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रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर रक्षा खरीद, सशस्त्र सेनाओं और सैन्य युद्ध कौशल के आधुनिकीकरण जैसे अहम मुद्दों पर अपनी नीतियों और कार्यपद्धति में एक नई तरह की पारदर्शिता लाए हैं
नितिन ए. गोखले
सेाउथ ब्लॉक स्थित भारत का रक्षा मंत्रालय भारत सरकार के, सबसे बड़ा तो नहीं, सबसे बड़े मंत्रालयों में से एक, और निश्चित रूप से बेहद जटिल है। इसके प्रशासनिक विभाग के पास 15 लाख से ज्यादा सैन्यकर्मियों (थल सेना, नौसेना, वायु सेना और तटरक्षक बल) के लिए (2.58 लाख करोड़ का) विशाल बजट है। लेकिन मनोहर पर्रिकर जैसे व्यक्ति के लिए इस महत्वपूर्ण मंत्रालय की बारीकियों और जटिलताओं का अंदाजा लगाना कोई चुनौती नहीं थी, बल्कि एक प्रशिक्षित इंजीनियर के नाते उन्होंने चीजों को समझते हुए मंत्रालय के दैनंदिन कार्य पर अपनी छाप छोड़ी है। इसमें कुछ खामियों और अवसाद के पल भी आए, क्योंकि गहरे पैठे निहित स्वार्थों ने उनके प्रभुत्व को कमतर आंकने की कोशिश की है। बहरहाल पर्रिकर मंत्रालय को सही रास्ते पर चलाते हुए इसकी नीतियों और खरीद, सशस्त्र सेना के आधुनिकीकरण और सैनिकों के कल्याण जैसे अहम मुद्दों पर नई सोच से नई तरह की पारदर्शिता लाए हैं।
अपनी कार्यकुशलता और सदिच्छाओं के बावजूद आलस, अकर्मण्यता और एक से ज्यादा दशक की लचर विरासत के चलते पर्रिकर को रक्षा मंत्रालय को इसके कर्तव्य के प्रभावी निर्वहन लायक बनाने के लिए काफी प्रयास करना होगा। रक्षा मंत्री के नाते ए.के. एंटनी इतने निष्प्रभावी रहे थे कि उन्होंने कहीं से आई पहली (स्पष्टत: उकसावे पर की गई) शिकायत पाते ही करीब एक दर्जन टेंडर रद्द कर दिए थे और बाबुओं को उनकी मनमानी के हिसाब से मंत्रालय को चलाने की छूट दे दी थी। इसके उलट एंटनी के ठीक पूर्ववर्ती प्रणब मुखर्जी साउथ ब्लॉक पर पूरा नियंत्रण रखते थे। अगर वे एंटनी जितने समय के लिए रक्षा मंत्री रहते तो सेना शायद ऐसी खराब स्थिति में नहीं होती जिसमें उसने खुद को 2014 में पाया था।
रक्षा खरीद में मुख्य पहल
पूरी प्रतिरक्षा खरीद प्रक्रिया 2016 में नए नियम बनाए गए
सैन्य उपकरण, सिस्टम और उन प्लेटफार्म की समय पर खरीद सुनिश्चित की गई जो सशस्त्र सेना के लिए चाहिए थे, आवंटित बजटीय संसाधनों के पर्याप्त उपयोग के जरिए, प्रदर्शन योग्यताओं और गुणवत्ता मानकों के लिहाज से; इसे कारगर बनाते वक्त डीपीपी उच्च स्तर की प्रामाणिकता,जन जवाबदेही,पारदर्शिता,स्वच्छ प्रतियोगिता और समान स्तर के क्षेत्र उपलब्ध कराएगी
प्रतिरक्षा उपकरण उत्पादन और अधिग्रहण में आत्मनिर्भरता की सतत कोशिश की जाएगी
