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पिछले दिनों सोशल मीडिया में एक जवान ने वीडियो अपलोड करते हुए खाने की शिकायत की थी। इसके बाद तथ्यों की जांच-परख किए बिना कुछ लोग सेना और अर्द्धसैनिक बलों के लिए कुछ भी कहने लगे। ऐसा करके हम सैनिकों के मनोबल को ही कम कर रहे हैं
मेजर गौरव आर्य
आईएमए, ओटीए या एनडीए करते समय शेटवोड के अविस्मरणीय शब्दों (अगले पृष्ठ उल्लेखित) को आपको सबसे ज्यादा आत्मसात करने की जरूरत होती है। महत्वपूर्ण बात यह है कि अधिकांश सैन्य अफसर इन्हीं शब्दों के आधार पर अपने कार्य को अंजाम देते हैं। 2016 में ही विभिन्न मुठभेड़ों में भारतीय सेना के 86 जांबाजों ने अपनी जान देकर यह साबित किया था। इन शहीदों में से 10 अफसर श्रेणी के थे। यहां मकसद शहीद के पद पर बात करना नहीं, बल्कि यह बताना है कि भारतीय थल सेना में अफसरों की संख्या तीन प्रतिशत से भी कम है। वहीं हादसों की दर 11़ 5 प्रतिशत है। इसलिए अफसरों द्वारा पहले जान देने का इससे बड़ा अन्य कोई प्रमाण नहीं हो सकता।
सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने भी इस बारे में अपना मत रखा है। अत: जहां तक भारतीय थल सेना का प्रश्न है, यह मुद्दा यहां समाप्त हो जाता है। इसलिए आइए यहां पिछले सप्ताह एक जवान के वीडियो के बाद सोशल मीडिया पर छिड़ी बहस का विस्तृत विश्लेषण करें। पिछले कुछ दिनों में बीएसएफ, सीआरपीएफ एवं सेना के जवानों ने भारतीय साइबर स्पेस में अच्छी-खासी जगह घेरे रखी थी। इसके चलते देश में दो तरह के विरोधी विचारों की लहरें जोर मारती दिख रही थीं।
जिन लोगों का यह कहना है कि जवानों का मत सही है और उनका शोषण होता है, मैं उन्हें इतना भर कहना चाहता हूं कि वे गलत हैं। वहीं जिन लोगों का यह कहना है कि जवान सफेद झूठ बोल रहे हैं और सब कुछ ठीक है, उनसे भी मेरा यही कहना है कि वे भी गलत हैं। सच इन दोनों दलीलों के बीच कहीं है और वह खासा असहज करने वाला है।
सबसे पहले मैं मुद्दे के सही कानूनी पक्ष को सामने रखना चाहूंगा। बीएसएफ, सीआरपीएफ, आईटीबीपी, एसएसबी एवं सीआईएसएफ अर्धसैनिक बल नहीं हैं। ये केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल (सीएपीएफ) हैं जिन्हें केंद्रीय पुलिस संगठन भी कहा जाता है। ढांचागत और प्रशासनिक तौर पर इनका भारतीय सेना से कोई संबंध नहीं है। कुछ विशिष्ट परिस्थितियों और परिवेशों में ये जरूर भारतीय थल सेना की कमान के अंतर्गत काम करते हैं। भारतीय सेना देश के सशस्त्र बलों का एक अंग है। देश के अन्य सशस्त्र बलों में भारतीय नौसेना और वायुसेना आती हैं। यह रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत काम करती हैं। वहीं सीएपीएफ का संचालन केंद्रीय गृह मंत्रालय करता है। इसलिए भारतीय सशस्त्र सेनाओं और सीएपीएफ की प्रकृति, प्रशिक्षण, कार्यकारिणी, ढांचा, क्षमताएं एवं प्रदेयता एवं उपकरणों की सीमा एक-दूसरे से पूरी तरह अलग हैं। कहने का मकसद यह नहीं कि सीएपीएफ इकाइयों के कार्य किसी भी तरह कम खतरनाक या जरूरी हैं। उनकी महत्ता सशस्त्र सेनाओं जितनी ही है। परंतु वे भारतीय लोकतंत्र की सशस्त्र सेनाएं नहीं हैं।
