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अंदमान निकोबार द्वीप समूह के द्वीपों का नामकरण विदेशी सैन्य अधिकारियों और षड्यंत्रकारियों के नाम पर किया गया है। आजादी के इतने वर्षों के बाद भी इन्हें बदला नहीं गया है। गुलामी के प्रतीक इन नामों को बदलना ही चाहिए
अशोक कुमार श्रीवास्तव
कालापानी के नाम से मशहूर अंदमान निकोबार द्वीप समूह का देश के स्वाधीनता संग्राम में अपना विशिष्ट योगदान रहा है। 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम से लेकर अनेक ज्ञात-अज्ञात स्वाधीनता सेनानियों ने कालेपानी की सजा भुगती है। द्वीप समूह की राजधानी पोर्ट ब्लेयर में स्थित राष्ट्रीय स्मारक सेलुलर जेल अपने में एक सजीव इतिहास है। विदेशी शासकों ने अनगिनत देशभक्त स्वाधीनता सेनानियों पर अत्याचार किया, उन्हें अमानवीय यातनाएं दीं। इसका थोड़ा-बहुत एहसास हम इस राष्ट्रीय स्मारक को देखकर कर सकते हैं। वीर विनायक दामोदर सावरकर जैसे अनेक स्वाधीनता सेनानियों की तपोभूमि रहा है यह द्वीप समूह। देश की स्वाधीनता से पहले नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने पहली बार इन द्वीपों की धरती पर तिरंगा ध्वज
फहराया था।
कालापानी नाम तो अब अतीत के गर्त में डूब चुका है। देश की आज़ादी के बाद यह द्वीप समूह विश्व मानचित्र पर पर्यटन स्थल के रूप में उभर कर सामने आया है। हैवलॉक द्वीप एक ऐसा ही द्वीप है जो अपने नैसर्गिक समुद्र तट 'राधानगर बीच' के नाम से पूरे विश्व में विख्यात है। प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में देशी विदेशी पर्यटक पोर्ट ब्लेयर के समीप स्थित इस द्वीप में भ्रमण के लिए आते हैं। इस द्वीप में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान से आए विस्थापितों को बसाया गया है। लोगों की आजीविका का मुख्य साधन कृषि और बागबानी है, परन्तु पर्यटन के विकास से इस द्वीप में रहने वाले लोगों की हालत में काफी सुधार हुआ है। आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न हैवलॉक द्वीप अपने में एक दर्द, एक पीड़ा छुपाए बैठा है। यह दर्द है विदेशी दासता का दंश। इस द्वीप के नामकरण के इतिहास पर जरा गौर करें।
इस द्वीप का नाम तत्कालीन विदेशी जनरल हेनरी हैवलॉक के नाम पर विदेशी शासकों द्वारा रखा गया था। इलाहाबाद और लखनऊ में 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के सेनानियों का दमन करने में जनरल हेनरी हैवलॉक की अहम भूमिका है। स्मरणीय है कि विदेशी शासकों ने देश के प्रथमस्वाधीनता संग्राम के सेनानियों को कड़ी सी कड़ी सजा देने के लिए कालेपानी की सजा का प्रावधान किया था। इन ज्ञात-अज्ञात स्वाधीनता सेनानियों के नाम केवल चंद पुस्तकों तक सिमट कर रह गए हैं, परन्तु दमनकारी विदेशी सैन्य अधिकारी हैवलॉक के नाम वाला यह द्वीप स्वाधीन भारत के निवासियों के क्या हृदय का क्या शूल नहीं है? आजादी के सात दशक बाद भी आज इस नाम को हम ढो रहे हैं। यह हमारी गुलाम मानसिकता का परिचायक नहीं है? या फिर चन्द सुविधाभोगी नौकरशाहों का षड्यंत्र या फिर स्वाधीनता सेनानियों के त्याग और बलिदान के प्रति उनका उपेक्षा भाव या फिर देश के इतिहास के प्रति उनकी अज्ञानता। आज़ादी के बाद देश के अनेक शहरों, जगहों, सड़कों के नामों का भारतीयकरण हुआ है। कोलकाता के हैरिसन रोड का नाम बदल कर हमने महात्मा गांधी मार्ग रखा है। इसी प्रकार इलाहाबाद शहर का अलफ्रेड पार्क अब अमर शहीद चन्द्रशेखर आज़ाद पार्क के नाम से जाना जाता है। फिर इसहैवलॉकद्वीप