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पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के परिणामों को देखने के दो तरीके हो सकते हैं। पहला, भारतीय जनता पार्टी के विजय रथ को रोकने में असफल अन्य दलों के महारथियों का हाल-चाल ले लिया जाए। राजनैतिक दावे लहालोट हैं, क्षत्रप लुटे खड़े हैं। सूने पड़े पार्टी कार्यालय, कार्यकर्ताओं के टूटे दिल, उमड़ती हताशा के ज्वालामुखी अंदरखाने चल रही सुगबुगाहटों और आक्रोश की गर्मागर्म कहानी बयान कर रहे हैं। दूसरा, तरीका यह हो सकता है कि जनता जनार्दन के मन में चलती उस खदबदाहट के विश्लेषण में उतरा जाए जो मत में बदली तो राज और ताज दोनों बदलती चली गई। चुनाव परिणामों को देखने, आंकने का दोनों में से कोई भी तरीका गलत नहीं है। हां, पहले दृष्टिकोण से जो झलक उभरेगी, वह राजनैतिक उत्साह या टूटन को देखने का तात्कालिक भाव पैदा करेगी। जबकि जनता जनार्दन के मत और मन का आकलन हमें भारतीय लोकतंत्र में उत्पन्न होती बदलाव की तरंगों के बारीक विश्लेषण की ओर ले जाता है। तात्कालिक झांकियां कुछ रोज में फीकी पड़ जाएंगी। सो, जरूरी है कि इस बदलाव के सूत्रों को पकड़ा जाए। कुछ सहज प्रश्नोत्तर इस बदलाव को साफ-साफ समझने में सहायक हो सकते हैं—
भाजपा की यह जीत क्या है?
यह जीत भाजपा की साख है। भाजपा पर लोगों का भरोसा। किसी राजनैतिक दल में जनाकांक्षाओं का निवेश। किसी भी राजनैतिक दल के लिए सबसे महत्वपूर्ण पूंजी। इस नाते भाजपा लोकतांत्रिक पूंजी की दृष्टि से सबसे संपन्न पार्टी है। कभी संघर्षों के पतझड़, कभी अनुकूल परिणामों के वसंत। लेकिन अपने सिद्धांतों पर टिके रहकर,
समर्थकों को जोड़े रखकर और बढ़ाते हुए भाजपा यहां तक पहुंची है। यह साख दशकों की साधना से अर्जित
की गई थाती है।
यह जीत क्या नहीं है?
यह लहर है, विशाल लहर किन्तु यह चमत्कार या कोरी भावुकता नहीं है। यह कठिन मेहनत है। क्षेत्रीय कोटरियों और कुनबे के खूंटे से बंधे राजनैतिक नारों पर राष्टÑवादी आग्रहों की स्पष्ट जीत है।
जीत से भाजपा कितनी बड़ी बनी?
भाजपा इस जीत से बड़ी नहीं बनी। चौंकिए मत, भाजपा इसलिए बड़ी बनी क्योंकि उसने संकीर्ण राजनीति के सुगम रास्ते नहीं अपनाए। समानता, विकास और सुशासन के मुद्दे पर स्पष्टता ने भाजपा को बड़े फलक पर स्थापित किया जबकि अन्य दल और नेता लोगों को जाति, परिवार और समुदाय की लामबंदी में उलझाते, छोटे मुद्दों में घसीटते पाए गए।
मणिपुर और गोवा में भाजपा की सरकार जरूरी थी?
थी। निश्चित ही इसकी आवश्यकता थी क्योंकि सत्ता में शून्य और विकल्पहीनता जैसी स्थितियां ज्यादा देर नहीं टिकतीं। बनते समीकरणों में सोए रहना राजनीति की दृष्टि से अच्छा नहीं कहा जा सकता। सतर्कता, चपलता, त्वरित निर्णय और फिर शक्ति का जनमत की भावना के अनुरूप सदुपयोग… यदि कड़ियां ठीक जुड़ें तो अंतिम परिणाम के लिए भी ज्यादा आशंकित होने का कोई कारण नहीं।
एक दल का फैलाव और छीजता विपक्ष, लोकतंत्र के लिए ये परिणाम कैसे हैं?
लोकतंत्र के लिए इसमें विविधता और पोषण के रंग हैं। कोई भी एक दल सिर्फ विपक्ष में ही फबता है, ऐसा क्यों माना जाए? विपक्ष की भी एक सकारात्मक भूमिका होती है। अन्य दलों को भी इस भूमिका की गंभीरता
समझनी चाहिए।
क्या यह व्यक्ति की जीत है?
निश्चित ही नहीं। राहुल, अखिलेश, माया, मुलायम. ..व्यक्तिगत पहचान और क्षेत्रीय, वर्गीय रसूख का दावा करने वाले तथाकथित जननेता इस चुनाव में पिटे ही हैं। यह व्यक्ति नहीं, वाद की जीत है। वह वाद जो निर्विवाद है। एकात्ममानव दर्शन की राह पर चलने वाली पार्टी को मिले जनसमर्थन ने ‘व्यक्तियों’ को बौना साबित कर दिया।
इन परिणामों का मीडिया के लिए क्या संदेश है?
संदेश साफ है- राजनैतिक दलों का हरकारा बनना ठीक नहीं। सोशल मीडिया पर मुख्यधारा कहलाने वाले मीडिया की फजीहत का सबसे बड़ा कारण वे मठाधीश बने जिनके पास अपने विश्लेषण बहुत थे लेकिन न पांव जमीन पर थे और न हाथ जनता की नब्ज पर। गौरतलब है कि इस दौरान प्रकाशित पाञ्चजन्य की दो आवरण कथाएं उत्तर प्रदेश में आसन्न बदलाव की गूंज को स्पष्टता से अपने पाठकों के सामने रख चुकी थीं। (देखें चित्र)
निष्कर्ष : पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव केवल भाजपा के फैलाव की मुनादी ही नहीं हैं, इनमें परिपक्वता की ओर बढ़ते भारतीय लोकतंत्र की यात्रा भी दिखती है। वह लोकतंत्र जो अपने पत्ते फेंटता है, दलों की, क्षत्रपों की भूमिकाएं बदलता है। उनकी चपलता जांचता है। शासन के मोर्चे पर प्रदर्शन और लगातार मेहनत की क्षमता को कड़ाई से जांचता है। वह लोकतंत्र जहां विभाजक और विद्वेषी राजनीति से लोगों ने मुंह फेरना शुरू कर दिया है।
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