प्रतिरक्षा निर्माण में मेक इन इंडिया को सुगम बनाने के लिए एक नीतिगत खाका उपलब्ध कराया गया है और प्रतिरक्षा खरीद प्रक्रिया के साथ उभरने वाली नीति को साथ जोड़ा गया है
खरीद प्रक्रिया में अड़चनों को दूर करने के लिए और प्रतिरक्षा खरीद के विभिन्न आयामों को सरलीकृत/ तर्कसंगत करने के भी विशेष प्रयास किए गए हैं
पहले गन, गोलियां, जैकेट जैसी हर छोटी आवश्यकता के लिए मुख्यालय से स्वीकृत्ति लेनी जरूरी होती थी। मैंने वह सब बदल दिया। मैंने खरीद को सैन्यहित और जरूरत आधारित बनाया, उसे 10 करोड़ से बढ़ाकर 50 करोड़ कर दिया गया। कार्य को बांटने और पहुंच के दो मंत्रों ने गजब के परिणाम दिए हैं।
— मनोहर पर्रिकर
पाञ्चजन्य को दिए साक्षात्कार में, 17जुलाई, 2016
सीएजी की संसद में रखी गई पिछली रपट चौंकाने वाली है। रपट में उल्लेख है,''न्यूनतम स्वीकृत जोखिम स्तर पर भी आयुध का भंडारण सुनिश्चित नहीं किया गया, मार्च, 2013 में आयुध की उपलब्धता उस स्तर से नीचे थी, कुल 170 प्रकार के आयुधों में से सिर्फ 125 ही उपलब्ध थे।'' इसके साथ ही आयुध के कुल प्रकारों में से 50 फीसद का भंडार 'बेहद कम' था, जो 10 दिन की लड़ाई के लिए भी पर्याप्त नहीं था। यह तो केवल एक मिसाल है। लेकिन पर्रिकर के कार्यकाल में रक्षा खरीद में तेजी लाई गई है।
पहला कदम था परियोजनाओं को प्राथमिकताओं के अनुसार रखना। रक्षा खरीद महंगी होती है, और क्योंकि 5 साल में बहुत कम खरीद हुई थी इसलिए पिछले बकाये ने समस्या और बढ़ा दी थी। करीब 1 महीना चीजों को समझने और तीन महीने विभिन्न परियोजनाओं के पुनरीक्षण के बाद पर्रिकर ने पाया कि मंत्रालय के नौकरशाह (नागरिक और सैन्य दोनों) करीब 400 छोटी-बड़ी परियोजनाओं पर कुण्डली मारे बैठे थे जो तीनों सशस्त्र सेनाओं केलिए बहुत अहम थीं। पूरी समीक्षा करने पर पता चला कि उन 400 परियोजनाओं में से करीब एक तिहाई अब गैर जरूरी हो चुकी थीं। अत: उन्हें हटा दिया गया। करीब 50 परियोजनाओं को तेजी से बढ़ाया गया क्योंकि वे बहुत महत्व की थीं।
इसके बाद, पर्रिकर और उनके सहयोगियों ने तीनों सेनाओं की उन महत्वपूर्ण योजनाओं को चिह्नित किया जिन्हें पैसे और क्रियान्वयन की तुरन्त आवश्यकता थी। उदाहरण के लिए 50,000 बुलेटपू्रफ जैकेट की खरीददारी फास्ट टै्रक आधार पर पारित की गई थी, यह समझ आने के बाद कि आतंकरोधी, विद्रोह-रोधी अभियानों से जुड़े सैनिकों को इसकी गंभीर कमी महसूस हो रही थी। यहां तक कि हेलमेट का भी आदेश दो दशक के लंबे अंतराल के बाद दिया गया जो जवानों की सुरक्षा के लिए एक अतिमहत्वपूर्ण चीज है। एक भारतीय कंपनी, कानपुर स्थित एम.के.यू. इंडस्ट्रीज से 1.58 लाख हेलमेट बनाने का करार किया गया है।
इसी तरह छोटे-मोटे नौकरशाही के झमेलों से अत्यधिक ऊंचाई पर पहने जाने वाले कपड़ों (सियाचिन और उस जैसे इलाकों में तैनात सैनिकों के लिए) की आपूर्ति दो साल से ज्यादा तक अटकी हुुई थी। पर्रिकर ने खुद इस मुद्दे को देखा और सुलझाया।