के नाम का भारतीयकरण क्यों नहीं हो सकता? समय की पुकार है कि हम अपनी पराधीन मानसिकता में बदलाव लाएं। स्वाधीन भारत के स्वाभिमानी नागरिक के रूप में नए चिंतन और विचारों के साथ हमारी पराधीन मानसिकता को दर्शाने वाले इस द्वीप को एक नया भारतीय नाम देने की जिम्मेदारी आज प्रत्येक द्वीपवासी और भारतवासी की है। फरवरी, 2016 में योग गुरु स्वामी रामदेव ने पोर्ट ब्लेयर में योग शिविर आयोजित किया था। शिविर के दौरान उन्होंने इस द्वीप का नाम बदलने की आवश्यकता पर बल दिया था। कुछ अन्य लोगों ने भी नाम बदलने की बात कही है। इसके बावजूद इस द्वीप का नाम बदला नहीं गया है।
केवल हैवलॉक द्वीप ही नहीं, बल्कि राजधानी पोर्ट ब्लेयर के समीप दो और ऐसे द्वीप हैं जिनके नाम हर देशभक्त भारतवासी के लिए असहनीय हैं। ये द्वीप हैं नील आईलैंड और सर ह्यूरोज़ आईलैंड। अगर नील आईलैंड की बात करें तो इसकी दास्तान भी हैवलॉक द्वीप के समान ही है। स्पष्ट है कि इस नील द्वीप का नाम भी बदलना चाहिए। इस द्वीप के निवासियों ने सहज ढंग से अपने गांवों का नाम भारतीय परंपरा के अनुसार रखा है। ये गांव हैं- सीतानगर, भरतपुर, लक्ष्मणपुर, राम नगर इत्यादि। इसी प्रकार हैवलॉक द्वीप के गांवों के नाम हैं-गोविन्द नगर, विजय नगर, श्याम नगर, कृष्ण नगर, राधा नगर इत्यादि।
यह बदलाव देश और समूचे अंदमान और निकोबार द्वीपों के हित में होगा।
-ओमकार नाथ जायसवाल, वरिष्ठ पत्रकार
इन द्वीपों का नामकरण इस प्रकार हो कि भावी पीढ़ी देश के स्वाभिमान को बनाए रखते हुए स्वाधीनता सेनानियों से प्रेरणा ग्रहण कर देश की आज़ादी की रक्षा कर सके।
-डॉ. प्रेम किशन महारानी लक्ष्मी बाई की सेना की सैनिक
इन द्वीपोें को भारतीय नाम दिया जाए, क्योंकि अंदमान निकोबार द्वीप समूह भारत का अभिन्न अंग है।
-डॉ. रवीन्द्रनाथ रथ ओ.एस.डी. , गवर्नमेंट लॉ कॉलेज, पोर्ट ब्लेयर
इन द्वीपों के सांस्कृतिक हित में यह उचित होगा कि विदेशी आततायी शासकों के नामों के द्वीपों का नाम जल्द से जल्द बदल कर उनके नाम भारतीय स्वाधीनता सेनानियों के नामों पर होना चाहिए।
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इन तीनों द्वीपों के नाम शीघ्र बदल कर उन्हें भारतीय नाम दिया जाए जिससे आने वाली पीढि़यां अपने देश के शूरवीरों और संस्कृति को याद रख सकें।
-डॉ. जयदेव सिंह, प्राचार्य, टैगोर राजकीय शिक्षा महाविद्यालय, पोर्ट ब्लेयर
इन द्वीपों का नाम स्वाधीनता सेनानियों के नाम पर हो तो बेहतर होगा।
—नितीश तिवारी, संपादक, इंफोइंडिया
दासता के परिचायक इन तीनों द्वीपों के नामों का तुरन्त भारतीयकरण हो।
—डी.एम. सावित्री , लेखिकापद्मश्री नरेश चंद्र, फिल्म निर्माता
तीसरा द्वीप है सर ह्यूरोज़ द्वीप। इसका नाम विदेशी शासकों द्वारा झांसी की रानी लक्ष्मी बाई के हत्यारे विदेशी शासन के सैन्य अधिकारी ह्यूरोज़ के नाम पर रखा गया है। संक्षेप में इस द्वीप को हम रोज़ आईलैंड के नाम से भी जानते हैं। प्रमाण स्वरूप विकीपीडिया से यह अंश उद्धृत है, kkNeil Island is an island in the Andaman Islands of India, located in Ritchie's Archipelago. It is apparently named after James George Smith Neill, a British soldier who had sternly dealt with the insurgents during the suppression of the 1857 Mutiny…..ll
