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क्या गीता प्रेस के संस्थापक जय दयाल गोयंदका और कल्याण के आदि संपादक हनुमान प्रसाद पोद्दार महात्मा गांधी हत्याकांड के बाद गिरफ्तार हुए थे? क्या महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद कल्याण के अंक में गांधीजी पर कोई सामग्री छापी नहीं गई थी? हाल के वर्षों में प्रकाशित दो अंग्रेजी पुस्तकों में ऐसे आरोप लगाए गए हैं। इस कारण भारतीय जनमानस विचलित है। इस लेख के माध्यम से यह पता लगाने का प्रयास किया गया है कि ये आरोप कितने सही हैं और कितने गलत?
डॉ. संतोष कुमार तिवारी
गीता प्रेस, गोरखपुर आध्यात्मिक भारत की रीढ़ है। भारतीय चेतना का मेरुदंड है। दुर्भाग्य से कुछ अंग्रेजी पुस्तकों के माध्यम से इस मेरुदंड पर प्रहार करने का प्रयास हुआ है। इस लेख में जिन दो मुख्य बिंदुओं पर विचार किया गया है वे हैं-
1. क्या गीता प्रेस के संस्थापक ब्रह्मलीन श्री जय दयाल गोयंदका जी (1885-1965) और कल्याण के संपादक ब्रह्मलीन श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (1892-1971) को गांधीजी की हत्या के बाद गिरफ्तार किया गया था?
2़ क्या महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद कल्याण के अंकों में उन पर कोई सामग्री छापी नहीं गई थी?
दोनों बातें कितनी सच हैं और कितनी झूठ, यह पता लगाने के लिए इस लेखक ने ‘भाई जीरू पावन स्मरण’ (द्वितीय संस्करण, संवत् 2062 सन् 2006, गीता वाटिका प्रकाशन, गोरखपुर), ‘गीता के परम प्रचारक’ (द्वितीय संस्करण, प्रकाशक श्री विश्व शांति आश्रम, इलाहाबाद) और ‘पत्रों में समय संस्कृति’: हनुमान प्रसाद पोेद्दार जी के कुछ विशिष्ट पत्र (संपादक अच्युतानंद मिश्र, प्रथम संस्करण प्रभात प्रकाशन, 2015, नई दिल्ली) आदि पुस्तकों का अध्ययन किया। कल्याण के फरवरी से अप्रैल 1948 के अंकों को भी देखा। साथ ही, गीता प्रेस के वर्तमान न्यासी ईश्वर प्रसाद पटवारी और अच्युतानंद मिश्र का साक्षात्कार भी लिया। (ये दोनों साक्षात्कार क्रमश: 25 दिसंबर, 2016 और 1 जनवरी, 2017 को लिए गए) और उन दो अंग्रेजी पुस्तकों को भी पढ़ा जिनमें इस प्रकार के आरोप लगाए गए हैं।
इन पुस्तकों के नाम हैं- ‘द लाइफ एंड टाइम्स आॅफ जीडी बिड़ला’ (आॅक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस इंडिया 2003, लेखिका एमएम कुदैसिया) और ‘गीता प्रेस एंड द मेकिंग आॅफ हिन्दू इंडिया’ (हार्परकलिंस पब्लिशर्स इंडिया 2015, लेखक अक्षय मुकुल)। अच्युतानंद मिश्र और ईश्वर प्रसाद पटवारी ने बताया कि उन्हें ऐसे कोई साक्ष्य नहीं मिले, जिनके आधार पर वे यह कह सकें कि जयदयाल गोयंदका और हनुमान प्रसाद पोद्दार महात्मा गांधी हत्याकांड के बाद गिरफ्तार हुए थे। महात्मा गांधी की हत्या के बाद देश में हजारों लोगों की गिरफ्तारी हुई थी।
