पुस्तक समीक्षा : शेख-नेहरू ने महाराजा को भेजा बंबई
July 13, 2025
  • Read Ecopy
  • Circulation
  • Advertise
  • Careers
  • About Us
  • Contact Us
android app
Panchjanya
  • ‌
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • वेब स्टोरी
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • अधिक ⋮
    • जीवनशैली
    • विश्लेषण
    • लव जिहाद
    • खेल
    • मनोरंजन
    • यात्रा
    • स्वास्थ्य
    • धर्म-संस्कृति
    • पर्यावरण
    • बिजनेस
    • साक्षात्कार
    • शिक्षा
    • रक्षा
    • ऑटो
    • पुस्तकें
    • सोशल मीडिया
    • विज्ञान और तकनीक
    • मत अभिमत
    • श्रद्धांजलि
    • संविधान
    • आजादी का अमृत महोत्सव
    • मानस के मोती
    • लोकसभा चुनाव
    • वोकल फॉर लोकल
    • जनजातीय नायक
    • बोली में बुलेटिन
    • पॉडकास्ट
    • पत्रिका
    • ओलंपिक गेम्स 2024
    • हमारे लेखक
SUBSCRIBE
  • ‌
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • वेब स्टोरी
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • अधिक ⋮
    • जीवनशैली
    • विश्लेषण
    • लव जिहाद
    • खेल
    • मनोरंजन
    • यात्रा
    • स्वास्थ्य
    • धर्म-संस्कृति
    • पर्यावरण
    • बिजनेस
    • साक्षात्कार
    • शिक्षा
    • रक्षा
    • ऑटो
    • पुस्तकें
    • सोशल मीडिया
    • विज्ञान और तकनीक
    • मत अभिमत
    • श्रद्धांजलि
    • संविधान
    • आजादी का अमृत महोत्सव
    • मानस के मोती
    • लोकसभा चुनाव
    • वोकल फॉर लोकल
    • जनजातीय नायक
    • बोली में बुलेटिन
    • पॉडकास्ट
    • पत्रिका
    • ओलंपिक गेम्स 2024
    • हमारे लेखक
Panchjanya
panchjanya android mobile app
  • होम
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • वेब स्टोरी
  • जीवनशैली
  • विश्लेषण
  • मत अभिमत
  • रक्षा
  • धर्म-संस्कृति
  • पत्रिका
होम Archive

पुस्तक समीक्षा : शेख-नेहरू ने महाराजा को भेजा बंबई

by
Feb 20, 2017, 12:00 am IST
in Archive
FacebookTwitterWhatsAppTelegramEmail

दिंनाक: 20 Feb 2017 15:44:10

प्रधानमंत्री नेहरू की शह पर महाराजा हरि सिंह के विरुद्ध कुटिल चाल चलने वाले शेख अब्दुल्ला के मन के अनुकूल सारी बातें होती रहीं और आखिर में 20 जून, 1949 को महाराजा बंबई के लिए निकल गए। इसके बाद वे कभी जम्मू-कश्मीर नहीं  लौटे। 26 अप्रैल, 1961 को बंबई में ही उनका निधन हो गया। उनकी वसीयत के अनुसार उनका अंतिम संस्कार बंबई में ही हुआ