आंकड़े पूरी कहानी बयान करते हैं : रक्षा मंत्रालय ने मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से 20,9751 करोड़ रुपये के 124 नए ठेके दिए हैं। जैसा कि आंकड़े बताते हैं, मई 2014 और मार्च 2015 के बीच 77,424 करोड़ रुपये की योजनाएं पारित की गईं; वित्त वर्ष 2015-16 में 47,291 करोड़ रुपए की 63 योजनाएं जारी की गईं जबकि मौजूदा वर्ष (दिसंबर 2016 तक) में 85,036 करोड़ रुपए की 23 परियोजनाएं पारित की गईं। इनमें आर्टिलरी गन, हमले और मध्यम उड़ान के सेना के हेलीकॉप्टर (अमेरिका से चिनूक और अपाचे हेलीकाप्टर); नौसेना के लिए छोटी नौकाएं और सुरंग रोधी जहाज और वायु सेना के लिए आकाश मिसाइलें शामिल हैं। सितंबर 2016 के बाद, जब भारत ने पाकिस्तान में सर्जिकल स्ट्राइक की थी और लगा था कि पाकिस्तान एक बड़ा संघर्ष छेड़ सकता है, भारत की सुरक्षा संबंधी मंत्रिमंडलीय समिति ने तीनों सेनाओं को करीब 20,000 करोड़ रुपयों की तेजी से खरीद की इजाजत दे दी थी। इस तरह रक्षा मंत्रालय के लिए यह वर्ष सबसे उत्पादक रहा।
रक्षा मंत्रालय की कुछ अन्य उल्लेखनीय उपलिब्धयां
ल्ल उदारीकृत औद्योगिक लाइसेंसिंग, जिसने प्रवेश के अवरोधों को कम किया है।
ल्ल पीएसयू और निजी उद्यमों के बीच समानता लाने के लिए एक्सचेंज रेट वैरिएशन
ल्ल भारतीयकरण को प्रोत्साहित करने के लिए 'आईडीडीएम वर्ग से खरीद' को सर्वोच्च खरीद प्राथमिकता दी गई।
औद्योगिक लाइसेंसिंग
ल्ल 2001 और 2014 के बीच 214 लाइसेंस
ल्ल 2014 और मार्च 2016 के बीच 125 लाइसेंस
पर्रिकर का अब तक का सबसे गजब का निर्णय रहा है फ्रांस की उड्डयन कंपनी डस्साल्ट से राफेल लड़ाकू विमान की खरीद में दशक भर से लगा अवरोध दूर करना। यह पर्रिकर ही थे जिन्होंने इस उलझे हुए मुद्दे पर अलग तरह से सोचते हुए प्रधानमंत्री को इसका रास्ता सुझाया। इस तरह अप्रैल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के तीन देशों के दौरे पर निकलने से कुछ ही घंटे पहले फ्रांस के साथ सरकार से सरकार के स्तर पर अनुबंध के जरिए राफेल जेट खरीदने का विकल्प खंगालते हुए एक राजनीतिक निर्णय लिया गया। लेकिन और बाकी सब बातों से बढ़कर, गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री ने धीमी गति के लिए कुख्यात रक्षा मंत्रालय में कार्य करने की एक समझ तो पैदा की ही है। एंटनी की सीधी आलोचना किए बिना, पर्रिकर ने एक साक्षात्कार में कहा कि लंबे समय तक मंत्रालय दिशाहीन रहा था। उन्होंने कहा,''सिस्टम पर कोई नियंत्रण नहीं था। कोई समीक्षा, कोई फीडबैक नहीं था और काम न करने पर दंड का कोई भय नहीं था। प्रतिरक्षा जैसा महत्वपूर्ण मंत्रालय इस तरह नहीं चल सकता।'' उनके एजेंडे में अगले तीन महत्वपूर्ण कदम हैं: रक्षा खरीद प्रक्रिया को सरल बनाना, कंपनियों के प्रतिनिधित्व की अधिकृत, पंजीकृत एजेंटों को अनुमति देना और यहां-वहां की शिकायतों की वजह से अनुबंधों में देरी या उन्हें रद्द किए जाने का चलन खत्म करना।
