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आचार्य अभिनवगुप्त की विस्मृत ज्ञान परंपरा को दुनिया के सामने लाने के लिए आयोजित किया गया था आचार्यप्रवर का सहस्राब्दी वर्ष समारोह। इस द्विदिवसीय मंथन में आचार्य के व्यक्तित्व और कृतित्व पर गहन कार्य करने की आज महती आवश्यकता पर बल दिया गया
लोकेन्द्र सिंह, साथ में सतीश पेडणेकर
भारत की ज्ञान-परंपरा में आचार्य अभिनवगुप्त का महवपूर्ण स्थान है। शेषावतार कहे जाने वाले अभिनवगुप्त को भारत की सभी ज्ञान-विधाओं एवं साधना की परंपराओं का सवार्ेपरि आचार्य माना जाता है। उन्होंने अपने सुदीर्घ जीवन को केवल तीन महवपूर्ण लक्ष्यों (शिवभक्ति, ग्रंथ निर्माण और अध्यापन) के प्रति समर्पित कर दिया था। उनके द्वारा रचित 42 ग्रंथों में से केवल 22 ही उपलब्ध हो पाए हैं। शारदा क्षेत्र कश्मीर में रहकर ग्रंथ निर्माण करने वाले आचार्य के ग्रंथों की पांडुलिपियां दक्षिण से प्राप्त होती रही हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि अभिनवगुप्त अपने समय के ऐसे आचार्य हैं, जिन्हें सम्पूर्ण भारतवर्ष में श्रद्धा के साथ पढ़ा जाता था। लेकिन, भारत का दुर्भाग्य है कि उसने अपने स्वर्णिम इतिहास से इन चमकते पृष्ठों को विस्मृत कर दिया। भारत को छोड़कर पूरे विश्व में अभिनवगुप्त और कश्मीर-दर्शन पर अध्यापन होता रहा है। लेकिन, भारत में क्या स्थिति है? अपनी ज्ञान-परंपरा के लिए इस प्रकार की उदासीनता किसी भी प्रकार उचित नहीं है। जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र ने आचार्य अभिनवगुप्त के सहस्राब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में न केवल जम्मू-कश्मीर बल्कि समूचे देश में अनेक प्रकार के बौद्धिक आयोजन उनके विचारदर्शन को केंद्र में रखकर किए।
सहस्राब्दी वर्ष के सम्पूर्ति समारोह के अवसर पर गत 6-7 जनवरी को बेंगलूरु स्थित आर्ट ऑफ लिविंग इंटरनेशनल सेंटर में राष्ट्रीय विद्वत संगम का आयोजन किया गया। इसमें आचार्य अभिनवगुप्त के विचारदर्शन को आधार मानकर विभिन्न ज्ञान-धाराओं के संबंध में देशभर से आए विद्वानों ने गहन विमर्श किया। संगम में भारत के 29 राज्यों से विद्वान आए। इनमें से 150 प्रतिनिधि देश के प्रमुख विश्वविद्यालयों से, 70 प्रख्यात अधिवक्ता एवं न्यायमूर्ति, 50 से अधिक मीडियाकर्मी और विभिन्न विषयों के विशेषज्ञ के तौर पर 64 विद्वानों ने राष्ट्रीय विद्वत संगम में सहभागिता की। संगम के शुभारम्भ और समापन समारोह मैं अंतरराष्ट्रीय आध्यात्मिक गुरु श्रीश्री रविशंकर की विशेष उपस्थिति रही। उद्घाटन समारोह में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख श्री जे़ नंदकुमार का बीज वक्तव्य हुआ। मुख्य अतिथि रहे जम्मू-कश्मीर के उपमुख्यमंत्री डॉ. निर्मल सिंह। समापन समारोह में मुख्य अतिथि के नाते संघ के सरकार्यवाह सुरेश उपाख्य भैय्या जी जोशी और विशिष्ट अतिथि के नाते मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावडेकर उपस्थित रहे।
भारतीय ज्ञान-परंपरा के वाहक अभिनवगुप्त
उद्घाटन समारोह में केसरी के पूर्व संपादक एवं संघ के सह प्रचार प्रमुख जे़ नंदकुमार ने कहा कि आचार्य अभिनवगुप्त भारतीय ज्ञान-परंपरा के वाहक हैं। उन्होंने भारतीय ज्ञान-परंपरा को सामान्य जन तक पहुंचाने के लिए महवपूर्ण रचनाएं की हैं। यह विडम्बना है कि विदेशों में आचार्य अभिनवगुप्त पर काम हो रहा है, लेकिन हमने उन्हें विस्मृत कर दिया। विदेशी विद्वान अपनी सीमा में रहकर और अपने दृष्टिकोण से भारतीय दर्शन को प्रस्तुत करते हैं। कई बिंदुओं पर विदेशी विद्वानों ने आचार्य अभिनवगुप्त को गलत ढंग से प्रस्तुत किया है। इन