हाल में एक शोधपूर्ण पुस्तक आई है, जिसका शीर्षक है- 'जम्मू-कश्मीर के जननायक : महाराजा हरि सिंह'। इसकी प्रस्तावना में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रघुवेंद्र तंवर लिखते हैं, ''पुस्तक का महत्व यह है कि इसके लेखक प्रो. कुलदीप चंद अग्निहोत्री ने महाराजा हरि सिंह का एक ऐसा पक्ष सामने रखा है, जिस पर पहले शायद ही किसी ने थोड़ा-बहुत लिखा था। जैसा कि उन्होंने लिखा है, संभव है कि बड़ी संख्या में हिंदुओं ने इस्लाम को अपना लिया हो, लेकिन हरि सिंह के शासनकाल में ऐसा एक भी मामला सामने नहीं आता, जिसमें धर्म बदलकर मुसलमान बने एक भी व्यक्ति ने पुराने धर्म को फिर से अपनाया हो या घर वापसी की हो। ऐसी निष्ठा से हरि सिंह अपनी प्रजा के साथ समानता और निष्पक्षता का व्यवहार करते थे।''  वे लिखते हैं, ''प्रो. अग्निहोत्री पाठकों से हरि सिंह का परिचय सामान्य मनुष्य के रूप में भी कराते हैं। ऐसे समय में जब भारत की रियासतों के राजकुमार, जोकि अपनी अनियंत्रित एवं पतित जीवन-शैली के लिए जाने जाते थे, जिनके भ्रष्ट आचरण और सड़ांध की कहानियां हर तरफ सुनी-सुनाई जाती थीं, उनके बीच हरि सिंह एक उल्लेखनीय अपवाद के रूप में नजर आते हैं। किसी को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि वह भारत की सबसे बड़ी रियासत के महाराजा थे। इसके बावजूद उनके आलोचकों को भी उनकी व्यक्तिगत जीवन-शैली पर कहने को ज्यादा कुछ नहीं मिला। अग्निहोत्री, श्रमसाध्य शोध से ज्ञात अनेक उदाहरणों को सामने रखते हैं, जिनसे यह स्पष्ट रूप से स्थापित हो जाता है कि हरि सिंह हृदय से एकदम सरल व्यक्ति थे। एक ऐसे व्यक्ति थे, जिनमें छल-कपट नहीं था। वे उन सिद्धांतों और मानकों पर अटल रहे, जिन्हें उन्होंने अपने और अपने परिवार के लिए तय कर लिया था। उन्हें इनसे डिगाना असंभव था। वे खर्च को लेकर अत्यधिक सावधान रहते थे और विरले ही राज्य के खर्च के साथ अपने खर्चों को मिलाया। वे कुछ अधिक ही उदार थे।' इस खंड में अनेक घटनाओं की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया है, जिनसे पता चलता है कि वह कितने नम्र थे और उनकी जीवनशैली कितनी सादगी भरी थी। ऐसी अनेक कहानियां हैं, जो बताती हैं कि कैसे महाराजा अपनी मोटर गाडि़यों को रोककर आम लोगों को लिफ्ट दे दिया करते थे या यह देखकर कि किसी तांगे वाले का घोड़ा इतना बूढ़ा हो चुका है कि वह अपना पेट नहीं पाल सकता है तो उसे नया घोड़ा खरीदने में मदद कर दिया करते थे।

वे लिखते हैं, ''हरि सिंह पर यह आरोप लगाया गया था कि उन्होंने भारतीय संघ के साथ अपने राज्य के अधिमिलन (विलय) पर फैसला करने में देरी की। इस दृष्टि से अनेक अध्ययनों ने उन पर आरोप लगाए हैं कि उन्होंने भारत के लिए एक ऐसी समस्या खड़ी कर दी, जिसका हल भारत आज भी तलाश रहा है। हालांकि, अग्निहोत्री जोर देकर कहते हैं कि ऐसा कोई महत्व रखने वाला प्रमाण नहीं मिलता, जिससे यह कहा जा सके कि हरि सिंह ने कभी स्वतंत्रता या पाकिस्तान के साथ जाने पर विचार भी किया हो। उन्होंने निर्णय लेने में समय लिया, लेकिन उन्हें सदैव इस बात का भी एहसास था कि उनके पास भारत के साथ विलय का ही एकमात्र विकल्प है। वे जिन परिस्थितियों में फंसे थे, उन पर विचार करने के बाद उनकी मनोस्थिति को भी समझा जा सकता है। लगभग हर बड़ा ब्रिटिश अधिकारी चाहता था कि हरि सिंह पाकिस्तान के साथ विलय कर लें। पश्चिमी जगत का प्रेस खुलकर भारत के विरुद्ध लिख रहा था। ऐसे में कोई भी कल्पना कर सकता है कि 1947 की गर्मियों के दैरान हरि सिंह कितने दबाव का सामना कर रहे होंगे। अग्निहोत्री के मुताबिक  हरि सिंह से अंग्रेजों की नाराजगी वास्तव में गोलमेज सम्मेलन (1930) के बाद से ही बनी हुई थी। उस सम्मेलन में हरि सिंह ने अपने संबोधन में उल्लेखनीय रूप से कहा था कि अंग्रेजों को भारत की राजनीतिक मांगों पर अधिक उदार रवैया अपनाने की जरूरत है।''

