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संघर्ष या शांति…आह्वान आपको किसी भी ओर ले जा सकते हैं। किन्तु शांति का बिगुल फूंकने की मुद्रा संघर्ष की दुंदुभियां बजाने में बदलती दिखे तो इसे सीधा सरल आह्वान मत समझिये।
आह्वान और छद्म में अंतर होता है।
परिपक्व लोग भी फौरन यह अंतर नहीं पकड़ पाते। फिर वे तो बच्चे थे! दिल्ली विश्वविद्यालय के बच्चों को एक वामछद्म ने छल ही लिया।
बहस की आग पोस्टर की एक चिनगारी से ही तो भड़की थी? पोस्टर किसने पकड़ा, किसका चेहरा आगे किया गया, यह मायने नहीं रखता। महत्वपूर्ण यह है कि चिनगारी रखने का काम किसने किया? आरोप लग रहे हैं कि कांग्रेस के साथ सौदेबाजी में सिद्धहस्त, वामपंथी रुझान रखने वाली एक कुख्यात महिला पत्रकार की कलम ने ही वह भावुक वाक्य रचे थे जिन्हें बाद में एक छात्रा को मोहरा बनाने हुए सोशल मीडिया पर परोसा गया।
परदे के पीछे रहने वाले वहीं रहे लेकिन माहौल भुनाने में माहिर बाहरी वामपंथी टोलियों ने मानो दिल्ली विश्वविद्यालय पर हल्ला ही बोल दिया। विश्वविद्यालय के आंगन में इसके ही कॉलेज की छात्राओं से जमकर अभद्रता हुई और दोषी, लोगों की आंखों के सामने से सीना तानकर निकल गए!
वामपंथ की यह बड़ी सहज, ऊपरी तौर पर संवेदनशील और विचारोत्तेजक मुद्रा थी जिसे उस जैसी सोच के लोगों ने हाथोंहाथ लिया। लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय के आंगन में, कॉलेजों के बाहर यहां की छात्राओं को निशाना बनाते, उन पर घूंसे बरसाते वामपंथी, स्टूडियो और राजनीतिक दलों में बमकते उनके समर्थक अभिव्यक्ति की बात किस मुंह से करते हैं? यदि दिल्ली विश्वविद्यालय में अभिव्यक्ति मुद्दा है तो यह जामिया मिल्लिया इस्लामिया में क्यों नहीं है? यहां खालिद को आगे करने और वहां शाजिया को पीछे धकेलने का खेल कौन से शातिर दिमाग कर रहे हैं?
खेल कुछ और है। इस देश में, समाज में यहां के युवाओं में फांक पैदा करने का खेल। अभिव्यक्ति का उछाला गया नारा है।
लेकिन ठहरिए, अभिव्यक्ति जड़ तो हो ही नहीं सकती। चैतन्य, अनुभूति के लिए जीवन आवश्यक है। जीवन है तो चेतना है। चेतना है तो सही-गलत का अंतर है। एक तुलनात्मक समझ है। यदि कोई इस तुलनात्मक समझ को ही रौंदने पर आमादा हो तो? जीवन का मूल्य न समझने वाले हत्यारे ही अभिव्यक्ति की बात करें तो? तो इससे बड़ी विद्रूपता क्या होगी? यह तो विश्वविद्यालय है, केरल तो पूरा राज्य है? कहां है अभिव्यक्ति, कहां है न्याय? गर्दन अलग होने के बाद कोई आवाज नहीं निकलती, फिर कैसी अभिव्यक्ति?
हैरानी की बात है कि केरल में निदार्ेषों के खून से हाथ रंगने वाले दिल्ली में अभिव्यक्ति की डफली बजा रहे हैं!
जेएनयू में जनाधार खोते खेमे दिल्ली विश्वविद्यालय में आक्रोश की चिनगारी सुलगाकर छोड़ गए हैं। ऐसी आग लगाने का उनका अपना अनुभव है और ऐसे ही अलाव तापने में उन्हें आनंद आता है। स्थानीय छात्र आपस में गुंथे हैं, बाहर वाले आए भी और अपमानित कर, आग लगाकर निकल भी गए।
खराशों, अपमान और आंसुओं में डूबी छात्राओं को सड़क पर छोड़ वामपंथ का काफिला सोशल मीडिया के पोस्टर लहराता निकल गया। उस कथित धमकी का मातम मनाने, जिसका कायदे से किसी को अता-पता भी नहीं था!
धमकी देने वाले 'परोक्ष अपराधी' को तो पकड़ा ही जाना चाहिए, दंड मिलना चाहिए लेकिन क्या किसी अन्य छात्रा के आत्मसम्मान को कुचलने वाली प्रत्यक्ष करतूतों की अनदेखी कर देनी चाहिए? ताजा प्रकरण में यही तो हुआ है!
सवाल यह नहीं है कि दोषी कब पकड़े जाएंगे, सवाल यह है कि अपने शिक्षा संस्थानों में से हम उन ताकतों को कब खदेड़ पाएंगे जो हमारे बच्चों को मोहरा बनाती हैं और उन्हें भविष्य की राह पर बढ़ने देने की बजाए साजिशों के अंधे कुएं में धकेल देती हैं। शिक्षा संस्थान के लिए स्वतंत्र माहौल आवश्यक है। नए विचारों के अंखुए फूटें, नवोन्मेष की कलियां खिलें, इसके लिए ताजा हवा तो चाहिए ही, परन्तु यह हवा विषैली हो, यह नहीं चलेगा।
स्वतंत्रता में अनुशासन का भाव है और प्रतिभाओं की पौधशाला, हमारे विश्वविद्यालय, इस अनुशासन की उपेक्षा नहीं कर सकते। कक्षाओं से अनुपस्थिति, शोध-अध्ययन से मुंह चुराने और छात्र-शिक्षक राजनीति के नाम पर अपने दायित्वों को झटकने और दूसरों को बरगलाने की छूट किसी को नहीं दी जा सकती। किसी संगठन, किसी छात्र, किसी शिक्षक को नहीं। लोग ऐसी बेलगामी और उत्पात की छूट की कल्पना के साथ अपने बच्चों को यहां नहीं भेजते। जैसे किसी पौधशाला में हर क्यारी की देख-रेख, खुली हवा, धूप-पानी की जरूरत का ध्यान रखते हुए भी सही कीटनाशकों के छिड़काव और खरपतवार को उखाड़ते रहने का काम लगातार किया जाता है, उसी तरह हमें अपने शैक्षिक संस्थानों की देख-रेख करनी होगी।
यहां विचार चाहिए, विष नहीं।
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