कारणों से भारत की ज्ञान परंपरा अपने वास्तविक रूप में प्रकट नहीं हो पाती है। हमारा दायित्व है कि आचार्य अभिनवगुप्त के संदर्भ में शोध आधारित कार्य से हम भारतीय ज्ञान पंरपरा को उसके वास्तविक रूप में दुनिया के सामने रखें। श्री नंदकुमार ने बताया कि राष्ट्रीय पहचान को प्राप्त करने के लिए बीते 70 वषोंर् में कोई काम नहीं किया गया। जबकि भारत की समृद्घ पहचान को स्थापित करने के लिए इतना समय पर्याप्त था। हमारी राष्ट्रीय पहचान क्या है? भारतीयता क्या है? भारतीय संस्ति क्या है? आजादी के बाद इन प्रश्नों के जवाब तलाशने चाहिए थे, लेकिन तत्कालीन नेतृत्व ने इसकी उपेक्षा ही की। यह विचार करना चाहिए कि आखिर स्वतंत्रता के बाद भारतीय विचारदर्शन को आगे क्यों नहीं बढ़ाया गया? उस समय का राजनीतिक और बौद्घिक नेतृत्व मानता था कि भारतीय संस्कृति और विचार के बोझ के कारण देश आगे नहीं बढ़ सकता था। वह भारतीय संस्ति और उसके विचारदर्शन को निरर्थक मानते थे। स्वतंत्रता मिलने पर इन्हीं आत्मविस्मृत लोगों ने कहा था कि भारत एक राष्ट्र बन रहा है। भारत का इतिहास अंग्रेजी मानसिकता के इन्हीं लोगों ने लिखा। आज आवश्यकता है कि हम अपनी राष्ट्रीय पहचान को आगे रखें।
वेद, योग की त्रिवेणी भारतीय संस्कृति
अपने बीज वक्तव्य में श्री नंदकुमार ने कहा कि भारतीय संस्कृति वेद, तंत्र एवं योग की त्रिवेणी है और अभिनवगुप्त इसी संगम के अंग थे। उन्होंने भारतीय संस्कृति के नवोत्थान के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। यह दुर्भाग्य है कि शंकराचार्य और स्वामी विवेकानंद के बीच अनेक विचारक आए, लेकिन इतिहास में उनका कहीं उल्लेख नहीं है और आचार्य अभिनवगुप्त के विचार की जो चर्चा होनी चाहिए थी, वह हुई नहीं।
उद्घाटन सत्र के मुख्य अतिथि एवं जम्मू-कश्मीर के उपमुख्यमंत्री ड़ॉ. निर्मल सिंह ने कहा कि देश में भारत विरोधी ताकतें सक्रिय हैं। उनकी सक्रियता के कारण ही जम्मू-कश्मीर में शासन ठीक तरह से नहीं चल पा रहा है। वहां धार्मिक कार्य प्रभावित हैं। उन्होंने बताया कि कश्मीर में अब भी युवाओं को मुख्यधारा में लाने और वहां अच्छा माहौल बनाने की असीम संभावनाएं हैं।
राष्ट्रीय विद्वत संगम के समापन सत्र को संबोधित करते हुए आर्ट ऑफ लिविंग के संस्थापक आध्यात्मिक गुरु श्रीश्री रविशंकर ने कहा कि भारत के प्राचीन ज्ञान में उपलब्ध विज्ञान को सामने लाना विद्वानों का काम है। इससे हमारी युवा पीढ़ी को सर्वाधिक लाभ होगा। सेक्युलरिज्म ने देश का बहुत नुकसान किया है, भारतीय विचारदर्शन और उसके मूलभूत तत्वों को हमने दरकिनार कर दिया है। अब यह प्रवृत्ति बदलनी चाहिए। उन्होंने कहा कि भारतीय ज्ञान परंपरा में आचार्य अभिनवगुप्त का महत्वपूर्ण योगदान है। लेकिन, उन्हें विस्मृत कर दिया गया। इसी तरह तमिलनाडु में शैव दर्शन के 63 प्रमुख संत हुए। उनके संबंध में भी किसी को बताया नहीं गया है। समाज को इन दार्शनिकों के बारे में बताने की आवश्यकता है। यह काम विद्वान ही कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि आज की युवा पीढ़ी तर्कसंगत है। श्रीश्री ने कहा कि हमारी विचारधारा शास्त्रसम्मत है और जो भी विचार शास्त्रसम्मत होता है, वह प्रमाणित होता है।
श्रीश्री रविशंकर ने कहा कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक अगर भारत को कोई जोड़ता है तो वह है शैवदर्शन। आचार्य अभिनवगुप्त शैवदर्शन और सिद्धांत के सबसे बड़े प्रतिपादक थे। उन्होंने बताया कि उनके विचार आज भी प्रासंगिक हंै। विद्वान व्यक्ति सर्वत्र और सर्वदा पूजे जाते हैं। इसलिए आज 1000 वर्ष बाद भी हम आचार्य अभिनवगुप्त का स्मरण कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि आचार्य अभिनवगुप्त के दर्शन को जन-जन तक पहुंचाने के लिए जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र का यह भगीरथ प्रयास है। इस कार्य के सहयोगी पथिक बनकर इस प्रयास को सफल बनाने का कर्तव्य हमारे सामने है।