पृष्ठ 170 पर हरि सिंह के जम्मू-कश्मीर से निष्कासन के संबंध में लिखा गया है, ''यह महाराजा हरि सिंह के लिए अपमान की पराकाष्ठा थी, लेकिन शेख अब्दुल्ला इसके लिए बजिद थे और नेहरू इस खेल में उसके साथी थे, पर इसमें एक बाधा थी। उस बाधा को दूर किए बिना महाराजा हरि सिंह को रियासत से निष्कासित करना संभव नहीं था। जब तक महाराजा की गैर-हाजिरी में उनका कोई रीजेंट यानी प्रतिनिधि न मिल जाए, तब तक उनको रियासत से बाहर नहीं निकाला जा सकता था। यह रीजेंट या जिसका नाम कर्ण सिंह था / है और उसके पिता उसे टाइगर कहा करते थे। अब अगली कथा उसी टाइगर के शब्दों में, ''मेरे पिता को सरदार पटेल का निमंत्रण मिला, जिसमें उन्होंने पिताजी, मां और मुझे, तीनों को बातचीत के लिए दिल्ली आने का सुझाव दिया था। अत: अप्रैल (1949) में हम सब एक चार्टर्ड विमान डी.सी.-3 से नई दिल्ली के लिए रवाना हो गए। जहाज में चढ़ते समय मुझे यह एहसास भी नहीं था कि अब सिर्फ मेरे पिताजी की अस्थियां ही उनके प्रिय शहर जम्मू    लौटेंगी। …''

''दिल्ली पहुंचकर पहले तो हम पुरानी दिल्ली के मेडंस होटल में ठहरे।… फिर इम्पीरियल होटल में चले गए।… 29 अप्रैल को हमने सरदार पटेल के साथ खाना खाया।  डिनर के बाद मेरे माता-पिता और सरदार दूसरे कमरे में चले गए और कयामत वहीं बरपा हुई। सरदार ने मेरे पिता को बहुत ही शालीनता से, लेकिन दो टूक लहजे में बता दिया कि शेख अब्दुल्ला उनके राज त्याग के बारे में बहुत जोर दे रहे हैं, पर भारत सरकार यह महसूस  करती है कि यदि वे और महारानी कुछ महीनों के लिए रियासत में अनुपस्थित रहें तो यही काफी होगी। उन्होंने कहा कि संयुक्त राष्ट्र में सक्रियता से उठाई मांग से उत्पन्न जटिलताओं को देखते हुए राष्ट्रहित में यह आवश्यक है। उन्होंने मेरे लिए भी कहा कि क्योंकि अब मैं अमेरिका से लौट आया हूं, अत: पिता अपनी अनुपस्थिति में अपनी जिम्मेदारियां और कर्तव्यों को निभाने के लिए मुझे अपना रीजेंट नियुक्त कर दें।'' लेकिन कर्ण सिंह को इस पूरी घटना का पता होटल में लौट आने पर ही चला। और आगे की कथा एक बार फिर कर्ण सिंह से ही, ''इस पूरी घटना से मेरे पिता तो हतप्रभ रह गए।… जब वे मीटिंग से बाहर आए तो उनका चेहरा जर्द था, मां रूआंसा हो रही थीं और अपने आंसुओं को भरसक रोक रही थीं। हम लोग होटल लौट आए, रास्ते भर सभी चुप रहे। कमरे में पहुंचकर पिताजी अपने सलाहकारों, बख्शी टेक चंद, मेहरचंद महाजन तथा स्टाफ के अन्य अधिकारियों के साथ तुरंत मंत्रणा में व्यस्त हो गए। मां अपने कमरे में पलंग पर गिरकर फफक-फफक कर रोने लगीं। मैं भी उनके पीछे-पीछे कमरे में पहुंच गया। जब वे जरा शांत हुईं तो उन्होंने मुझे बताया कि भारत सरकार चाहती है कि पिता मुझे रीजेंट नियुक्त कर दें।''

अंतत: महाराजा हरि सिंह शेख की चालों को काट नहीं पाए और वे भारी मन से अपना राज छोड़ने के लिए राजी हो गए। एक दिन वे बंबई के लिए निकल गए। पृष्ठ 180 पर लेखक लिखते हैं, ''अपना राजपाट कर्ण सिंह को सौंपकर, उसकी श्रीनगर को रवानगी से पहले ही महाराजा हरि सिंह अपने स्टाफ और नौकरों-चाकरों के साथ सुबह ही बंबई के लिए रवाना हो गए। उनका नया पता था-कश्मीर हाउस, 19 नेपियन सी रोड, बंबई। अब वे अपनी यात्रा जहाज से करने वाले नहीं थे, बल्कि उन्हें अपने लंबी यात्रा दिल्ली से बंबई जाने वाली रेलगाड़ी से ही करनी थी। …जाने से पहले उन्होंने अपनी पत्नी तारा देवी की ओर देखा। शायद उनको आशा होगी कि वह उनके साथ जाएंगी, लेकिन तारा देवी ने उनके साथ बंबई जाने की बजाय कसौली जाना श्रेयस्कर समझा, क्योंकि ''वह बंबई की गरमी सहन नहीं कर सकती थीं।'' लेकिन कहा जाता है कि तारा देवी की शर्त थी कि उनका भाई नर्चित चंद भी बंबई में उनके साथ रहेगा, लेकिन महाराजा को यह शर्त मंजूर नहीं थी। तारा देवी अपने भाई के साथ कार में हिमाचल प्रदेश स्थित कसौली के लिए रवाना हो गईं। महाराजा हरि सिंह बंबई चले गए और जीवनभर वापस नहीं आए। मां और बाप दोनों के चले जाने के बाद कर्ण सिंह जहाज में बैठकर 'अपनी' रियासत जम्मू-कश्मीर की ओर चले।   

