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रामजस कॉलेज विवाद में जो तथ्य उभरकर सामने आने थे, वे बयानों के अंधड़ में दब गए। वामपंथी छात्र संगठनों से लेकर मीडिया के एक वर्ग ने स्टूडियो में बैठकर एकतरफा भूमिका निभाई
अश्वनी मिश्र
दिल्ली विश्वविद्यालय से संबद्ध रामजस कॉलेज विवाद थमने के बजाए तूल पकड़ता जा रहा है। रोज बयानों के बुलबुले उठ रहे हैं। प्रतिक्रियाओं की बौछारें हो रही हैं और सोशल मीडिया पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी है। इसमें राजनेता भी पीछे नहीं हैं। बहरहाल, पूरे मामले में कुछ सच ऐसे थे जो दब गए। इनके सामने आने पर बहस छिड़ सकती थी। पड़ताल के बाद हम ऐसे ही कुछ तथ्यों को आपके सामने प्रस्तुत कर रहे हैं-
1 महिला बनाम महिला
जालंधर की गुरमेहर कौर पाकिस्तान से नफरत छोड़ प्यार करने वाले अपने एक साल पुराने वीडियो से सुर्खियों में आई। उस समय पाकिस्तान की ओर से लगातार भारतीय चौकियों पर हमले हो रहे थे। तब लोगों ने उसकी आलोचना भी की थी। गुरमेहर कुपवाड़ा में शहीद कैप्टन मंदीप सिंह की बेटी है और श्रीराम कॉलेज में पढ़ती है। रामजस विवाद में सोशल मीडिया पर अपनी एक तस्वीर साझा की थी। इसमें उसके हाथ में एक तख्ती है जिस पर लिखा था,''मैं दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा हूं और एबीवीपी से नहीं डरती।'' आरोप है कि इसके बाद कुछ लोगों ने सोशल साइट्स पर से बलात्कार की धमकी दी। इसके बाद मामले ने तूल पकड़ा और वामपंथी छात्र संगठन समर्थन में उतर आए और सोशल मीडिया पर अभियान छेड़ दिया। बाद में इसे अभाविप से जोड़ दिया गया। लेकिन इन सब में एक बात दब गई। वह यह कि वामपंथी छात्र संगठनों और सेकुलर मीडिया को गुरमेहर की पीड़ा तो दिखी, लेकिन रामजस कॉलेज के बाहर जिन बेटियों के कपड़े फाड़े गए, जिनसे हाथापाई की गई, बाल पकड़ कर घसीटा गया और गंभीर चोटें आईं, इस पर न तो चर्चा हुई और न प्राइम टाइम पर इनके दर्द को दिखाया गया।
वामपंथी समर्थकों के हमले में घायल दौलतराम कॉलेज की छात्रा दीक्षा वर्मा ने बताया, ''21 फरवरी की घटना के बाद वामपंथियों ने अभाविप के खिलाफ मार्च निकाला। इसमें जेएनयू, जामिया, आईपी और डीयू के छात्र व अध्यापक भी शामिल थे। वे देश विरोधी और 'कश्मीर की आजादी' के नारे लगा रहे थे। हमने विरोध किया तो वे हम पर टूट पड़े। मेरे कपड़े फाड़ दिए और हमला किया जिससे मेरी आंखों पर चोटें आईं। इसके अलावा दो लड़कियों के साथ छेड़छाड़ की गई। पूरे मामले में मीडिया का रुख एकतरफा रहा। उसे सिर्फ उसका दर्द दिखा जिसे सोशल मीडिया पर धमकी मिली।'' एक अन्य छात्रा कंचन पारिख ने कहा, ''गुरमेहर के नाम पर जो लोग हाय-तौबा मचा रहे हैं, उन्हें हमारे कॉलेज की छात्राओं के साथ हुआ दुर्व्यवहार दिखाई नहीं देता? ये लोग एक की पीड़ा को भुना रहे हैं और दूसरी बेटियों की पीड़ा को अनसुना कर रहे हैं। अगर किसी ने गुरमेहर को धमकी दी है तो उन्हें पुलिस में इसकी शिकायत दर्ज करानी चाहिए थी। न कि समाचार चैनलों पर जाकर अभाविप को इसके लिए जिम्मेदार ठहराना चाहिए था। इस मामले का अभाविप से क्या मतलब? क्या जिसने धमकी दी वह अभाविप का कोई पदाधिकारी या कार्यकर्ता है? कह रहे हैं कि गुरमेहर को निशाना बनाया जा रहा है। लेकिन असल लोग तो परदे के पीछे हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के शांत वातावरण में जहर घोलना चाहते हैं।''
इस मामले में अभाविप के राष्ट्रीय मीडिया संयोजक साकेत बहुगुणा ने मौरिस नगर थाने में शिकायत दर्ज कराई है। शिकायत में उन्होंने कहा है कि गुरमेहर को धमकी देने वाले के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाए। इस बीच, गुरमेहर ने खुद को अभियान से अलग कर लिया।
2 किसकी बात मानें?
