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हिंदुओं को बेघर होना पड़ा और हिंदू मालिकों द्वारा चलाए जा रहे समाचार पत्रों और चैनलों ने इस दर्दनाक घटना को इस तरह सन्नाटे में लिपटा दिया मानो कुछ हुआ ही नहीं
तरुण विजय
ेसुमंतो बनर्जी। रामपद मन्ना। दीपक मंडल। असित खानरा। दिलीप रोंग। आनंदो देबनाथ। गोपाल माझी। परेश दास। स्वप्ना पौल्के… यह सूची बहुत लंबी है। सौ के लगभग। 13 दिसंबर को प. बंगाल के धूलागढ़ गांव के पश्चिम पाड़ा में जिहादी मुसलमानों की भीड़ ने हिंदू घरों पर हमला बोला- सैकड़ों घर जलाए, लोगों को उध्वस्त किया। और क्यों? क्योंकि वे हिंदू थे, इसलिए उन्हें मरना, उध्वस्त होना ही था।
13 और 14 दिसंबर, 2016 को प. बंगाल में जो हुआ वह 1946 के जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन का ही प्रतिरूप था। लेकिन हिंदू जाति का दुर्भाग्य देखिए। हिंदू बहुल पश्चिम बंग, हिंदू नेतृत्व में प्रदेश सरकार, महान हिंदू धार्मिक संगठनों का केंद्र है यह बंकिम तथा आनंदमठ का बंग प्रदेश। फिर भी हिंदुओं को बेघर होना पड़ा और हिंदू मालिकों द्वारा चलाए जा रहे समाचार पत्रों और चैनलों ने इस दर्दनाक घटना को इस तरह सन्नाटे में लिपटा दिया मानो कुछ हुआ ही नहीं।
स्वतंत्रता के बाद से ही हिंदुओं को बेघर होने, बर्बाद होने के अनेक पड़ाव लगातार देखने पड़े। 1947, सितंबर के पाकिस्तानी हमले में मीरपुर नरसंहार। फिर पांच लाख कश्मीरी हिंदुओं को भीषण त्रासदी, अपमान और हिंसा के बीच अपना सदियों पुराना बसेरा छोड़ना पड़ा। उत्तर प्रदेश के कैराना से प्रताडि़त हिंदुओं को शहर ही छोड़ना पड़ा। यह स्थिति दिल्ली, मुजफ्फरनगर, जम्मू, कोलकाता जैसे शहरों में आज भी विद्यमान है। जम्मू और श्रीनगर से कोलकाता- धूलागढ़ और कैराना से कर्नाटक-केरल तक आज हिंदू आक्रांत हैं। और हिंदुओं के विरुद्ध प्रत्येक मुस्लिम जिहादी एवं कम्युनिस्ट आतंकवादी हमलों को देश के राजनेता तथा मीडिया नकारते हैं। उनके लिए कश्मीर की 16 वर्षीया बहादुर बेबी जायरा वसीम या रोहित वेमुला हिंदूू घरों के जलने, उजड़ने और हिंदू कार्यकर्ताओं की जघन्य हत्या से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। जायरा की बहादुरी को शाबासी देनी ही चाहिए लेकिन क्या हिंदू इस देश के नागरिक नहीं?
