस्था और अस्पृश्यता, इन प्रश्नों के संबंध में अपने विचार अत्यंत स्पष्ट और तीव्र भाषा में प्रकट किए थे। उन्होंने कहा था, ''छुआछूत पूर्णत: गलत है। वह पूर्णत: नष्ट होनी चाहिए।'' उस वर्ष तृतीय वर्ष के संघ शिक्षा वर्ग के एक चर्चा सत्र में इस भाषण के विषय में विस्तृत चर्चा हुई। इस चर्चा का हेतु यही था कि तृतीय वर्ष शिक्षित स्वयंसेवकों के माध्यम से बालासाहब के विचार अधिकाधिक स्वयंसेवकों और सामाजिक गुटों तक पहुंचें।
अ.भा. प्रतिनिधि सभा की एक बैठक में आरक्षण के विषय में एक प्रस्ताव रखा गया था। उस समय का श्री बालासाहब का मार्गदर्शन महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा, ''दलित नेताओं की भाषा आक्षेपार्ह है, यही सही है किन्तु हम लोग यदि दलित समाज के सदस्य होते, अनेक शतकों तक सामाजिक अत्याचार, विषमता, अन्याय, असहनीय वेदना, दु:ख, अपमान आदि हमको सहना पड़ता तो हम किस भाषा में बोलते, इस पर विचार कर प्रस्ताव का निर्णय करो।'' ऐसा स्पष्ट शब्दों में उन्होंने कहा। और प्रस्ताव सर्वमत से पारित हुआ। उनके नेतृत्व का यह एक अलग दर्शन है। सामाजिक समरसता लाने के लिए केवल चर्चा या प्रस्ताव पारित करना पर्याप्त नहीं है। इस अनुभव के कारण संघ ने दलित बस्तियों में सम्पर्क करना, साधु संतों को वहां ले जाना, सेवा प्रकल्प आदि कार्य प्रारम्भ किए थे। सम्पर्क और सेवा के माध्यम से ही समरसता निर्माण होगी, ऐसी श्री बालासाहब की मान्यता है।
…श्री गुरुजी बालासाहब को पू. डॉक्टरजी की प्रतिमा मानते थे। अत: वे बालासाहब का वैसा ही सम्मान करते थे। श्री गुरुजी कई बार श्री भैयाजी दाणी, बाबासाहब आप्टे जैसे ज्येष्ठ कार्यकर्ताओं से भी विनोद करते थे; किन्तु बालासाहब को उन्होंने उस क्षेत्र में कभी नहीं खींचा। पुराने जमाने में ज्येष्ठ व्यक्तियों के समक्ष छोड़े लोग विशिष्ट मर्यादाओं का पालन करते थे। श्री गुरुजी भी वैसा ही बर्ताव करते थे। वे बालासाहब के स्वास्थ्य की सदैव चिंता करते थे। 1959 में बालासाहब विषमज्वर से बीमार थे। उनको कार्यालय लाया गया। श्रीगुरुजी का उनकी शुश्रुषा पर ध्यान रहता था। प्रवास में जाते समय प्रत्येक सप्ताह में बालासाहब के स्वास्थ्य की जानकारी देते रहने की सूचना उन्होंने दी थी।
देवदुर्लभ व्यक्तित्व
सरसंघचालक की भूमिका में बालासाहब ने रेशिमबाग मैदान पर हुए पहले सार्वजनिक भाषण में कहा था, ''पू. डॉक्टरजी और श्री गुरुजी जैसी मेरी गुणवत्ता न होते हुए भी संघ के पास देवदुर्लभ कार्यकर्ताओं का समूह होने के कारण मैं अपने कार्य में सफल बनूंगा।'' इस 24 वर्षों के कालखण्ड में दोनों ज्येष्ठ महापुरुष सरसंघचालकों के श्री बालासाहब में संक्रमित होने की सुखद अनुभूति सभी को हुई। ल्ल
टिप्पणियाँ