पुस्तक के अंत में 'अंतिम यात्रा' शीर्षक से एक अध्याय है। इसकी शुरुआत में लेखक लिखते हैं, ''अपने जीवन के अंतिम क्षणों में महाराजा हरि सिंह नितांत अकेले थे। … उनकी पत्नी उनको छोड़ चली गई थीं या फिर महाराजा ने उनको छोड़ दिया था।'' इस अध्याय से यह भी पता चलता है कि महाराजा हरि सिंह अंतिम समय में अपने परिवार के लोगों से बहुत ही निराश हो गए थे। वे अपने परिवार से कितने नाराज थे, इसका सबूत है वह वसीयतनामा, जिसे उन्होंने अपनी मृत्यु से लगभग एक वर्ष पहले 4 मार्च, 1960 को तैयार करवा दिया था। इसमें उन्होंने अपने अंतिम संस्कार के स्पष्ट निर्देश दे दिए थे। उस वसीयत में लिखा गया है, ''मेरे परिवार के किसी भी सदस्य को मेरा अंतिम संस्कार एवं उससे जुड़ी प्रथाओं को करने की अनुमति नहीं दी जाएगी। मेरा अंतिम संस्कार आर्य समाज की रीति से, वसीयत के निष्पादकों द्वारा चयनित किसी योग्य व्यक्ति द्वारा संपन्न किया जाएगा।'' वसीयतनामा में ही निर्देश था कि उनका अंतिम संस्कार बंबई में ही किया जाए, लेकिन जम्मू को वे अब भी भूले नहीं थे। जम्मू उनकी रग-रग में समाया हुआ था। ''मेरी अस्थियों को समुद्र में विसर्जित कर दिया जाए, लेकिन मेरी राख को चांदी के कलश में रखकर एक विशेष विमान द्वारा मेरी जन्मभूमि जम्मू शहर में बिखरा दिया जाए। (पृ.239)

महाराजा ने वसीयत में ही लिख दिया था कि उनकी मृत्यु के बाद किसी भी तरह का धार्मिक अनुष्ठान न किया जाए। लेकिन उनके पुत्र ने इसे नहीं माना। कर्ण सिंह खुद कहते हैं, ''हालांकि मेरे पिता की वसीयत मेंे लिखा था कि अन्य कोई धार्मिक अनुष्ठान न किया जाए, फिर भी मैंने इसे अपना फर्ज समझा कि मैं शास्त्रानुसार तेरहवीं का अनुष्ठान करूं। इसके तहत अनेक प्रकार की पूजा की जाती है। जमीन पर सोना पड़ता है। दिन में एक बार शाकाहारी भोजन करना होता है और दाढ़ी बढ़ानी होती है।''

(पृ-240)

लेखक लिखते हैं कि आश्चर्य होता है कि  जिन कर्ण सिंह ने बंबई जाने से पहले माता-पिता की यज्ञोपवीत संस्कार की इच्छा को पूर्ण करने के लिए, उस समय केश मुंडन की परंपरा  का निर्वाह, भारी दबाव के बावजूद भी नकार दिया था, वही कर्ण सिंह वसीयत में मना किए जाने के बावजूद महाराजा हरि सिंह की तेरहवीं करने को अपना कर्तव्य बता रहे थे।

इन प्रसंगों ने किताब को रुचिकर बना दिया है। जो भी महाराजा हरि सिंह को जानने की इच्छा रखता है, उसके लिए यह पुस्तक बहुत ही काम की है। अरुण कुमार सिंह

पुस्तक   :    जम्मू-कश्मीर के जननायक

    महाराजा हरि सिंह  

लेखक   :     डॉ. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

पृष्ठ         :     320

मूल्य       :  200 रु.

