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इसमें संदेह नहीं कि इस्लामी आतंकवाद की लपटें भारत को लंबे समय से झुलसाती आ रही हैं लेकिन बदलते दौर में यह संकट और तीव्र एवं मारक हो गया है अत: हमें उसी अनुसार सन्नद्ध होना होगा
लेफ्टिनेंट जनरल (सेनि.) सैयद अता हसनैन
मोटे तौर पर सुरक्षा चुनौतियों पर इस दृष्टिकोण से विचार करना सरल है कि क्षेत्रीय चुनौतियों से सिर्फ यह सुनिश्चित करके निबटा जा सकता है कि हमारे पास सशस्त्र बलों का एक सुदृढ़ ढांचा हो, जो हमारी सीमाओं को सुरक्षित रखे और उनसे होकर किसी को प्रवेश न करने दे। यह सुरक्षा के प्रति दृष्टि का पुराना विश्वव्यापी तरीका है। आधुनिक विश्व इसे बहुत अलग ढंग से देखता है। वह संघर्ष के पूरे विस्तार (स्पेक्ट्रम) को देखता है और उसके प्रत्येक कार्यक्षेत्र (डोमेन) को परखता है, ताकि सभी संभावित खतरों और उनका जवाब देने के उपायों की पहचान सुनिश्चित की जा सके।
यह दोहराए जाने की आवश्यकता है कि हमारे पश्चिम, उत्तर और पूर्व में अशांति और दक्षिण में समान रूप से अशांत हो रहे हिंद महासागर के जल क्षेत्र के कारण भारत एक जटिल सुरक्षा वातावरण में है। इस्लाम के भीतर के मंथन के कारण पूरे पश्चिम एशिया में उथल-पुथल है और उसके परिणामों का हमारी सुरक्षा पर पहले से ही प्रभाव पड़ रहा है। इस प्रभाव में वृद्धि होने की संभावना सदा से मौजूद है। पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर पर विवाद की वजह से हमारा परंपरागत विरोधी रहा है, लेकिन यह शत्रुता विकसित होकर कुछ बड़ी और स्थायी हो गई है। पाकिस्तान ने परंपरागत अंतर को अपने परमाणु कार्यक्रम के माध्यम से पाटने का प्रयास किया है। हालांकि वह इस तरह की एक अस्थिर अवस्था में है कि उसके परमाणु हथियार आधुनिक संघर्ष के एक और प्रतिमान—चौथी पीढ़ी के योद्धाओं—के खतरे के दायरे में हैं। हालांकि वह भारत को आंतरिक रूप से कमजोर करने के लिए उनका रणनीतिक हथियार के रूप में प्रयोग करता है।
अफगानिस्तान भी अशांत बना रहता है और आगे उत्तर में विस्तृत होती जा रही चीन के दबदबे की चाप के परिणामस्वरूप मध्य एशिया में एक नया महा-आखेट चल रहा है। चीन को सीमा क्षेत्र के मामले को लेकर भारत से समस्या है और वह चाहता है कि भारत कमजोर बना रहे ताकि अपने क्षेत्रीय हितों की रक्षा कर सकने की उसकी क्षमता हमेशा संदिग्ध बनी रहे। वह अपने ऊर्जा मागोंर् को सुरक्षित रखने और हमें हमारे सामरिक प्रसार के लिए—जो अब अन्य बड़ी और मध्यम शक्तियों के साथ संयोजन में हिन्द-प्रशांत क्षेत्र तक जाता है-गुंजाइश न देने के उद्देश्य से हिंद महासागर पर हावी रहना चाहता है।
कोई संदेह नहीं कि हमारी सीमाओं, क्षेत्र और समुद्र तट के लिए खतरे इन्हीं दिशाओं से आते हैं। ऐसा नहीं है कि हमारे विरोधी अपनी क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए केवल हमारी सीमाओं पर खतरा पैदा करेंगे। पूरी रणनीति भारतीय राष्ट्र को कमजोर करने की है ताकि उसे अपनी असली क्षमता हासिल करने से रोका जा सके। उनकी मंशा यह सुनिश्चित करने की है कि सशस्त्र सेनाएं, केन्द्रीय सशस्त्र पुलिस बल और अर्धसैनिक बल, जो क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए जिम्मेदार हैं, को उनकी परिचालन क्षमता के अधिकतम स्तर पर न रखा जा सके।