रामजस कॉलेज की छात्रा स्नेहा (परिवर्तित नाम) कहती हैं, ''यहां के छात्र किसे सुनना पसंद करेंगे, वह हम तय करेंगे या वामपंथी या देशद्रोही तय करेंगे? छात्र और छात्रसंघ के अध्यक्ष को जिस कार्यक्रम से आपत्ति है, उसे करने पर वे क्यों आमादा थे? उनकी आपत्ति को अभाविप से क्यों जोड़ा जा रहा है? मैं यहां की छात्रा हूं और मुझे उमर खालिद के परिसर में आने पर आपत्ति है, क्योंकि मैं जानती हूं वे यहां क्या बोलते। मैं ऐसा बोलती हूं तो कहेंगे कि अभाविप की कार्यकर्ता हूं।'' मयंक कुमार का कहना है, ''जैसे ही कॉलेज के छात्रों को इनके आने की जानकारी मिली, अध्यक्ष योगित राठी के साथ प्रधानाचार्य से इसकी शिकायत की, क्योंकि हम नहीं चाहते थे कि यहां भी वही हो जो बीते साल 9 फरवरी को जेएनयू में हुआ था। ये लोग ऐसे ही सांस्कृतिक कार्यक्रमों की आड़ में देश तोड़ने की बात करते हैं।'' एक और छात्रा प्रिया गौतम पूरे मामले में अभाविप को घसीटने पर आश्चर्य जताती हैं। उन्होंने कहा, ''लगता है कि जेएनयू में अभाविप ने उनके कारनामों का खुलासा किया था, उससे वे आक्रोशित हैं। इसलिए उन्हें हर जगह अभाविप ही दिखाई देती है।'' वहीं, योगित राठी पूरे मामले के बारे में बताते हैं, ''कॉलेज की साहित्यिक सोसायटी ने 'कल्चर ऑफ प्रोटेस्ट' नाम से दो दिवसीय सेमिनार का आयोजन किया था। इसमें 18 वक्ता थे, जिनमें जेएनयू के छात्र उमर खालिद और शहला रशीद भी शामिल थीं। उनके परिसर में आने को लेकर छात्रों में आक्रोश था। छात्रों का कहना था कि इनके आने से परिसर की शांति व्यवस्था भंग होगी। मैंने प्रधानाचार्य से इस बारे में लिखित शिकायत की। इसके बाद उन्होंने आयोजकों की बैठक बुलाई, जिसमें तय हुआ कि सेमिनार नहीं होगा। लेकिन एक घंटे बाद ही सैकड़ों लोग परिसर में जमा हो गए और देश विरोधी नारे लगाने लगे। 'कश्मीर मांगे आजादी, बस्तर मांगे आजादी' नारे के साथ प्रदर्शन करते उनका वीडियो है जो रिकॉर्ड किया गया है।'' राठी बताते हैं, ''हमने इसका विरोध किया तो जेएनयू, जामिया, दिल्ली विवि. के दूसरे कॉलेजों से आए लोगों ने गाली-गलौज शुरू कर दी। इसी बीच, किसी ने बताया कि सेमिनार हॉल में बाहरी लोग बैठे हुए हैं। तब तक पुलिस भी आ गई। हमने पुलिस वालों से कहा कि हमें उनके परिचय पत्र जांचने दें। लेकिन हमें वहां जाने नहीं दिया गया। अगले दिन वामपंथी छात्र संगठनों और शिक्षकों तक ने छात्र-छात्राओं से मारपीट की और कई लड़कियों के कपड़े फाड़ दिए।''
हिंसा में दोनों पक्षों के करीब 26 लोग घायल हुुुए हैं, जिनमें पुलिसकर्मी भी शामिल हैं। इस बाबत दिल्ली विवि. के विद्यार्थियों ने वामपंथी छात्र संगठनों के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज कराई है। उधर, कॉलेज प्रशासन ने अनुशासनात्मक समिति से पूरे मामले की जांच कराने का निर्णय लिया है। स्टाफ काउंसिल की सदस्य डॉ. मधुमिता बनर्जी ने बताया कि दोषियों के खिलाफ समिति सख्त कार्रवाई करेगी। डीसीपी (अपराध शाखा) मधुर वर्मा ने कहा कि घटना की जांच चल रही है। घटनास्थल पर मौजूद छात्रों से बयान दर्ज कराने के लिए कहा जा रहा है।
