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पूर्वोत्तर भारत के सभी राज्यों में 250 जनजातियां दुर्गम पहाड़ों और घनघोर जंगलों में रहती हैं। कुछ जनजातियां घाटी में भी रहती हैं। सबकी अपनी-अपनी भाषा, भूषा, लोक नृत्य तथा पूजा-पद्धति है। पूरा पूर्वोत्तर क्षेत्र सिलीगुड़ी गलियारे (इसे चिकेन नेक भी कहते हैं) से शेष भारत से जुड़ा है। यह गलियारा मात्र 30 किमी चौड़ा है। इसके दक्षिण में बंगलादेश तथा ऊपर भूटान है। राष्ट्र विरोधी तत्व इसी सकरे मार्ग को काटकर पूर्वोत्तर क्षेत्र को भारत से अलग कर देने का षड्यंत्र करते हैं। इन तत्वों में चर्च, कट्टरवादी इस्लामी संगठन, वामपंथी और अपने को सेकुलर कहने वाले लोग शामिल हैं। ये तत्व कन्वर्ट हो चुके जनजाति बंधुओं को अपना मोहरा बनाते हैं। सभी जनजातियों में सतही तौर पर विभिन्नता दिखाई देती है। एक प्रांत में कई जनजातियां रहती हैं, किंतु उनका अपना-अपना क्षेत्र होता है। दो जनजातियों के बीच सीमांकन नहीं दिखाई देता, फिर भी उनके क्षेत्र अलग-अलग होते हैं। सदियों से वे आपसी सौहार्द के साथ रहती आई हैं।
अरुणाचल प्रदेश के चांगलांग जिले में तांग्सा, तुत्सा, नोक्ते, वांछू तथा हाजोंग जनजातियां रहती हैं। ये रांग्फ्रा भगवान की पूजा करते हैं। इनके मंदिर को रांग्फम कहा जाता है। इन्होंने अपनी पूजा-पद्धति विकसित की है तथा अपने भजन विकसित किए हैं। इनके बीच रांग्फ्रा धर्म प्रसार समिति कार्य करती है। इस कारण ये लोग संगठित होकर चर्च के षड्यंत्र के विरुद्ध संघर्ष कर रहे हैं। ये अपनी सांस्कृतिक विरासत को बचाने में सफल हैं, किंतु चर्च का खींचतान लगा रहता है।
अरुणाचल प्रदेश के पूर्व सियंाग, ऊपरी सियांग, पश्चिमी सियांग तथ दिबांग घाटी में आदी जनजाति के लोग रहते हैं। इनके मत को डोनी-पोलो के नाम से जाना जाता है। डोनी यानी सूर्य और पोलो यानी चंद्र। ये अपने मंदिर को गांगिन कहते हैं। यहीं रहने वाले गालो समाज के लोग अपने मंदिर को गाम्गी कहते हैं। इसी क्षेत्र में रहने वाले निसि समाज के लोग नेदर नाम्लो में पूजा करते हैं। इस प्रदेश के लोहित तथा अंजौ जिले में मिसमी समाज के लोग रहते हैं और आमिक मताई या रिंग्या मालू मत का पालन करते हैं और अपने पूजा स्थल को तांचू कुम्न्या कहते हैं। निचला सुबनसिरी जिले के आपातानी समाज के लोग डोनी-पोलो यानी सूर्य-चंद्र की आराधना करते हैं। उनकी आराधना स्थल को मेदर नेलो कहा जाता है। तिब्बत की सीमा से लगे अरुणाचल के तावांग जिले में मोन्पा, शेरदुकपेन, चांगलांग के तिखक, नामसाई जिले के खामती तथा चांगलांग जिले के ही सिंग्फो समाज के लोग बौद्ध मत के अनुयाई हैं। इनकी तावांग बुद्ध मंदिर में आस्था है।
इनके अलावा अरुणाचल के सभी जनजातियों के अपने-अपने मत और पूजा स्थल हैं। इनकी भाषा और बोलियां भी हैं। इन सभी संगठनों को एकसूत्र में पिरोते हुए अरुणाचल प्रदेश का धर्म एवं संस्कृति संगठन कार्य कर रहा है। अरुणाचल विकास परिषद, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद, राष्ट्र सेविका समिति, अ़ भा़ विद्यार्थी परिषद तथा अन्य हिंदुत्वनिष्ठ संगठन अरुणाचल प्रदेश में राष्ट्रभक्ति की लहर पैदा कर रहे हैं। अरुणाचल प्रदेश में जब तक हिंदुओं को