पाठकों को याद होगा कि जब गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस के 59 हिंदुओं को जलाया गया था, उस समय भी कांग्रेस-कम्युनिस्ट नेताओं ने स्वयं हिंदुओं पर अपनी जान लेने का आरोप लगाया था ताकि वे मुसलमानों पर हमला करने का बहाना ढूंढ सकें। लालू द्वारा बिठाए गए बनर्जी आयोग की रपट हास्यास्पद भी नहीं कही जा सकती— वह विकृत यवन मानसिकता का हिंदुओं पर शासकीय हमला ही था। वह गोधरा के बाद हिंदुओं पर शाब्दिक हिंसा था। लेकिन कुछ नहीं हुआ।
यह देश आज ऐसे मीडिया तंत्र और राजनीतिक सेकुलरवाद का वीभत्स शिकार हो रहा है जो मूलत:, हिंदू विद्वेषी मानसिकता वाला है। वे सब हिंदू हैं— यज्ञ, पाठ, पूजा, गंगा स्नान, तंत्र मंत्र, ज्योतिष में विश्वास रखने वाले। लेकिन वह सब कर्मकांड उनकी अपनी व्यक्तिगत आकांक्षाओं की पूर्ति तक सीमित रहता है।
अभी जयपुर में साहित्य उत्सव— 'जी-जयपुर लिट-फेस्ट' हुआ। वहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दो वरिष्ठ अधिकारी श्री दत्तात्रेय होसबले और श्री मनमोहन वैद्य आमंत्रित किए गए। इसके विरोध में अंग्रेजी मीडिया के कम्युनिस्ट मानसिकता वाले रिपोर्टरों की खबरें छपीं— मानो ऐसा बड़ा- सेकुलर-द्रोह कैसे होने दिया। केरल से माकपा के पोलित ब्यूरो सदस्य एम.ए. बेबी ने संघ की इस्लामिक स्टेट से तुलना करते हुए उत्सव का बहिष्कार किया और कहा— वे संघ के साथ मंच साझा नहीं करेंगे। बेबी का यह विकृत बयान 'द हिंदू' ने चार कालम की बड़ी खबर बनाकर एक प्रवचन की तरह छापा लेकिन उसने बेबी से यह प्रश्न नहीं किया कि संघ कार्यकर्त्ताओं की माकपा के हाथों लगातार हो रही हत्याओं के आरोप पर वे क्या कहेंगे?
पूर्वाग्रही, बेईमान मीडिया, असहिष्णुता एवं हिंदू विरोध का प्रतीक बन गया है। एम.ए. बेबी तो पूरे देश द्वारा नकारी गई, खंडहर बनी पार्टी की ऐसी पोलित ब्यूरो के सदस्य है जिसका राष्ट्रीय राजनीति में कोई दखल नहीं। फिर भी उनको बुलाया जाना इस सेकुलर मीडिया के लिए आश्चर्य नहीं, बलिक ठीक-स्वाभाविक बात थी। लेकिन जो रा.स्व.संघ अपने तप:पूत कार्यकर्ताओं द्वारा पूरे देश के नवोत्थान का पाथेय दे रहा है और जो अपना सर्वरूप प्रभाव लगातार बढ़ा रहा है, उसके दो मूर्धन्य विद्वान अधिकारियों को बुलाया जाना इस मीडिया को नागवार गुजरा। यह है इस मीडिया का असली-'वस्तुपरक, स्वतंत्र और सत्यशोधक चेहरा।'
इन पंक्तियों के लिखे जाते समय केरल के कन्नूर जिले में 30 वर्षीय भाजपा कार्यकर्ता संतोष की छुरा घोंपकर हत्या का समाचार, वहीं रा.स्व.संघ के तलिपरंबा स्थित कार्यालय में माकपा कार्यकर्ताओं द्वारा बम फेंकने की खबर के साथ मिला। इससे पूर्व माकपा कार्यकर्ताओं द्वारा पालक्काड में भाजपा नेता कण्णन की धर्मपत्नी विमला (46) पर तेजाब फेंका गया और फलत: तीन दिन बाद उनकी दुखद मृत्यु हो गई। केरल, कर्नाटक, बंगाल में हिंदुत्वनिष्ठ कार्यकर्ताओं पर मरणांतक हमले लगातार जारी हैं।
कौन उठेगा और कहेगा, अब यह नहीं चलेगा? क्या समाज अपने बेघर होते, मरते, अपमानित होते हिंदुओं की कथाएं पुस्तकों में पिरोकर उनको श्रद्धा-सुमन अर्पित करने के लिए ही स्वतंत्र हुआ है? क्या हिंदुओं को हिंदू के नाते जीवन का निर्बाध अधिकार देना आज भी कठिन है? इसका उत्तर तो पाना ही होगा।
(लेखक राज्यसभा के पूर्व सांसद हैं)
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