इस पूरे मामले पर केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरन रिजीजू ने कहा, ''यदि संविधान बोलने की मौलिक आजादी का अधिकार देता है तो नागरिकों का मौलिक कर्तव्य भी सुनिश्चित करता है। बोलने की आजादी का मतलब देश विरोधी नारे लगाना नहीं होता। वामपंथियों को दूसरे के कंधे पर बंदूक चलाने की आदत पड़ चुकी है।''
3 देश विरोधी बातें किसे मंजूर ?
इस हिंसा में घायल किरोड़ीमल कॉलेज की राजनीति विज्ञान की छात्रा प्रेरणा भारद्वाज गुस्से में कहती हैं, ''कहा जा रहा है कि हम लोगों ने पत्थरबाजी की, तो वे दिखाएं कि उन्हें कहां चोटें आई हैं? सेमिनार के रद्द होने के बाद छात्र और शिक्षकों का संयुक्त मार्च निकाला। उनका कहना था कि उमर खालिद को आने से क्यों रोका गया? वे अभाविप को जिम्मेदार बताकर अभद्रता कर रहे थे और कश्मीर की आजादी के नारे लगा रहे थे। यह देखकर सिर्फ रामजस ही नहीं, दिल्ली विवि. के दूसरे कॉलेजों के छात्रों ने विरोध किया। तभी आईसा, जेएनयू व जामिया के छात्रों ने पथराव शुरू कर दिया। विवि. की छात्राओं के साथ दुर्व्यवहार, हाथापाई और मारपीट हुई। फिर भी हमारे ऊपर ही आरोप लगा रहे हैं। हम विवि. में देश विरोधी गतिविधियां स्वीकार नहीं करेंगे। ''
4 छात्रों की आड़ में वामपंथी ?
जिस वक्त रामजस कॉलेज में विवाद हो रहा था, घटनास्थल पर एक समाचार एजेंसी के पत्रकार भी मौजूद थे। नाम न छापने की शर्त पर उन्होंने बताया, ''सेमिनार रद्द होने के बाद वामपंथी छात्र संगठन और रामजस कॉलेज के छात्र एक-दूसरे के खिलाफ नारेबाजी कर रहे थे। लेकिन लग रहा था कि वामपंथियों की ओर से छात्रों को उकसाया जा रहा हो। देश विरोधी नारों के जरिये मामले को तूल देने की कोशिश हो रही थी। पुलिस मुख्यालय के बाहर जब मैंने घटना पर 'पीटीसी' शुरू की तो मैं कह रहा था- रामजस कॉलेज के बाहर वामपंथी छात्र संगठनों और कॉलेज के छात्रों से झड़प हुई और अब वे पुलिस मुख्यालय के बाहर प्रदर्शन कर रहे हैं। इतना सुनते ही जामिया मिल्लिया के छात्रों ने मुझे घेर लिया और कहा कि आप हमें वामपंथी नहीं बोल सकते। हम छात्र हैं और अभाविप के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं। मैंने पूछा, अगर छात्र हैं तो आपको अभाविप से क्या दिक्कत? अभाविप तो छात्रों के हित के लिए लड़ती है। लेकिन वे अपनी बात पर अड़े रहे। फिर मैंने फोन में आईसा और जेएनयूएसयू की तरफ से मार्च व प्रदर्शन में शामिल होने के लिए जारी प्रेस विज्ञप्ति दिखाते हुए पूछा कि कैसे मान लें कि यह छात्रों का आंदोलन है?''