विचारों की भूमि है कश्मीर
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह श्री सुरेश भैयाजी जोशी ने अपने उद्बोधन में कहा— ''जब हम कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, तो यह कोई राजनीतिक घोषणा नहीं है बल्कि अपनी ज्ञान परंपरा का स्मरण करना है। कश्मीर विचार की भूमि है। यह सांस्कृतिक और जीवन मूल्यों का संदेश देने वाला प्रदेश है।'' उन्होंने कहा कि एक बार फिर हम संकल्प करते हैं कि भारत के शीर्ष को फिर से गौरवमय स्थान दिलाने का प्रयास करेंगे। भैयाजी ने कहा कि आचार्य अभिनवगुप्त के विचारों की गंगा कश्मीर से निकलकर कन्याकुमारी तक पहुंची। आज कश्मीर को भारत से अलग करने वाली कुछ ताकतें सक्रिय हैं। इनके द्वारा कश्मीर का जो चित्र प्रस्तुत किया जाता है, वह वास्तविक नहीं है। उन्होंने कहा कि देश में भ्रम का वातावरण निर्मित करने का प्रयास किया गया कि भारत में सब लोग बाहर से आये हैं। लेकिन, विज्ञान ने इस झूठ का पर्दाफाश कर दिया। यह तथ्य विभिन्न शोधों से साबित हो चुका है कि भारत में रहने वाला कोई भी व्यक्ति बाहर से नहीं आया है। सब यहीं के मूल निवासी हैं। सबका डीएनए एक है। इस प्रकार के आयोजनों ने वषोंर् से बनाए जा रहे इस प्रकार के भ्रम के वातावरण को तोड़ने का काम किया है। उन्होंने बताया कि जिस देश ने दुनिया को सदैव दिया ही हो, वह देश विकासशील कैसे हो सकता है। दरअसल, हम अपने इतिहास को भूल गए और इस धारणा ने मन में घर कर लिया कि इस देश का उद्धार विदेशियों के द्वारा ही हो सकता है।
सरकार्यवाह ने आगे कहा कि विश्व में भारत स्वाभिमान और गर्व के साथ खड़ा हो, यह आज के समय की मांग है। हमारे यहां हर विचार को मान्यता दी गई और उसका सम्मान किया गया। भारत के सभी मनीषियों और संतों ने विश्व के कल्याण की ही बात कही है। आचार्य अभिनवगुप्त के संबंध में उन्होंने कहा कि जिन मनीषियों ने इस देश में शाश्वत, मूलभूत और सार्वकालिक चिंतन प्रस्तुत किया, आचार्य अभिनवगुप्त उन सब मनीषियों के प्रतिनिधि हैं। इससे पूर्व मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावडेकर ने कहा कि आचार्य अभिनवगुप्त के विचारों के प्रचार-प्रसार और उनके दर्शन को दुनिया के समक्ष रखने के लिए जो भी प्रयास होंगे, उन्हें सफल बनाने के लिए किसी भी प्रकार के संसाधनों व धनराशि की कमी नहीं होने दी जाएगी। उन्होंने कहा कि हम दुनिया में अद्भुत ज्ञान का भंडार थे।
हमारे तक्षशिला और नालंदा विश्वविद्यालय दुनिया में प्रख्यात थे। तत्व ज्ञान में भी हमने हजारों साल विश्व का मार्गदर्शन किया। भारत की विशेषता यह है कि यहां तर्क की परंपरा है।
उन्होंने कहा कि भारतीय अनेकों देशों में गए, लेकिन वहां आक्रमण नहीं किया, शोषण कर संपत्ति एकत्र कर भारत नहीं लाए, बल्कि वहीं के होकर रह गए। यह भारतीय परंपरा है। इस अवसर पर आचार्य अभिनवगुप्त सहस्त्राब्दी समारोह समिति के कार्यकारी अध्यक्ष जवाहरलाल कौल ने भी अपने विचार व्यक्त किए।
कश्मीर से कन्याकुमारी तक अगर भारत को कोई जोड़ता है तो वह है शैवदर्शन। आचार्य अभिनवगुप्त शैवदर्शन और शैव सिद्धांत के सबसे बड़े प्रतिपादक थे। उनके विचार आज भी प्रासंगिक हंै। विद्वान व्यक्ति सर्वत्र और सर्वदा पूजे जाते हैं। इसलिए आज 1000 वर्ष बाद भी हम उनका स्मरण कर रहे हैं।