हमें जिन अनेक खतरों का सामना करना पड़ रहा है, उनसे भारत की धरती की किस प्रकार रक्षा की जा सकती है, इस पर विचार करना जरूरी है। सबसे पहले इस बात को मानना और समझना होगा कि हम इस नेटवर्कशुदा और वैश्विक दुनिया में अकेले महारथी नहीं हो सकते। हमें रणनीतिक भागीदारों की आवश्यकता है, जिनके साथ हमारा आपसी कूटनीतिक, आर्थिक और तकनीकी सहयोग होगा। सैन्य सहयोग इन दिनों सिर्फ एक लोकोक्ति रह गया है, और कई बार सैन्य कूटनीति की पीठ पर राजनीतिक कूटनीति सवार रहती है। जहां हमें अपनी रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखनी है, वहीं रक्षा सहयोग के बूते जो उन्नति होती है, उसकी कोई सीमा नहीं है। इससे सशस्त्र बलों का आत्मविश्वास बढ़ता है और उन्हें विश्व भर की सवार्ेत्तम कार्यप्रणालियों का पेशेवर उन्मुखीकरण प्राप्त होता है।
दूसरा, क्या पूरा मामला प्रौद्योगिकी का है? यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमने एक अवधारणा के रूप में परिवर्तन से लगभग छुटकारा पा लिया है। प्रौद्योगिकी ही परिवर्तन का मर्म और उसका शायद सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। बात सिर्फ तकनीकी क्षेत्र में अवधारणाओं के विकास की नहीं है, बल्कि प्रौद्योगिकी के त्वरित अधिग्रहण और उसके अवशोषण के सारे पहलुओं की है। इसे सुनिश्चित करने के लिए एक तकनीकीपरक संस्कृति और वैज्ञानिक मनोवृत्ति बनाना आवश्यक है।
भारतीय नौसेना का अपने समूचे अधिकारी कैडर को तकनीकी सक्षम बनाने और सेना के युद्धक स्कंध में तकनीकी रूप से योग्य अधिकारियों को शामिल करने का निर्णय सही है। हमें उत्तरोत्तर इसकी अधिक आवश्यकता होगी।
राष्ट्रीय परिक्षेत्र की सुरक्षा, जो कि एक भौतिक आवश्यकता है, अकेले सशस्त्र बलों द्वारा प्राप्त नहीं की जा सकती। इसके लिए पूरी सरकार जिम्मेदार है। सरकार इसके लिए तभी सक्षम हो सकती है, जब राष्ट्र की सामरिक संस्कृति को बढ़ाने के लिए एक साभिप्राय प्रयास हो। मैं सामरिक संस्कृति की परिभाषा पर चर्चा नहीं करना चाहता, लेकिन इतना कहना पर्याप्त है कि यदि शिक्षित जनता, भारत की रक्षा में लोगों की भूमिका महसूस करती है तो यह प्रतिबद्धता कहीं बड़ी होगी और उसका विन्यास कहीं अधिक सटीक होगा। यह अत्यंत निराशाजनक है कि किस प्रकार सबसे शिक्षित लोग कितने दयनीय ढंग से भी इस भूमिका की ओर उन्मुख हैं। सौभाग्यवश, मीडिया जीवंत है और कॉर्पोरेट और अकादमिक जगत में इस बारे में रुचि बढ़ रही है। अगर भारत भूमि की रक्षा में विभिन्न संस्थाओं द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका के प्रति लोगों को जागरूक बनाया जाना है, तो इसे तेजी से कई गुना किया
जाना चाहिए।
वैज्ञानिक और तकनीकी उन्मुखीकरण के प्रतिमानों के अलावा, मानव संसाधनों के मजबूत, प्रेरित और देशभक्त होने की आवश्यकता है। आज किस प्रकार पंजाब के लोग नशीले पदाथोंर् और मादक द्रव्यों की सामाजिक समस्या के बंधक बने हुए हैं। पारंपरिक, शारीरिक हृष्ट-पुष्टता के अतिरिक्त मजबूत मानसिकता ही प्रभावशीलता पैदा करती है। सैनिकों, नौसैनिकों और वायुसैनिकों और उनके साथ ही केन्द्रीय सशस्त्र पुलिस बल कर्मियों को अभिप्रेरित और राष्ट्र के लिए प्रतिबद्ध महसूस कराने की आवश्यकता है। दुर्भाग्य से, युवाओं में असुरक्षा और उनके शोषण को रोकने में हमारी अपनी अक्षमता का परिणाम वर्तमान समस्या में निकला है।