5 षड्यंत्र अभाविप के विरुद्ध?
दिल्ली विवि. छात्र संघ की उपाध्यक्ष प्रियंका छाबड़ा के मुताबिक पूरे मामले में अभाविप कोई भूमिका नहीं है। जब रामजस के छात्र और उनके अध्यक्ष को बाहरी लोगों के आने पर आपत्ति है तो क्या जबरदस्ती की जाएगी? प्रियंका ने कहा,''जब कोई छात्र 'भारत माता की जय' का नारा लगाता है तो वामपंथी संगठन उसे अभाविप कार्यकर्ता घोषित करने में देर नहीं लगाते। रामजस कॉलेज में यही सब हुआ। हंगामा शुरू हुआ तब तक वहां अभाविप का कोई पदाधिकारी नहीं था। लेकिन बाद में कुछ छात्रों ने सूचना दी कि सेमिनार रद्द होने पर बाहरी लोग छात्र-छात्राओं को मार रहे हैं तब हम वहां पहुंचे। जब मैं पहुंची तो मेरे ऊपर भी पत्थर फेंके गए। क्या इसे हमला नहीं माना जाएगा? सिर्फ वामपंथियों पर हुए हमले गिने जाएंगे?''
उन्होंने मीडिया के रवैये पर सवाल उठाते हुए कहा, ''एसएफआई का नेता प्रशांत मुखर्जी अभाविप के छात्रों पर हमला कर रहा था। यही तस्वीर अगले दिन अखबार में छपी जिसका कैप्शन था- 'अभाविप का गुंडा'। इसी से समझा जा सकता है कि मीडिया किस तरह अभाविप को बदनाम करने की साजिश रच रहा है। हालांकि सोशल मीडिया ने मुख्यधारा के मीडिया की इस हरकत का खुलासा किया।''
गुरमेहर के अभियान पर उन्होंने कहा, ''अभाविप से किसी को भी डरने की जरूरत नहीं है। अगर अभाविप छात्रों को डरा-धमका रही होती तो 4 साल से लगातार हम यहां नहीं जीत रहे होते। हम छात्रों की समस्याओं से लेकर राष्ट्र की बात करते हैं और हमने छात्रों से वादा किया है कि विश्वविद्यालय में किसी भी तरह की राष्ट्र विरोधी हरकत नहीं होने देंगे। हम वही जिम्मेदारी निभा रहे हैं।'' दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष अमित तंवर कहते हैं,''हमने कभी भी सामान्य प्रदर्शन या मार्च का विरोध नहीं किया। लेकिन देश विरोधी गतिविधि हम किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं करेंगे।''
6 निशाने पर दिल्ली विश्वविद्यालय ?
जेएनयू मंे अभाविप के नेता सौरभ शर्मा कहते हैं, ''जेएनयू में राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के बाद दिल्ली विवि. को अस्थिर करने की कोशिश की जा रही है। इस समय जेएनयू पर मीडिया और लोगों की निगाहें हैं। इसलिए वे नए तरीके से तमाशा कर रहे हैं ताकि वे चर्चा में भी बने रहें और उनका एजेंडा चलता रहे।''
बहरहाल शिक्षण संस्थान में आएदिन होतीं देशविरोधी गतिविधियां समाज को तो आहत कर रही हैं, वहीं सवाल भी खड़ा कर रही हैं कि आखिर आए दिन होती इन गतिविधियों के पीछे वे कौन से तत्व हैं जो शिक्षा के मंदिरों को देशविरोध का गढ़ बनाने पर तुले हैं।
पंाच फीट 16 इंच की लड़की
विजय क्रान्ति
किसी भी कीमत पर सुर्खियों में आने और भीड़ से ऊंचा दिखने की बेताबी मंे अगर कोई उत्साही लड़की अपने देशभक्त पिता की शहादत की छाती पर चढ़कर 12 इंच की फालतू ऊंचाई हासिल कर ले तो इसे 'प्रगतिशीलता'कहा जाए या 'नैतिक दिवालियापन'?