—श्रीश्री रविशंकर, अध्यक्ष, संस्थापक , आर्ट ऑफ लिविंग
आचार्य अभिनवगुप्त के विचारों के प्रचार-प्रसार और उनके दर्शन को दुनिया के समक्ष रखने के लिए जो भी प्रयास होंगे, उन्हें सफल बनाने के लिए किसी भी प्रकार के संसाधनों व धनराशि की कमी नहीं होने दी जाएगी।
—प्रकाश जावडेकर, केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री
समानांतर संविमर्श
इस समारोह में 8 संविमर्श समानांतर रूप से आयोजित हुए, जिनकी विषय संकल्पना इस प्रकार थी-
आचार्य अभिनवगुप्त और भारतीय साहित्य ( शास्त्रीय और लोक)
जम्मू कश्मीर की धरती भारतीय संस्कृति की आधारभूमि रही है। संपूर्ण भारतीय वांड्मय में यहां से नि:सृत विचारों की प्रतिध्वनि सुनी जा सकती है। सिंधु के तट पर जो ऋचाएं प्रकट हुईं, उन्होंने देश के सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, दार्शनिक एवं साहित्यिक क्षितिज को आलोकित किया। आचार्य अभिनवगुप्त जम्मू-कश्मीर में जन्म लेने वाले सर्वत्र समादृत आचार्य हैं जिन्होंने भारतीय विद्याओं की विविध धाराओं का अवगाहन किया और उसका मंथन कर जो नवनीत प्रस्तुत किया, वह आने वाली शताब्दियों के लिये पाथेय बन गया।
यह सर्वज्ञात है कि संस्कृत साहित्य के बड़े अंश का सृजन जम्मू-कश्मीर में हुआ है। आचार्य अभिनवगुप्त इस धारा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। अपने पूर्ववर्ती आचार्य भरत के रस सिद्धांत के अनुसार बताये गये 8 रसों में उन्होंने 9वें रस के रूप में शांत रस की परिकल्पना की। उनका यह योगदान भारतीय भाषाओं के साहित्य में नवीन आयाम जोड़ने वाला सिद्ध हुआ। आगे चल कर पूरा भक्ति साहित्य शांत रस की भाव-भूमि पर ही खड़ा हुआ। आचार्यश्री ने भारतीय आलोचना शास्त्र को नये अर्थ दिये। यद्यपि उनके राज्य से बाहर के प्रवास की जानकारी प्राप्त नहीं होती किन्तु उज्जैन के कवि घटकर्पर की साहित्यिक रचना पर उनकी आलोचना से सिद्ध होता है कि सुदूर क्षेत्र में चल रही साहित्यिक गतिविधियों और प्रवृत्तियों पर भी उनकी दृष्टि थी। आचार्य अभिनवगुप्त के सहस्राब्दी समारोह के समापन के अवसर पर आयोजित यह संविमर्श भविष्य में आकार लेने वाली साहित्यिक प्रवृत्तियों का आधार बने, यह अपेक्षित है।
उप विषय: संस्कृत साहित्य की परंपरा और अभिनवगुप्त,अभिनवगुप्त और कश्मीर का शास्त्रीय एवं लोक साहित्य, भक्ति साहित्य और अभिनवगुप्त, अभिनवगुप्त और समकालीन साहित्य, तथा अभिनवगुप्त और भारतीय आलोचना शास्त्र।
अभिनवगुप्त: संचार एवं माध्यम
'संचार प्रक्रिया के भारतीयकरण में सहयोगी हो सकते हैं आचार्य अभिनवगुप्त'
राष्ट्रीय विद्वत संगम का एक प्रमुख विषय था अभिनवगुप्त: संचार एवं माध्यम। इस विषय की योजना और रचना में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय एवं उसके कुलपति प्रो़ बृज किशोर कुठिलाया की प्रमुख भूमिका रही। इस विषय के अंतर्गत संचार प्रक्रिया का भारतीयकरण, रसमय संचार के अभिनव सूत्र, सांस्कृतिक नवाचार, अभिनवगुप्त का संचार सिद्धांत एवं वर्तमान पत्रकारिता जैसे उप विषयों पर संचार क्षेत्र के विद्वानों ने विमर्श किया। 'संचार प्रक्रिया का भारतीयकरण' विषय पर आयोजित विचार सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रो़ कुठियाला ने कहा कि संचार प्रक्रिया का भारतीयकरण करना है, तो इसमें आचार्य अभिनवगुप्त बहुत सहयोगी सिद्ध हो सकते हैं। हमें ध्यान रखना होगा कि हमारे ऋषियों-मुनियों ने जब सब विषयों के संबंध में लिखा, तब उन्होंने संचार प्रक्रिया के बारे में अलग से क्यों नहीं लिखा? आचार्य अभिनवगुप्त हमें सिखाते हैं कि अपने ऋषियों-मुनियों के ज्ञान को अपने समय के हिसाब से प्रस्तुत करो।
