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शुरुआती दौर से ही यह प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय वामपंथियों की जकड़न में रहा है। अराजक गतिविधियों से लेकर देश-विरोधी घटनाएं तक इनकी शह पर फली-फूलीं
उमेश उपाध्याय
वर्ष 1980 में जेएनयू में प्रवेश लेने के बाद पहली बार जब मैं 'डाउन कैम्पस' की कैंटीन में गया, तो वहां के उन्मुक्त माहौल ने मुझे अचम्भित कर दिया था। मैं दिल्ली विवि. से स्नातक करके यहां आया था। कैंटीन की पहली तस्वीर आज भी मेरी स्मृति में जिंदा है। बेतरतीब कुर्सी-मेज, कुछ लोग जमीन पर बैठे हुए, कॉफी और चाय के प्यालों की खनखनाहट और सिगरेट का धुआं। दिल्ली का होने के बावजूद यहां के खुलेपन ने मन में एक कौतूहल पैदा किया था।
उन दिनों जेएनयू दो परिसरों में बंटा हुआ था। स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज, जहां मैंने प्रवेश लिया था, उसकी कक्षाएं डाउन कैम्पस में लगती थीं। प्रवेश के कुछ महीने बाद ही छात्र संघ के चुनाव थे। वह माहौल भी नया और अनुपम था। सिर्फ हाथ से लिखे पोस्टर, डिनर के बाद मैस में होने वाली बैठक, बहस, छात्रों का बनाया हुआ चुनाव आयोग, ये सब नया और अनूठा था। उससे पहले मैं दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ में केंद्रीय पार्षद का चुनाव जीत चुका था। साथ ही स्नातक में टॉपर होने के कारण दिल्ली विवि. की अकादमिक काउन्सिल में छात्रों का चुना हुआ प्रतिनिधि भी रह चुका था। इस नाते छात्र राजनीति मेरे लिए नई चीज नहीं थी। एक बात जरूर खलती थी कि इन बहसों में छात्रों की समस्याएं परिसर के मुद्दे और उन्हें होने वाली रोजमर्रा की दिक्कतें ज्यादातर गायब रहती थीं। इसी माहौल में हम कईं छात्र आपस में मिलते थे और इसी पृष्ठभूमि के बीच अभाविप की औपचारिक शुरुआत हम कुछ लोगों ने की। इनमें श्री आदित्य झा, श्री संजय सत्यार्थी, श्री उमेश कुमार इत्यादि शामिल थे। इसके बाद ही हमें पता चला कि जेएनयू का खुलापन वैचारिक तौर पर एकतरफा ही था। हम लोगों ने भी भाषणों की एक शृृंखला शुरू की। मुझे याद है, गोष्ठियों की इस शृृंखला में हमने श्री पीलू मोदी (स्वतंत्र पार्टी), श्री लालकृष्ण आडवाणी, श्री राम जेठमलानी, श्री के.आर.मलकानी आदि को बुलाया था। बस फिर क्या था, हमारा विरोध शुरू हो गया। यह विरोध सिर्फ वैचारिक ही नहीं था। एक बार जब डॉ. मुरली मनोहर जोशी को हमने गोष्ठी के लिए बुलाया तो वामपंथी संगठनों ने घेराबंदी कर विद्यार्थियों को मैस में घुसने नही दिया। डॉ. जोशी को परिसर लाने में काफी धक्कम-धक्का का सामना हमें करना पड़ा था। उनकी बैठक नहीं हो पाई थी। हमारे सभी साथी अत्यन्त मेधावी थे। परन्तु राष्ट्रवादी विचार का होने के कारण हम सब अजीब किस्म की वैचारिक अस्पृश्यता का शिकार होते थे। हमें देखकर तकरीबन बाकी सबका भाव यह होता था,''अरे इस परिसर मेंे ये कैसे आ गए?'' इसी दौरान विवि. में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा भी लगनी आरम्भ हुई। फिर तो बस पूछिए मत, विरोध का आलम क्या था। हम लोगों को देखकर ऐसा भाव होता था मानो जैसे ब्रज भाषा में कहा जाता है,''बावरे गांव में ऊंट'' का आना।