गोयंदका जी और पोद्दार जी की गिरफ्तारी की बात 2003 में प्रकाशित उपर्युक्त अंग्रेजी पुस्तक के पृष्ठ 269 पर कही गई है। इसी पुस्तक में यह भी लिखा है कि दोनों को रिहा कराने के लिए घनश्याम दास बिड़ला ने हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया था, क्योंकि बिड़ला जी समझते थे कि दोनों सनातन धर्म नहीं, शैतान धर्म फैला रहे थे। बाद में इन्हीं बातों को 2015 में प्रकाशित अंग्रेजी पुस्तक के पेज 58 पर दोहराया गया। इसमें सीआईडी दस्तावेजों के हवाले से यह अनुमान लगाया गया है कि कल्याण के फरवरी और मार्च के अंकों में गांधीजी का जिक्र इसलिए नहीं है, क्योंकि पोद्दार जी राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ का बचाव करने में सक्रिय थे।
संघ पर 4 फरवरी, 1948 को प्रतिबंध लगाया गया था जिसे जुलाई, 1949 को हटा लिया गया।
आरोपों में विरोधाभास
एक तरफ तो पुस्तक में यह कहा गया है कि पोद्दार जी को गिरफ्तार किया गया था और दूसरी ओर यह कथन है कि पोद्दार जी राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ को बचाने में लगे हुए थे। ये दोनों बातें विरोधाभास पैदा करती हैं। इसलिए उनकी गिरफ्तारी की बात गले नहीं उतरती। इसके अलावा, विवेचित पुस्तक में यह नहीं बताया गया है कि उन्हें किस तारीख को गिरफ्तार किया गया? कब रिहा किया गया? उन्हें किस जेल में रखा गया था? 2003 में प्रकाशित इस पुस्तक की लेखिका ने पृष्ठ 269 में कल्याण को एक साप्ताहिक मैगजीन बताया है और कहा है कि जय दयाल गोयंदका उसके कार्यकारी संपादक थे। ये दोनों ही बातें पूरी तरह तथ्यहीन हैं। कल्याण मासिक पत्रिका है और गोयंदका जी कभी उसके कार्यकारी संपादक नहीं रहे। वे गीता प्रेस के संस्थापक थे। इसी पेज में यह भी कहा गया है कि ये दोनों मारवाड़ी थे और बिड़ला परिवार के घनिष्ठ थे। इसी पुस्तक के पृष्ठ 270 में कहा गया है कि पोद्दार जी और घनश्याम दास बिड़ला रोड़ा षड्यंत्र कांड में 1914 में सह अभियुक्त रहे थे। वास्तविकता यह है कि उद्योगपति जीडी बिड़ला और पोद्दार जी परस्पर मित्र थे, परंतु उनमें घनिष्ठ संबंध नहीं थे। पोद्दार क्रांतिकारी थे और रोड़ा कांड में बंगाल में डेढ़ वर्ष से अधिक समय नजरबंद थे। वहीं बिड़ला जी कभी नजरबंद नहीं रहे। तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने जब पोद्दार जी को जेल से छोड़ा तो 24 घंटे के अंदर बंगाल छोड़ने का भी आदेश दिया था। अच्युतानंद मिश्र संपादित पोद्दार जी के पत्राचार की जिस पुस्तक का ऊपर जिक्र किया गया है, उसमें बिड़ला जी का एक भी पत्र शामिल नहीं है। मिश्र जी ने साक्षात्कार में बताया कि बिड़ला जी और पोद्दार जी में घनिष्ठ संबंध नहीं थे। हालांकि पोद्दार जी का शरीर शांत हो जाने पर उनके सम्मान में जो पुस्तक प्रकाशित हुई, उसके लिए बिड़ला जी ने अपने श्रद्धांजलि संदेश में कहा था, ‘‘हनुमान प्रसाद पोद्दार मेरे पुराने मित्र थे। उन्होंने धार्मिक साहित्य के प्रचार के लिए क्षेत्र में अद्वितीय सेवाएं की हैं। उनके निधन से मुझे दुख हुआ है।’’ (भाई जीरू पावन स्मरण,
पृष्ठ 40)
कल्याण से गांधी जी का रिश्ता