इसी विषय पर वरिष्ठ पत्रकार डॉ. जयप्रकाश ने कहा कि संचार के क्षेत्र में विश्वसनीयता का बड़ा संकट है। अभिनवगुप्त से हम इस समस्या का समाधान पा सकते हैं। उनसे संचार का कौशल सीखकर यदि हम सनातन को सामयिक बनाकर प्रस्तुत करेंगे, तो हमारे प्रयास विफल नहीं होंगे। 'सांस्कृतिक नवाचार और अभिनवगुप्त' विषय पर अपने व्याख्यान में इसी विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने कहा कि आचार्य अभिनवगुप्त समग्रता में विश्वास करते थे। संचार की दृष्टि से यदि हम आचार्य के विराट व्यक्तित्व को देखें तो उनकी तीन भूमिकाएं पाएंगे- संचार चिंतक, संचारक और संचार के भाष्यकार।
आचार्य मानते थे कि जब तक हमारी वाणी में कर्म का समर्थन नहीं होगा, तब तक हमारा संचार प्रभावी नहीं होगा। रसमय संचार पर अपनी बात रखते हुए काठमांडू विश्वविद्यालय, नेपाल के प्रोफेसर ड़ॉ निर्मल मणि अधिकारी ने कहा कि संचार को प्रभावी बनाने के लिए रस आवश्यक है। इस संदर्भ में अभिनवगुप्त ने भारत मुनि के नाट्यशास्त्र पर जो टीका लिखी है, उसका अध्ययन महवपूर्ण होगा।
संचार विषय पर केंद्रित सत्रों में प्रो़ रजनीश मिश्रा, शिवानी शर्मा, अतुल शर्मा, जवाहरलाल कौल, जे़ नंदकुमार, उमेश उपाध्याय, रचिता बग्गा सहित अन्य विद्वानों ने अपने महवपूर्ण विचार प्रस्तुत किए। श्री नंदकुमार ने कहा कि विद्या के लिए अवधारणा है-सा विद्या या विमुक्तये। यही अवधारणा संचार के लिए भी लागू होनी चाहिए-सा संचार या विमुक्तये। उन्होंने कहा कि मीडिया शिक्षकों को अपनी कक्षा का प्रारंभ नारद, भरतमुनि, अभिनवगुप्त, संजय और विदुर के सिद्धांतों के साथ
करना चाहिए।
इन विषयों पर समानांतर सत्रों में विमर्श
' अभिनवगुप्त एवं भारतीय साहित्य (शास्त्रीय एवं लोक)
' अभिनवगुप्त एवं सभ्यतामूलक विद्याएं
' अभिनवगुप्त: दर्शन, अध्यात्म एवं साधना
' इतिहास में जम्मू-कश्मीर
' अभिनवगुप्त एवं सांस्कृतिक विद्याएं
' हिमालयी क्षेत्रों की भू-राजनैतिक स्थिति
' अभिनवगुप्त एवं संचार माध्यम
' जम्मू-कश्मीर की विधिक एवं संवैधानिक स्थिति
सहभागी संस्थान
' श्रीश्री रविशंकर विश्वविद्यालय, भुवनेश्वर
' इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, नई दिल्ली
' भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली
' जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र, नई दिल्ली
' माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल
विदेशों में आचार्य अभिनवगुप्त पर काम हो रहा है, लेकिन हमने उन्हें विस्मृत कर दिया। विदेशी विद्वान अपने दृष्टिकोण से भारतीय दर्शन को प्रस्तुत करते हैं। हमारा दायित्व है कि अभिनवगुप्त के संदर्भ में शोध आधारित कार्य से भारतीय ज्ञान परंपरा को उसके वास्तविक रूप में दुनिया के सामने रखें।
—जे. नंदकुमार, अ. भा. सह प्रचार प्रमुख, रा. स्व. संघ
देश में भारत विरोधी ताकतें सक्रिय हैं। उनकी सक्रियता के कारण ही जम्मू-कश्मीर में शासन का राज ठीक तरह से नहीं चल पा रहा है। वहां धार्मिक कार्य प्रभावित हैं। कश्मीर में अब भी युवाओं को मुख्यधारा में लाने और वहां अच्छा माहौल बनाने की असीम संभावनाएं हैं।
—डॉ. निर्मल सिंह, उप मुख्यमंत्री, जम्मू-कश्मीर
इतिहास में जम्मू-कश्मीर