उल्लेखनीय है कि विदेशी हुकूमत द्वारा अंदमान निकोबार द्वीप समूह में महारानी लक्ष्मीबाई की सेना के कई वीर सैनिकों को निर्वासित कर कालेपानी की सजा दी गई थी। इन सैनिकों के वंशज आज भी पोर्ट ब्लेयर में जीवित हैं। डॉ. प्रेम किशन इनमें से एक हैं। क्या यह वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई और उनके देशभक्त वीर सैनिकों का अपमान नहीं है? झांसी की रानी के हत्यारे के नाम पर स्वाधीन भारत में एक द्वीप है़, यह सभी देश वासियों के लिए शर्म की बात है। यद्यपि इस दिशा में कई वर्ष पहले अंदमान निकोबार द्वीप समूह की उपराज्यपाल डॉ. राजेन्द्र कुमारी वाजपेयी द्वारा इस द्वीप का नाम बदलने का प्रयास किया गया था। परन्तु चूंकि उनके पास उपराज्यपाल का अतिरिक्त प्रभार था, शायद इसलिए उनका यह प्रयास अधूरा रह गया। परन्तु अब समूचे द्वीपों का जनमानस यह चाहता है कि इन द्वीपों के नामों का भारतीयकरण हो। प्रथम स्वाधीनता संग्राम के सेनानी स्व. मंगल सिंह डोगरा के वंशज मदन मोहन सिंह का मानना है कि अंदमान निकोबार प्रशासन और भारत सरकार की ओर से इस दिशा में शीघ्र पहल होनी चाहिए। इसी प्रकार डॉ. प्रेम किशन भी जोरदार शब्दों में कहते हैं, ''इन द्वीपों का नामकरण इस प्रकार हो कि भावी पीढ़ी देश के स्वाभिमान को बनाए रखते हुए स्वाधीनता सेनानियों से प्रेरणा ग्रहण कर देश की आज़ादी की रक्षा कर सके।'' द्वीपों की माटी से जुड़े फिल्म निर्माता पद्मश्री नरेश चन्द्र लाल कहते हैं, ''इन द्वीपों के सांस्कृतिक हित में यह उचित होगा कि विदेशी आततायी शासकों के नामों के द्वीपों का नाम जल्द से जल्द बदल कर उनके नाम भारतीय स्वाधीनता सेनानियों के नामों पर होना चाहिए।'' पोर्ट ब्लेयर के गवर्नमेंट लॉ कॉलेज के ओ.एस.डी. डॉ. रवीन्द्रनाथ रथ इस परिवर्तन का पुरज़ोर शब्दों में समर्थन करते हुए कहते हैं, ''इन द्वीपोें को भारतीय नाम दिया जाए, क्योंकि अंदमान निकोबार द्वीप समूह भारत का अभिन्न अंग है।'' वरिष्ठ पत्रकार ओमकार नाथ जायसवाल का मानना है, ''यह बदलाव देश और समूचे अंदमान और निकोबार द्वीपों के हित में होगा।''
जवाहर लाल नेहरू राजकीय महाविद्यालय, पोर्ट ब्लेयर के प्राचार्य डॉ. एन. फ्रांसिस जेवियर का मानना है कि देश के इतिहास के आततातियों के नामों पर रखे गए इन द्वीपों के नामों की अब कोई सार्थकता नहीं है। वे इन नामों के परिवर्तन के पक्ष में हैंंंं। टैगोर राजकीय शिक्षा महाविद्यालय, पोर्ट ब्लेयर के प्राचार्य डॉ. जयदेव सिंह कहते हैं, ''इन तीनों द्वीपों के नाम शीघ्र बदल कर उन्हें भारतीय नाम दिया जाए जिससे आने वाली पीढि़यां अपने देश के शूरवीरों और संस्कृति को याद रख सकें।'' लेखिका डी.एम. सावित्री मानती हैं कि दासता के परिचायक इन तीनों द्वीपों के नामों का तुरन्त भारतीयकरण हो। पोर्ट ब्लेयर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक 'इंफोइंडिया' के संपादक नितीश तिवारी का विचार है कि इन द्वीपों का नाम स्वाधीनता सेनानियों के नाम पर हो तो बेहतर होगा।
इसमें कोई दो राय नहीं कि अंदमान निकोबार द्वीप समूह का अत्यन्त सामरिक महत्व है। इसलिए इन द्वीपों में भारतीय संस्कृति और भारतीयता की जड़ें काफी मज़बूत होनी चाहिए। और इस दिशा में इस द्वीप समूह के द्वीपों, स्थानों और सड़कों इत्यादि के नामों का भारतीयकरण होना नितान्त आवश्यक है। लीक से हट कर कोई भी कार्य करने में थोड़ी कठिनाई, थोड़ा संकोच जरूर होता है पर ऐसा नहीं है कि यह कार्य जनमानस, नीति निर्माताओं और प्रशासकों के लिए कठिन हो। 'जहां चाह वहां राह'-समय रहते हमें इस दिशा में सही निर्णय लेना ही होगा। जन सहयोग के माध्यम से नामों का विकल्प ढूंढना ही होगा।
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