स्पष्ट है कि बिड़ला जी के श्रद्धांजलि संदेश से यह नहीं लगता कि उनकी समझ में पोद्दारजी ने कभी भी शैतान धर्म फैलाया था। यहां यह बता देना जरूरी है कि अप्रैल 1926 में पोद्दार जी द्वारा तैयार भाषण को बिड़ला जी ने एक अधिवेशन में सुना था। भाषण के विचार यद्यपि बिड़ला जी के अनुकूल नहीं थे, परंतु जनसाधारण इनसे प्रभावित है- यह बात बिड़ला जी ने कही। वे पोद्दार जी से बोले, ‘‘यदि तुम लोगों के पास अपने विचारों का, सिद्धांतों का एक पत्र हो तो तुम लोगों को और भी सफलता मिल सकती है। तुम लोग अपने विचारों का एक पत्र निकालो।’’ बिड़ला जी के इसी सुझाव से एक पत्रिका के प्रकाशन का बीज पड़ा और अगस्त 1926 में ‘कल्याण’ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। ये उपर्युक्त बातें ‘गीता के परम प्रचारक’ पुस्तक की पृष्ठ संख्या 20-22 में कही गई हैं।
‘भाई जीरू पावन स्मरण’ पुस्तक में पोद्दार जी के लिए जिन महानुभावों के श्रद्धांजलि संदेश छपे हैं, उनमें चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, राष्ट्रपति वीवी गिरि, लोकसभा अध्यक्ष गुरदयाल सिंह ढिल्लों, मोरारजी देसाई, गुलजारीलाल नंदा, जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, चौधरी चरण सिंह आदि तमाम गणमान्य शामिल हैं। अच्युतानंद मिश्र ने बताया कि पोद्दार जी आत्म प्रचार से कोसों दूर रहते थे। आजादी के बाद जब भारत सरकार ने उन्हें भारत रत्न से सम्मानित करने की पेशकश की, तो उन्होंने उसका जवाब तक नहीं दिया। गांधीजी और कल्याण के रिश्ते बहुत गहरे थे। गांधीजी ‘कल्याण’ में लिखते थे। फरवरी 1948 में गांधी जी का एक लेख ‘हिन्दू विधवा’ इसमें छपा। 1926 में जब इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ तो गांधीजी ने अपने आशीर्वचन में यह राय दी थी कि कल्याण में कभी भी कोई विज्ञापन नहीं छापा जाए। तब से आज तक कल्याण गांधीजी के इन वचनों का पालन कर रहा है और उसमें कोई भी विज्ञापन प्रकाशित नहीं होता। कल्याण में लिखने वालों में गांधीजी ही नहीं, बल्कि उस जमाने के कई चोटी के नेता थे। इनमें लाल बहादुर शास्त्री, पंडित मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तम दास टंडन आदि शामिल थे। कल्याण किसी भी लेखक को कोई पारिश्रमिक या मानदेय राशि नहीं देता था और आज भी नहीं देता।
तकनीक उन्नत नहीं थी
अप्रैल 1955 में तत्कालीन राष्टÑपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद गीता प्रेस को देखने गए थे। 2015 में प्रकाशित उपर्युक्त पुस्तक के पृष्ठ 58 पर यह प्रश्न उठाया गया है कि गांधीजी की मृत्यु के फौरन बाद उन पर कोई सामग्री ‘कल्याण’ के फरवरी और मार्च के अंकों में क्यों प्रकाशित नहीं की गई। सभी को पता है कि ‘कल्याण’ एक मासिक पत्रिका है। आज प्रिंटिंग तकनीक बहुत आगे बढ़ गई है। 1948 में यह तकनीक बहुत पिछड़ी हुई थी। जब कभी संभव होता था तब मासिक पत्रिकाएं एक-एक महीने पहले छापकर रख ली जाती थीं ताकि उन्हें समय पर प्रसारित किया जा सके। आज भी प्रिंटिंग तकनीक के बहुत विकसित होने के बावजूद देश के अनेक दैनिक अखबारों की संडे मैगजीन कई दिन पहले छाप कर रख ली जाती हैं और रविवार के दिन उन्हें अखबार के साथ वितरित कर दिया जाता है।