जम्मू और कश्मीर के इतिहास के सूत्र वेदों से प्राप्त होते हैं। कालांतर में बहुत से विदेशी यात्रियों और लेखकों ने इस क्षेत्र को अपने लेखों में अखंड भारत का हिस्सा माना है। यह क्षेत्र कई महान साहित्यकारों एवं आचार्यों का गृह क्षेत्र रहा है। ठीक इसी तरह कवि कल्हण की 'राजतरंगिणी' भी एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में प्राप्त होती है, जो 12वीं शताब्दी तक के कश्मीर के शासक, राजनैतिक एवं सैनिक इतिहास का स्पष्ट प्रलेख है। भारत के अन्य प्रदेशों की तरह जम्मू एवं कश्मीर भी विदेशी आक्रांताओं के प्रभाव में रहा है और उसने कन्वर्जन का क्रूर युग भी देखा। परिणामत: यह क्षेत्र जिसे इतिहास में प्राचीन हिन्दू साम्राज्य के रूप में जाना जाता था, वह अब संकट में आ चुका था। इसके उपरांत जम्मू-कश्मीर विभिन्न खंडों में विभक्त हो गया, लेकिन शताब्दियों के आक्रमण एवं संघर्ष के पश्चात महाराजा रणजीतसिंह के काल में सप्तसिंधु का यह प्रदेश एक राजनैतिक इकाई के रूप में पुन: स्थापित हुआ।
स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही भारत को अंग्रेजों द्वारा जो त्रुटिपूर्ण विरासत मिली उसमंे प्रमुख थी भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम और सत्ता हस्तांतरण की योजना। भारत विभाजन का धार्मिक आधार अपने आप में ऐतिहासिक रूप से त्रुटिपूर्ण और अंग्रेजांे की वैमनस्यतापूर्ण नीतियों का विषफल था, जिसने समस्यायों की एक अवांछित शृंखला शुरू की। अंग्रेजी सवार्ेपरिता के क्षय के साथ ही विभिन्न रियासतों को अपना अधिमिलन किसी एक संप्रभुता भारत अथवा पाकिस्तान के साथ तय करना आवश्यक हो गया था। इन रियासतों में जम्मू एवं कश्मीर प्रमुख रियासत थी, और इस राज्य की महत्ता इसकी भू-रणनीतिक स्थिति की वजह से और बढ़ जाती है। जैसा कि संवैधानिक योजना में प्रस्तावित था, महाराजा हरि सिंह ने अपने राज्य का विलय भारत के साथ करना पसंद किया और इसके बाद विलय पत्र पर हस्ताक्षर किये। इस प्रकार जम्मू एवं कश्मीर भारतीय संघ का 15वां राज्य बना। यह विलय भी अन्य राज्यों की तरह ही बिना शर्त एवं संपूर्ण था। महाराजा हरि सिंह द्वारा विलयपत्र पर हस्ताक्षर किए जाना एक लंबी ऐतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम था।
विगत वषार्े में इस विषय पर वृहद् स्तर पर लिखा गया। किसी खास उद्देश्य के तहत अथवा अनजाने में लगभग इस सारे लेखन में इस राज्य की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की उपेक्षा की गई, विशेषत: धार्मिक एवं सांस्कृतिक जड़ों की और इसलिए यह सारा ऐतिहासिक तथ्य विकृतियों एवं मिथ्या कथनों से युक्त प्रस्तुत होता है। इनमें से अधिकांश लेखन ऐतिहासिक तथ्य एवं विधि के उन प्रावधानों की अनदेखी करता है जिनके अनुसार जम्मू एवं कश्मीर राज्य का विलय भारत के साथ संपूर्ण हुआ था। आज इस विषय पर शोध अत्यावश्यक है।
आचार्य अभिनवगुप्त एवं सांस्कृतिक विद्याएं
यद्यपि जम्मू-कश्मीर क्षेत्र कई शासन कालों के संक्रमण से गुजरा है, तथापि यह क्षेत्र एक ऐसी संस्कृति व जीवनमूल्य भारतीयता को अनुस्यूत किये हुये है जिसका आज भी वहां के लोगों के दैनिक जीवन में प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है।
मिथ्या अवधारणाओं पर आधारित लेखन के माध्यम से कुछ विद्वान इस क्षेत्र की संस्कृति को कश्मीरियत नाम देते हैं। ऐसे विद्वानों को यह भी स्पष्ट करना होगा कि यह कश्मीरियत क्या है? जबकि ऐतिहासिक दृष्टिकोण से जम्मू-कश्मीर क्षेत्र भारत से अभिन्न व एक है।
एक सतत, अनवरत वैचारिक चिन्तन-धारा इस क्षेत्र में सदा प्रवाहित होती आई है। यह क्षेत्र कई उत्कृष्ट दार्शनिकों-उद्भट, वामन, रुद्रट, भट्ट लोल्लट, भट्टशङ्कक, आनन्दवर्धन, सोमानन्द, उत्पलदेव, हेलाराज, भट्ट नायक, भट्टतोत, भट्टेन्दुराज, अभिनवगुप्त, महिम भट्ट, रुय्यक एवं मम्मट इत्यादि का प्रतिनिधित्व करता है।