इसलिए उस पहले वीडियो पर विचार करें जिसमें बीएसएफ का जवान तेज बहादुर खराब भोजन और भोजन की कमी की शिकायत कर रहा है। मैंने पंजाब बॉर्डर (असल उत्तर और उससे आगे) में बीएसएफ के लिए काम किया है और उनके बीओपी (बॉर्डर आउट पोस्ट्स) पर रहा हूं। 1998 में मैंने मंधेर (जम्मू एवं कश्मीर) में बीएसएफ बटालियन के साथ समय बिताया था। वहां उनके खाने की गुणवत्ता मुझे अन्य जगहों के भोजन से बेहतर लगी थी। अगर इसका कारण मेरे लिए परिवेश में बदलाव का रहा तो मैं कुछ नहीं कह सकता। लेकिन उस दौरान मेरे दल ने भोजन से जुड़ी कोई शिकायत नहीं की थी।
मेरा यह मतलब नहीं कि बीएसएफ का जवान झूठ बोल रहा है। मेरा कहना है कि उसे दिया गया भोजन आमतौर पर वितरित किया जाने वाला भोजन नहीं था। ऐसा इसलिए क्योंकि मैंने बीएसएफ के जवानों के साथ लंगरों में कई बार भोजन किया है।
मेरी राय में जवान ने वीडियो में जिस समस्या का उल्लेख किया है, वह स्थानीय मुद्दा है और वहां सवालों के दायरे में भोजन नहीं, बल्कि बीएसएफ का नेतृत्व है। यदि भोजन लापरवाही के कारण खराब था तो इसका जवाब अफसरों को जरूर देना चाहिए। और यदि तूफान या भूस्खलन के कारण ताजा सामग्री के समय पर न पहुंचने के कारण भोजन में डाली गई पुरानी सामग्री से वह खराब हुआ है, ऐसे में भी अफसरों को हालात के बारे में अपने सिपाहियों को पहले ही बता देना चाहिए था। तो क्या बीएसएफ का जवान भ्रष्टाचार और अफसरों द्वारा भोजन सामग्री बेचने के बारे में झूठ बोल रहा था ? संभवत: नहीं। भ्रष्टाचार में कुछ भी नया नहीं है। यह होता आया है और इस मामले में भी ऐसा हुआ है तो मुझे कोई हैरानी नहीं होगी। परंतु यदि जवान जली हुई रोटियां और दालें दिखा सकता है तो वह उसके द्वारा पहले भेजी गई शिकायत की प्रतियां भी दिखा सकता था, जिन पर उसके अधिकारियों ने कोई ध्यान नहीं दिया। ऐसा करने पर उसकी दलील अधिक संतुलित होती।
इसमें शक नहीं कि सैनिकों को देश में मौजूद सर्वश्रेष्ठ भोजन मिलना चाहिए। परंतु कभी-कभार दुर्गम क्षेत्रों में ऐसा संभव नहीं हो पाता। बर्फ के कारण रास्ते बंद हो जाते हैं और तूफान आते रहते हैं। हेलिकॉप्टर लैंड नहीं कर पाते और भोजन सामग्री पहुंचने में देर हो जाती है। चीन की सीमा से लगे शिपकी ला में कई दिनों तक मेेरे जवान और मैं उबले चावलों के साथ हरी मिर्च, नमक और अचार खाते रहे थे। समुद्र तल से 15,000 फीट की ऊंचाई पर शून्य से 25 डिग्री कम तापमान में हमारे डिब्बाबंद राशन के शेड पर बर्फ की पूरी दीवार आ गिरी थी। सप्लाई लाइनों के बंद होने के कारण ताजा भोजन