जिस काम को दुनिया के बड़े से बड़े वैज्ञानिक और जादूगर नहीं कर पाए, उसे ट्विटर ने चुटकी में कर दिखाया। शायद यह ट्विटर का ही कमाल है कि कल तक पांच फीट चार इंच की गुरमेहर कौर देखते ही देखते 'पांच फीट 16 इंच' की हो गई। जब तक वह नारेबाजी करने वाली सवा पांच फुटिया भीड़ का हिस्सा रही, तब तक उसे किसी ने नहीं देखा था। अब वीरेंद्र सहवाग और रणदीप हुड्डा जैसे हीरो, देश के गृह मंत्री सहित कई मंत्री उसके बारे में बयान दे रहे हैं और राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल, सीताराम येचुरी जैसे नेता उसकी तारीफ में चालीसा पढ़ रहे हैं। हर टीवी चैनल के लिए वह टीआरपी बटोरने का आइटम बन गई है।
पी.आर और इमेज मैनेजमेंट के विशेषज्ञ हैरान हैं कि पांच फीट चार इंच वाली बिरादरी की यह लड़की बौनी भीड़ में से अचानक ऊंचे ताड़ जैसी क्यों दिखने लगी? ऐसा कैसे हुआ कि राजनीतिक पार्टियों की इस लड़ाई में एक अनाम लड़की अचानक एक झंडे में तब्दील हो गई? झगड़ा जेएनयू के कम्युनिस्ट विद्यार्थी संगठनों और दिल्ली विवि. के अभाविप के छात्रों के बीच पुराने विवाद को लेकर शुरू हुआ कि देशद्रोह किसे कहते हैं और देशभक्ति के मायने क्या हैं? इस झगड़े में गुरमेहर कामरेडों के पाले में खड़ी हो गई, जिनका मानना है कि देश और देशभक्ति बेकार की बातें हैं। असली चीज तो 'आजादी' है। भले यह आजादी कश्मीर को भारत से तोड़कर अलग करने की हो या देश के टुकड़े करने वालों के नारों पर नाचने और समर्थन में ताली बजाने की।
गुरमेहर ने पहला धमाका ट्विटर पर किया। यूनिवर्सिटी के छात्रसंघ चुनावों में बार-बार अभाविप के हाथों मात खाने वाले वामपंथी और कांग्रेसी छात्र संगठनों की बांछें तब खिल गईं, जब उन्होंने गुरमेहर को एक पर्चा लहराते देखा जिस पर लिखा था, ''मैं एबीवीपी से नहीं डरती।'' एक शहीद की बेटी के अगले पर्चे ने तो उस जिहादी-नक्सली जुंडली को निहाल कर दिया जो 70 साल से कश्मीर को 'आजाद' कराने और भारत को तोड़ने के सपने पालती आ रही है। इसमें गुरमेहर ने लिखा था, ''मेरे पिता को पाकिस्तान ने नहीं, बल्कि युद्ध ने मारा।'' राजनीतिक वाहवाही लूटने की फिराक में गुरमेहर को पता भी नहीं चला कि उसके इस बयान ने उसके शहीद पिता सहित भारतीय सेना के हर शहीद को 'भाड़े पर मरने वाले लठैतों' की जमात में बदल दिया है। लेकिन इस घोषणा ने उसे पूरी कामरेड बिरादरी, इसकी प्यारी माता एनडीटीवी और भारत के दुश्मनों की आरती उतारने वाले तमाम मीडिया धुरंधरों की आंखों में हीरोइन बना दिया। पर वे कब तक हीरोइन बनी रहेगी यह तो वक्त ही बताएगा। हो सकता है अगले छात्रसंघ चुनाव तक बनी रहें और इस या उस छात्र संगठन की उम्मीदवार बना कर मैदान में कुदा दी जाएं। यह भी हो सकता है कि भीड़ से अलग दिखने वालों के शातिर पारखी केजरीवाल उसे नगर निगम के चुनाव में झंडा बनाकर फहरा डालें।