गांधी जी का निधन 30 जनवरी, 1948 को हुआ। इस कारण यह कतई संभव नहीं रहा होगा कि फरवरी 1948 के कल्याण के अंक में उनके बारे में कोई विशेष सामग्री प्रकाशित की जाए। इस संबंध में ईश्वर प्रसाद पटवारी ने बताया कि उस समय ‘कल्याण’ का विशेषांक अर्थात् जनवरी 1948 का अंक छापने में काफी समय लगा था। उसी समय गीता प्रेस में कर्मचारियों की हड़ताल भी हुई थी। इस कारण ‘कल्याण’ का अंक काफी दिनों तक आधा अधूरा पड़ा रहा था। आज भी कल्याण के अंक आमतौर से एक मास पूर्व छपते हैं।
मास के अंतिम सप्ताह में इन्हें भेजने का प्रयास रहता है, ताकि पाठकों को समय से अंक मिल सके। वास्तव में अप्रैल 1948 का अंक ही इस जघन्य घटना के बाद छपा था। वह भी काफी विलंब से। और इतने दिनों बाद संवेदना व्यक्त करने का कोई औचित्य नहीं रह जाता। इस कारण इस अंक में ‘बापू की अमर वाणी’ शीर्षक से बापू के उपदेश छापे गए थे। इसके अतिरिक्त पोद्दार जी ने उसके साथ बापू के कुछ संस्मरण ‘बापू के भगवान्नाम संबंधी कुछ पवित्र संस्मरण’ इसी अंक में छापे थे। उक्त दोनों लेखों को पढ़ने से ही स्पष्ट हो जाएगा कि बापू को इससे बढ़िया श्रद्धांजलि नहीं हो सकती। महात्माओं के उपदेशों के अनुशीलन एवं पालन से बढ़कर कोई श्रद्धांजलि नहीं हो सकती।
अच्युतानंद मिश्र ने इस बारे में बताया कि गांधीजी और पोद्दार जी में एक परिवार जैसे संबंध थे। उनमें कभी-कभी वैचारिक मतभेद भी रहे, जिन्हें पोद्दार जी ने कल्याण के माध्यम से प्रकट भी किया। यहां यह बता देना जरूरी है कि 11 जनवरी, 1966 को जब लाल बहादुर शास्त्री का निधन हुआ था, तो इस खबर को सवेरे दिल्ली के कई अखबार नहीं छाप पाए थे, जबकि दिल्ली के हिंदी दैनिक नवभारत टाइम्स ने इसे छापा था। इसका मतलब यह नहीं है कि दिल्ली के अन्य अखबार इस खबर को नजरअंदाज करना चाहते थे। हर प्रकाशन के प्रिंटिंग प्रेस की अपनी सीमाएं होती हैं और उनके संसाधनों की भी सीमाएं होती हैं। उन्हें उन्हीं सीमाओं के तहत काम करना पड़ता है। लाल बहादुर शास्त्री के निधन के समय गीता प्रेस की स्थितियां ठीक रही होंगी। तभी कल्याण के अगले अंक में संवेदना व्यक्त करना संभव हो पाया होगा।
देश की अग्रणी प्रकाशन संस्था
आज गीता प्रेस देश की अग्रणी प्रकाशन संस्था है। यहां से प्रतिदिन करीब 50,000 पुस्तकें छप कर बाजार में आती हैं। करीब 200 से अधिक कर्मचारी यहां काम करते हैं। कभी-कभी यहां के प्रबंध तंत्र और कर्मचारियों के बीच विवाद भी होता है। ऐसे में कुछ लोग यह प्रचारित करने लगते हैं कि पैसे की कमी के कारण गीता प्रेस बंद होने वाला है। इस दुष्प्रचार के आधार पर कुछ लोग देश और विदेश में गीता प्रेस के नाम पर चंदा उगाही करके अपनी जेबें भर रहे हैं। हाल ही में गीता प्रेस के न्यासी ईश्वर प्रसाद पटवारी जी ने एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा, ‘‘गीता प्रेस में कोई आर्थिक संकट नहीं है। संस्थान सुचारु रूप से कार्यरत है। भारत में संस्थान के बीस विक्रय केंद्र कार्यरत हैं। इसके अलावा, स्टेशन स्टॉलों की शृंखला भी कार्यरत है। गीता प्रेस द्वारा कभी भी आर्थिक सहायता न तो मांगी गई है और न ही स्वीकार की जाती है।’’ विज्ञप्ति में यह भी कहा गया कि यदि कोई गीता प्रेस के नाम पर धन संग्रह करता है, तो निश्चित रूप से ऐसा करने वाला ठगी कर रहा है।