भी उपलब्ध नहीं था। इसलिए असुविधाओं को दरकिनार करते हुए उपलब्ध वस्तुओं का श्रेष्ठतम इस्तेमाल करना चाहिए। इधर सीआरपीएफ के एक सिपाही ने भी सोशल मीडिया पर शिकायत दर्ज करते हुए कहा है कि सीआरपीएफ भारतीय सेना जैसा ही काम करती है, अत: उसे समान सुविधाएं दी जानी चाहिए। सीआरपीएफ का यह बयान सफेद झूठ है। उसने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि अधिकांश देशवासियों को सैन्य ढांचों और उनकी कार्यप्रणाली का अंदाजा नहीं होता। इसलिए उन्होंने इस कोरे झूठ को पूरा सच मान लिया था। बेशक, सीआरपीएफ के सिपाही वतन की राह में शहीद हुए हैं। उनका काम बेहद कठिन होता है। परंतु यह कोरा झूठ है कि वे भी भारतीय सेना सरीखा ही काम करते हैं। वहीं भारतीय सेना का काम सीआरपीएफ से सर्वथा भिन्न है। दोनों दल पूरी तरह भिन्न हैं।
अब मैं आपको वह सच बताऊं जिसका आपको अंदाजा भी नहीं होगा। इस बात पर विमर्श करें कि सीआरपीएफ के हालात क्यों इतने बुरे हैं।
बीएसएफ दुनिया का सबसे बड़ा सीमा सुरक्षा बल है। यह एलओसी के एक हिस्से एवं राजस्थान, असम, पंजाब, गुजरात, पश्चिम बंगाल और पूवार्ेत्तर की सीमाओं की रक्षा करता है। वहीं सीआरपीएफ दुनिया में सबसे जटिल और अक्सर बेतरतीब कायार्ें को अंजाम देता है। इसे प्रत्येक स्थान पर तैनात किया जाता है। और यह तैनाती बिना किसी एकीकृत ढांचे के की जाती है। 1000 सिपाहियों की एक बटालियन, जिसे कंपनियों में बांटा जाता है, उसे बहुत ही कम अवसरों पर एक साथ तैनात किया जाता है। भारतीय सेना में कर्नल के स्तर के बराबर इसका एक कमांडेंट बटालियन का नेतृत्व करता है। यदि एक कंपनी आंध्र प्रदेश में है तो दूसरी आंतरिक सुरक्षा हेतु श्रीनगर में तैनात की जा सकती है। तीसरी कंपनी मणिपुर में होगी तो चौथी राजस्थान में, जहां वह स्थानीय चुनावों में सुरक्षा मुहैया करती दिखती है। इसलिए इसका कमांडेंट एक ऐसे दिक्सूचक की भांति होता है जिसकी सुई उत्तर दिशा की ओर कभी
नहीं दिखती।
साथ ही, सीआरपीएफ को राज्य पुलिस के अधीन तैनात किया जाता है। तो सोचिए, 25 वर्ष के अनुभव वाला एक कमांडेंट जिसे किसी जिले के एसपी को रिपोर्ट करना पड़े जिसका अनुभव 5-7 वषार्ें का हो। ऐसे आदेश हौसला गिराने का काम करते हैं।
बीएसएफ सीमा सुरक्षा बल है। सीआरपीएफ आंतरिक सुरक्षा बल है एवं इसका महानिदेशक जो सशस्त्र बल में रहकर ही तरक्की कर शीर्ष पर पहुंचने वाला नहीं होता, जो इसकी खूबियों और खामियों को, इसकी प्रकृति और भूमिका से अच्छी तरह वाकिफ हो। इसका डीजी किसी राज्य कैडर का एक आईपीएस अधिकारी होता है, जिसे किसी सीमान्त क्षेत्र की तैनाती का अनुभव नहीं होता। उसे आंतरिक सुरक्षा की भी जानकारी नहीं होती। हालांकि, इसके कुछ अपवाद जरूर हुए हैं जहां आईपीएस अधिकारियों ने सीएपीज़ में लंबा समय बिताया था, परंतु यह निरंतर चलने वाली प्रक्रिया नहीं रही।