रक्षा मंत्रालय जिन मुद्दों को तेजी से सुलझाने का इच्छुक है उनमें से कुछ हैं, रक्षा इकाइयों द्वारा 'वैध' या अधिकृत एजेंटों की नियुक्ति का सवाल और निर्माताओं को एक सिरे से काली सूची में डाला जाना। मंत्रालय सिर्फ असाधारण मामलों में ही किसी फर्म को प्रतिबंधित करने की शक्ति इस्तेमाल करना चाहता है। पिछली सरकार ने एक दर्जन से ज्यादा फर्मों को एक झटके में काली सूची में डाल दिया था जिससे सेनाओं के पास उपकरण लेने के लिए बहुत कम विकल्प रह गए थे।
इसी तरह एजेंटों को वैध करके मंत्रालय प्रतिरक्षा उत्पादकों और सरकारी अधिकारियों के बीच कुछ हद तक पारदर्शिता लाना चाहता है। इस वक्त विभिन्न फर्मों—वैध या अन्य—के प्रतिनिधि गुप्त तरीके से काम करते हैं क्योंकि कानूनी स्थिति स्पष्ट नहीं है।
प्रतिरक्षा से जुड़ी नौकरशाही तेजी से चीजों को आगे बढ़ाने के हिसाब से पर्याप्त सक्रिय हो गई है लेकिन हर कोई तेज गति से नतीजे निकलने का इंतजार कर रहा है। सैन्य और नागरिक बाबुओं को समझ आ गया है कि पर्रिकर, जो एक आईआईटी स्नातक हैं, तेजी से चीजों को समझते हैं और बहुत फुर्ती के साथ विषय के मूल में जाते हैं। इसी के चलते वे बहुत जल्दी ही निर्णय ले पाए और नौकरशाहों को अपने आस-पास चक्कर लगाने से परे रख सके ।
मुझे इस बात का सबूत दूरदर्शन के लिए एक साक्षात्कार लेते हुए मिला कि पर्रिकर तेजी से समझते हैं, वे उस क्षेत्र में गहरी दिलचस्पी लेते हैं जिसके वह मुखिया हैं। मैंने उनसे प्रतिरक्षा स्टॉफ प्रमुख की संभावित नियुक्ति पर एक सीधा सा सवाल पूछा था, यह ऐसा मुदद है जिसने अक्सर तीनों सेनाओं को बांटे रखा है। उनका यह कहना कि जून में प्रक्रिया शुरू हो जाएगी, उतना हैरान करने वाला नहीं था जितना यह उजागर होना कि वे इस वक्त गोल्डवाटर-निकोल्स एक्ट (अमेरिका का) पढ़ रहे हैं, जिसने तकरीबन 30 साल पहले अमेरिकी सेना में आमूलचूल सुधार किए थे। कम से कम मैं तो ऐसी उम्मीद नहीं करता था कि एक औसत भारतीय राजनीतिक को उस विधेयक का नाम तक याद होगा, पढ़ने की बात तो दूर की है। उन्होंने जैसी दिलचस्पी दिखाई और कुछ जटिल मामलों पर पकड़ दर्शाई, उसे देखते हुए पर्रिकर आने वाले लंबे समय तक भारत के सबसे प्रभावी रक्षा मंत्रियों में से एक साबित हो सकते हैं।
(लेखकप्रतिरक्षा विश्लेषक, लेखक और मीडिया प्रशिक्षक हैं। आजकल वह
वेबसाइट ुँं१ं३२ँं'३्र.्रल्ल चलाते हैं।)
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