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पाञ्चजन्य
वर्ष: 13 अंक: 38 4 अप्रैल,1960
एक माह पूर्व जब प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने चीनी प्रधानमंत्री को वार्ता के लिए भारत आने का निमंत्रण दिया, पाञ्चजन्य ने यह आशंका व्यक्त की थी कि कहीं लद्दाख के अक्षय चीन वाले इलाके को शत्रु राष्ट्र को सौंपने की तैयारी तो नहीं की जा रही है। अभी चाऊ.एन.लाई के भारत आगमन में 15 दिन शेष हैं पर राजधानी दिल्ली से जो संकेत मिल रहे हैं वे हमारी उक्त आशंका को पुष्ट करने वाले होने के साथ ही साथ देश के हितचिंतकों के लिए पर्याप्त चिंता का कारण बन रहे हैं।
राजधानी स्थित पत्रिका के विशेष प्रतिनिधि श्री कृष्णलाल श्रीधराणी ने इस बात का रहस्योद्घाटन किया है कि गत सप्ताह नेशनल डेवलपमेंट कौंसिल की बैठक के अवसर पर कांग्रेस के केन्द्रीय कार्यालय पर सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक में पं. नेहरू ने इस बात के स्पष्ट संकेत दिये हैं कि अक्षयचीन की सड़क के पूर्व का इलाका चीन को सौंपने के अतिरिक्त भारत के पास अन्य कोई मार्ग शेष नहीं बचा है। श्रीधराणी के अनुसार पं. नेहरू ने कहा है कि 8000 वर्गमील क्षेत्र चीन को सौंप कर भारत चीन की खोई हुई मित्रता प्राप्त कर सकता है। कम्युनिस्ट चीन द्वारा भारतीय सीमा की मान्यता प्राप्त कर सकता है और आज जितने भूभाग पर चीन ने बलपूर्वक अधिकार कर रखा है उसमें का कुछ भाग चीन द्वारा खाली कराया जा सकता है। अपने उपयुक्त तर्कों पर बल देकर पं. नेहरू ने उक्त बैठक में आवेशपूर्ण भाषा में विरोधियों के बारे में बोलते हुए कहा कि उनकी बात मान ली जाए तो युद्ध के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प शेष नहीं रहता और यदि युद्ध हुआ तो क्या ये वार्ता का विरोध करने वाले लोग युद्ध क्षेत्र में दिखाई देंगे? आपने निराश भाव से कहा कि आखिर हम चीन का सामना कैसे कर सकते हैं।
यद्यपि उपरोक्त संवाददाता उक्त बैठक में स्वयं उपस्थित नहीं थे, पर उनके द्वारा किये गये रहस्योद्घाटन पर अविश्वास न करने का कोई कारण नहीं दिखता क्योंकि किसी भी मुख्यमंत्री अथवा प्रधानमंत्री ने इसका प्रतिवाद नहीं किया है। अत: नेहरू-चाऊ वार्ता का क्या परिणाम सामने आने वाला है इसके संबंध में क्या वे पुन: भारत माता के अंगच्छेद को स्वीकार करने के लिए तैयार है? भारत की अखंडता कायम रखने, उसके सम्मान को सुरक्षित रखने एवं परंपरागत सीमा में किंचित भी हेरफेर न होने देने की घोषणा के बावजूद पं. नेहरू अक्षय चीन का दान करने का विचार कर रहे हैं। विश्व शांति और पड़ोसी की मित्रता के मूल में पं. नेहरू के दिमाग का वह भय काम कर रहा है कि क्या हम चीन का मुकाबला कर सकते हैं और यदि युद्ध हुआ तो
क्या होगा?
अब समस्या के दो पहलू हमारे सामने हैं। एक तो यह कि क्या सचमुच 8000 वर्गमील भूदान करके हम चीनी लुटेरों की भूख सर्वदा के लिए शांत कर सकते हैं और दूसरा कि यदि उसकी भूख शांत भी होने वाली हो तो भी क्या हमारे लिए ऐसा करना लाभदायक और उचित होगा?
