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बिना तथ्य जाने किसी को कठघरे में खड़ा करने की मानसिकता वाली पत्रकारिता की चर्चा अक्सर सुनने को मिलती है। इसे साक्षात् देखना हो तो राजदीप सरदेसाई और बरखा दत्त की काशी हिंदू विश्वविद्यालय पर रिपोटिंर्ग देख लें। इंडिया टुडे समूह के चैनलों पर राजदीप ने बताया कि विश्वविद्यालय में लड़कियों से भेदभाव हो रहा है। 40,000 छात्र-छात्राओं वाले इस विश्वविद्यालय पर यह आरोप मढ़ने के लिए उनके पास चार लड़कियां मौजूद थीं। इन चंद लड़कियों के विरोधाभासी बयानों के आधार पर उन्होंने अपने चैनलों पर 'बीएचयू शेम' की घोषणा कर दी। कुछ दिन बाद पहुंचकर बरखा दत्त ने भी यही काम क्विंट नाम की खबरिया वेबसाइट के लिए किया और सोशल मीडिया से लेकर मुख्यधारा मीडिया तक यह माहौल बना दिया कि बीएचयू में 'छात्राओं पर अत्याचार' हो रहा है।
जेएनयू, दिल्ली विवि के बाद बीएचयू के शांत शैक्षिक माहौल में आग लगाने की यह स्पष्ट कोशिश है। पूरा मीडिया तो नहीं, कुछ 'सुपारी पत्रकार' अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर यह खेल खुलकर खेल रहे हैं। हालांकि जी न्यूज ने अगले ही दिन पूरे तथ्यों के साथ इस झूठ की हवा निकाल दी।
कीचड़ उछालने का खेल यहीं तक होता तो कोई बात नहीं थी। इसके बाद नया झूठ गढ़ा गया कि बीएचयू के कुलपति बनारस में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनावी कार्यक्रम में उनके साथ मौजूद थे। तमाम स्वनामधन्य पत्रकारों ने एक फर्जी तस्वीर के सहारे इस झूठ को हवा दी और पोल खुलने पर चुप्पी साध गए। मीडिया के आत्म-नियंत्रण की वकालत करने वाला कोई विद्वान बताएगा कि ऐसे सोचे-समझे दुष्प्रचार की शिकायत किससे और कहां की जानी चाहिए? झूठी खबरें फैलाने वाले कथित पत्रकार क्यों सम्मानित बने रहते हैं और पुरस्कार भी पाते रहते हैं?
शिक्षा संस्थान ही नहीं, अब तो सेना भी इस 'सुपारी पत्रकारिता' के निशाने पर है। आए दिन सैनिकों के 'वायरल' वीडियो और अब स्टिंग ऑपरेशन। न्यूज वेबसाइट क्विंट की संवाददाता ने नासिक में सेना के प्रतिबंधित क्षेत्र में जाकर एक सैनिक की कुछ बातें बिना उसकी जानकारी के खुफिया कैमरे पर रिकार्ड कर लीं। पता चला तो अपराधबोध के शिकार उस सैनिक ने आत्महत्या कर ली। क्या देश का मीडिया उस जवान की मौत का जिम्मेदार नहीं है? उसे सजा कौन देगा? क्या उस रिपोर्टर और उसके संपादकों को पता नहीं था कि छावनी इलाकों में बिना अनुमति वीडियोग्राफी मना है? इससे देश की सुरक्षा के लिए गंभीर संकट खड़े हो सकते हैं। दूसरी संस्थाओं की तरह सेना में भी कुछ समस्याएं हो सकती हैं, लेकिन उन्हें हल करने का उनका अपना तरीका है। जांच का विषय है कि मीडिया का एक खास तबका अचानक सेना में इतनी रुचि क्यों ले रहा है?
मीडिया का यह वही वर्ग है जो एक शहीद की बेटी के मुद्दे को कुछ दिन पहले बिना वजह तूल दे रहा था। अचानक उसके मन में देश की सेना और शहीदों के लिए सम्मान जाग उठा था। बिना सबूत इन सभी ने मान लिया कि लड़की को धमकी देने वाले अभाविप के छात्र हैं। जबकि यह तथ्य छिपा दिया गया कि लड़की की तरफ से विद्यार्थी परिषद के ही छात्रों ने पुलिस में शिकायत की थी और दबाव बनाया कि दोषी को जल्द से जल्द गिरफ्तार किया जाए। इस मुद्दे पर राय देने वाली हरियाणा की मशहूर फोगट बहनों को जिस तरह से इस तबके ने निशाना बनाया, वह भी हैरानी में डालने वाला था। अपनी कुश्ती से देश की शान बढ़ाने वाली इन दोनों बेटियों को 'अनपढ़ और मूर्ख' साबित करने की कोशिश की गई। जो मीडिया एक शहीद की बेटी के लिए संवेदनशील होने का नाटक कर रहा था, वह अगर गीता और बबीता फोगट के लिए भी थोड़ा चिंतित होता तो इससे उसकी विश्वसनीयता ही बढ़ती।
लखनऊ में वहां की सरकार के अधीन पुलिस ने मुठभेड़ में एक आतंकी को मार गिराया। अगले दिन ज्यादातर अंग्रेजी अखबारों ने उसे आतंकवादी बोलने से परहेज किया। द हिंदू अखबार ने तो आतंकी के पिता के बयान को ही बदल दिया और बताया कि उन्होंने मांग की है कि उनके बेटे का गुनाह साबित किया जाए। लगता है, आतंकवाद के सवाल पर इस तबके का रवैया और कांग्रेस के नेताओं की बयानबाजियों में कुछ रिश्ता है।
उधर केरल में आएदिन हिंदुत्ववादी संगठनों के लोगों की बर्बर हत्याओं पर आंखें मूद लेने वाले चैनल और अखबार अचानक मध्य प्रदेश में एक स्थानीय नेता के बयान को लेकर हंगामे पर उतारू हो गए। यहां तक कि रा.स्व. संघ के औपचारिक खंडन के बाद भी खबर चलती रही। क्या यह मीडिया की जिम्मेदारी नहीं थी कि वह बताए कि केरल में वामपंथी सरकार विचारधारा के आधार पर नरसंहार करवा रही है? कहीं ऐसा तो नहीं कि केरल में जो कुछ हो रहा है, उसे मीडिया के इस वर्ग का मौन समर्थन प्राप्त हो?
मीडिया का यह दोहरा बर्ताव हर कहीं देखने को मिलता है। उ.प्र. चुनाव में राहुल हर रैली में कह रहे थे कि भाजपा सरकार ने अमुक उद्योगपति को 12,000 करोड़ रुपये देकर विदेश भगा दिया। उनका दावा है कि सरकार ने 50 सबसे अमीर लोगों के कर्ज माफ कर दिए। लेकिन कभी क्या किसी अखबार या चैनल पर यह सवाल देखा कि राहुल केंद्र सरकार के बारे में ये दावा किस आधार पर कर रहे हैं? राहुल और अरविंद केजरीवाल जैसे ज्यादातर समय छुट्टियां मनाने वाले नेता जो चाहे, बोलते हैं और मीडिया उसे हू-ब-बू दिखाता है। ऐसे मीडिया की निष्पक्षता और विश्वसनीयता का लोगों की नजरों में संदिग्ध होना हैरानी की बात नहीं।
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