कालावधि में कुछ क्षण ऐसे होते हैं जिनका आकलन करना कठिन होता है। आचार्य अभिनवगुप्त हमारे समक्ष एक ऐसे चिन्तक, दार्शनिक, सौन्दर्यशास्त्री एवं साधक के रूप में उपस्थित होते हैं जिन्होंने पूर्ववर्ती विचार-सरणि का शोधन-संवर्धन करते हुए परवर्ती प्रज्ञा-परम्परा को काफी हद तक प्रभावित किया। आचार्य अभिनवगुप्त भारतीय विद्या की प्रतिमूर्ति हैं। उनकी तियां-दर्शन, सौन्दर्य, तंत्र, योग, भक्ति, एवं रहस्य-सभी का अन्त:सम्मिश्रित एवं अन्त:सम्बन्धित स्वरूप प्रस्तुत करती हैं।
मधुराज योगिन (आचार्य अभिनवगुप्त के शिष्य) ने उनके प्रत्यक्ष रूप का साक्षात्कार करते हुये अपने धान्यश्लोक के चार पद्यों में आचार्य अभिनवगुप्त का स्वरूप प्रस्तुत किया है। ये पद्य हमें उस सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से अवगत कराते हैं जिस पर आसीन होकर आचार्य अभिनवगुप्त ने अपनी कालजयी तियों की रचना की। सौन्दर्यशास्त्र, दर्शन, तंत्र, योग, संगीत, भाषा-दर्शन एवं चेतना-विमर्श के क्षेत्र में आचार्य अभिनवगुप्त के अमूल्य योगदान को देखते हुये हम यह वर्ष उनके सहस्राब्दी-वर्ष के रूप में मना रहे हैं। सहस्राब्दी वर्ष के समापन के अवसर पर आयोजित विद्वत संगम में एक खंड 'अभिनवगुप्त एवं सास्कृतिक विद्याएं' के अन्तर्गत अधोलिखित विषयों पर चर्चा हुई: उप विषय –
1़ आचार्य अभिनवगुप्त एवं सौन्दर्यशास्त्र
2़ आचार्य अभिनवगुप्त एवं दृश्यकला
3़ आचार्य अभिनवगुप्त एवं ललितकला
4़ आचार्य अभिनवगुप्त एवं जम्मू-कश्मीर की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि
5़ आचार्य अभिनवगुप्त एवं समकालीन सांस्कृतिक विद्याओं में उनकी प्रासंगिकता
आचार्य अभिनवगुप्त और सभ्यतामूलक विद्याएं
जम्मू-कश्मीर सर्वदा से अपनी श्रेष्ठ सांस्कृतिक परंपरा के लिए ख्यात रहा है। इस क्षेत्र की भारत सहित विश्व के सभ्यतागत विकास में अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका है। इस क्षेत्र की विशिष्टता यह है कि यह युगों-युगों से विविध मत-पंथ, क्षेत्र, समुदाय, परंपरा और भाषा वाले जन को मानवता एवं सहिष्णुता के आधार पर एक विशिष्ट एवं सशक्त जीवन प्रणाली प्रदान करता रहा है।
विविध मत-पंथ, दार्शनिक परंपराएं जम्मू कश्मीर से प्रारंभ होकर संपूर्ण विश्व में प्रसारित हुई हैं। पवित्र भूमि कश्मीर अनेक विख्यात विद्वानों एवं आचायोंर् की मूल भूमि है। आचार्य अभिनवगुप्त भी इसी भूमि से जुड़े महान आचार्य हैं उनके चिंतन एवं जीवन दूष्टि ने विविध सामाजिक संस्थाओं जैसे सामुदायिक, आर्थिक, राजनैतिक और शैक्षिक संस्थाओं को गहरे से प्रभावित किया है। वे समतामूलक समरस समाज के लिए जीवनभर यत्न करते रहे। आचार्य अभिनवगुप्त कश्मीर, भारत और संपूर्ण विश्व को समग्रता में देखने और समझने की महान दृष्टि वाले महत्वपूर्ण चिंतक हैं।
किन्तु स्वयं कश्मीर में ही अभिनवगुप्तोत्तर पिछली सात शताब्दियां यहां के सभ्यतागत पक्ष, जो सार्वभौमिकता, समग्रता और मानवता पर आधारित है, के क्षरण का कालखंड रही हैं।
संक्षेप में जम्मू-कश्मीर का समस्त जन समुदाय इन परिवर्तनों से सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक रूप से विच्छिन्न हो गया है। अत: अभिनवगुप्त के समग्रतावादी दृष्टिकोण की आज के जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में विशेषत: सभ्यतागत संरचना पर उठ रहे प्रश्नों एवं चुनौतियों के समाधान में अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं प्रासंगिक भूमिका है।
आचार्य अभिनवगुप्त का मानना है कि कश्मीर की भूमि विश्व की सभी समस्याओं का समाधान है। यह बात आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी अभिनवगुप्त के समय में थी।
