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नेहरू और इंदिरा गांधी सरीखे कांग्रेसी नेताओं की असमिया अस्मिता की अनदेखी से बांग्लादेशी मुसलमान बेरोकटोक बसते गए जिससे यह समस्या आज विकराल रूप धारण कर चुकी है
प्रो. विजय शंकर सहाय
असम में बंगलादेशी मुसलमानों की आबादी उस स्थिति में पहुंच गई है जहां से इसे वापस नहीं लाया जा सकता है। यह सर्वविदित है कि इस ‘जनसांख्यिकी आक्रमण’ से सबसे ज्यादा पीड़ित असम है। आलम यह है कि अपने ही राज्य में इसके मूल निवासी, जो ‘अहोम’ कहलाते हैं, अल्पसंख्यक हो गए हैं। इनसे ज्यादा आबादी बाहर से आए मुसलमानों की है। इस साल 22 फरवरी को गृह राज्यमंत्री किरन रिजिजू ने राज्यसभा में एक लिखित प्रश्न के उत्तर में बताया था कि भारत में लगभग 20 मिलियन यानी दो करोड़ अवैध बंगलादेशी रह रहे हैं।
2011 की जनगणना के अनुसार, असम की कुल आबादी में 34.2 प्रतिशत मुसलमान हैं। असम के इतिहास पर यदि एक नजर डालें तो पता चलता है कि राज्य के इस्लामीकरण की ठोस योजना 1906 में ढाका में इंडियन मुस्लिम लीग (आईआईएम) की स्थापना के साथ ही तैयार हो गई थी। तत्कालीन स्थानीय मुस्लिम नेता नवाब सलीमुल्ला खान ने योजनाबद्ध तरीके से राजनीतिक षड्यंत्र किया ताकि असम में मुस्लिम जनसंख्या को बढ़ाया जा सके। 1931 की जनगणना रिपोर्ट में तत्कालीन ब्रिटिश जनगणना अधीक्षक सीएस मुल्लान ने मुस्लिम लीग के राजनीतिक षड्यंत्र के प्रति जो भविष्यवाणी की थी वह आज सच साबित हो रही है। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि बीते 25 वर्ष की सबसे प्रमुख घटना असम, वहां की संस्कृति एवं सभ्यता को स्थायी रूप से नष्ट करने वाली रही है। इसमें भूमि हथियाने वाले पूर्वी बंगाल (बाद में पूर्वी पाकिस्तान और अब बंगलादेश) के लोगों, विशेषकर मुसलमानों की भूमिका रही है। अपनी टिप्पणी के अंत में उन्होंने लिखा, ‘‘जहां मुर्दे होंगे वहां गिद्ध जमा होंगे।’’
मुस्लिम लीग के नेताओं की शह
मुस्लिम लीग के तत्कालीन नेता थे, सैय्यद मुहम्मद सादुल्ला। आजादी से पहले 1935 से 1945 तक उन्होंने कई बार असम सरकार का नेतृत्व किया था। उन्होंने असम घाटी की लाखों एकड़ जमीन तत्कालीन पूर्वी बंगाल के मुसलमान अप्रवासियों को आवंटित की थी। तत्कालीन वायसराय लार्ड वैवेल ने भी लंदन से प्रकाशित होने वाले ‘वायसराय जर्नल’ में 1943 में लिखा था, ‘‘मुसलमान नेता पूर्वी बंगाल से बड़ी तादाद में मुसलमानों को असम लाकर अकृषित भूमि पर बसाने का कार्य कर रहे हैं।’’ परिणामस्वरूप जब तक सादुल्ला, असम के राज्य प्रमुख रहे, तब तक बहुत बड़ी संख्या में पूर्वी बंगाल से मुसलमानों को लाकर असम में बसाया गया। ये वही लोग थे जो आजादी से पहले उग्रतापूर्वक पाकिस्तान बनाने का समर्थन कर रहे थे। अबुल हमीद खान, जो मौलाना भसीन के नाम से जाने जाते थे, असम में मुस्लिम के प्रभावी नेता थे। उन्हें मुस्लिम लीग में मुस्लिम अल्पसंख्यक राज्य असम को मुस्लिम बहुसंख्यक राज्य बनाने का जिम्मा दिया था। यह वही समय था जब मुहम्मद अली जिन्ना ने असम को भी पूर्वी पाकिस्तान में शामिल करने की मांग रखी थी। आजादी के बाद तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान से अवैध रूप से आने वाले लोगों की संख्या काफी तेजी से बढ़ गई, जिसमें मुसलमानों की संख्या बहुत थी। इसके लिए दो व्यक्ति जिम्मेदार ठहराए जाते हैं। पहला, मोईनुल हक चौधरी, जो जिन्ना के निजी सचिव और आॅल इंडिया मुस्लिम लीग के प्रभावशाली नेता थे, कांग्रेस में शामिल हो गए थे और इंदिरा गांधी के समय में कैबिनेट मंत्री भी रहे। दूसरे व्यक्ति थे फख्रुद्दीन अली अहमद, जो बाद में भारत के राष्टÑपति बने। कहा जाता है कि मोईनुल हक चौधरी कांग्रेस पार्टी में जिन्ना की सलाह पर इस उद्देश्य से शामिल हुए थे कि वह असम में इस्लामीकरण के कार्य को आगे बढ़ा सकें। इन दोनों नेताओं ने अवैध अप्रवासियों को खुले तौर पर असम में आने एवं बसने का न्योता दिया। परिणाम यह हुआ कि आजादी के 25 वर्षों में यानी 1972 तक असम में मुसलमानों की संख्या 19 लाख से बढ़कर 36 लाख तक पहुंच गई। बंगलादेश बनने के बाद भी शेख मुजीबुर्रहमान के समय अवैध अप्रवासियों के असम आने का सिलसिला जारी रहा।
100 साल में 20 गुणा वृद्धि
जनगणना आंकड़ों पर यदि सरसरी दृष्टि डालें तो असम में मुसलमानों की जनसंख्या में दशकीय वृद्धि साफ दिखती है। वर्तमान असम की सीमा रेखा के अंतर्गत 1901 में मुसलमानों की संख्या 5,03,670 थी जो 2011 में बढ़कर 1,06,79,345 हो गई। यह वृद्धि लगभग 20 गुणा है। 1971 की जनगणना के अनुसार, दशकीय वृद्धि 29.96 प्रतिशत थी जो कि बढ़कर 1991 में 77.33 प्रतिशत हो गई। अर्थात् इस दौरान मुसलमानों की असम में जनसंख्या वृद्धि औसतन 7.73 प्रतिशत प्रतिवर्ष रही। ध्यान रहे 1981 में असम में अशांति के कारण जनगणना नहीं की जा सकी थी। अधिक गहराई से छानबीन करने पर पता चलता है कि आजादी से पहले पाकिस्तानी नेतागण असम के इस्लामीकरण का निरंतर प्रयास करते रहे। पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री स्व. जुल्फिकार अली भुट्टो ने 1968 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘मिथ आॅफ इंडिपेंडेंस’ में पाकिस्तान के भू राजनीतिक दावे को स्पष्ट करते हुए लिखा है, ‘‘भारत और पाकिस्तान के बीच केवल कश्मीर ही झगड़े का मुद्दा नहीं है, बल्कि असम तथा पूर्वी पाकिस्तान से लगे जिले भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं।’’
कांग्रेस नेतृत्व ने आवाज दबाई
ऐसा नहीं कि असम के नेताओं जैसे- गोपीनाथ बारदोलोई, बिमला प्रसाद चाहिला ने बंगलादेशी मुसलमानों के गैर-कानूनी प्रवास के खिलाफ आवाज नहीं उठाई हो, लेकिन इन दोनों नेताओं को कांग्रेस हाई कमान के हस्तक्षेप से चुप हो जाना पड़ा। गोपीनाथ बारदोलई को जवाहरलाल नेहरू एवं बिमला प्रसाद चाहिला को इंदिरा गांधी ने कोई भी सख्त कदम उठाने से रोक दिया, क्योंकि ऐसे सभी गैर-कानूनी प्रवासी कांग्रेस के वोट बैंक समझे जाते थे। विडंबना यह भी है कि असम के तत्कालीन राज्यपाल ले. जनरल सिन्हा ने 1998 में बंगलादेशियों द्वारा ‘जनसांख्यिक आक्रमण’ को खतरनाक बताते हुए राष्टÑपति को एक रिपोर्ट भेजी थी। इसमें उन्होंने लिखा था, ‘‘यदि बंगलादेशियों के आगमन की मौजूदा रफ्तार को नहीं रोका गया तो आने वाले समय में असम के मूल निवासी अल्पसंख्यक हो जाएंगे और मुस्लिम बाहुल जिले को बंगलादेश में मिलाने की भी मांग हो सकती है।’’ इस आधार पर यदि जनसंख्या के आंकड़ों को देखा जाए तो जनरल सिन्हा की आशंकाएं सच साबित हो रही हैं। आज बरपेटा जिले में 70.4 प्रतिशत, बोंगइगांव में 50.22 प्रतिशत ददोद में 64.34 प्रतिशत, धुबरी में 79 प्रतिशत, ग्वालपाड़ा में 57.52 प्रतिशत, हैलाकांडी में 60.31 प्रतिशत, करीमगंज में 56.36 प्रतिशत, मोरीगांव में 52.56 प्रतिशत और नगांव में मुसलमानों की आबादी 55.36 प्रतिशत है। ज्ञातव्य हो कि आजादी से पहले इन सभी स्थानों में मुसलमान अल्पसंख्यक थे और हिन्दू बहुसंख्यक। यदि यह सिलसिला जारी रहा तो आने वाले समय में अनेक जिलों में मुसलमान बहुसंख्यक हो जाएंगे।
वापसी का रास्ता नहीं
एक मानवशास्त्री होने के नाते इस संदर्भ में मेरा मत निराशाजनक है। असम की स्थिति ‘प्वाइंट आॅफ नो रिटर्न’ पर जा चुकी है। अगर इतिहास उठाकर देखें तो जिस भी देश या क्षेत्र में ‘जनसांख्यिक इस्लामीकरण’ हुआ है और जहां मुसलमान बहुसंख्यक हो जाते हैं, उस क्षेत्र के अल्पसंख्यकों को हर तरह से खत्म करने की कोशिश होती है। इसका ज्वलंत उदाहरण पाकिस्तान, बंगलादेश और कश्मीर में भी देखने को मिलता है। पाकिस्तान में 1947 में 5 करोड़ से अधिक अल्पसंख्यक थे जो कुल आबादी का करीब 25 प्रतिशत थे। अब उनकी संख्या मात्र 2 प्रतिशत है। पाकिस्तान में करीब 23 प्रतिशत अल्पसंख्यकों को इस्लाम कबूल करना पड़ा या मार दिए गए। विडंबना है कि एमनेस्टी इंटरनेशनल आदि संस्थाओं का इन बातों से कोई लेना-देना नहीं है। इसी तरह आजादी के दौरान बंगलादेश में अल्पसंख्यकों की आबादी करीब 25 प्रतिशत थी, जो अब मात्र 10 प्रतिशत है। बंगलादेश में आज जो कुछ हो रहा है, उसे देखकर यह उम्मीद की जाती है कि आने वाले समय में यह गैर-मुस्लिम रहित देश बन जाएगा। 1990 के दशक में कश्मीर में पंडितों का जिस प्रकार से जातीय संहार हुआ, उससे वे अपने ही देश में शरणार्थी बनकर रहने को विवश हैं।
‘जनसांख्यिकी आक्रमण’ वैश्विक समस्या
असम की तरह कुछ पश्चिमी देशों में भी ‘जनसांख्यिक आक्रमण’ हो रहा है। इससे अमेरिका सहित अन्य देश चिंतित हैं। ऐसी घटनाओं को पश्चिमी देशों में ‘जैविक जिहाद’ का नाम दिया गया है। इसके तहत मुसलमान दूसरे देश में बच्चे को जन्म देते हैं। वह स्वाभाविक रूप से वहां का नागरिक हो जाता है जिससे उस देश में मुसलमानों की जनसंख्या बढ़ती जाती है। असम की स्थिति निस्संदेह खतरनाक और चिंताजनक है, जो भविष्य में और विकराल हो जाएगी। यदि इसका समाधान अभी नहीं हुआ तो कभी नहीं होगा। इसके लिए ऐसी सरकार की जरूरत है जो वोट बैंक की परवाह किए बिना अवैध तरीके से आए अप्रवासियों को वापस भेजे और उनके प्रवेश पर पूर्ण प्रतिबंध लगाए। अन्यथा डर है कि असम की मूल संस्कृति एवं महापुरुष श्रीमंत शंकर देव द्वारा स्थापित ‘नव-वैष्णववाद’ के मूल तत्व, ‘सत्र’ एवं उनके भक्ति संगीत, नाटक एवं नृत्य इत्यादि पूर्णत: नष्ट न हो जाए। ऐसा न हो कि आने वाली पीढ़ी को असम की मूल संस्कृति के तत्व वहां के भग्नावशेषों में खोजने पड़ें।
(लेखक रांची विश्वविद्यालय झारखंड में समाज शास्त्र विभाग से संबंद्ध हैं)
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