महानिदेशक पद खाली होने के कारण कुर्सी संभालता है। वह पुलिस कार्य का विशेषज्ञ होता है जिसे आंतरिक सुरक्षा या सीमा प्रबंधन का जरा सा भी अनुभव नहीं होता। उसे अचानक ही एलओसी पर पाकिस्तान द्वारा की जाने वाली घुसपैठ या माओवादियों के खिलाफ लड़ाई में झोंक दिया जाता है। उसके लिए, ऐसी परिस्थिति में दलीय भावना का कोई मतलब नहीं रह जाता। मुठभेड़ में एक साथ शामिल रहे सैनिकों जैसी भाईचारे की भावना उसमें घर नहीं कर पाती। सबसे अधिक, इससे जुड़ा ज्ञान या अनुभव भी उसे नहीं होता। नतीजतन, समूचे दल पर इसका असर पड़ता है क्योंकि उसका सवार्ेच्च अधिकारी सीएपीएफ में अपनी तैनाती को भाड़े का मकान समझकर समय काटता है। वह खुद को उस घर का 'मालिक' नहीं समझता। उसका 'मकान' हमेशा उसका राज्य कैडर ही रहता है। लिहाजा, उसकी निष्ठा उसकी अपनी जड़ों के साथ ही रहेगी।
इसलिए जब तक सीएपीएफ में उसके अपने ही कैडर का कोई युवा अधिकारी कठोर एवं पारदर्शी प्रक्रिया के माध्यम से महानिदेशक पद तक नहीं पहुंचेगा, तब तक दल की स्थिति डांवाडोल रहेगी और रोटियां हमेशा जली रहेंगी। मैं यहां बिना मकसद बात नहीं कर रहा हूं। मुद्दा जवानों के साथ दुर्व्यवहार या भोजन से जुड़ा भी नहीं है। मुद्दा नेतृत्व से जुड़ा है। इसी के नीचे समस्या निहित है जिसे बीएसएफ और सीआरपीएफ के जवान झेल रहे हैं।
कोई भी वर्दीधारी सशस्त्र बल नीतियों एवं व्यवस्था से चलता है। और इन नीतियों एवं व्यवस्थाओं को अमल में लाया जाना चाहिए। सीएपीएफ में इसका नितांत अभाव है। कमांडेंट के पास कई फैसले लेने के अधिकार होते हैं। इसीलिए सीएपीएफ में उसकी इकाइयां यूनिट कमांडेंटों के 'स्थानीय आदेशों' पर चलती हैं। इसलिए सभी व्यावहारिक लक्ष्यों के लिए किसी भी सीएपीएफ का कमांडर उसकी धुरी होता है। बीएसएफ या सीआरपीएफ इकाई का कमांडेंट उसका सिरमौर या सरदार होता है। उसका कहा ही अधिकांशत: कानून होता है।
वहीं भारतीय थल सेना में 'स्थानीय आदेश' बेहद सीमित होते हैं। सभी चीजें सैन्य आदेशों, सैन्य निर्देशों, रक्षा सेवा नियामकों, विशेष सैन्य आदेशों एवं विशेष सेना निर्देशों के आधार पर निर्धारित होती हैं। भारतीय सेना दस्तावेजों के आदान-प्रदान में गहरा विश्वास रखती है। और यदि किसी आदेश या नियामक के आधार पर कोई नियम पारित किया जाता है, तो जनरल स्तर के अधिकारी भी उसका उल्लंघन नहीं कर सकते। इसलिए कुमाऊं यूनिट में जाते समय या गोरखाओं के साथ रहते समय आपको एक जैसा अहसास होता है। परंपराएं बेशक अलग हों परंतु दृष्टिकोण हर स्थान पर एक सा होता है।
इसलिए भारतीय सेना एक जवान द्वारा 'बड़ी' या 'सहायक' तंत्र की अपनी सीमा है। युद्ध और शांति के समय 'बड़ी' अफसर का अभिन्न अंग होता है। वह अफसर का रेडियो सेट और नक्शे लेकर चलता है। वह युद्ध में उसके साथ ही लड़ता है। वह और अफसर अपनी-अपनी वर्दियों का खुद ध्यान रखते हैं।
