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हास्य-व्यंग्य सम्राट बेढब बनारसी (कृष्णदेव प्रसाद गौड़) लिखित हिंदी के पहले क्लासिक व्यंग्य उपन्यास 'लफ्टंट पिगसन की डायरी', जो 1925 के आस-पास छपा, के बाद आज तक हिंदी के पास पठनीय व्यंग्य उपन्यास के नाम पर 15 किताबें नहीं हैं। श्रीलाल शुक्ल के 'राग दरबारी', ज्ञान चतुर्वेदी के 'नरक यात्रा', 'बारामासी', 'मरीचिका', 'हम न मरब', यशवंत व्यास के 'चिंताघर' तथा 'कॉमरेड गोडसे', गिरीश पंकज के 'माफिया', सुबोध कुमार श्रीवास्तव के 'शहर क्यों बंद है', प्रदीप पन्त के 'इन्फोकार्प का करिश्मा' को गिनते हुए दो-तीन छूट गए उपन्यासों को भी जोड़ लेंें तो इस 90-100 साल की साहित्य यात्रा में 15 व्यंग्य उपन्यास हाथ नहीं आते। ऐसा क्यों हुआ? यह हिंदी से लगाव रखने वालों के लिए गहरे चिंतन और चिंता का विषय है। आइए, इसकी छान-फटक की जाए।
देश विभाजन के बाद आई स्वतंत्रता के साथ सत्ता-हस्तांतरण जवाहर लाल नेहरू और उनके साथियों को हुआ। नेहरू खांटी कम्युनिस्ट थे। उन्होंने यूरोप जाते हुए केवल कुछ घंटे रूस में बिताए थे। उतनी ही देर में उन्हें साम्यवाद इतना समझ में आ गया और भारत के लिए इतना प्यारा और उपयुक्त लगा कि उन्होंने तय कर लिया कि अब वे भारत को समाजवाद के रास्ते पर ले जाएंगे। देश को समाजवाद के रास्ते पर चलने का अभ्यास नहीं था। सीधा-साधा भारत साम्यवाद के रास्ते पर जाना नहीं चाहता था। उसे लगभग खदेड़ने के प्रयास में हांका लगाते हुए दौड़ शुरू हुई। स्वाभाविक ही इस प्रयास में साम्यवादियों ने तु तु तु तु हु र्र र्र र तु तु तु तु हु र्र र्र र करते हुए सबसे अधिक जोश दिखाया। हाल ही में स्वतंत्र हुए गंवारू भारत में वे वैसे भी विदेश में पले-बढे़-रहे नेहरू को अपनी तरह कोट-पैंट पहनने वाले और संपन्न दिखने वाले लोग लगते थे। परिणामत: प्रधानमंत्री नेहरू की कृपा से शैक्षिक संस्थानों पर उनका कब्जा हो गया। तमाम विश्वविद्यालय, अकादमियां साम्यवादियों से पट गईं। अखबारों में संपादकीय विभाग कम्युनिस्ट हो गए। रूसी क्रांति का अगला चरण भारत में दिखने लगा।
साहित्यिक बहसों में मिलते समय राम-राम, नमस्ते, प्रणाम की जगह लाल सलाम चलन में आ गया। साहित्य का लक्ष्य आनंद-मोद, रस की सृष्टि की जगह साम्यवादी क्रांति लाना हो गया। साहित्यिक आलोचना की भाषा़.़.़.़ व्यंग्य ने ये उद्घाटित किया, ये पर्दे खोले, इसके कपडे़ फाड़े, उसको नंगा किया़.़.़.