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यामिनी चतुर्वेदी उन रचनाकारों में प्रमुख हैं, जिनका परिचय व्यापक पाठक समुदाय से सोशल मीडिया-फेसबुक ने कराया है। बाजार की चालाकियां किस तरह से त्योहार को कारोबार में तब्दील कर देती हैं, यह बताने की कोशिश की गई है इस रचना में
हर साल की तरह इस साल भी फागुन का महीना आ ही गया। वैसे ये फागुन का महीना कुछ ज्यादा ही बेहया-सा होता है। और महीनों की तरह चुपचाप आना इसे नहीं सुहाता। अपने नाम की तुक वाले सावन की तरह आने के पहले से ही इसके आने के इस कदर हल्ले हो लेते हैं कि बिन बुलाए मेहमान की बेमन से खातिरदारी किए जाने की तरह ही इसके स्वागत का भी प्रबंध करना पड़ता है। वैसे तो फागुन में होली के सिवा ऐसा कुछ खास तो है नहीं जिसका इंतजार किया जाए, लेकिन ये होली भी ‘खुदा नहीं तो खुदा से कुछ कम भी नहीं’ जैसी होती है। वैसे भी आज के बाजारवाद के दौर में जो भी त्योहार आने वाला होता है, वह स्वत: ही प्रमुख त्योहार बन जाता है। दीवाली पर लोगों की जेब से भरपूर माल निकालने के बाद और क्रिसमस, न्यू ईयर और वैलेंटाइन के लगातार हमलों से लुटी-पिटी जनता होली तक आते-आते फटेहाल हो चुकी होती है। वो तो गनीमत है कि होली पुराने कपड़े पहन के खेली जाती है और खाने-पीने में सिवाय गुझिया और दही-बड़े बनाने के और किसी प्रकार का विशेष आयोजन जरूरी नहीं है। वैसे यहां कुछ लोग होली खेलने के बाद नए कपड़े पहनने और भांग- ठंडाई, कांजी पिलाने जैसी प्रथाओं का भी जिक्र कर ही देंगे। लेकिन फिर भी आम तौर पर होली फाकामस्ती का त्योहार है।
लेकिन इसकी फाकामस्ती कब तक बाजार की नजर से बच सकती थी। अब जब नजर पड़ ही गई तो बाजार ने होली में अपने लिए संभावनाएं तलाश ही लीं। हुआ यूं कि एक दिन हमारे मित्र ने अपनी दुकान में लगी होली की सेल का निमंत्रण दिया। हम होली की सेल सुन कर चकराए तो बच्चे बोले कि पिचकारी और रंगों की वैरायटी की सेल होगी। लेकिन शाम तक वे पूरा पेम्फलेट लेकर घर आए और हमसे उसमें सुधार का आग्रह किया। हम तो पेम्फलेट देख कर दंग ही रह गए। उसमें दीवाली की सेल से कम आइटम नहीं थे। डिजाइनर सफेद सूटों से लेकर झक्क सफेद कुर्ते-पाजामे तक की विशाल रेंज थी। हमने कहा कि होली पर तो पुराने कपड़े पहन कर रंग खेलते रहे हैं, तो वह बोला कि ये नया ट्रेंड है जिसमें सफेद सूट पहन के होली खेली जाती है। वैसे इसमें भी लेटेस्ट ट्रेंड विभिन्न रंगों में धब्बेदार रूप से रंगे हुए कपडेÞ हैं। ये कपड़े इस बुरी तरह रंगे हुए होंगे कि उन्हें देख कर कोई भी उन पर रंग डालने की कोशिश नहीं करेगा और आपके रंग बर्बाद नहीं होंगे। इसी रेंज में चादर से लेकर सोफा कवर और परदे तक उपलब्ध होंगे। पूरा घर ही होलीमय हो जाएगा।
कपडेÞ रंग-बिरंगे होने के बाद चेहरा सादा थोड़े ही रहेगा। उसके लिए हम विशेष तरह के रंग-बिरंगे पारदर्शी चेहरे ला रहे हैं, जिसे चेहरे पर चढ़ाया जा सकेगा। इससे आप रंगों से बचे रहेंगे और बच्चों के लिए इसमें कार्टून चरित्रों के नए स्वरूप भी है। वे अपनी पसंद के किरदार बन कर होली खेल सकते हैं। रंगों से सुरक्षा के साथ-साथ कार्टूनों की मस्ती भी। और हम ये सब सुन कर सोच रहे थे कि जो पीढ़ी रंगों से बचाव के इंतजाम में जुटी हो उसे कैसे बताया जाए कि कैसे वसंत पंचमी से ही होली में जलाने के लिए लकड़ियां चुराई भी जाती थीं, और चोरी पकडेÞ जाने पर गालियां भी खाई जाती थीं। कैसे गाली देने वालों के यहां मिर्चों की धूनी लगाई जाती थी और कैसे फिर घर पर शिकायत आने पर पिटाई भी होती थी। कैसे होली से पहले कीचड़, गोबर और मिट्टी का इंतजाम भी टेसू के फूलों से कम नहीं होता था। और कैसे इन सबसे होली खेलने के बाद उन्हीं के पैर छू के आशीर्वाद भी लिया जाता था और मुंह भी मीठा किया जाता था।