ईसाई नहीं बनाया गया था तब तक वहां पूर्ण शांति थी, किंतु चर्च बनने के साथ ही वहां भी आतंकवाद आ गया है। चांगलांग और तिरप जिलों में नेशनल सोशलिस्ट कौंसिल ऑफ नागालैण्ड एनएससीएन (आईएम), एनएससीएन (के) और कुछ स्थानीय ईसाई आतंकवाद फैला रहे हैं। ईटानगर और मियाओ में दो बिशप हाउस कन्वर्जन हेतु स्कूल और सेवा प्रकल्पों का जाल बिछा चुके हैं। यदि इसे अभी नहीं रोका गया तो अरुणाचल भी नागालैण्ड के समान आतंकवाद से ग्रस्त राज्य बन जाएगा। चर्च अपने इसी कार्यक्रम पर चल रहा है।
आतंकवाद और भारत विरोधी आंदोलन के मामले में नागालैण्ड सबसे ज्यादा बदनाम रहा है। इसके लिए मुख्य रूप से चर्च और कुछ हद तक उनकी हुई उपेक्षा जिम्मेदार है।
नागालैण्ड, मणिपुर, अरुणाचल तथा म्यांमार के सीमावर्ती इलाकों में नागाओं की कुल 32 उपजातियां कन्वर्जन से पूर्व स्वयं को हिंदू कहती थीं। आज भी सनातन धर्म के अनुयायी नागा स्वयं को हिंदू ही कहते हैं। किन्तु नागा नेशनल कौंसिल, एनएससीएन और नागालैण्ड बैप्टिस्ट कौंसिल ऑफ चर्चेज ने बंदूक की नोंक पर इसको बंद करवाया। उनकी शिखा कटवाने का अभियान चलाया। इस दौरान अनेक शीर्ष हिंदू नागा प्रमुखों का सफाया करवा दिया। 1956 में चाखेसांग समुदाय के 48 युवकों की हत्या गोली मार कर दी गई थी। वे सभी हिंदू नागा थे, भारतभक्त थे। उनका सनातन हिंदू धर्म और उनकी भारतभक्ति ही उनकी मृत्यु का कारण बनी। 1944 में द्वितीय विश्व युद्ध के समय नेताजी सुभाष चंद्र बोस कोहिमा से 25 किमी पूर्व चेेसेजू नामक नागा गांव में गुप्त रूप से रहते थे। यहां की दो पहाडि़यों का नामकरण नेताजी हिल्स के रूप में किया गया है। इनके ऊपर अब एक पुस्तक लिखी गई है और एक वृत्तचित्र बनाई गई है। इसके लिए कुछ प्रमुख नागाओं को चर्च और आतंकवादी संगठनों का कोपभाजन होना पड़ता है।
कोहिमा से 25 किमी पश्चिम अंगामी नागाओं का खोनोमा नामक एक गांव है। कुख्यात फीजो इसी गांव का रहने वाला था। 1849-1879 के दौरान इस गांव के रण-बांकुरे हिंदू नागाओं ने अंग्रेजी सेना को दौड़ा-दौड़ा कर मारा था। इस संघर्ष में कोहिमा, पीफिमा, मेजोमा तथा चुमुकेडिमा गांवों के लोगों ने भी भाग लिया था। इसमें 300 नागा योद्धा शहीद हुए थे और लगभग 100 अंग्रेज सैनिक मारे गए थे। अंग्रेजों ने इन गांवों मे आग भी लगा दी थी। यही गांव जब ईसाई बने तो नागा नेशनल कौंसिल का गढ़ बन गए। फीजो जब हिंदू था तो 1944 के युद्ध में नेताजी के साथ था। जब ईसाई बन गया तो नागा नेशनल कौंसिल के अध्यक्ष के नाते भारत की अखण्डता को ही चुनौती देने लगा। सबसे पहले नागालैण्ड के आओ नागाओं का कन्वर्जन हुआ था, किंतु इनका संबंध असम के अहोम वंश से था। ये पहले से ही सुसंस्कृत एवं सुसभ्य थे। इसलिए ईसाई होते हुए भी ये लोग बहुत हद तक आतंकवाद से दूर रहे। डॉ. इम्कांगलिबा तथा डॉ. एस़ सी जमीर इसी आओ समुदाय के हैं, ईसाई हैं। किंतु भारत समर्थक हैं। इन्होंने नागा पीपुल्स कन्वेंशन बनाकर 1958-59 में शांति की पहल की थी। इस कारण 1960 में 16 सूत्रीय समझौता हुआ और दिसंबर, 1961 में अलग नागालैण्ड प्रदेश की घोषणा हुई। इसके पूर्व यह केंद्र शासित प्रदेश था। इस कार्य के कारण फीजो ने डॉ. इम्कांगलिबा की हत्या करवा दी और डॉ. एस़ सी. जमीर पर चार बार जानलेवा हमले हो चुके हैं।