प्रत्येक टोकरी में कुछ सड़े हुए फल भी होते हैं, और भारतीय सेना इस मायने में कुछ अलग नहीं है। परंतु देश में ऐसा कोई अन्य संगठन नहीं जो सेना की तरह मातृभूमि के लिए सम्मान, हिम्मत, बलिदान और सेवाभाव रखता हो। यदि कुछ अफसर अपने 'बडी' का दुरुपयोग करते हैं तो उन्हें जरूर दंडित किया जाना चाहिए। परंतु 'बडी' व्यवस्था का उन्मूलन करना वैसा ही होगा कि जैसे किसी एक व्यक्ति द्वारा कार की टक्कर मार देने पर समूचे देशवासियों को ड्राइविंग करने से रोक दिया जाना।
किसी के भी द्वारा वर्दी पहनकर सोशल मीडिया पर अपनी शिकायतें प्रसारित करना बिल्कुल गलत है। इससे सैन्य बल हतोत्साहित होता है और अनुशासन व्यवस्था की बुनियादों पर असर पड़ता है। प्रत्येक सैन्य बल को उसके अंदर निहित सुधार तंत्र को अपनी शिकायत भेजनी चाहिए। समूचा तंत्र कम ही असफल होता है, परंतु यदा-कदा ऐसा होने पर शिकायतकर्ता राजनीतिक नेतृत्व तक पहुंचने का प्रयास करता है। जनता के बीच अपने सैन्य दल को गिराने से बेहतर है कि प्रधानमंत्री को पत्र या ईमेल भेजा जाए। व्यक्ति गलत हो सकते हैं, परंतु समूचा दल अक्षत होता है
राष्ट्र की सुरक्षा, गौरव एवं कुशलता प्रत्येक अवसर पर और हमेशा सर्वप्रथम होती है। आपके अधीन व्यक्तियों का गौरव, कल्याण एवं सहूलियत उसके बाद आती है। आपकी अपनी सहजता, सहूलियत एवं सुरक्षा हर बार और हमेशा अंतिम पायदान पर होती है।
-फील्ड मार्शल सर फिलिप शेटवोड
इसलिए बीएसएफ की एक इकाई की स्थानीय समस्या, जिसकी जांच भी नहीं हुई, अंतरराष्ट्रीय उपहास का कारण बन गई। इस मामले में मुख्यधारा एवं सोशल मीडिया दोनों बराबर के जिम्मेदार हैं। पृष्ठभूमि की जरा सी भी जानकारी के अभाव में धारणाएं पुख्ता कर ली गईं और मीडिया ट्रायल चला दिया गया। कुछ ही घंटों के अंतराल में 'राष्ट्र की सुरक्षा से समझौता' जैसे भारी-भरकम शब्द गूंजने लगे थे। किसी भी सशस्त्र बल के किसी भी अधिकारी का आचरण सवार्ेच्च सत्यनिष्ठा पर आधारित हो। उसमें जरा सी भी कमी पर उसे कठोर दंड मिलना चाहिए। अपने अधीनस्थों के साथ दुर्व्यवहार एवं अपनी ताकत का गलत इस्तेमाल अपराध है। इस मामले में बहस की कोई गुंजाइश नहीं हो सकती।
यह सब देखते हुए वह दिन भी अब दूर नहीं दिखता जब रक्षाकर्मी अपने भोलेपन में अपने गश्त या किसी मुठभेड़, धावे या किसी रक्षक दल का वीडियो बनाकर प्रसारित कर देंगे। और उसके बाद हमलों का सिलसिला शुरू हो जाएगा क्योंकि दुश्मन कभी नहीं सोता।
किसी भी सशस्त्र बल के संबंध में राजनीति या सोशल मीडिया को स्वीकारना आत्मघाती बटन दबाने जैसा ही काम होगा। अनुशासन इसकी पहली भेंट चढ़ेगा। और अनुशासन के बिना, किसी भी सशस्त्र दल का कोई अस्तित्व नहीं होता।
(लेखक पूर्व सैन्यकर्मी, लेखक एवं सार्वजनिक वक्ता हैं)
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