खैर, हमने चुनाव लड़ने का फैसला किया। 1982 के चुनाव में श्री संजय सत्यार्थी महासचिव पद के और मैं स्वयं उपाध्यक्ष पद का उम्मीदवार बना। यह विवि. छात्र संघ में अभाविप का पहला पैनल था। यह कथित खुलेपन और झूठी सहिष्णुता को मानो एक चुनौती थी। और मैं कहूंगा कि इस चुनौती में हमारे वामपंथी साथी विफल रहे। हम बड़ी लगन से हाथ से बने बैनर-पोस्टर लगाते थे। और जेएनयू की 'प्रकृति' के विपरीत हमारे विरोधियों ने उन्हें फाड़ने और उनके ऊपर दूसरे पोस्टर लगाने का अभियान चलाया। उन्हें लगा कि ये 'अबौद्धिक', 'संघी' यहां क्यों और कैसे आ गए? इसी चुनाव में श्री आदित्य झा स्कूल ऑफ कम्प्यूटर साइंस से परिषद् के पहले काउंस्लर चुने गए। हमें भी हमारी उम्मीदों से ज्यादा 100 से भी ऊपर वोट मिले जो डेढ़-दो हजार के मतदान संख्या से काफी ज्यादा थे। जेएनयू में राष्ट्रवादी विचार का यह अंकुर वामपंथी विचारों की असहिष्णुतावादी सोच को क्यों मंजूर होता, इसलिए हमारा विरोध और प्रताड़ना तीव्रता से बढ़ती गयी। इस दौरान परिसर में विद्यार्थी परिषद के संयोजक थे श्री उमेश्वर कुमार, तो साथियों के रूप में सर्वश्री नरेश मोक्ता, शशि प्रकाश चौधरी, दिनेश दुवे और श्री हरमीत सिंह।
दूसरे के विचार को आप न मानें, उससे सहमत न हों, ये तो यह एक स्वाभाविक बात है। मगर वामपंथी विचार के लिए यह आस्था का नहीं बल्कि रणनीति का मुद्दा है। बहुलतावादी सोच को वे तभी तक मानते हैं जब तक उन्हें ये रास आती है। जहां वे मजबूत होते हैं, वहां वे फिर विरोध को साम, दाम दंड, भेद से कुचलते हैं। उनके लिए कोई भी हथियार उपयुक्त होता है, साधनों की शुचिता का कोई महत्व नहीं रह जाता। केरल में मार्क्सवादी हिंसा इसका उदाहरण है। स्टालिन से लेकर माओ तक का इतिहास रक्त से भरा हुआ है। जेएनयू में इसलिए राष्ट्रवादी विचार के अंकुर को मसलना उनके लिए जरूरी था। वैसे तो कई उदाहरण दिए जा सकते हंै मगर यहां एक बात बताना जरूरी है कि, उन दिनों श्री अरुण जेटली जो इस समय देश के वित्तमंत्री हैं, एक नामी-गिरामी वकील थे। वे दिल्ली छात्र संघ के नेता रहे थे। आपातकाल में जेल में भी रहे। एक बार उन्हंे परिसर में बुलाया था। वामपंथी संगठनों ने उनका बोलना मुश्किल कर दिया था। इसलिए अब जब वे बोलने की आजादी और सहिष्णुता की बात करते हैं तो उस पर सिर्फ हंसा ही जा सकता है। वे जब अपने गिरेबान में झांकेंगे तो शायद उन्हें मालूम पड़ेगा कि बहुलतावादी विचारों के सम्मान का उनका तर्क कितना खोखला-सतही है। इतना ही कहा जा सकता है कि 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे'।
