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बौद्धिक आवरण में चलता है देश तोड़ने का षड्यंत्र

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Mar 20, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 20 Mar 2017 14:58:18


दिल्ली विश्वविद्यालय और उससे पहले जेएनयू में वामपंथी छात्र संगठनों द्वारा उछाले गए देशविरोधी नारों, उनके निहितार्थ और अभाविप के वैचारिक अभियानों के संदर्भ में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के राष्टÑीय संगठन मंत्री सुनील आंबेकर से पाञ्चजन्य के सहयोगी संपादक आलोक गोस्वामी ने बात की। प्रस्तुत हैं उस बातचीत के प्रमुख अंश-

 

 वामपंथी छात्र संगठनों और अलगाववादी मानसिकता के छात्रों द्वारा दिल्ली विश्वविद्यालय में देश विरोधी माहौल बनाने की कोशिश का वहां के छात्रों ने अभाविप की अगुआई में प्रतिकार किया। परिषद के राष्टÑीय संगठन मंत्री के नाते इस पूरे प्रकरण को आप कैसे देखते हैं?

वामपंथी छात्र संगठनों का यह षड्यंत्र लगातार चल रहा है। माओवादियों और ऐसी ताकतों का जो राजनीतिक उद्देश्य है, उससे नए लोगों को जोड़ने के लिए और अपने विचारों के फैलाव के लिए वे ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन पहले भी करते रहे हैं। पहले इनकी ये चीजें और एजेंडा स्पष्ट नहीं था, पर अब सबके सामने है। हम समाज को जगा रहे हैं जिससे आम विद्यार्थी आज इसका विरोध कर रहा है। रामजस कॉलेज में भी यह देखने में आया कि वहां आम विद्यार्थी इसके विरोध में खड़ा हुआ। परिषद के लिए अब आगे ज्यादा से ज्यादा विद्यार्थियों को इसके प्रति सचेत करने का कार्य है, क्योंकि यह कोई छोटी घटना नहीं है। ऊपर से वामपंथी छात्र संगठन भले ही मानवाधिकारों, अभिव्यक्ति की आजादी आदि की बात करते हैं, लेकिन भीतर ही भीतर इनका एक राजनीतिक हिंसक षड्यंत्र है। इसके लिए वे शहरों और अकादमिक संस्थानों में जगह तलाश रहे हैं। आगे हम दो स्तर पर कार्य करेंगे-एक तो लोगों में जाग्रति लाएंगे, बताएंगे कि इनका असली हिंसक स्वरूप क्या है। दूसरे, वे वैचारिक स्तर पर जो तमाम तर्क देते हैं उनकी असलियत भी हम लोगों को बताएंगे। इस पर हम कई कार्यक्रम, सेमिनार करने वाले हैं।

 दिल्ली विश्वविद्यालय से पूर्व जेएनयू में भी कुछ ऐसा ही घटा था। वहां भी अभाविप ने मोर्चा संभाला था। पर इसी तरह की घटनाएं कुछ अन्य विश्वविद्यालयों में भी देखने में आर्इं। इसके पीछे क्या कारण मानते हैं?
देश विरोधी मानसिकता वालों को पहले के समय में अनेक विश्वविद्यालयों में अब तक राजनीतिक अनुकूलता प्राप्त होती आ रही थी। इसके चलते कई विश्वविद्यालयों में ऐसे शिक्षक जमकर बैठ गए जो बुद्धिजीवी चेहरा ओढ़कर उसकी आड़ में देशविरोधी मानसिकता को पोसने का काम करते हैं। क्योंकि अकादमिक विश्वविद्यालयों में बहुत आजादी रहती है, किसी भी विषय पर मुक्त रूप से चर्चा चलती है, उसी मंच का ये लोग उपयोग करते हैं। लेकिन अब धीरे-धीरे ऐसे शिक्षकों के चेहरे उजागर हो रहे हैं, जो आड़ में रहकर वामपंथी-माओवादी हिंसक सोच फैलाने का काम करते थे। मुझे लगता है कि अब कक्षाओं में जो देश विरोधी चीजें पढ़ाते हैं, उन पर आज छात्र कक्षाओं में भी आपत्ति दर्ज करा रहे हैं। वे ठीक, तथ्यात्मक और राष्टÑहित के अनुकूल चीजें पढ़ना चाहते हैं।  