़ बन कर रह गई। पाठक जो किसी भी साहित्य का लक्ष्य, उसका गंतव्य, उसकी जान, उसका हेतु होता है, की बुरी तरह अवहेलना की गई। साहित्य का मूल लक्ष्य पाठक की जगह साम्यवाद बना दिया गया था। किताब की गुणवत्ता की कसौटी उसमें साम्यवादी क्रांति को ठेलने की मात्रा बन गई, इन बागड़बिल्लियों ने यह उलटबांसी इतनी बार दोहराई कि साहित्य अपठनीय, उबाऊ और नीरस हो गया। कोई कितनी मार्केटिंग कर ले, किसी से अपनी किताब पढ़वा नहीं सकता मगर सरकारी संस्थानों में कब्जा किए बैठे लोगों की इसकी परवाह ही नहीं थी। उनका लक्ष्य तो साम्यवाद के धमाधम नगाड़े कूटना था। नगाड़े इतनी जोर से कूटे गए कि पाठक साहित्य का बाड़ा तोड़ कर भाग गए। हिंदी साहित्य, जिसने जयशंकर प्रसाद, सूर्य कांत त्रिपाठी 'निराला', सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा जैसे विश्व स्तरीय रत्न दिए, पाठकों के लिए तरस गया। हिंदी में अच्छे पठनीय साहित्य का अभाव हो गया।
फिर भी किसी अंधकार से भरे दमघोंटू वातावरण में भी कभी-कभार घटाटोप को फाड़ कर रोशनी की किरण आ ही जाती है। आखिरकार 'राग दरबारी', 'नरक यात्रा', 'बारामासी', 'मरीचिका', 'हम न मरब' भी तो वामपंथियों के कुचक्रों के बावजूद आए ही। ऐसी ही कृतियों के स्तर की किताब 'जो घर फूंके आपना' भी है। लेखक अरुणेंद्र नाथ वर्मा ने व्यंग्य-लेखन के लिए वायु सैनिक को चुना है। एक वायु सैनिक, जो प्रेम विवाह करना चाहता है। उपयुक्त लड़की की खोज उसे किस तरह और कहां-कहां भटकाती है, यही इस उपन्यास का कैनवास है। खासे-बड़े फैलाव वाले कैनवास को बांधती हुई कलम, उपयुक्त भाषा, जादुई वाक्य, जकड़ लेने वाली किस्सागोई की शैली पाठक को बिल्कुल अछूते, अपरिचित संसार में ले जाती है। उसका परिचय एक ऐसे संसार से होता है जो कहकहे और उदासी की शतरंजी धूप से
बना है।
वायु सैनिक का कार्य क्षेत्र आकाश होता है और हम लोग धरती के निवासी हैं। उनकी बयानिया शैली के इस कथानक से हम ऐसी दुनिया में प्रवेश करते हैं जो बेहद दिलकश होने के साथ-साथ जानकारीपूर्ण भी है। ढेर सारी जानकारी से लदे-फंदे कथानक की भाषा बेहद सहज मगर सतर्क है। बहुत चौकन्नी नजर की सादगी देखते ही बनती है। इस उपन्यास को इस क्षेत्र की विहंगम झांकियों को देखने के लिए भी पढ़ा जाना चाहिए।
अरुणेंद्र नाथ वर्मा लगभग हिंदी के सभी समाचारपत्रों, पत्रिकाओं में वषार्ें से छपते आए हैं। 'जो घर फूंके आपना' में उन्होंने अपने बरसों के अनुभव का खरापन और उससे उपजी अनुभूतियों का भंडार उंडेल दिया है। बहुत सधी हुई मद्धिम आंच पर पकाने से व्यंजन में जो सौंधापन आ जाता है, वह उनके इस उपन्यास में आद्यांत व्याप्त है। परिणामत: उपन्यास बेहद सुगंधित, रसपूर्ण हो गया है। यह बैसाख में बौछार का अहसास दिलाता है।
ल्ल तुफैल चतुर्वेदी
पुस्तक : जो घर फूंके आपना़.
़(हास्य- व्यंग्य उपन्यास)
लेखक : अरुणेंद्र नाथ वर्मा
पृष्ठ : 216
मूल्य : 350.00 रु.
प्रकाशक : विद्या विकास एकेडमी
3637, नेताजी सुभाष मार्ग,
दरिया गंज,नई दिल्ली-110002
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