उप विषय : भारत एवं विश्व की सभ्यता के विकास में जम्मू-कश्मीर का अवदान, जम्मू-कश्मीर का जन समुदाय: सामाजिक-आर्थिक स्थिति तथा अधिकार, पाक द्वारा भारतीय भूक्षेत्र का अतिक्रमण और इसका जम्मू-कश्मीर पर दुष्परिणाम, जम्मू-कश्मीर में महिला स्थिति एवं चुनौतियां, तथा जम्मू-कश्मीर में साधक एवं बाधक: सक्रिय समूह एवं गैर सरकारी संगठन
आचार्य अभिनवगुप्त:दर्शन, अध्यात्म एवं साधना
भारतीय सांस्कृतिक इतिहास में दर्शन, अध्यात्म एवं साधना त्रिभुज की तीन भुजाओं को निर्मित करते हैं जिनका केंद्र है-स्वात्मबोध अथवा अहं त्यविमर्श। हमारे देश के बौद्धिक इतिहास में कुछ ऐसे जीवन संस्मारक हैं जिनका उत्कर्ष अपरिमेय है। ऐसे महापुरुषों के जीवन और कार्य एक दूसरे से अभिन्न हैं और एक-दूसरे के अनुरूप भी। आचार्य अभिनवगुप्त, जो कि भारत के शीर्षस्थ दार्शनिक, कला-समालोचक, सौंदर्य-मीमांसक, कवि, साधक एवं परवैभव के परम भक्त हैं, भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के वैशिष्ट्य एवं उपलब्धियों के सर्वसम्मत प्रतीक एवं विग्रह हैं।
अभिनवगुप्त का वैशिष्ट्य केवल इसमें नहीं है कि उन्होंने त्रिक दर्शन के पूर्ववर्ती आचायोंर् के मतों को आत्मसात किया। उनके लेखन ग्रंथों में दर्शन, सौंदर्य, तंत्र, योग, भक्ति, रहस्य-भावना सभी परस्पर अनुविद्ध हैं। वे एक साथ ही कुल, क्रम, स्पंद एवं प्रत्यभिज्ञा तथा भारतीय साधना की कई धाराओं के प्रामाणिक एवं सिद्ध आचार्य हैं। अभिनवगुप्त प्रणीत 44 ग्रंथों का उल्लेख मिलता है। उनके तंत्र एवं दर्शन से संबद्ध ग्रंथ हैं-मालिनीविजयवार्तिक, परात्रिंशिका विवरण, तंत्रालोक, तंत्रसार, बोधपंचदशिका, परमार्थसार, ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी, ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविवृत्तिविमर्शिनी एवं पर्यन्तपंचाशिका। वाक प्रतिभासृष्टि सिद्धान्त ज्ञान मीमांसाा हृदयतत्वमीमांसा हृदयसंवाद, साधारणीकरण, तन्मयीभवन आदि कुछ ऐसे विषय हैं जिनमें अभिनवगुप्त का विशिष्ट योगदान माना जाता है।
हम चाहे किसी रूप में अथवा किसी भी विधि से अभिनवगुप्त को दार्शनिक, सौन्दर्य मीमांसक, कला-समीक्षक, तंत्र-साधक, योगी, टीकाकार आदि जानें। उनके ये सभी पक्ष एक सामान्य लक्ष्य से विश्लेषित हैं। आचार्य अभिनवगुप्त के दर्शन, अध्यात्म एवं साधना के विविध आयामों से परिचित होने का यह एक शुभ अवसर है। दर्शन, अध्यात्म और साधना के संविमर्श में अधोलिखित विषय बिंदुओं पर चर्चा हुई-
उप विषय:शैव, शाक्त, वैष्णव धर्म दर्शन एवं आचार्य अभिनवगुप्त, वाक् तत्व साधना एवं दर्शन, अभिनवगुप्त एवं त्रिक दर्शन, साधना परम्परा, तथा निगमागम परंपरा और अभिनवगुप्त
संचार के परिप्रेक्ष्य में आचार्य अभिनवगुप्त
आचार्य अभिनवगुप्त का संपूर्ण जीवन, ज्ञानार्जन की साधना के साथ संचारीय प्रक्रियाओं-विधाओं को समर्पित रहा। उनका व्यक्तित्व ज्ञान की विविध धाराओं के सकारात्मक सत्व को खींचने तथा उनका सकारात्मक संश्लेषण करने के सामर्थ्य से युक्त था। उन्होंने अपने भाष्यों के जरिए सनातन ज्ञान को सामयिक रूप दिया। सूत्र रूप में दी गई सूचनाओं का वृहद विश्लेषण कर ज्ञानधारा को प्रवाहित किए रखा। वह एक मात्र चिंतक माने जा सकते हैं जिन्होंने वाक् और रस, दोनों संकल्पनाओं के बारे में समान सिद्धता के साथ प्रकाश डाला है। आज के एकांगी सूचना प्रवाह को आचार्य अभिनवगुप्त की दृष्टि मिल जाए तो एक संपूर्ण और सकारात्मक सूचना प्रवाह अस्तित्व में आ सकता है। संचार की भारतीय संकल्पना समग्रता और सकारात्मकता पर आधारित है। आचार्य अभिनवगुप्त के माध्यम से शब्दों को ब्रह्म मानने, उनके शिष्ट, सम्यक, मृदु उपयोग की भारतीय परंपरा को फिर से जीवंत किया जा सकता है।
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