 ऐसे आरोप लगते रहे हैं कि जेएनयू में अगर किसी छात्र का शोध या अध्ययन वामपंथी रुझान वाले विषय में है तो उसे अच्छे अंकों के अलावा तरक्की के कई मौके मिलते हैं, पर शोध अगर देशहित से जुड़े विषय पर है तो हिकारत की नजर से देखा जाता है। ऐसा क्यों है?
जेएनयू में कई प्राध्यापक हैं जो निरपेक्ष भाव के साथ काम करते हैं, लेकिन कुछ विभाग या स्कूल हैं, जैसे सोशल साइंसेज, भाषा आदि, जहां वामपंथी विचारों का प्रसार करने वाले प्राध्यापकों की संख्या ज्यादा है। इन्होंने उन विभागों में अपने जैसी सोच के छात्रों को ही नियुक्त कराने का काम करते हुए एक श्रृंखला बना दी है। तो भी, अब विद्यार्थियों की ही तरफ से लगातार विरोध के बाद माहौल बदल रहा है। जो प्राध्यापक वहां अपनी मनमानी करते थे, उनके खिलाफ शिकायतें दर्ज कराने से उन पर अब दबाव बन रहा है। विद्यार्थियों के दबाव के चलते वे अब विचलित हो रहे हैं।

 पाठ्यक्रमों में सुधार और छात्रों से जुड़े स्थानीय मुद्दों पर अभाविप हमेशा मुखर रही है। इसका वैचारिक अधिष्ठान क्या है?
वैचारिक तौर पर परिषद की स्पष्ट सोच है कि हर छात्र, हर नौजवान में देशभक्ति जाग्रत हो। उसमें समाज के प्रति एक आत्मीयता विकसित हो ताकि अपने कैरियर के प्रति सोचने के साथ ही वह देश की दशा और दिशा के बारे में भी सोचे, उसमें सक्रिय रूप से भाग ले। इस उद्देश्य को सामने रखते हुए परिषद के सभी कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। दूसरे, ऐसे कार्यक्रमों में वह जुड़ सके, इस दृष्टि से अवसर निर्माण करना। जैसे कश्मीर का मुद्दा हो, घुसपैठ, या आतंकवाद का मुद्दा हो, उनमें छात्रों को जागरूक करते हुए प्रत्यक्ष रूप से सक्रिय होने का हम अवसर देते हैं। परिषद समाज और देश की सेवा के अनेक सृजनात्मक कार्यक्रमों का भी आयोजन करती है। हम कॉलेजों और विश्वविद्यालयों से भी बात करते हैं कि वे स्वयं अपने यहां ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन करें।

वामपंथी छात्र संगठनों, चाहे आइसा हो, एसएफआइ या डीवाइएफआइ, इनके पोस्टरों पर नारे होते हैं-‘उनका राष्टÑवाद हमारे लोकतंत्र से बढ़कर नहीं है’, ‘अभाविप कौन होती है मोरल पुलिसिंग करने वाली’। ऐसे नारों पर क्या कहेंगे?
यह जो मोरल पुलिसिंग का मुद्दा उठाया जाता है उस पर मैं कहूंगा कि निश्चित रूप से विश्वविद्यालय में आने वाले विद्यार्थी समझदार हैं, लेकिन समाज के प्रति भी उनका सकारात्मक दायित्व बनता है। आज छात्राओं से दुर्व्यवहार की घटनाएं हो रही हैं, समाज में भ्रष्टाचार है, दहेज प्रथा आदि कई प्रकार की समस्याएं हैं। वास्तव में इन बुराइयों, कुप्रथाओं के खिलाफ विद्यार्थियों का मानस बनना चाहिए। यह तभी बन सकता है जब वे अपनी संस्कृति से जुड़ते हैं, क्योंकि अगर इन चीजों के लिए वे कानून पर निर्भर रहेंगे तो सामना नहीं कर पाएंगे।
दूसरी बात है राष्टÑभाव की, तो हमें जो लोकतंत्र से अधिकार मिले हैं, उनमें यह महत्वपूर्ण है कि देश की एकता, अखण्डता, एकात्मता सर्वोपरि है। यही तो राष्टÑभाव है। ये वामपंथी छात्र संगठन दुनिया में प्रचलित कई भिन्न तरह के ‘राष्टÑवाद’ पढ़कर आते हैं, जिनमें कुछ तो प्रतिस्पर्द्धा के कारण हिंसक भी बन गए। लेकिन भारत में राष्टÑ की जो पारंपरिक कल्पना रही है वह अलग है। वह किसी से प्रतिस्पर्द्धा के लिए नहीं, पूरे विश्व के कल्याण के लिए सक्रिय होती है। इतिहास देख लें, हमारे राष्टÑ ने कभी किसी दूसरे देश पर अत्याचार नहीं किया है।