गुरमेहर कौर का क्या होगा, यह तो गुरु महाराज जी की मेहर पर निर्भर करता है। लेकिन यह तय है कि पांच फीट चार इंच की आम शख्सियत से रातोंरात 'पांच फीट 16 इंच' की खासमखास शख्सियत बनने के इस 'गुरमेहर सिंड्रोम' का राज खोजने में उन सबकी रुचि है जो किसी न किसी तरह भीड़ से अलग दूसरों से ऊंचा दिखना चाहते हैं। क्या गुरमेहर को यह फालतू ऊंचाई इसलिए हासिल हो गई कि उसने अपने बहादुर पिता की शहादत का राजनीतिक एनकैशमेंट करवा लिया? ऐसा होना तो नहीं चाहिए, क्योंकि पिता के कंधे तो भीड़ से ऊंचा उठकर मेला देखने के लिए होते हैं। उसकी शहादत की छाती पर पैर रखकर दूसरों से ज्यादा ऊंचाई हासिल करने के लिए नहीं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
क्या था मामला
रामजस कॉलेज में अंगे्रजी विभाग की ओर से 'कल्चर ऑफ प्रोटेस्ट' नाम से दो दिवसीय सेमिनार का आयोजन किया गया था। इसमें कुल 18 वक्ताओं के नाम थे जिनमें उमर खालिद और जेएनयू की छात्रा शहला रशीद का भी नाम था। कॉलेज के छात्रों ने प्राधानाचार्य राजेन्द्र प्रसाद (जो 28 फरवरी को 32 साल की सेवा के बाद सेवानिवृत्त हो गए) से इन दोनों वक्ताओं के परिसर में आने पर आपत्ति दर्ज कराई, जिसके बाद सेमिनार को रद्द कर दिया गया। इसके बाद वामपंथी छात्रों और शिक्षकों ने इसे बोलने की स्वतंत्रता से जोड़कर परिसर में हिंसा शुरू कर दी।
मैंने जब स्कूल देखा भी नहीं था तबसे भारत माता की जय बोल रही हूं। देशभक्ति किताबों से नहीं आती
—बबीता फोगाट, पहलावान
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से शिक्षा का कुछ लेना-देना नहीं है। मैं तो छठी फेल हूं। फिर भी मुझे विचार व्यक्त करने से कोई नहीं रोक सकता
—मधुर भंडारकर,फिल्म निर्देशक
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का बेबाक सच
डॉ. प्रेरणा मल्होत्रा
कितनी वीभत्स विडंबना है कि 'कल्चर ऑफ प्रोटेस्ट' पर सेमिनार कराने वालों ने न तो सहकर्मियों के मतभेद को तवज्जो दी और न ही प्रशासन के कार्यक्रम निरस्त करने के अनुरोध को। आयोजकों की मंशा और वैचारिक दिवालियेपन का आभास तो विषय और वक्ताओं के चयन से ही हो जाता है। कॉलेज में वह सब कुछ हुआ और विवि. भर में वह सब हो रहा है जो अकादमिक तो कतई नहीं है। इतना जरूर है कि अप्रासंगिक और निठल्ले लोगों के हाथ काम तो लग गया है। कोई इन्हें बताए कि यदि संविधान की तृतीय सूची के अनुच्छेद 19(1) में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है। पर अनुच्छेद 19(2) में स्पष्ट किया गया है कि यह स्वतंत्रता निर्बाध नहीं है। इसकी सीमाएं तय हैं। पूरे घटनाक्रम पर संदेहास्पद सवाल उठ रहे हैं जो स्वभाविक और परिस्थितियों के संदर्भ में अनिवार्य भी हैं। क्या यह किसी एक विवि. तक सीमित समस्या है? क्या ऐसे विषयों पर सेमिनार का आयोजन या विवादित वक्ताओं का चयन पूर्णत: अकादमिक है? यदि सिर्फ अकादमिक नहीं, तो वास्तविक मंशा क्या है? क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मात्र जुमला है? या किसी गहरी साजिश को ढकने का उपक्रम है? ऐसा तो नहीं कि घटनाक्रम की पटकथा तय है और बुद्धिजीवी, मीडिया, राजनीतिक भूमिका निभा रहे हैं? प्रायोजित करने वाली शक्तियां कौन-सी हैं? दिल्ली जैसे राज्य के विश्वविद्यालयों में कश्मीर की आजादी, बस्तर की आजादी के नारे लगाने की असली वजह क्या है?
(लेखिका दिल्ली विवि. के रामलाल आनंद महाविद्यालय मंे प्राध्यापिका हैं)
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