वामपंथियों ने तो एक पूरी पीढ़ी को वैचारिक अस्पृश्यता का शिकार बनाकर उसे अकादमिक दुनिया से दूर रखा है। इसके कई उदाहरण मौजूद हंै। मैं कम से कम चार ऐसे मामले जानता हूं जिन्हें स्कूल से लेकर एम.फिल. तक लगातार अव्वल रहने के बावजूद दिल्ली में प्राध्यापक नहीं बनने दिया गया। क्योंकि वे राष्ट्रवादी सोच के थे। उनसे कम क्षमता, मेधा, अंकों वाले जेएनयू के छात्रों को प्रवक्ता बना दिया गया, क्योंकि वे वामपंथी संगठनों से संबद्ध थे। मैं स्वयं दिल्ली विश्वविद्यालय में तदर्थ प्रवक्ता तो बन गया मगर चूंकि मैं घोषित राष्ट्रवादी था इसलिए तय था कि दिल्ली या जेएनयू में व्याख्याता का पक्का पद किसी हाल में नहीं मिलेगा। 5-7 साक्षात्कार में हर बार यह सुनने को मिलता था, 'वेलडन जेंटलमैन-बट नेक्स्ट टाइम।'
जेएनयू को आज बहुलतावादी सोच का प्रतीक बनाने वालों ने लगातार यह सुनिश्चित किया कि उनका विरोधी विचार आगे न बढ़े। इसके लिए प्रतिभाओं के गले घोटना, हिंसा का सहारा लेेना, सत्ता का दुरुपयोग एवं पदों की बंदरबांट, ये सब कई दशकों तक तथाकथित बुद्धिजीवियों ने लगातार किया है। उसी का नतीजा है कि विवि.में भारत की बर्बादी और उनके टुकड़े करने के नारे खुलेआम लगे। भारत सरकार का विरोध भारत के विरोध में बदल गया, यह सोचने का विषय है। विवि. के प्राध्यापकों और विद्यार्थियों को ही क्यों, भारत के हर नागरिक को भारत सरकार, उनकी नीतियों, उनके मंत्रियों और कार्यक्रमों के लोकतांत्रिक विरोध का पूरा अधिकार है। उसका मैं सम्मान भी करता हूं। मगर भारत की राष्ट्रीय अस्मिता, अखंडता और उसकी सार्वभौमिकता को कैसे चुनौती दी जा सकती है? उस संविधान को उखाड़ फेंकने का संकल्प करने वालों को कैसे सहन किया जा सकता है, जिसने हर नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी है? पिछले साल परिसर में हुई देशविरोधी नारेबाजी एक पतनशील विचारधारा, अराष्ट्रीय सोच और खोखली असहिष्णुता की परिचायक है। जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय का पूर्व छात्र होने पर मुझे बेहद गर्व है क्योंकि उसने देश को बहुत कुछ दिया है। मैंने भी वहां से बहुत कुछ सीखा है। मगर जिस विद्या के मंदिर को अलग-अलग विचारों के पुष्पित-पल्लवित होने का केंद्र होना चाहिए, वह अब संकीर्णतावादी, पूर्वाग्रही, दिगभ्रमित और देश विरोधी विचारधारा का केंद्र बन गया है। यह देश के लिए भी जरूरी है कि जेएनयू को उसके इस गढ़ से बाहर निकाला जाए। इस ख्याति प्राप्त विवि. को यूं ही गिरने नही दिया जा सकता। उसे ऐसे बगीचे में बदलना जरूरी है, जिसमें अलग-अलग रंग के फूल खिलें जो भारत को एक वृहद वैचारिक परम्परा से सम्पन्न राष्ट्र बनाने में मदद करें। वह एक कल-कल, छल-छल करती हुई नदी की तरह बहे, न कि ठहरे हुए पानी का सड़ांध भरा तालाब बनकर रह जाए। वह ऐसा मंच हो जहां विभिन्न विचारों और मतों पर खुलकर बहस हो सके, जहां किसी विचारों को रोका न जाए और किसी एक विचार की इतनी दादगीरी न हो कि किसी अन्य विचार को रखने की इजाजत ही न हो। वैसे पिछले दिनों जेएनयू की हवा बदली है। वसंत के मौसम में पार्थसारथी रॉक के आस-पास जिस तरह बोगेनवीलिया के अलग-अलग रंग, पलाश के वासंती रंग परिसर में इन दिनों छटाएं बिखेर रहे हैं, जेएनयू के विचार प्रवाह में अब लंबी सदी के बाद नया मौसम शुरू हो रहा है।
(लेखक वरिष्ठ टेलीविजन पत्रकार हैं)
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