गीता प्रेस ने अभी हाल ही में 11 करोड़ रुपये की एक पुस्तक बाइंडिंग मशीन लगाई है। पूरी परियोजना 25 करोड़ रुपये की है। अर्थात् अभी इसमें कुछ और काम होना बाकी है। आत्म प्रचार से कोसों दूर रहकर जयदयाल गोयंदका और ब्रह्मलीन हनुमान प्रसाद पोद्दार ने गीता प्रेस की जो निस्वार्थ सेवा की, उसी का परिणाम है कि आज यह विश्व की एक अग्रणी प्रकाशन संस्था है और कल्याण 90 वर्ष से अधिक समय से निरंतर प्रकाशित होने वाली देश की शायद सबसे पुरानी मासिक पत्रिका है।
(लेखक कार्डिफ विश्वविद्यालय, ब्रिटेन से पी.एच.डी प्राप्त हैं और झारखंड केन्द्रीय विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग से प्रोफेसर पद से सेवानिवृत्त हुए हैं)
1600 प्रकाशन हैं गीता प्रेस के
15 भाषाओं में होता है प्रकाशन
780 प्रकाशन हिंदी और संस्कृत में
820 प्रकाशन अन्य भारतीय भाषाओं में
82 रेलवे स्टेशनों पर स्टॉल देशभर में
20 शाखाएं देशभर में हैं प्रकाशन संस्था की
कल्याण सबसे लोकप्रिय
गीता प्रेस की स्थापना 1923 में हुई थी। तब से अब तक यह संस्था करीब 60 करोड़ पुस्तकें प्रकाशित कर चुकी है। इनमें भगवद्गीता, रामायण, पुराण, उपनिषद्, भक्त चरित्र और भजन संबंधी पुस्तकें शामिल हैं। साथ ही, महिलाओं और बच्चों से संबंधित 11 करोड़ पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है। इनमें से कई पुस्तकों के 80-80 संस्करण छपे हैं। इसमें संस्था की सबसे लोकप्रिय पत्रिका ‘कल्याण’ का आंकड़ा शामिल नहीं है। अभी ‘कल्याण’ की 2.15 लाख प्रतियां हर माह छपती हैं। ‘कल्याण’ के शुरुआती अंक की 1,600 प्रतियां छापी गई थीं। गीता प्रेस के पुस्तकों की मांग इतनी अधिक है कि संस्था इसे पूरी नहीं कर पा रही है। हर साल इसकी 1.75 करोड़ से ज्यादा पुस्तकें देश-विदेश में बिकती हैं। गीता प्रेस की पुस्तकें लागत से 40 से 90 फीसदी कम मूल्य पर बेची जाती हैं।
पुस्तकों की रिकॉर्ड बिक्री
दुनिया में किसी भी पब्लिशिंग हाउस की पुस्तकें इतनी नहीं बिकतीं, जितनी गीता प्रेस की। धार्मिक पुस्तकों में रामचरित मानस की सबसे ज्यादा मांग है। इसके बाद भगवद्गीता का स्थान है। यानी संस्था के कुल कारोबार में रामचरित मानस का योगदान 35 फीसदी, जबकि भगवद्गीता का योगदान 20-25 फीसदी है। रामचरित मानस का प्रकाशन नेपाली भाषा में भी किया जाता है। गीता प्रेस की पुस्तकों की लोकप्रियता का रहस्य इनका सस्ता होना है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस प्रकाशन संस्था का मकसद लाभ कमाना नहीं है। कई पुस्तकों की कीमत तो एक रुपये से शुरू होती है। संस्था हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, गुजराती, मराठी, बंगला, ओडिशा, असमी, गुरुमुखी, नेपाली और उर्दू में पुस्तकें प्रकाशित करती है और अपने ध्येय पर कायम है।
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