पर अब वक्त बदल गया है, होली के रंग-ढंग भी बदल गए हैं। फिर भी बहुत कुछ ऐसा है, जो नहीं बदला है। होली का जहां एक ओर दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ रंगों से सराबोर होने के लिए इंतजार किया जाता है, वहीं दूसरी ओर विभिन्न प्रकार के गीतों जैसे कि होली, फाग, धमार आदि के गायन के लिए भी किया जाता है। ये लोकगीत हमारी रग-रग में बसे हुए हैं। इनमें छेड़-छाड़, चुहल आदि के भाव भरे होते हैं जो विभिन्न कवियों ने समय-समय पर व्यक्त किए हैं। इनमें अधिकांश गीतों में गोरी के साथ ही होली खेलने की इच्छा व्यक्त की जाती है। कोई भी श्यामवर्ण नायिका के साथ होली खेलने की इच्छा व्यक्त नहीं करता। इससे यह स्पष्ट है कि रंगभेद हमारे मन में कितने गहरे जड़ें जमाए बैठा है। श्यामवर्ण नायिका के साथ कोई होली खेलने तक को तैयार नहीं, जबकि रंगने-पुतने के बाद वर्ण वैसे भी दिखाई ही नहीं देना है। इसी अन्याय के चलते फेयरनेस क्रीम का बाजार बढ़ा है। वर्ण के बहाने भी बाजार बढ़ाने का उस्ताद है बाजार।
दूसरी ओर गोरियां भी बेहाल हैं। एक तो रंग लगवाएं, जरा सा भी ना-नुकूर करें तो कवि की धौंस भी सहें कि होरी में मान न कर गोरी, होरी में। ये कौन सी बात हुई भला। कवि तो होली लिख के निकल लिए अब गोरी बेचारी गोरी हैं तो क्या किसी से भी रंग लगवा लें। न लगवाएं तो हर ऐरा-गैरा नत्थू खैरा मान न कर का उपदेश थमा कर चला जाए। बेचारियां, रंग लगवाएं तो रंग उतारने के लिए सौ जतन करती रहें और न लगवाएं तो मानिनी होने का इल्जाम सहें। वैसे भी ‘गोरा रंग दो दिन में ढल जाएगा’ का फतवा तो पहले ही जारी किया जा चुका है।
वैसे इस होली-गीत के रचयिता को भी एक सम्मान तो देना ही चाहिए। बंदे ने ये तो बता दिया कि होली में मान न करिए लेकिन मान आखिर करिए कब ये न लिखा। मान करने के लिए कौन सा मौसम मुफीद रहेगा ये न बताया। ये जरूर किसी सरकारी मुलाजिम की करामात है। बंदे को काम टालने की और अपने आगे चक्कर कटवाने की आदत रही होगी। उसने सोचा होगा कि होली में मान न करिए लिख जाएगा तो गोरी बेचारी उसके सामने हाथ-पैर जोड़ेगी कि बता दे भई कि मान कब करूं और वो बंदा अपनी ठसक में गोरी को तारीख पे तारीख टाइप चक्कर पे चक्कर कटवाता रहेगा। लेकिन बंदा ये भूल गया कि गोरी के कद्रदान बहुतेरे हैं। अब बेचारी सब के संग होली खेले और फिर रंग उतारने का प्रोग्राम रखे या चक्कर लगा-लगा के चकरघिन्नी बने।
वैसे यह रंगभेद कोई आज की बात नहीं है। यह तो सदियों से चला आ रहा है। अब आप इस मध्ययुगीन दोहे को ले लीजिए- ‘गोरी सोवे सेज पे मुख पे डाले केस, चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहुं देस।’ अब अंदाजा लगाइए कि वे क्या कहना चाह रहे हैं। वे कह रहे हैं कि गोरी ही सेज पर सो सकती है अर्थात् श्याम वर्ण को सेज भी नसीब नहीं। आगे गोरी ने मुंह पर केश डाल रखे तो रैन हो गई अर्थात् श्यामवर्ण मुंह पर केश डालेगी तो रैन नहीं होगी क्या? या वे यह आभास दे रहे हैं कि उसके केशों का रंग श्वेत है? बताइए, पहले नायिका के वर्ण पर टिप्पणी, फिर केशों पर भी! आगे, वे कहते हैं कि चूंकि रैन हो ही गई है तो अब अपने घर को जाना चाहिए। अर्थात् उनका यहीं बसने का इरादा था। इसी कारण हमें आज तक ये गीत सुनने पड़ते हैं कि ‘गोरे रंग का जमाना कभी होगा न पुराना।’ आगे ये अभय भी है कि ‘गोरी डर तुझे किसका है, तेरा तो रंग गोरा है।’ इस मानसिकता पर उस युग से इस युग तक कोई फर्क नहीं पड़ा है। गीतों में ‘गोरी है कलाइयां’ से लेकर ‘पहना दे गोल्डन झुमके’ तक गोरियों की सामर्र्थ्य का ही बखान भरा हुआ है। दुआ करने होली पर रंगभेद खत्म हो हर गोरी एक ही रंग-काले रंग में रंग जाए। ल्ल
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