हेपाउ जादोनांग जेलियांगरांग मणिपुर के कम्बीरान (पुलोमी) ग्राम के निवासी और एक संन्यासी थे। उन्होंने अपने समाज में सुधार कर हरक्का धर्म प्रतिपादित किया और हरक्का सेना बनाकर ईसाई मिशनरियों और अंग्रेजी शासन का विरोध किया। इस कारण अंग्रेजों ने 29 अगस्त, 1931 को इंफाल जेल के पास नांबूल नदी के तट पर पेड़ से लटका कर उन्हें फांसी दे दी। पद्मभूषण से सम्मानित रानी गाइदिन्ल्यू योद्धा के साथ-साथ एक आध्यात्मिक विभूति थीं। उन्होंने जेलियांगरांग सेना का गठन कर अंग्रेजी सेना और ईसाई मिशनरियों को ललकारा। इस कारण अंग्रेजों न् ो इन्हें अक्तूबर, 1932 में आजीवन करावास की सजा दी और इनके सेनापतियों की हत्या करवा दी। आजादी के बाद 1948 में इनको जेल से मुक्त किया गया, किंतु इनको अपने गांव से 300 किमी दूर ट्वेनसांग जिले के यिमरूप नामक ग्राम में कैद रखा गया। 17 फरवरी, 1993 को उन्होंने इस दुनिया को छोड़ दिया। वे अंतिम सांस तक नागा आतंकवादियों तथा चर्च के विरुद्ध संघर्ष करती रहीं। उनके द्वारा स्थापित और पोषित जेलियांगरांग हरक्का संगठन आज भी कार्य कर रहा है।
मेघालय के खासी, जयंतिया, गारो और राभा जनजातियां सनातनी और राष्ट्रवादी हैं। मिजो रानी रिपुइलियानी ने अंग्रेजी सरकार और विदेशी मिशनरियों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष किया। इस कारण इनको अंग्रेजों ने ढाका जेल में कैद कर दिया और वहीं उनकी मृत्यु हो गई। यही मिजो जब ईसाई बने तो लालडेंगा के नेतृत्व में मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) बना कर सनातन धर्म और भारत के विरोध में मोर्चा खोल दिया। हजारों लोगों को मौत के घाट उतार दिए। किंतु जो मिजो अभी भी सनातनी हैं वे कट्टर भारतभक्त हैं। मिजोरम का चकमा समाज बौद्ध मत का अनुयायी है। रियांग समाज वैष्णव धर्म का अनुयायी है। इस कारण सामाजिक समरसता बनी हुई है। किंतु चर्च नामक कैंसर इनके शरीर में लग गया है। समय रहते ही इसको समूल नष्ट करने की आवश्यकता है। असम का बोडो समाज, दिमासा समाज तथा मैदानी इलाकों के लगभग दो दर्जन जनजाति समाज भारतभक्त है। किंतु चर्च, इस्लामी कट्टरवादी तथा चीनी साम्यवादी तत्व इस समरसता को बिगाड़ने की भरपूर काशिश में लगे हैं।
त्रिपुरा का जमातिया समाज जमातिया होदा संगठन के तहत सुसंगठित और राष्ट्रवादी है। मणिपुर का मैतेई समाज वैष्णव हिंदू है। यहां की जनजातियों में लगभग 50 प्रतिशत कन्वर्जन हुआ है। इस कारण आतंकवाद भी शीर्ष पर है। किंतु जो कुछ भी सामाजिक समरसता बची हुई है उसके पीछे सनातन संस्कृति है।
सिक्किम में भोटिया और लेपचा समाज बौद्ध हैं। यहां नेपाल मूल के लोग भी काफी संख्या में हैं। इनमें से कुछ बौद्ध हैं और शेष हिंदू। यह समाज कन्वर्जन को लेकर बहुत ही सजग है। पूवार्ेत्तर के आठों राज्यों के जनजाति समाज के लोग अपनी संस्कृति को बचाने और सामाजिक समरसता के लिए लगभग 60 संगठनों के बैनर तले काम कर रहे हैं। ये संगठन वनवासी कल्याण आश्रम द्वारा अप्रैल, 2002 में गठित जनजाति धर्म संस्कृति सुरक्षा मंच की देखरेख में आगे बढ़ रहे हैं। -जगदम्बा मल्ल
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