वर्दीधारी लोगों का प्रशिक्षण विश्व स्तरीय होने की आवश्यकता है। यह क्षेत्र हमारी सबसे बड़ी कमजोरियों में से एक है। मात्र अधिकारी कैडर की चर्चा करें, तो मैं कहता हूं कि हमें लोगों की ऐसी एक नई पीढ़ी की आवश्यकता है, जो कम उम्र में भी विश्लेषक, नवीन आविष्कार करने वाली और विचारक हो। कारगिल युद्ध उस नई पीढ़ी के असीमित धैर्य से जीता गया था, जिसमें बौद्धिक परिणाम देने की क्षमता है, बशर्ते हम उन्हें ऐसा करने की इजाजत दें।
साजो-सामान
(प्रौद्योगिकी नहीं) के बारे में सोचने से पहले, मुझे लगता है कि प्रधानता बुनियादी ढांचे को देनी होगी। हमारे अधिकांश सीमावर्ती क्षेत्र दूरदराज के, बीहड़ और कम संसाधन वाले हैं। बीते वषोंर् में हमारे पास आधुनिकतम बुनियादी सुविधाओं का विकास करने के लिए साधन नहीं थे, और हमने सीमा के लोगों और सेना, दोनों को उनके कामचलाऊ प्रबंध पर छोड़ दिया था। सड़कों, परिचालन योग्य पटरियों, हवाई अड्डों, हैलीपैड और आवास सहित बुनियादी ढांचे के आधुनिकीकरण को अब प्राथमिकता दी गई है, लेकिन जब तक हमारे पास और अधिक संसाधन नहीं होंगे, तब तक इस अंतर को पाटने की आवश्यकता महसूस की जाती रहेगी।
सशस्त्र बल तब तक सफल नहीं हो सकते जब तक एक प्रगतिशील और सतत आधुनिकीकरण न हो। आधुनिकीकरण के कई क्षेत्र हैं, लेकिन यहां मैं साजो-सामान के क्षेत्र की बात कर रहा हूं। 'मेक इन इंडिया' अभियान एक बड़ी आवश्यकता थी और इसकी भावना और ऊर्जा दीर्घ अवधि की साजो-सामान और रखरखाव की आवश्यकताओं के लिए आवश्यक हैं। यह जिस उत्साह के साथ शुरू हुआ है, उसे उसकी ऊर्जा खोए बिना जारी रखना होगा। समस्याएं आएंगी, लेकिन बिना विचलित हुए बढ़ते रहना अधिक महत्वपूर्ण है।
यह सुनिश्चित करना सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में से एक है कि कोई विरोधी हमारी सीमाओं या हमारे क्षेत्र के किसी अन्य हिस्से को लक्ष्य बनाना समझदारी न मानता हो। इसलिए हमारे पास शक्ति, क्षमता और मंशा जताने की क्षमता अवश्य ही होनी चाहिए। इसके लिए जानकारी का क्षेत्र प्रमुख हो जाता है। आज युद्ध की प्रकृति संकर किस्म की है, जिसका मूलभूत अर्थ यह है कि यह कई उप प्रक्षेत्रों को जोड़ती है। सूचना इन उप प्रक्षेत्रों में से एक है। हमें यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि स्वयं को सुरक्षित रखने की हमारी राष्ट्रीय इच्छाशक्ति को विश्व ठीक से जान ले। दुर्भाग्यवश, पाकिस्तान मानता है कि वह जम्मू-कश्मीर राज्य में भारत पर हावी हो रहा है और इसे बरकरार रखे हुए है।
हम याद करें कि हमारे भूभाग की सुरक्षा के लिए जहां हमारे पास तीन सशस्त्र बल हैं, वहीं हमें केन्द्रीय सशस्त्र पुलिस बलों की पूर्तिकारी सहायता भी उपलब्ध है। परिपूर्ण सुरक्षा जगत में, आंतरिक और बाह्य सुरक्षा का लगभग विलय हो चुका है, जिसमें जिम्मेदारियों का भी परस्पर मिश्रण होता है। हम भाग्यशाली हैं कि हमारे पास पुलिस बलों का एक सुदृढ़ तंत्र है, जो सीमा की सुरक्षा और आंतरिक सुरक्षा को संभालता है। परस्पर निर्भरता के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण जम्मू-कश्मीर और उत्तर पूर्व के हैं। संस्थानों में अधिक मेलजोल के माध्यम से एक आम सुरक्षा संस्कृति का उद्भव और भी महत्वपूर्ण है।