स्वतंत्र भारत में न 'स्व' का ज्ञान है न अपने 'तंत्र' का मान
विदेशी आक्रमणकारी हमें नष्ट नहीं कर सके पर अब हम स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का काम कर रहे हैं।
अंग्रेजों को भारत छोड़े हुए आज 12 वर्ष पूर्ण हो रहे हैं। अंग्रेजों के शासनकाल में हमने जिस स्वतंत्रता का आवाहन किया था, उसका आभास अभी तक भी किसी को नहीं हो पा रहा है। स्वतंत्रता अनुभव की वस्तु होती है तर्क की नहीं। तर्क से ऐसी अनेक बातें सिद्ध की जा सकती हैं जिसका वस्तुस्थिति से कोई भी संबंध न हो। अत: तर्क से यद्यपि यह सिद्ध करना सरल है कि चूंकि अब यहां किसी विदेशी का राज्य नहीं है, भारतीय जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि ही जनता द्वारा प्रदत्त अधिकारों का उपयोग करके भारत पर शासन करते हैं अत: हम स्वतंत्र हैं, पर जब तक इस स्वातंत्र्य की अनुभूति साधारण जन समाज को नहीं होती तब तक इस स्वतंत्रता का कोई मूल्य नहीं।
स्व के दर्शन नहीं
पर उस स्वतंत्रता की अनुभूति जनसाधारण को हो भी कहां से? अपने कहे जाने वाले इस स्वराज्य में न तो कहीं स्व का दर्शन होता है न अपने तंत्र का मान। लगातार 1200 वर्षों तक गुलामी की जंजीर में जकड़े रहने के पश्चात भी, इतनी लंबी अवधि में हम अपने जिस स्वत्व का विस्मरण एक क्षण भी नहीं कर सके, आज उसे हम बड़ी तेजी से भूलते जा रहे हैं। समाज-जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में यह सांस्कृतिक हृास आज स्पष्टतया दृष्टिगोचर हो रहा है। जीवन की श्रद्धा ही मानो नष्ट होती जा रही है और इस हृास की गति इतनी तीव्र है कि यदि सभी विचारक गंभीरतापूर्वक उस पर विचार करके उसका उचित हल न ढूंढें तो परिस्थिति अत्यंत गंभीर हो सकती है।
मान्यताओं पर आस्था
अपने देश पर जब मुसलमानों का आक्रमण प्रारंभ हुआ और उन्होंने हमारी असंगठित अवस्था का लाभ उठाकर अपना राज्य निर्माण किया उस समय समाज का सर्वसाधारण व्यक्ति, चाहे वह प्रकांड पंडित हो अथवा साधारण अनपढ़ किसान, वह अपनी इन मान्यताओं पर दृढ़ आस्था रखता था। जो शिखा-सूत्र हिंदुत्व का प्रतीक होने के कारण कभी-कभी जीवन को भी संकट में डाल देता था, उसे भी त्याग करने की अपेक्षा उसे धारण करने का ही आग्रह किया जाता था। कोई ऐसा नहीं सोचता था कि इन बाह्य प्रतीकों को धारण करने न करने से होता ही क्या है? इसके विपरीत उसी शिखासूत्र के आग्रह के कारण अनेक लोगों को अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ता था।
माओवादियों से सावधान!
चीन और पाकिस्तान के संकट के संदर्भ में हमें उन तत्वों की गतिविधियों का भी विचार करना होगा जो उनसे सैद्धांतिक प्रेरणा लेकर उनकी योजना के अनुसार ही यहां पर काम कर रहे हैं। पश्चिम बंगाल और केरल में माओवादी कम्युनिस्टों के प्रतिनिधि सत्ता में भागीदार होने के बाद उनका साहस बढ़ा है तथा उन्होंने अपने मन्तव्यों को पूरा करने के लिए सत्ता का खुलकर दुरुपयोग किया है। एक ओर तो उन्होंने नक्सलबाड़ी जैसे कांड करके कानून और व्यवस्था को भंग किया और दूसरी ओर पुलिस एवं प्रशासन को निष्क्रिय बनाने की भी कोशिश की। देश को सचेत रहना होगा तथा यह देखना होगा कि ये तत्व कोई ऐसी अशांतिपूर्ण स्थिति
न पैदा कर दें जिनका लाभ कम्युनिस्ट चीन और पाकिस्तान उठा लें। —पं. दीनदयाल उपाध्याय (विचार-दर्शन, खण्ड-7, पृ. 86-87)
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