प्रकाशक :     प्रभात पेपरबैक्स,4/9, आसफ अली रोड, नई दिल्ली- 110002

 

ShareTweetSendShareSend
Subscribe Panchjanya YouTube Channel

संबंधित समाचार

RSS का शताब्दी वर्ष : संघ विकास यात्रा में 5 जनसंपर्क अभियानों की गाथा

Donald Trump

Tariff war: अमेरिका पर ही भारी पड़ सकता है टैरिफ युद्ध

कपिल शर्मा को आतंकी पन्नू की धमकी, कहा- ‘अपना पैसा वापस ले जाओ’

देश और समाज के खिलाफ गहरी साजिश है कन्वर्जन : सीएम योगी

जिन्होंने बसाया उन्हीं के लिए नासूर बने अप्रवासी मुस्लिम : अमेरिका में समलैंगिक काउंसिल वुमन का छलका दर्द

कार्यक्रम में अतिथियों के साथ कहानीकार

‘पारिवारिक संगठन एवं विघटन के परिणाम का दर्शन करवाने वाला ग्रंथ है महाभारत’

टिप्पणियाँ

यहां/नीचे/दिए गए स्थान पर पोस्ट की गई टिप्पणियां पाञ्चजन्य की ओर से नहीं हैं। टिप्पणी पोस्ट करने वाला व्यक्ति पूरी तरह से इसकी जिम्मेदारी के स्वामित्व में होगा। केंद्र सरकार के आईटी नियमों के मुताबिक, किसी व्यक्ति, धर्म, समुदाय या राष्ट्र के खिलाफ किया गया अश्लील या आपत्तिजनक बयान एक दंडनीय अपराध है। इस तरह की गतिविधियों में शामिल लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी।

ताज़ा समाचार

RSS का शताब्दी वर्ष : संघ विकास यात्रा में 5 जनसंपर्क अभियानों की गाथा

Donald Trump

Tariff war: अमेरिका पर ही भारी पड़ सकता है टैरिफ युद्ध

कपिल शर्मा को आतंकी पन्नू की धमकी, कहा- ‘अपना पैसा वापस ले जाओ’

देश और समाज के खिलाफ गहरी साजिश है कन्वर्जन : सीएम योगी

जिन्होंने बसाया उन्हीं के लिए नासूर बने अप्रवासी मुस्लिम : अमेरिका में समलैंगिक काउंसिल वुमन का छलका दर्द

कार्यक्रम में अतिथियों के साथ कहानीकार

‘पारिवारिक संगठन एवं विघटन के परिणाम का दर्शन करवाने वाला ग्रंथ है महाभारत’

नहीं हुआ कोई बलात्कार : IIM जोका पीड़िता के पिता ने किया रेप के आरोपों से इनकार, कहा- ‘बेटी ठीक, वह आराम कर रही है’

जगदीश टाइटलर (फाइल फोटो)

1984 दंगे : टाइटलर के खिलाफ गवाही दर्ज, गवाह ने कहा- ‘उसके उकसावे पर भीड़ ने गुरुद्वारा जलाया, 3 सिखों को मार डाला’

नेशनल हेराल्ड घोटाले में शिकंजा कस रहा सोनिया-राहुल पर

‘कांग्रेस ने दानदाताओं से की धोखाधड़ी’ : नेशनल हेराल्ड मामले में ईडी का बड़ा खुलासा

700 साल पहले इब्न बतूता को मिला मुस्लिम जोगी

700 साल पहले ‘मंदिर’ में पहचान छिपाकर रहने वाला ‘मुस्लिम जोगी’ और इब्न बतूता

  • Privacy
  • Terms
  • Cookie Policy
  • Refund and Cancellation
  • Delivery and Shipping

© Bharat Prakashan (Delhi) Limited.
Tech-enabled by Ananthapuri Technologies

  • Search Panchjanya
  • होम
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • वेब स्टोरी
  • जीवनशैली
  • विश्लेषण
  • लव जिहाद
  • खेल
  • मनोरंजन
  • यात्रा
  • स्वास्थ्य
  • धर्म-संस्कृति
  • पर्यावरण
  • बिजनेस
  • साक्षात्कार
  • शिक्षा
  • रक्षा
  • ऑटो
  • पुस्तकें
  • सोशल मीडिया
  • विज्ञान और तकनीक
  • मत अभिमत
  • श्रद्धांजलि
  • संविधान
  • आजादी का अमृत महोत्सव
  • लोकसभा चुनाव
  • वोकल फॉर लोकल
  • बोली में बुलेटिन
  • ओलंपिक गेम्स 2024
  • पॉडकास्ट
  • पत्रिका
  • हमारे लेखक
  • Read Ecopy
  • About Us
  • Contact Us
  • Careers @ BPDL
  • प्रसार विभाग – Circulation
  • Advertise
  • Privacy Policy

© Bharat Prakashan (Delhi) Limited.
Tech-enabled by Ananthapuri Technologies