हालांकि भू राजनीतिक क्षेत्र में अनेक अन्य पहलू भी हैं, लेकिन एक सैन्य दृष्टिकोण से निकट भविष्य के लिए उपरोक्त बातें पर्याप्त प्रतीत होती हैं। एक विषय को पुन: रेखांकित करना संभवत: आवश्यक है। यह नहीं हो सकता कि हमें एक रक्षात्मक राष्ट्र के रूप में देखा जाए, जो अपने दृष्टिकोण में सौम्य और निरापद हो। यह युग सुदृढ़ सुरक्षा दृष्टिकोण का है। अपने आप को सुरक्षित रखने के प्रति हमारी इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करना महत्वपूर्ण है और इसलिए यह समझना और सुनिश्चित करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि इसे कैसे किया जाना चाहिए। जाहिर तौर पर, यह सुनिश्चित करने की अविलंब आवश्यकता है कि कूटनीति, सैन्य शक्ति और प्रौद्योगिकी का एकीकरण हो और उसमें समय-समय पर सही राजनीतिक संदेश निहित हो।
इस्लामी कट्टरपंथ और हिंसक उग्रवाद के खतरों और इनके बारे में क्या किए जाने की आवश्यकता है, इस पर ध्यान केंद्रित करने के लिए सीमित समय ही उपलब्ध है। यह राष्ट्रीय सुरक्षा का वह क्षेत्र है, जिस पर आवश्यक तौर पर 2017 के दौरान बहुत ध्यान देना होगा। जैसा कि मैंने पहले ही कहा, इस्लाम के भीतर चल रहा मंथन दूर-दूर तक हिलोरें पैदा कर रहा है। पश्चिम एशिया में अशांति की वर्तमान अभिव्यक्तियां अधिकांशत: खुद पश्चिम एशिया के भीतर और बहुत बड़े पैमाने पर यूरोप में अपना असर छोड़ रही हैं। हालांकि परास्त किए जाने की संभावना नहीं है, फिर भी यह गुंजाइश है कि आईएसआईएस 2017-2018 में पर्याप्त तौर पर कमजोर हो जाएगा। इसके पनपने का अगला मैदान जो भी होगा, वह हमारी सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण है। यदि यह दक्षिण एशिया के आसपास के क्षेत्र में, अफगानिस्तान और मध्य एशिया में हुआ, तो भारत की दिशा में इसकी हिलोरों का असर ज्यादा सशक्त हो सकता है। ऐसा 1989 के बाद हुआ है, जब पूर्व सोवियत संघ के खिलाफ प्रतिरोध को विखंडित किया गया था तब अंतरराष्ट्रीय मुजाहिदीन जम्मू-कश्मीर की ओर मुड़े। बहरहाल, यह वर्तमान में संभव नहीं है।
हमें जिस बात से सावधान रहने की आवश्यकता है, वह इसका वैचारिक प्रभाव है जो आज की दुनिया में एक लक्षित आबादी की ओर तेजी से व्यापक पैमाने पर पहुंच सकता है। भारत के विभिन्न भागों में, केरल से लेकर महाराष्ट्र तक और उत्तर प्रदेश से लेकर जम्मू-कश्मीर तक जनसंख्या के ऐसे वर्ग हैं, जो इसके शिकार हो सकते हैं। इस जनसंख्या की रक्षा रोगनिरोधी सामाजिक मीडिया अभियान के जरिए करना पूरी तरह संभव है, जिसे कभी भी किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाते हुए नहीं, बल्कि पेशेवर ढंग से किया जाना चाहिए। समस्या यह है कि यह कार्य कौन करेगा। निश्चित रूप से न तो खुफिया एजेंसियां और न ही सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय। समग्र जिम्मेदारी एक संवैधानिक निकाय के हाथों में होनी चाहिए, जो कमजोर जनवगोंर् की पहचान करने और सोशल मीडिया, प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से उन लोगों के साथ संचार के उपक्रम के उद्देश्य से गठित की गई हो। यह एक बहुत बड़ी चुनौती है, जिसका एक राष्ट्र के रूप में हमें जवाब देना है।
कट्टरपंथी वैश्विक और क्षेत्रीय इस्लामी आतंकी संगठनों का दूसरा खतरा चलायमान प्रकृति का है। यह खतरा 2017 में और उसके बाद भी बना रहेगा, लेकिन थोड़ा बिखर सकता है, जिसका मुख्य खामियाजा जम्मू एवं कश्मीर और उसके बाद उत्तरी पंजाब को भुगतना पड़ सकता है। उत्तर प्रदेश और मध्य भारत को निशाना बनाने की संभावना, जो कुछ समय से निष्क्रिय बनी रही है, वह जीवंत बनी रहेगी और खुफिया एजेंसियों को इन पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता होगी।