राष्टÑवाद और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच जो बारीक विभाजक रेखा है उसे कैसे व्याख्यायित करेंगे?
विश्वविद्यालयों में बौद्धिक चर्चा-वार्ता के लिए पूरी तरह मुक्त वातावरण होना चाहिए। लेकिन जहां चर्चा बौद्धिक चर्चा के रूप में न हो और देशविरोधी राजनीतिक एजेेंडे के समर्थन के लिए उस मंच का उपयोग किया जाए तो विषय राष्टÑद्रोह की ओर चला जाता है। जो इस तरह की मांग कर रहे हैं, वे जेएनयू या दिल्ली विश्वविद्यालय में बौद्धिक चर्चा नहीं कर रहे थे, वे नारे लगा रहे थे। वह एक्टिविज्म था। हाल में अदालत ने प्रो. साईनाथ को उम्रकैद की सजा सुनाई, उनके  सहयोगियों को भी सजा हुई है। ये कौन लोग थे? ये हाथ में बंदूक लेकर चलने वाले लोग नहीं थे, बल्कि बंदूक से चलाए जा रहे आंदोलन के लिए समर्थन जुटाने का काम करते थे। उसे वैचारिक खाद पहुंचाते थे, इन बंदूकधारियों के काले कृत्यों को छुपाकर उनके समर्थन में नए लोगों की भर्ती कराने का काम करते थे। इसलिए यह चीज तो सीधे-सीधे देश की एकता-अखण्डता के विरुद्ध है। इससे साफ समझ में आता है कि ऐसे लोग या इनके लिए नारे लगाने वाले अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग करते हैं। इनका आवरण तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मानवाधिकार, अकादमिक स्वतंत्रता आदि का है, लेकिन अंदर से बैलेट नहीं, बुलेट से सत्ता हथियाने का षड्यंत्र चलता है। उनका मकसद सत्ता हथियाना ही नहीं, देश के टुकड़े करना है। इसलिए इनके नारों से किसी को संभ्रम में नहीं आना चाहिए। असल में नारों के पीछे एक बहुत बड़ी षड्यंत्रकारी राजनीति है। वास्तव में अभाविप ने जेएनयू हो, जादवपुर, हैदराबाद या दिल्ली विश्वविद्यालय… सब जगह इनके नारों के पीछे के षड्यंत्र का पर्दाफाश किया है इसलिए वे लोग रोष में आकर विद्यार्थी परिषद पर अनर्गल आरोप लगा रहे हैं। जो भी संगठन या संस्था इन्हें रोकने का प्रयास करती है, चाहे वह सेना हो या विद्यार्थी परिषद, उसे ये किसी भी हद तक जाकर रोकने का प्रयास करते हैं।

…हिंसा भी करते हैं…केरल उदाहरण है!
केरल उदाहरण है..आंध्र प्रदेश, तेलंगाना के उदाहरण हैं जहां विरोध करने वाले कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई। स्वयं अभाविप के लगभग 38 कार्यकर्ता शहीद हो गए। राष्टÑवादी संघ विचार के शहीद होने वाले कार्यकर्ताओं की संख्या तो बहुत ज्यादा है।   

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