राजनीतिक तनावों में उफनता पश्चिम बंगाल भी एक संभावित क्षेत्र है। बेहतर खुफिया और जवाबी तंत्र के जरिए आतंकी खतरे का मुकाबला करने का कोई सरल विकल्प नहीं है। लेकिन मुस्लिम युवाओं की अग्रिम गिरफ्तारी, और विशेष रूप से आतंकी गतिविधियों के मद्देनजर तुरंत गिरफ्तारी, निष्पक्षता की अवधारणा के खिलाफ होती है। अधिकारी इस पर अनिवार्य रूप से दुविधा में रहे हैं। सबसे अच्छा यही होगा कि इस तरह की गिरफ्तारियां पूर्ण पारदर्शिता के साथ और समुदायों के, विशेष रूप से बुजुगोंर् और माता-पिता के सहयोग से की जाएं। युवाओं पर पड़ने वाला परिवर्तनशील प्रभाव एक पलीते की तरह काम करता है, जिसका विरोधी तत्व भर्ती के लिए शोषण में इस्तेमाल करते हैं। गतिविधियों की यह घुमावदार सीढ़ी ज्यादा असंतोष का अपरिहार्य कारण है और सुरक्षा के मुद्दों पर समझौता किए बिना इससे संवेदनशील ढंग से निबटने की आवश्यकता है।
आतंकवादी गतिविधियों का केंद्र पाकिस्तान बना रहेगा, जो भारत के खिलाफ अपनी दीर्घावधि योजना को आगे बढ़ाने के लिए इस उद्देश्य से अपने क्षेत्र का शोषण करने की अनुमति देता रहेगा। यदि अफगानिस्तान 2016 की तुलना में कम अशांत रहता है, और यदि आंतरिक सुरक्षा स्थिति नियंत्रण में रहती है, तो भारत को मई 2017 के बाद हिंसा के एक दौर के लिए तैयार रहना चाहिए, जम्मू-कश्मीर में भी और अन्यत्र भी।
यही कारण है कि सर्दियों में जो अवसर मिला है, नोटबंदी का असर भी अपने स्थान पर बना हुआ है, तो उस अवसर का दोहन करना आवश्यक है। समय के साथ-साथ सारे नेटवर्क हर स्थान पर फायरवॉल के ईदगिर्द अपना रास्ता खोजने की कोशिश करेंगे। बैंकों, खुफिया एजेंसियों और राजस्व विभाग की सतर्कता इतनी पेशेवर होनी चाहिए, जो इस तरह के नेटवर्क को फिर से उभरने से रोक सके।
मजहबी नेताओं के साथ संवाद का पहले ही विभिन्न स्तरों पर प्रयास जारी है। आतंक से संदर्भित सामाजिक और आर्थिक मुद्दों से निबटने से जुड़े अधिकारियों को इस्लाम और उसकी रवायतों का कामकाजी ज्ञान होना चाहिए। सभी मदरसों को मुख्यधारा में लाने की आवश्यकता है, जिसमें स्थानीय प्रशासनों को उन तक पहुंचने के लिए विशेष प्रयास करना होगा। उन्हें खेल, पर्यटन और शौकिया गतिविधियों में शामिल अवश्य किया जाना चाहिए और उन्हें राष्ट्रीय दिवसों पर परेड में योगदान भी अवश्य करना चाहिए। ज्ञान की कमी की वजह से उन्हें अलग-थलग रखने का बहाना प्रतिगामी है और इसे हतोत्साहित किया जाना चाहिए। घाटी में स्थानीय पुलिस का नियंत्रण पूरी तरह से स्थापित होना चाहिए और खुफिया ढांचा पूरी तरह बहाल किया जाना चाहिए। नियंत्रण रेखा पर घुसपैठ विरोधी तंत्र भी सख्त किए जाने की आवश्यकता है, चाहे उसके लिए सेना की तैनाती में वृद्धि की जानी हो। भीतरी भागों में, विशेष रूप से सड़कों को सुरक्षित करने के कर्तव्यों में सीआरपीएफ और सेना के बीच घनिष्ठ तालमेल आवश्यक है। अन्त में, समस्त भीतरी चौकियां और अंतरराष्ट्रीय सीमा और नियंत्रण रेखा पर सरल लक्ष्यों की सुरक्षा की पूर्ण समीक्षा हर कुछ हफ्तों में किए जाने की आवश्यकता है। तथाकथित फिदायीन खतरे का अंत अभी नहीं हुआ है।
(लेखक-श्रीनगर स्थित 5 कॉर्प्स के पूर्व जीओसी रहे हैं। इन दिनों विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन और इंस्टीट्यूट ऑफ पीस एंड कॉन्फलिक्ट स्टडीज से जुड़े वरिष्ठ विश्लेषक हैं)
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